भारतीय कला मुख्यतः धर्म एवं आध्यात्मिक चिन्तन को समर्पित रही है। जैन धर्म की हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियां को ही लें। हाथ से सुन्दर लिखाई और उनके साथ भावपूर्ण चित्रों का वहां सांगोपांग मेल है। आज के इस दौर में भी कला की उस भारतीय परम्परा का सतत निर्वहन इधर डॉ. मंजू नाहटा के कलाकर्म में देखकर सुखद अचरज हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ सृजित खंडकाव्य ऋषभायण के साथ ही जैन धर्म के अनेकांत दर्शन के जो चित्र उन्होंने उकेरे हैं, उनमें भारतीय चित्रकला के सुनहरे अतीत की अनुगूंज तो है ही आधुनिक कला के बिम्ब और प्रतीकों के जरिए कला का जैसे नया व्याकरण भी रचा गया है।
पिछले दिनों जब वह जयपुर आयीं तो जैन धर्म और भारतीय चित्रकला पर उनसे विषद् चर्चा हुई। कहने लगी, ‘यह जैन धर्म ही है जिसमें हस्तलिखित पाण्डुलिपियों पर सूक्ष्म लिखाई और चित्रांकन की परम्परा आधुनिक दौर में भी जीवन्त है।’ वह जब यह कहती है तो अनायास ध्यान उनके बनाये अनेकांत दर्शन और विभिन्न जैन कथाओं से प्रेरणा ले बनाए उन चित्रों पर जा रहा है। समतल रंगाकन, आकारों के सरलीकरण में मंजू ने जैन दर्शन में जो अर्न्तनिहित है उसे मूर्त-अमूर्त में बेहद सजिदंगी से उकेरते बारीक रेखाओं में रंगो का भी अभूतपूर्व संयोजन किया है। ऑयल या एक्रेलिक रंगो की बजाय प्राकृतिक रंगों का उनका प्रयोग करते। मसलन काला रंग यदि बनाना है तो उसके लिए बड़े दीपक की लौ में धूंआ उपाड़कर कार्बन को एकत्र कर उसका प्रयोग किया गया है। सफेद रंग के लिए काठ खड़ी, फूल खड़ी आदि का उपयोग हुआ है तो नील के वृक्ष से नील, पलाश के फूलों से गहरा लाल व पीला रंग घोटकर तैयार करने के साथ ही सोने और चांदी के रंगों का प्रयोग भी बहुतायत से किया गया है।
आचार्य तुलसी के जीवन पर इधर डॉ. मंजू ने 54 फीट लम्बी और 4 फीट चौड़ाई की म्यूरल पेंटिंग बनायी है। रंग और रेखाओ में उनके जीवन के विभिन्न पड़ावों के जो बिम्ब और प्रतीक इसमें उन्होंने दिए हैं, अनायास ही वे ध्यान खींचते हैं। मसलन उनके परिनिर्वाण को उन्होंने उड़ते हुए एक पक्षी के रूप में उकेरा है। मुझे उसे देखते जेहन में कबीर का ‘उड़ जायगा हंस अकेला...’ भजन स्मरण हो आता है। कुमार गंधर्व के गाए उस भजन की जीवंतता डॉ. मंजू नाहटा के चित्रांकन में भी मैं गहरे से अनुभूत करते कला की उनकी इस दीठ में जैसे खो सा जाता हूं।
बहरहाल, निंरंतर अभ्यास और लयबद्धता के साथ रंगों और रेखाओं को अपने तई साधते मंजू के चित्र भले जैन धर्म और दर्शन पर ही केन्द्रित हैं परन्तु उनमें समय की संवेदनाओ ंऔर कला की परम्पराओ को गहरे से जिया गया है। मुझे लगता है, अतीत को वर्तमान से जोड़ते डॉ. मंजू अपने चित्रों में जैन दर्शन के जरिए जीवन के रहस्यों और सच्चाई को ही तो तुलिका स्वर देती है। सच भी है। जीवन से पृथक होकर क्या कोई कला जीवित रह सकती है!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 27-8-2010