Friday, October 29, 2010

कला, कला का भविष्य और हिंदी


दिल्ली से ललित कला अकादेमी की ओर से ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर चंडीगढ में आयोजित राष्‍ट्रीय कला सप्‍ताह में भाग लेने और संवाद करने का जब संदेश मिला तो संशय में था। संशय इस बात को लेकर था कि संवाद हिन्दी में करना है या अंग्रेजी में। चंडीगढ़ ललित कला अकादेमी की मेजबानी में आयोजित समारोह के निमंत्रण पत्र से लेकर तमाम संवाद, औपचारिकताएं अंग्रेजी में ही हो रही थी। यूं भी केन्द्रित विषय में हिन्दी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। सो मेरा संशय भी वाजिब ही कहूंगा। पहुंचने पर चंडीगढ़ ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और देश के जाने माने छायाकार दिवान मन्ना ने गर्मजोशी से अंग्रेजी में ही स्वागत किया। होटल में कुछ और भी प्रतिभागी थे, सबके सब अंग्रेजीदां। हिन्दी वहां भी कहीं नजर नही आ रही थी।

दूसरे दिन राहुल भट्टाचार्य ने अंग्रेजी में संयोजन की अपनी शुरूआत में ही जता दिया कि हिन्दी का वहां कोई स्थान नहीं है। विभा ने भी उनकी इस मंशा पर पूरी तरह से मोहर लगायी। अब बारी मेरी थी। मेरी सहजता हिन्दी है सो हिन्दी में बोला। हां, अवधेश ने आरंभ में हिन्‍दी में कुछ बोला तो उनकी बात की काट अंग्रेजीं में कुछ इस तरह से की गयी कि बाद मे उन्‍होंने बोलना ही नहीं चाहा। ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर हिन्दी में दिए तर्क और कला संवेदना की व्याख्या को समझते हुए भी मंच अंत तक अंग्रेजी पर ही अडा रहा, मैं हिन्‍दी पर। अजीब स्थिति थी। यह बात अलग थी कि आयोजन से पहले जो लोग अंग्रेजी में बोल रहे थे, उन सबसे हिन्‍दी में बाहर खुब बतियाने का अवसर रहा।

‘न्यू मीडिया आर्ट’ में अंग्रेजी बाजार की जरूरत हो सकती है परन्तु हिन्दी का वहां क्या कोई स्थान नहीं है? हर युग में कला में नवीनतम तकनीक अपनायी जाती रही है। संवेदनशीलता के साथ हमारी जो परम्पराएं है उनके साथ हमारे वर्तमान को जोड़ते हुए अपनी एक दीठ के जरिए सांस्कृतिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में यदि कलाकार कुछ नया सृजित करता है और उसमें उसे लगता है कि नयी तकनीक उसका अधिक सहयोग करती है, तो निश्चित ही कला को नया क्षितिज मिलता है परन्तु उसमें अपनी भाषा के संस्कार ही यदि छोड़ दिए जांएंगे तो क्या वह कला जनोन्मुख हो पाएंगी?

भारत में अभी भी कला जनरूचि का विषय शायद इसीलिए नहीं हो पायी है कि यहां पर अव्‍वल तो कला के सार्वजनिक आयोजन ही नहीं होते और जो होते हैं, उनमें हिन्‍दी कहीं नही होती जबकि इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आज भी आम जन की भाषा हिन्‍दी ही है। हिन्दी में कला आलोचना के नहीं होने का जो रोना रोया जाता है, उसका एक बड़ा कारण क्या यही नहीं है कि हमारे यहां कला में जो कुछ नवीन होता है, उसमें हिन्दी का कहीं कोई स्थान ही नहीं होता। जो कुछ छपता है, अंग्रेजी में। जो कुछ प्रस्तुत किया जाता है अंग्रेजी में। हिन्दी की शायद वहां जरूरत ही नहीं महसूस की जाती। हिन्दी को फिर क्यों दोष दिया जाए। क्यों हिन्दी में फिर ऐसी कला को देखा और परखा जाए। कला में तकनीक और माध्यम के साथ ही उसे आम जन में संप्रेषित किए जाने की सोच नहीं है तो चाहे जितनी चौंकाने वाली, अतिशय उत्तेजना प्रदान करने वाली, जिज्ञासा में लुभाने वाली कला हो, वह अपने दीर्घकालीन भविष्य का निर्माण क्या कर सकती है? चंडीगढ़ से लौटे एक माह के करीब हो रहा है, परन्तु जेहन में अभी भी यही प्रश्न मंडरा रहे हैं।
"डेली न्यूज़" में  प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 29-10-2010

Friday, October 22, 2010

नमन महाकुम्भ! तुम्हारे ये दृश्यालेख...

कलात्मक खोज हमेशा जीवन को नया तथा अद्वितीय बिम्ब देती है। यह कलाएं ही तो है जो जीवन की अनंतता के बारे में हमें चिरन्तन ललक देती है। छायाचित्रों को ही लें। वहां पर सामान्यतः यथार्थ का ही दर्शाव होता है परन्तु इससे परे जब छायाकार अपनी अर्न्तदृष्टि में दृश्यों में निहित संवेदनाओं को परोटने लगता है तो वह चाक्षुष में दृश्य के सत्य को प्रकाशित करने लगता है। दरअसल सृजन की आंतरिक गत्यात्मकता में चित्रकला की बजाय छायाचित्र गति और स्थिति को अधिक प्रभावी ढंग से पुनःप्रेक्षित करते हैं। सृजन की आंतरिक गत्यात्मकता में तकनीक वहां कला में गजब का संतुलन जो स्थापित करती है। हस्तनिर्मित चित्रों में शायद यह संभव नहीं।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में कुछ समय पूर्व अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू की छायाकृतियों से रू-ब-रू हुआ था। एक नजर में महाकुम्भ के दृष्यों के लोक ने खास आकृश्ट नहीं किया परन्तु जैसे-जैसे छायाचित्रों की गत्यात्मकता पर गया, लगा उन चित्रो में बहुत कुछ कुछ विषिश्ट है। अजय-एंड्रयू हरिद्वार के महाकुम्भ को कैमरे के अपने लैंस से खंगालते बहुत से स्तरों पर कला की गहराईयों में गए हैं। मसलन मोक्ष के लिए स्नान के अंतर्गत उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंचे एक व्यक्ति चित्र में विषय की बारीकी ही नहीं है बल्कि उसके महत्व की भी जैसे स्थापना की गयी है। ऐसे ही महाकुम्भ में एक स्थान पर साधु के हुक्के में उठती चिंगारी में दृश्य के साथ समय के अवकाश को पकड़कर उसे जैसे स्थिर कर दिया गया है। पूर्णाहुति में राख मले साधु हों या फिर शाही स्नान की ओर बढ़ते नागा साधुओं के कदम या फिर हुजूम में अकेलेपन को बंया करते नागा साधुओं के व्यक्ति चित्र-प्रदर्शित छायाकृतियां स्वयंस्फूर्त दृश्य संवाद कराती है। महाकुम्भ के बहाने साधुओं की फक्कड़ता, उनके राजसी ठाठ, मोक्ष के लिए उनकी भटकन के साथ ही कहीं-कहीं भौतिकता से विलग होते भी उसमें रमती उनकी मुखाकृतियां के छाया दृश्यों की यथार्थपरकता को एक प्रकार से छायाकारों ने चाक्षुष कला दृश्यों में रूपान्तरित किया है। ऐसा करते एकाधिक नागा साधुओं की मुखाकृतियों में एक खास एकांतिका भी अनायास ही उजागर हुई है।

बहरहाल, मुझे लगता है श्रद्धा की मूल भावना को महाकुम्भ श्रृंखला के छायाचित्र एक मधुर स्मृति में तब्दील करते महाकुम्भ के विराट रूपाकारों को साकार करते हैं। महाकुम्भ में नागा साधुओं, वहां आए श्रद्धालुओं की भावाविष्ट मुख-मुद्राओं, दृश्यों की लम्बी श्रृंखला की अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू की रचनात्मक छायाकृतियों का यह वृहत दस्तावेज छायाकला का उनका नया आयाम है।

जे.स्वामीनाथन् का कहा याद आ रहा है, ‘एक कलाकार का काम केवल कला-रचना या उसका सृजन मात्र नही है, बल्कि जन अभिरूचियों में कला के प्रति आकर्शण पैदा करना और प्रबुद्ध कला-दर्षकों को तैयार करना भी है।’ मुझे लगता है, छायाचित्र में छायाकार जो कुछ देखता है, उसका कैमरे की अपनी आंख से एक प्रकार से पुनराविश्कार करता है। ऐसा करते वह देखने की एक कला दृश्टि और षैली भी अपने तई विकसित करता है, वही उसका छायाकला का अपना मुहावरा होता है। छायाचित्र मंे यदि यथार्थ को हूबहू वैसे ही दिखा दिया जाता है, तो उसमें सब कुछ तकनीक का ही खेल होता है परन्तु जो दिख रहा है उसमें निहित संवेदना, उससे जुड़ा कला सौन्दर्य यदि छायाकार पकड़ लेता है तो वह एक प्रकार से सृजन ही कर रहा होता है। ऐसा करते वह जन अभिरूचियों में कला के प्रति आकर्शण पैदा करने का कार्य भी अनायास ही कर रहा होता है। अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू के छायाचित्र कला की दीठ से जनहितेशणा युक्त रचनाधर्मिता के सषक्त संवाहक हैं। हमारी समृद्ध परम्पराओं की छायाकला का उनका यह सृजन सतर्क कल्पनाषीलता के साथ बदलते दौर में महाकुम्भ के संदर्भ में सर्वथा नवीन वैचारिक स्थापनाएं भी कराता है। कलादीर्घा में उनके छायाचित्रों के भव में विचरते औचक मन कह उठा, नमन महाकुम्भ! तुम्हारे ये दृश्यालेख...

Friday, October 8, 2010

कला का समय, संवेदना और रचनात्मक मूल्य

अपने युग से कला जब संवाद करती है तो निष्चित ही उससे जुड़ी घटनाओं, परिघटनाओं को अपने में समाहित करके चलती है। कम्प्यूटर के इस दौर में जब विज्ञान और तकनीक कला पर निरन्तर हावी होती जा रही है, यह सोचने की बात है कि तकनीक क्या कला हो सकती है? वह कलात्मक तो हो सकती है परन्तु उसे कला कैसे कहा जाए!

दरअसल तकनीक बाजार की जरूरत है। वह यदि रचनात्मकता पर हमला करती है तो फिर उससे कला जगत को सतर्क होने की आवष्यकता है। ‘फ्रीडम ऑफ क्रिएटीविटी’ के तहत कला में इधर तकनीक के जरिए बहुत से स्तरों पर बेहतरीन कार्य भी हुआ है परन्तु उसकी अपील सार्वकालिक, सार्वदेशीय है भी अथवा नहीं, इस पर विचार किए जाने की जरूरत है। तकनीक के साथ इधर इंगलैण्ड, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में कलाकार अपने शरीर तक का इस्तेमाल तथाकथित अपनी कला में करने लगे हैं। कुछ समय पहले कोडिस गैलरी ने नया काम करने वाले विभिन्न कलाकारों को बुलाया था। मकसद था कला में नवीन करने वालों की कला का प्रदर्षन। इसमें इन्स्टॉलेषन के लिए अमेरिकी कलाकार गुइलर्मो वर्गाज जिमनेज हेबाकक ने एक कुत्ते को तब तक बांधे रखा जब तक कि वह भूख से बिलबिला कर मर नहीं गया। इस तथाकथित कला को इन्स्टालेषन कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना घोषित किया गया। सोचने की बात यह है कि कला के नाम पर इस तरह का प्रयोग हमारी संवेदना को कहां पहुंचा जा सकता है। आज कूत्ते का प्रयोग क्या कल मनुष्य में परिणत नहीं होगा?

कलाकार अन्तर्मन में बनने वाली छवियों, और स्थान विशेष के साथ जुड़ी यादों के बिम्बों को सहज और आत्मीय संस्थापनों के जरिए ही कला में अभिव्यक्त करता है। इस अभिव्यक्ति में आभासी (वर्चुअल) और वास्तविक के बीच के द्धन्द को तकनीक बेहतरी से अभिव्यक्त कर सकती है परन्तु इमेजोलॉजी के अंतर्गत यदि बगैर किसी रचनात्मक सोच के साथ कुछ किया जाता है तो वह तकनीक का प्रदर्षन भर होगा। तकनीक अन्तर्मन अनुभवों और संवेदनशीलता को उजागर करने का साधन तो हो सकती है परन्तु कला का साध्य नहीं। कला व्यक्ति की संवेदनाओं को चक्षु देती है। यह कला ही है जिसमें विचार और प्रतिक्रियाएं गहन आत्मान्वेषण से मुखरित होती है। ऐसा जब होता है तो कलाकार इस बात की परवाह नहीं करता कि उसके किए सृजन का क्या महत्व होगा। उसका बाजार में क्या मूल्य होगा। कला रचनात्मकता का अनुभव है। इस अनुभव में जीवन की लय संवेदना से जुड़ी हो न कि चौंकाने या चमत्कृत करने के लिए। आप क्या कहेंगे?

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 8-10-2010

Friday, October 1, 2010

अनुभव, चिंतन और तकनीक का नया आकाश

कला का इधर जो नया रूप सामने आ रहा है वह अतिशय उत्तेजक, बहुआयामी प्रक्रिया लिए हुए कलाकारो ंके अनुभव और चिन्तन को नया रूप दे रहा है। यह न्यू मीडिया आर्ट है। इसमें डिजिटल इमेेजेज हैं, विडियो है, साउंड है और बहुत सा आभासी यानी वर्चुअल भी है। सारनाथ बैनर्जी, सोनल जैन, अतुल डोडिया, विभा गेहरोत्रा, रनबीर, किरण सुबैया, साईना आनंद जैसे कलाकार इस दिशा में बहुत अच्छा कर रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो तकनीक के जरिए कलाकार का दर्जा पाने में लगे हैं।

ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष और ख्यात कवि, आलोचक अशोक वाजपेयी की पहल पर पिछले दिनों चंडीगढ़ में ‘नेशनल आर्ट वीक आॅफ न्यू मीडिया’ मंे भाग लेते लगा जैसे कला की नयी दुनिया मंे प्रवेश कर गया हूं। इसमें रचनात्मकता तो है परन्तु तकनीक हर ओर, हर छोर जैसे हावी है। अंतिम दिन विमर्श में न्यू मीडिया आर्ट की चर्चित कलाकार विभा गेहरोत्रा, समकालीन कला के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर, कला दीर्घा के सम्पादक डॉ. अवधेश मिश्र, अंग्रेजी कला पत्रिका ‘आर्ट एंड डील’ के सम्पादक राहुल भट्टाचार्य के साथ इस कला के विभिन्न पक्षों पर विषद् विमर्श हुआ। राहुल और विभा ने न्यू मीडिया आॅफ आर्ट की समकालीनता पर अपनी दृष्टि दी तो खाकसार ने स्पष्ट किया कि कला के साथ तकनीक और विज्ञान का मेल तो हो सकता है परन्तु इस मेल में ही यदि कोई कला की आधुनिकता की तलाश करता है तो यह सही नहीं है। इसलिए कि कला वस्तु मात्र नहीं है और ऐसा जब नहीं है तो उसकी व्याख्या भी वस्तु की तरह नहीं की जा सकती। विज्ञान और तकनीक कला को एक आधार दे सकती है बशर्ते कि उसमें रचनात्मक सौन्दर्य की मानवीय दृष्टि निहित हो। अवधेश ने कला में आधुनिकता के नाम पर भयावह प्रयोगों की सिहरन का अहसास कराते कहा कि यही न्यू मीडिया कला है तो उसकी फिर कोई सार्थकता नहीं है।

ललित कला अकादेमी की यह सर्वथा नयी पहल थी। चंडीगढ़ ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और जाने-माने छायाकार दिवान मना के प्रयासों से ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर भारत में संभवतः पहली बार इस प्रकार का राष्ट्रीय आयोजन हो सका। आम तौर पर कला संबंधी इस प्रकार के आयोजनों में दर्शकों, श्रोताओं की अधिक रूचि नहीं होती परन्तु चंडीगढ़ में समयबद्ध सारे कार्यक्रमों में प्रेक्षागृह खचाखच भरा रहा। विमर्श से एक दिन पहले अल्का पांडे ने न्यू मीडिया आर्ट से संबंधित कलाकारों के साथ ही इस कला के भविष्य पर स्लाईड शो के जरिए कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला। भारत में तेजी से न्यू मीडिया आर्ट के तहत हो रहे कार्य की चर्चा के साथ ही अल्का की साफगोई भी भाई। उन्हांेने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि न्यू मीडिया से बहुत अधिक उनका नाता नहीं है, इसीलिए जब इस पर बोलने का निमंत्रण मिला तो सबसे पहले उनकी बेटी ने ही उन्हें टोका था परन्तु अपने क्यूरेटर अनुभवों के साथ ही अध्ययन के आधार पर उन्होंने जो बोला उससे न्यू मीडिया के संबंध में बहुत कुछ समझा जा सकता था। वैसे भी यह वैश्विकरण का दौर है, चीजें तेजी से बदली रही है। तकनीक भी हर रोज बदल जाती है, ऐसे में आर्ट में न्यू मीडिया का प्रयोग स्वाभाविक ही है। आष्ट्रीया मे इस संबंध में बेहद महत्वपूर्ण काम हो रहा है। आष्ट्रीय काउन्सिल के अनुसार न्यू मीडिया आर्ट वह है जिसमें कलाकार नवीन तकनीक का इस्तेमाल करते हुए इस प्रकार का कार्य सृजित करता है जिससे उसकी कला का नया कलात्मक संप्रेषण हो। इस नवीन तकनीक में कलाकार की ब्रश और कूची कम्प्यूटर, सूचना प्रौद्योगिकी, इन्स्टालेशन और ध्वनि की अधुनातन तकनीक है। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी जोड़ा जा सकता है कि कला सत्य या यथार्थ नहीं बल्कि उसकी खोज की एक प्रकार से प्रस्तावना है। इस प्रस्तावना में न्यू मीडिया आर्ट में भी संभावनाओं का अनंत आकाश है।

ललित कला अकादेमी ने इधर कला आयोजनों की जो स्वस्थ परम्परा विकसित की है, उसमें इस पहल का इसलिए भी स्वागत किया जाना चाहिए कि नई पीढ़ी सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की है। स्वाभविक ही है कि कला में भी आने वाले कल में अब उसकी कूची और ब्रश न्यू मीडिया ही होगा। लौटते वक्त दिल्ली में कला आलोचक विनयकुमार मिले तो कहने लगे, ‘न्यू मीडिया आर्ट पर जब देश में बड़े स्तर पर काम हो रहा है तो इस पर विमर्श की भी तो नई राहें खुलनी ही चाहिए, ललित कला अकादमी ने यही किया है।’

बहरहाल, तकनीक का उपयोग कलाकार अपनी अंतःदृष्टि के अंतर्गत रचनात्मक ऊर्जा को नया रूप देने के लिए करता है तब तो ठीक है परन्तु केवल प्रयोग के लिए, चमत्कृत करने के लिए ही ऐसे जतन होते हैं तो फिर उसमें कला की संभावनाओं को फिर तलाशा भी क्यंूकर जाए। तकनीक को भला कला का पर्याय कहा जा सकता है!