Friday, December 31, 2010

आईए, हम भी रचें नए वर्ष का उजास...

कल अज्ञेय को पढ़ रहा था। शब्दों में वह कला का अद्भुत लोक रचते हैं। आप-हम सबकी सुप्त अनुभूतियों और संवेदनाओं को स्वर देते हुए। भीतर की नींद से जगाते। थोड़े में बहुत कुछ कहते। काव्य कला के चर्म को उनके लिखे में अनुभूत किया जा सकता है, ‘उड़ गयी चिड़िया@कॉपी, फिर@थिर@हो गयी पत्ती।’ मुझे लगता है, यह अज्ञेय ही हैं जो शब्दों के भीतर के मौन को भी स्वर देते हैं। समय और उसकी चेतना से साक्षात् कराते वह जड़ की बात करते हैं। जड़ की बात कौनसी? जो आज है वह कल नहीं होगा। तब क्या यह जो आज है वह क्या हमारी परम्परा नहीं बन जाएगा! मन इस परम्परा में ही है। अज्ञेय की काव्य कला की परम्परा में, चित्रकारों की चित्रकृतियों की परम्परा में, नृत्य की, नाट्य की, संगीत की हमारी परम्परा में। हम जितना उन परम्पराओं में जाते हैं, उतना ही नवीन होते हैं। अंदर का हमारा जो रीता है, वह भरता है। यह परम्परा ही है जो अतीत को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य से जोड़ती है। सामाजिक जीवन को इसी से तो निरंतरता मिलती है।

यह वर्ष आज बीत रहा है। कल नया सूर्य उगेगा। कैलेण्डर बदल जाएगा। नया साल प्रारंभ हो जाएगा, कैलेण्डर बदलने की परम्परा को जीवित रखते हुए! एमिली डिकिन्सन की बेहद खूबसूरत सी एक कविता याद आ रही है, ‘दिस इज माई लेटर टू दी वल्र्ड..’। वह कहती हैं मैं कविता नहीं कर रही। यह तो बहुत जरूरी, निहायत जरूरी चिट्ठी है मेरी-दुनिया के नाम...जिसे लिखे बिना मैं रह नहीं सकती-भले दुनिया उसे समझे न समझे, भले दुनिया को उसे पढ़ने की फुरसत हो, न हो।’ एमिली कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह रही है। कह क्या रही है, हममें जैसे प्रवेश कर रही है। यही तो संप्रेषण की उसकी कला है। सच्ची कला कल्पना और अनुभूति का ही तो संयोजन है। एक तरह से कल्पना प्रवण भावुकता के दौर में आए एक संवेदनशील मस्तिष्क की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति। कवि, चित्रकार, अभिनेता, नर्तक जब कलाकर्म कर रहा होता है तो बहुत से स्तरों पर हमसे संवाद ही तो कर रहा होता है। आत्मीयता का अहसास कराते। हमें लगता है, वह जो संवाद कर रहा है, वही तो हमारा अपना सच है। हम भाव-विभोर हो उठते हैं। गलगलापन हो जाता है। लगता है, बस केवल और केवल हमारे लिए ही है शब्द, कलाकृति। यही तो है कला की हमारी परम्परा। जीवन की एक प्रकार से पुनर्रचना। हम अपने होने को सदा कलाओं में ही ढूंढते हैं। बार-बार यह याद करते,-ईश्वर की रची कला ही तो है यह सम्पूर्ण सृष्टि।

इस मूल्यमूढ़ समय में अनुभव संवेदन की हमारी क्षमता के अंतर्गत यह कलाएं ही हैं जो हमें बचाए हुए है। नए माध्यमों में हमारी अपनी पहचान और भीतर की खोज का उन्मेष जगाती समयातीत हैं हमारी तमाम कलाएं। उनकी परम्पराएं। यह कलाएं ही हैं जिनके सरोकार उत्तरोतर विराट् और व्यापक होने की सामथ्र्य रखते हैं। परम्परा के पोषण और परस्परता में वे निरंतर उगती रहती है सांमजस्य भाव पैदा करते। विग्रह के लिए वहां कोई अवकाश नहीं है। आत्म को व्यक्त करने का माध्यम हैं कलाएं।

आईए, बीते वक्त की तमाम कड़वाहटों को भुलाते, अच्छाईयों को याद करते साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्र कृतियों की कलाओं मे रमें। उन्हें अपने भीतर की सर्जना से रचें। हर दिन नया आसमान छूएं। अपना नया आकाश बनाएं।...बचेगा वही जो रचेगा। यह आकाश ही तो है जिसमें कुछ नहीं रहता और सब भरा रहता है।...यह जब लिख रहा हूं, सर्जन के गहरे सरोकार लिए, देश के ख्यातनाम कलाकार अवधेश मिश्र की कलाकृति का आस्वाद भी ले रहा हूं। आप भी लें यह आस्वाद! आइये कलाओं में बसें।...हम भी रचें नए वर्ष का उजास।
डेली न्यूज़ में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" 31-12-2010

Friday, December 24, 2010

सांवर सा ओ गिरधारी...ओ भरोसो भारी...

गान का रस जहां मिलता है वही संगीत है। भारतीय संगीत की अनवरत धारा से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा जो आध्यात्मिक और भावात्मक जीवन का आज भी अनिवार्य अंग है। मंदिरों में आरती वन्दन के समय जाएं और पाएं, वहां जो ध्वनित होता है उसमें अनूठी कला की धारा जैसे प्रवाहित हो रही होती है। भले शब्द हमें वहां बहुतेरी बार समझ नहीं आ रहे होेते हैं परन्तु भीतर के आनंद के भाव सहज संप्रेषित होते हैं। मदिरों में ही तो हिन्दुस्तानी संगीत ने जन्म पाया है। हर प्रांत, स्थान के लोगों ने प्रभु की आराधना को अपनी समझ से स्वर दिए और इसी से शायद आरतियों का भी सृजन हुआ।

सामुहिक रूप में जब कभी किसी भी भाषा में ईश आराधना के स्वरों का प्रवाह होता है तो वह समझ आता है। मुझे लगता है, मूलतः यही तो है संगीत की कलात्मक्ता। आरती जब हम सुन रहे होते हैं तो समवेत शब्दों का आस्वाद ही नहीं कर रहे होते हैं बल्कि उनमें निहित भावों में आनंदानुभूति भी कर रहे होते हैं। तब लगता है, शब्द मात्र उन ध्वनियों का पुंज मात्र नहीं है जो बोली जाती है बल्कि वह ध्वनिशास्त्रीय या आक्षरिक ढ़ांचे पर स्थापित एक प्रकार से मानसिक अवधारणा है। इस अवधारणा में भले वह बहुतेरी बार पढ़त और गान की प्रक्रिया में ही अर्थ को पूरा करता हो परन्तु मूलतः उसकी सबसे बड़ी क्षमता अर्थोत्पादकता ही है। यह शब्द की कला शक्ति ही तो है जो उसे अर्थ से जोड़ती है।

कुमार गंधर्व का कहा याद आ रहा है, मधुर गला होने से ही कोई गायक थोड़े बन सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि स्वरों पर आपकी हुकूमत कितनी है। जिसके लिए गाते हैं, उसमें आपकी श्रद्धा कितनी है। आरती गान वाले भले संगीत का क ख ग ही नहीं जानें परन्तु जब वह आरती गा रहे होते हैं तो संगीतकला को ही जी रहे होते हैं। वर्षो से अपने जन्मे-जाये शहर बीकानेर के लक्ष्मीनाथ मंदिर जाता रहा हूं। इस बार जब गया तो समवेत स्वरों में निहित शब्दों को समझने का प्रयास किया। पुरूष-महिलाएं विभोर हो प्रभु की आरती में लीन हैं। संगीत के अद्भुत रस का प्रवाह हो रहा है। एक साथ सधे हुए स्वरों का पान करते मन पवित्रता के सागर में गोते लगाने लगा। भूल गया कि शब्द समझने आया हूं।...शब्द नही भाव समझ आ रहे थे। वह भी ऐसे जिन्हें किसी ओर को कहां समझा सकता था! मैंने एक काम किया। आरती को अपने मोबाईल में रिकॉर्ड कर लिया। जयपुर जब आया तो उसे सुना। एक बार नहीं, बार-बार। समूह स्वरों में आरती के शब्द जो ध्वनित हुए, वह थे ‘सांवर सा ओ गिरधारी...ओ भरोसो भारी... ओ शरण तिहारी। ओ हर बिना मोरी, गोपाल बिना मोरी, लक्ष्मी रे नाथ बिना मोरी... कौन खबर ले...।...‘शहस्त्र गोप्यां रो गिरधरधारी। चक्करधारी...।’

जरा गौर करें गोपियों को गोप्यां और चक्रधारी को चक्करधारी कहा गया है। खालिश बीकानेरी भाषा में रची आरती को बचपन से सुनता रहा परन्तु उसके शब्दों में कभी गया ही नहीं। बस! संगीत के माधुर्य का ही पान करता रहा। जिस प्रकार से लोकगीतों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें किसने रचा, ठीक वैसे ही आरतियों के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें किसने रचा। हां, आंचलिक भाषा की मिठास के साथ उनमें संगीत के सास्वत स्वरों का प्रवाह हर जगह एक ही है। दरअसल वहां शब्द सत्तावान है और अर्थ नित्य। घुम्मकड़ी के अपने स्वभाव के कारण देशभर के मंदिरों में गया हूं और पाया यही है कि वहां आरती के शब्द भले अलग हों परन्तु उनमें सौन्दर्यपरक आनंद का हेतु तो एक ही है। यही तो है संगीत कला! उपनिषद् कहते हैं, ‘रसो वै सः’ अर्थात् रस ही आनंद है। अन्य ललित कलाओं से संगीत कला निराली है। संगीत में एक साची नहीं सव्यसाची होते हैं कलाकार।...आनंद रस की बरखा करते!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 24-12-2010

Saturday, December 18, 2010

बंधनों से मुक्त इन्स्टालेशन आर्ट का यह नया दौर

कहते हैं, यह दौर संस्थापन कला का है। संस्थापन कला माने इंस्टालेशन आर्ट। पश्चिम में ही नहीं बल्कि भारत में भी इस तरफ हर ओर, हर छोर कलाकारो में रूझान साफ दिखायी देने लगा है। यूं भी हर कला युगीन परिवर्तनों की संवाहक होती है। स्वाभाविक ही है कि युग में जो कुछ नया होता है, उसे कलाएं स्वीकार करती हुई ही सदा आगे बढ़ती है। जो आज है, कल वह पुराना होगा ही। आधुनिकता के अंतर्गत बंधनों से मुक्त इन्स्टालेशन आर्ट का भले यह नया दौर कहा जा रहा हो परन्तु मुझे लगता है, संस्थापन कोई नई चीज नहीं है। कला में अभिव्यक्ति की इसे एक एक नई भाषा जरूर माना जा सकता है। ऐसी भाषा जो कैनवस के बंधन से मुक्त है। स्कल्पचर के निर्धारित आकार का बंधन वहां नहीं है। वहां स्क्ल्पचर और कैनवस पर खींची जाने वाली रेखाओं, खुरच और रंगों की एप्रोच तो है परन्तु सब कुछ वहां वर्चुअल है। यानी आभाषी। वहां ध्वनि है, रंग है, डिजिटल इमेजेज है और इन सब में दृश्यों को विशेष ढंग से रूपायित करने की कला की सर्वथा नयी दीठ भी है परन्तु मूल बात है संयोजन। बनी बनाई चीजें इन्सटॉलेशन में मिल जाती है। कला की दीठ से उनका एक प्रकार से संयोजन ही तो फिर कलाकार करता है।

इन्स्टॉलेशन में एक रंग या एक आकृति या फिर यूं कहें आकृतियों के कोलाज, ध्वनियों का विस्तार हमे ंविशुद्ध ऐन्द्रिय आनंद प्रदान कर सकते हैं। वहां कलाकार किसी एक कला के सरोकार लिए नहीं होता, उसकी समझ का वहां विस्तार है। उसके सरोकार व्यापक रूप में कला के बहुत से रूपों से जुड़े होते हैं। मौन भी अगर वहां है तो वह एक खास अंदाज में उद्घाटित होता है। समय की पदचाप से जुड़ी आकृतियों की अनुभूतियां वहां है। यह नहीं कहा जा सकता है कि वहां संगीत है तो वह गायन या वादन के रूप में ही है। यह नहीं कहा जा सकता है कि वहां चित्र है तो कैनवस पर और मूर्ति में उकेरा यथार्थ या अमूर्त है। संगीत है तो वह सुनी हुई आवाजों में निहित नहीं है। चित्र है तो वह देखे हुए रंगों में नहीं है। जो है, वह रूपाकार में नहीं, रूपाकार और उससे संबद्ध सामग्री के बीच की चीजों में है। बल्कि यूं कहना चाहिए कि वहां रूपाकार और रूपायित करने के बीच का भेद बहुत से स्तरों पर समाप्त होता लगता है। वहां कोई बंधन नहीं है। विषयवस्तु की अधीनता नहीं है। जो है मुक्त है। बंधन रहित। देखी या सुनी हुई, अनुभूत की हुई की बजाय बहुत कुछ वहां कल्पित है। संवेदना में बुना कल्पना का ताना-बाना। ऐसा जिसमें बहुत कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहने की छटपटाहट है।

तकनीक का सशक्त पक्ष इन्स्टॉलेशन आर्ट में है परन्तु इस बात पर फिर भी हमें गौर करना ही होगा कि वह वहां अभिव्यक्ति का साधन है, साध्य नहीं। रंगीन वर्णो, आयतों और लकीरों का तनावपूर्ण संयोजन और कम्प्यूटर के साथ ही विभिन्न अन्य स्तरों पर अभिव्यक्त इंस्टालेशन आर्ट को ऐसे में कला नहीं कला की प्रतिछाया ही क्या नहीं कहा जाएगा!

कलाकार अन्तर्मन में बनने वाली छवियों, और स्थान विशेष के साथ जुड़ी यादों के बिम्बों को सहज और आत्मीय संस्थापनों के जरिए ही तो कला में अभिव्यक्त करता है। इस अभिव्यक्ति में आभासी (वर्चुअल) और वास्तविक के बीच के द्धन्द केा भले ही इन्स्टालेशन आर्ट के तहत ही अधिक सशक्त ढंग से उजागर किया जा सकता है, परन्तु छवि विज्ञान यानी इमेजोलॉजी के अंतर्गत यदि बगैर किसी रचनात्मक सोच के साथ कुछ किया जाता है तो उसकी कोई सार्थकता है क्या? इस पर विचार किए जाने की जरूरत क्या इस दौर में अधिक नहीं है। आप ही बताईए!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 17-12-2010

Friday, December 10, 2010

आधुनिक भारतीय कला की नयी आलोचकीय दीठ

कलाएं हमें समझ का नया आलोक देती है। कुछ हद तक जीवन जीने का एक नया अर्थ भी देती है। इसीलिए जब कभी किसी कलाकृति से हम प्रतिकृत होते हैं तो उसमें निहित कलाकार की भावनाओं, संवेदनाओं से अपने आप ही साक्षात् होता हैं। कलाकृति तब हमें अपनी लगती हमसे जैसे संवाद भी करने लगती है और इसी से उसको बनाने वाले का भी बहुत से स्तरों पर अपने आप ही मूल्यांकन हो जाता है। कला मूल्यांकन का मूलतः आधार भी यही होना चाहिए परन्तु कला पर केन्द्रित जो पुस्तकें इधर आ रही है, उन्हें पढ़ते लगता है वहां कलाकार प्रमुख है, उसकी कला गौण है। कलाकार का परिवेश, संस्कार, प्रेरणा, सम्मान, पुरस्कार, जीवन के हर्ष-विषाद ही वहां बहुधा मिलते हैं। कला और कलाकार के मूल्यांकन का आधार क्या यही सब कुछ है! ‘समकालीन कला के सम्पादक, आलोचक मित्र डॉ. ज्योतिष जोशी ने कुछ समय पूर्व जब अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारतीय कला’ भेजी तो लगा, उन्होंने भी प्रकाशक की किसी मांग को त्वरित पूरा किया है। पढ़ने के आपके एकसे अनुभव बहुतेरी बार पूर्वाग्रह उपजा देते हैं सो उनकी पुस्तक को इस पूर्वाग्रह ने ही तब पढ़ने नहीं दिया। किसी संदर्भ में कुछ दिन पहले पुस्तक को यूं ही जब टटोला तो लगा कलाकारों के अवदान पर लिखे की अतिअभ्यस्त संवेदना के संसार से भिन्न उन्होंने भारतीय कला के मर्म को इसमें गहरे से छुआ है। कलाकारो की सर्जना के अंतर्गत उनके बनाए चित्रों की बारीकियों में तो वह अपनी इस पुस्तक में गए ही हैं, कलाकार की अपनी ही कला के संदर्भ में की गयी स्वीकारोक्तियों के आलोक में वह पाठकों को कला कथ्य का भी अनायास जैसे नया संदर्भ इसमें देते हैं। राजा रवि वर्मा पर लिखी उनकी यह पंक्तियां देखें, ‘संगीत के स्वरों को उनके आकास(स्पेस) झंकृत करते हैं, नृत्य परिवेश रचता है, साहित्य का सौन्दर्य चरित्रों को समग्रता में रूपायित करता है और कला शेष कलाओं से समन्वित होकर रूपंकर का प्रतिमान बन जाती है।...’

बहरहाल, नंदलाल बसु, यामिनी राय, असित कुमार हालदार, गुरचरण सिंह, कंवल कृष्ण, अमृता शेरगिल, शरतचन्द्र देब, एम.एफ.हुसैन, चित्त प्रसाद, धनराज भगत, रामकुमार, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, हकुशाह, अंजलि इला मेनन, बिकास भट्टाचार्यी, ए. रामचन्द्रन, बीरेन दे, सतीश गुजराल, एफ.एन.सूजा, वासुदेव एस. गायतोण्डे, सोमनाथ होर, मनजीत बावा आदि कलाकारों के अवदान पर लिखते वह उनकी कला का रचनात्मक परिचय तो देते ही हैं, स्वयं अपने आत्मानुभवों का एक नया तर्क विन्यास भी पाठकों के समक्ष रखते हैं। मसलन राजा रवि वर्मा के बारे में वह लिखते हैं कि उन्होंने भारतीय भावनाओं और सौन्दर्यशास्त्रीय अवधारणाओं की उपेक्षा की परन्तु इस बात में सच्चाई है कि उन्होंने ही भारतीय कला की आधुनिकता संभव की;यह अलग बात है कि अवनीन्द्रनाथ टैगौर के नेतृत्व में भारतीय कला का राष्ट्रवाद विकसित हुआ। ऐसे ही देवीप्रसाद रायचैधुरी के समानांतर वह रामकिंकर बैज की मूर्तिकला की स्वच्छन्दता की बात करते हैं तो रजा की कला को भारतीय दर्शन की खोज की परम्परा की दृष्टि से वह महत्वपूर्ण बताते हैं। रामकुमार की अमूर्ततता को वह गहरी अनुभूतियों की संज्ञा देते हैं तो के.जी.सुब्रमण्यनन के चित्रों की दृश्यभाषा के गंभीर भावों की लय पर जाते वह सूजा की कला की निर्वसन स्त्रियों को कला के बाजार से जोड़ते हैं। ए.रामचन्द्रन की कला में आख्यान और संदर्भों के विखंडन के साथ ही हकुशा की कला के मानववाद के साथ ही पणिकर की कला में पारम्परिक प्रतिमानों को खंडित कर उसमें समकालीन जीवन के जटिल ताने-बाने पर जाते ज्योतिष सोमनाथ होर द्वारा छापाकला को नई प्रविधि से और भोगी यातना से शिखरत्व पर पहुंचाने की चर्चा करना भी नहीं भुलते। ज्योतिष अपनी इस पुस्तक में कला के गूढ़ और गंभीर अर्थों से भारतीय कला को समझने की एक नयी आलोचकीय दीठ भी देते है। इस दीठ में पुस्तक के अंत में आधुनिक भारतीय कलाकृतियों के संजोए 48 रंगीन चित्र भी भरपुर मदद करते है।
"डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट" दिनांक 10-12-2010

Friday, December 3, 2010

जलरंगों में दृश्य यथार्थ की नयी दीठ

दृश्यकला में चित्रकला ही ऐसी है जो आधार और माध्यम की दृष्टि से सर्वाधिक सूक्ष्म है। यथार्थ का अंकन भी उसमें यदि होता है तो वह खाली यथार्थ भर नहीं होता बल्कि सूक्ष्म रूप में उसमें कलाकार अपनी आंतरिक एकता और अनुशासन में नई दृष्टि का विस्तार करते देखे हुए का एक प्रकार से पृनर्सृजन करता है। नागपुर शासकीय चित्रकला महाविद्यालय के आचार्य मारूति सेलके के आग्रह पर इस सोमवार को वहां के विद्यार्थियो ंको जब कला की संवेदना पर संबोधित करना हुआ तो प्रकृति चित्रो के अनंत आकाश को जैसे फिर से जिया। स्थान विशेष और प्रकृति के लैण्डस्केप शायद इसीलिए हर कोई पंसद करता है कि उनमें सौन्दर्य की चाक्षुष दीठ होती है। सच कहूं, यह स्थान विशेष और प्रकृति के नाना रूपों के लैण्डस्केप ही थे, जिन्होंने कला से मेरा पहले पहल रिश्ता कराया। ख्यात-विख्यात कलाकारों के बनाए लैण्डस्केप देखने में बाद में इतना प्रवृत हुआ कि ढूंढ-ढूंढ कर स्थानों के बनाए चित्रों का आस्वाद करने लगा। बहुतेरी बार ऐसा भी हुआ कि कोई लैण्डस्केप देखता, फिर उस स्थान पर जाता। मुझे लगता प्रत्यक्ष जो देखता हूं, उसके परे भी बहुत कुछ ऐसा है जो कलाकार ने अपने चित्र में बनाया है। उसे यथार्थ में हमारी आंख शायद पकड़ नहीं पाती। कलाकार के संवेदना चक्षु ही हमें तब सर्वथा नयी दृष्टि देते है। कला ही यह जो दीठ है, उसी ने बाद में कला के मेरे लेखक को बाहर निकाल, कलाकृतियों पर लिखने की ओर निरंतर प्रवृत किया।

बहरहाल, नागपुर के शासकीय चित्रकला महाविद्यालय में भविष्य के कलाकारों के साथ संवाद के बाद प्रो. मारूति सेलके अपने घर ले गए। वहां उनके बनाए बहुत से चित्रों को देखते औचक दृष्टि उनके बनाए एक लैण्डस्केप पर गयी। जलरंगों में प्रकृति जैसे वहां गा रही थी। मैंने उस चित्र पर जब ज्यादा गौर किया तो बेहद संकोच से वह बोले, ‘ये तो बस ऐसे ही बनाया है।’ मैंने उनके उन चित्रों में बेहद उत्सुकता दिखायी तो वे पूरी की पूरी एक श्रृंखला ले आए। नागपुर के ज्ञात-अज्ञात स्थानों की उनकी इस जलरंग श्रृंखला में प्राच्य स्थलों के साथ ही आधुनिक निर्माण, पेड़-पौधे, तालाब, मंदिर, महल और रोजमर्रा के जीवन को उन्होंने इनमें जैसे जिया है। देखे हुए यथार्थ और उनसे उपजी अनुभूतियों और अंतर्दृष्टि का रंगों और रेखाओं से कागज पर पुनराविष्कार करते वह नागपुर की जैसे पूरी सैर ही करा देते हैं। नागपुर की अंबाझरी झील, शिवन गांव, महल, तेलम खेड़ी, दीक्षाभूमि और प्रकृति के उल्लास को रंगों और आकृतियों के संयोजन में गहरे से उद्घाटित करते सेलके अपने चित्रों में कला का जटिल व्याकरण नहीं रचते बल्कि जल रंगों के सुन्दर लोक में ले जाते हैं। यह ऐसा है जिसमें सघन, शुद्ध और मूल रंगों की उत्सवधर्मिता है तो मौन में निहित ध्वनि को भी इनमें सुनते स्थान विशेष के एकांत को अनुभूत किया जा सकता है। और सबसे बड़ी बात यह भी है कि रेखाओं की सहज वर्तुलता और विषयवस्तु के गठन और संयोजन के बीच के स्थान और अवकाश को भी उन्होंने इन चित्रों में गहरे से पकड़ा है। जल रंगों का उजास तो इनमें हर ओर, हर छोर है ही। सेलके स्थान, काल और पात्र को अपनी कूची में विस्तार देते उन्हें अनूठा रंग सूत्र देते हैं। इन सूत्रों में स्मृतियां, देखी हुई छवियां सर्वथा नये ढंग से उद्घाटित होती हैं। यथार्थ एक प्रकार से नई अर्थवत्ता प्राप्त करता यहां सौन्दर्य का सर्वथा नया आकाश रचता है।

दरअसल सेलके वस्तु, स्थानों और प्रकृति के चाक्षुष स्वभाव को निश्चित करते रंग, रूप, धरातल और उभार में अपने अनुभव और अंतर्मन संवेदना की दृष्टि का एक प्रकार से विस्तार करते हैं। ऐसे में जो कुछ वह देखते रहे हैं, उससे प्राप्त अनुभवों का कला रूपान्तरण मन को भाता है, कुछ कहने को विवश करता भीतर की सौन्दर्य दृष्टि को एक प्रकार से जगाता है। नागपुर के इतिहास, वहां की संस्कृति, रोजमर्रा के जीवन, स्थान विशेष की दृश्यावलियों के जल रंगों के सेलके के भव को अनुभूत करते उन्हें प्रस्तावित करता हूं कि क्यों नहीं इस श्रृंखला की ही एक प्रदर्शनी आयोजित की जाए। इसलिए भी कि बहुत से स्तरो पर वह इन दृश्यावलियों में प्रकाश-छाया प्रभावों के अंतर्गत दृश्य यथार्थ का सर्वथा नया बिम्ब भी रचते हैं। इस बिम्ब में क्षैतिज एवं समरैखिक दृष्टि का अद्भुत सांमजस्य है। जल रंगों के बरतने का उनका गुण तो खैर अनूठा है ही जिसमें देखे हुए को अपने संवेदना चक्षु से वह और अधिक सुन्दर, भावपूर्ण बनाते ऐसा माहौल भी अनायास उत्पन्न करते हैं जिससे रंग देखने वाले से जैसे संवाद करते है। सेलके के जलरंगों की यही वह मौलिकता है, जो उन्हें ओरों से जुदा करती है।
राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट" दिनांक 3-12-2010