Saturday, August 28, 2010

कला परम्परा का आधुनिक व्याकरण

भारतीय कला मुख्यतः धर्म एवं आध्यात्मिक चिन्तन को समर्पित रही है। जैन धर्म की हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियां को ही लें। हाथ से सुन्दर लिखाई और उनके साथ भावपूर्ण चित्रों का वहां सांगोपांग मेल है। आज के इस दौर में भी कला की उस भारतीय परम्परा का सतत निर्वहन इधर डॉ. मंजू नाहटा के कलाकर्म में देखकर सुखद अचरज हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ सृजित खंडकाव्य ऋषभायण के साथ ही जैन धर्म के अनेकांत दर्शन के जो चित्र उन्होंने उकेरे हैं, उनमें भारतीय चित्रकला के सुनहरे अतीत की अनुगूंज तो है ही आधुनिक कला के बिम्ब और प्रतीकों के जरिए कला का जैसे नया व्याकरण भी रचा गया है।

पिछले दिनों जब वह जयपुर आयीं तो जैन धर्म और भारतीय चित्रकला पर उनसे विषद् चर्चा हुई। कहने लगी, ‘यह जैन धर्म ही है जिसमें हस्तलिखित पाण्डुलिपियों पर सूक्ष्म लिखाई और चित्रांकन की परम्परा आधुनिक दौर में भी जीवन्त है।’ वह जब यह कहती है तो अनायास ध्यान उनके बनाये अनेकांत दर्शन और विभिन्न जैन कथाओं से प्रेरणा ले बनाए उन चित्रों पर जा रहा है। समतल रंगाकन, आकारों के सरलीकरण में मंजू ने जैन दर्शन में जो अर्न्तनिहित है उसे मूर्त-अमूर्त में बेहद सजिदंगी से उकेरते बारीक रेखाओं में रंगो का भी अभूतपूर्व संयोजन किया है। ऑयल या एक्रेलिक रंगो की बजाय प्राकृतिक रंगों का उनका प्रयोग करते। मसलन काला रंग यदि बनाना है तो उसके लिए बड़े दीपक की लौ में धूंआ उपाड़कर कार्बन को एकत्र कर उसका प्रयोग किया गया है। सफेद रंग के लिए काठ खड़ी, फूल खड़ी आदि का उपयोग हुआ है तो नील के वृक्ष से नील, पलाश के फूलों से गहरा लाल व पीला रंग घोटकर तैयार करने के साथ ही सोने और चांदी के रंगों का प्रयोग भी बहुतायत से किया गया है।

आचार्य तुलसी के जीवन पर इधर डॉ. मंजू ने 54 फीट लम्बी और 4 फीट चौड़ाई की म्यूरल पेंटिंग बनायी है। रंग और रेखाओ में उनके जीवन के विभिन्न पड़ावों के जो बिम्ब और प्रतीक इसमें उन्होंने दिए हैं, अनायास ही वे ध्यान खींचते हैं। मसलन उनके परिनिर्वाण को उन्होंने उड़ते हुए एक पक्षी के रूप में उकेरा है। मुझे उसे देखते जेहन में कबीर का ‘उड़ जायगा हंस अकेला...’ भजन स्मरण हो आता है। कुमार गंधर्व के गाए उस भजन की जीवंतता डॉ. मंजू नाहटा के चित्रांकन में भी मैं गहरे से अनुभूत करते कला की उनकी इस दीठ में जैसे खो सा जाता हूं।

बहरहाल, निंरंतर अभ्यास और लयबद्धता के साथ रंगों और रेखाओं को अपने तई साधते मंजू के चित्र भले जैन धर्म और दर्शन पर ही केन्द्रित हैं परन्तु उनमें समय की संवेदनाओ ंऔर कला की परम्पराओ को गहरे से जिया गया है। मुझे लगता है, अतीत को वर्तमान से जोड़ते डॉ. मंजू अपने चित्रों में जैन दर्शन के जरिए जीवन के रहस्यों और सच्चाई को ही तो तुलिका स्वर देती है। सच भी है। जीवन से पृथक होकर क्या कोई कला जीवित रह सकती है!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 27-8-2010

Friday, August 20, 2010

चाक्षुष बिम्बों में भावों का सम्प्रेषण

कलाओं में परस्पर द्वैत नहीं अंर्तसम्बन्ध होते हैं। एक कलाकार जब सर्जन करता है तो रचना में निहित उसकी अनुभूति और संवेदना ही उसे उदात्त बनाती है, कईं मायनों में सर्वग्राही भी। फोटोग्राफी को ही लें। चित्रकला की भांति इसमें जो दिख रहा है, वही यदि उभरकर सामने आता है तो उसका कोई कला अर्थ नहीं है परन्तु भावग्राही दीठ वहां है तो वही उसका कला आधार बन जाता है।

बहरहाल, छायाकारी ही नहीं बल्कि किसी भी कला के रूप मंे परिवर्तन होते रहना उस कला को सचेत व प्रभावी रखने के लिए आवश्यक है। पहले पहल जब कैमरा अस्तित्व में आया तब उसका प्रमुख ध्येय जो कुछ दिख रहा है, उसे हूबहू प्रस्तुत करना ही रहा होगा परन्तु जैसे-जैसे उसका विस्तार हुआ, कला माध्यम के रूप में भी उसने अपनी पहचान बनायी। भले ललित कला अकादमी फोटोग्राफी को अभी भी कला नहीं मानें परन्तु माध्यम के रूप में फोटोग्राफी को कोरी यांत्रिक प्रक्रिया भर नहीं कहा जा सकता। रघुराय, ज्योति भट्ट, अकबर पदमसी के छायाचित्रों को ही लेें। क्या वहां कला नहीं है? कैमरा जब यथार्थ में अन्र्तनिहित संवेदनाओं का सृजन करता है तो उस क्रिया में साधारण चीजें कला रूपान्तरण के रूप में ही हमारे सामने आती है। तब तस्वीरों में उभरने वाले अजीबोगरीब दृश्य हमारे अवचेतन मन को छूने लगते हैं। विश्व फोटोग्राफी दिवस पर छायाकार महेश स्वामी की छाया-कला प्रदर्शनी ‘यात्रा’ से रू-ब-रू होते भी लगा उसकी खींची तस्वीरें यथार्थ का अंकन भर नहीं है। वहां दृश्य में निहित संवेदनाओं, भावनाओं और उस सौन्र्दबोध को भी छुआ गया है जो हमारे अन्तर्मन को झकझोरते कुछ सोचने को विवश करता है। मसलन स्कल्पचर को कैमरे से पकड़ते उसने उसके आकाश, बुलन्द इमारत को भी इस खूबसूरती से प्रस्तुत किया है कि वह यथार्थ में जो दिख रहा है, उससे परे अमूर्त संवेदना का चाक्षुष बिम्ब बन गया है। इसी तरह समारोहों की हलचल में कदमताल को आउट आॅफ फोकस करते जो दृश्य संयोजन किए गए हैं, उनमें एक नये तरह का भावबोध संप्रेषित होता है। यही नहीं ऐतिहासिक इमारत के पानी में पड़ते अक्स, वास्तु धरोहर में परिन्दों के बास, प्रकृति दृश्यावलियों में अन्र्तनिहित सौन्दर्य के बिम्ब कला का सर्वथा नया मुहावरा ही रचते हैं।

मुझे लगता है, संवेदनाओं के चाक्षुष बिम्ब उकेरने वाला छायाचित्रकार भी सर्जक, चित्रकल्पी ही होता है। भावग्राही दृष्टि के अंतर्गत फोटोग्राफी और चित्रकला में परस्परावलम्बता है। दोनों में ही जब सर्जक यथार्थ को एक निजी अनुभव की तरह समझता है तो जीवन के नये तथा अद्वितीय बिम्ब हमारे सामने उभरकर सामने आते हैं और ऐसे बिम्बों के जरिए ही अनंत के बारे में एक जागरूकता विकसित होती है।...तो अब भी क्या फोटोग्राफी को हम कला नहीं कहेंगे!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 20-8-2010

Saturday, August 14, 2010

पौराणिक, ऐतिहासिक चित्रों के रूपक

सर्जनशील कला परम्परा से पोषित होने के बावजूद कलाकार की स्वतंत्र आंतरिक प्रेरणा से ही जन्म लेती है। तैलरंगीय चित्रों को ही लें। कला की यह शैली विदेश से भारत आयी है परन्तु कला की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य और सर्जनात्मक ऊंचाईयां इस कला को भारतीय कलाकारों ने अपनी स्वतंत्र आंतरिक प्रेरणा से ही प्रदान की।

राजा रवि वर्मा, बीपी बनर्जी, एम.ए. घोष, माधव विश्वनाथ, जामिनी प्रकाश आदि चित्रकारों की जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में लगी ‘टिन्ट टू दी मास’ प्रदर्शनी का आस्वाद करते लगा भारतीय कला ने सर्वव्यापी व शाश्वत तत्वों को अपने सम्मुख आदर्श के रूप में रखा है। वहां कलाकार कला के बाह्य रूप तक ही सीमित नहीं रहे हैं बल्कि यथार्थ, आख्यान के भीतर निहित संवेदना, उसके उत्स और भावनाओं पर अधिक गए हैं। यही कारण है कि दर्शकीय दीठ में चित्रकार दार्शनिक और कवि रूप में भी प्रायः मिलता है। क्रोमोलिथोग्राफ्स और ओलियोग्राफ्स तकनीक से मुद्रित शिव-पंचायत, राधा-कृष्ण, नृसिंह भगवान, विष्णु, सिद्वी विनायक और ऐसे ही पौराणिक आख्यान के दूसरे चित्रो की भाव-भंगिमाएं रूपकों की निर्मिती करती हैं। ऐतिहासिक चरित्रों के भी जो चित्र तब कलाकारों ने बनाए वे व्यक्ति चित्र नहीं होकर किसी आख्यान को नाटकीय रूप में उजागर करते हैं। तत्कालीन लोक जीवन की अनुगूंज भी इन चित्रो में विशेष रूप से दिखायी देती है। रामदरबार के एक प्रिंट में यहां राम मूंछो सहित है। लोकाख्यान की यह कला परिणति बहुत से स्तरों पर दूसरे ओलियोग्राफ्स में भी दिखायी देती है। लगभग सभी चित्रों में रेखाओं की रंगसंगति चमकीली व आकर्षक है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि पश्चिम से प्रेरणा के बाद भी कला की इस शैली में भारतीय परम्परा कहीं विलुप्त नहीं हुई है।

बहरहाल, ओलियोग्राफ यानी तैलरंगीय छाप चित्रों के अंतर्गत पहले पहल फ्लेमिश कलाकार यान वान आइक ने चमकीलापन डाला। उनके इस प्रयोग को बाद में इटली के चित्रकार आंतोनेलो द मेस्सिना ने भी अपनाया और बाद में तो निम्न परत, मोटी परत, सूक्ष्म छटांकन आदि तरीको ंको अपनाते हुए तैल चित्रण पद्धति पूर्णतः विकसित होती चली गयी। थिओडोर जेन्सन नाम के इंगलिश चित्रकार से तैलरंगचित्रण पद्धति की शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजा रवि वर्मा ने भारतीय जीवन, व्यक्ति व पौराणिक विषयों को सांगोपांग ढंग से उकेरा। तैलरंगीय चित्रों को भारत मंे शास्त्रीयता प्रदान करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने ही कला की इस तकनीक को बहुसर्जक और एक प्रकार से मनोहारी भी बनाया। उनके बाद ऐसे चित्रों की एक प्रकार से हमारे यहां परम्परा सी ही बन गयी और घरों में आज भी दीवारों पर ऐसे बनाए चित्रों की प्रतिकृतियां के कैलेण्डर टंगे हम देख सकते हैं।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 13-08-10

Friday, August 6, 2010

अनुकृति नहीं, कला सृष्टि

कला अरूप से रूप का सृजन करती है। मानवीय क्रियाओं एवं विचारों का पोषण,  संवर्धन कला ही करती है।    जब से विज्ञान ने कलाओं के दरवाजे पर दस्तक दी है, वे नित नए रूपों में और अधिक लुभाती मन को भाने लगी है। एनिमेशन फिल्मों को ही लें।   परिकल्पनाओं को यथार्थ धरातल पर उतारती कार्टून चरित्रों की यह कला आज विश्वभर में सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है।

अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र की एक कला दीर्धा में बाकायदा एनिमेशन चरित्रों की कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी। बच्चा बनता मन इसे देख जैसे इसी में खो सा गया था और तभी याद आने लगी थी ढ़ेरो एनिमेशन फिल्में। गोल-गोल, लव-कुश, रोड साईड रोमियो, अलादिन, विक्रम-बेताल, जंबो, दशावतार, कृष्णा, बाल गणेश, हनुमान, हनुमान रिटर्न आदि एनिमेशन फिल्में बनी जरूर बच्चों के लिए है परन्तु इन्हें देखने का लोभ बच्चों के साथ मैंने भी कभी छोड़ा नहीं। इन्हें देखते लगा, यह इनमें निहित कला ही है जो प्रबल मनोवेगों का सहज भावाद्रेक कराती है।  

‘एनीमेट’ का अर्थ है अनुप्राणित करना और इसी से बना है-एनिमेशन। कार्टून कैरीकेचर के रूप में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक किरदारों को आधुनिक रंग में रंगे देखते लगता है एनिमेशन के जरिए हमारे जेहन में बसे चरित्रों का कार्टून बनाने वालों और फिर कम्प्यूटर के जरिए उन्हें सिनेमा के पर्दे पर जीवंत करने वाले तकनीकी कलाकारों ने पुनराविष्कार कर दिया है। बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय एनिमेशन चरित्र मिकी माउस का ही है। इतना कि जब कभी यह स्क्रिन पर आता है, दर्शक उसमें डूब-डूब जाते हैं। वाल्ट डिज्नी ने चार्ली चैपलिन की प्रेरणा से यह नायाब कार्टून करेक्टर गढ़ा था। डिज्नी ने अपने सहयोगी एनिमेटर अब आइवक्र्स के साथ मिलकर जब इस चरित्र को गढ़ा था तब इसका नाम था-मोर्टिमर। मजे की बात यह है कि यह नाम डिज्नी की पत्नी लिलियन को बिल्कुल भी नहीं सुहाया। लिहाजा इस कार्टून करेक्टर का नाम हुआ-मिकी। हम सभी जानते हैं यह अब हमारे बीच कितना लोकप्रिय है।

बहरहाल, भावों का संशोधन, चिन्तन की गहनता और कल्पनाशीलता के साथ एनिमेशन कला आज विश्वभर में छा गयी है। यह जब लिख रहा हूं, लियोनार्डो दा विंची बहुत याद आ रहे हैं। कभी उन्होंने ही कहा था, ‘कलाकार अनुकृति नहीं वरन सृष्टि करता है।’ मिथकों, पौराणिक, ऐतिहासिक चरित्रों के साथ ही बहुत सी दूसरी परिकल्पनाओं को इधर आधुनिक यथार्थ के ताने-बाने में बुनती एनिमेशन फिल्में क्या इस दीठ से कला की पुनः सृष्टि ही नहीं है!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 6-8-2010