Friday, December 30, 2011

लो, बीत चला है यह एक और साल!

लो, बीत चला है यह एक और साल! अनवरत चलती है समय की घड़ी। काल चक्र के पहियों पर किसका जोर! समय घड़ी के सूईयों पर नजर डालते हैं तो पाते हैं बीते ने बहुत कुछ दिया है तो हमसे बहुत कुछ लिया भी है।
कला की दीठ से बीत रहेे वर्ष की यादें संजोता हूं तो मन में गहरा अवसाद घर करता है। ख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन, जहांगीर सबावाला के बिछोह का गम इस वर्ष ने हमें दिया तो भारतीय रंगमंच की महान विभुतियां बादल सरकार, सत्यदेव दुबे, गुरूषरण सिंह के न रहने का गहरा खालीपन भी हमें दिया है। संगीत सुनते उसे गुनते इस साल के पुराने पन्ने टटोलता हूं तो भूपेन हजारिका, पं. भीमसेन जोषी, जगजीत सिंह, उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर, सुल्तान खां, मकबूल साबरी, अजीत राय, उस्ताद असद अली खां, गोपीजी भट्ट जैसी संगीत हस्तियों की जुदाई का दर्द भी उसमें दर्ज पाता हूं।

बहरहाल, पिछले साल कला के रूझानों में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। चित्रकला की दृष्टि से जहां अंतर्राष्ट्रीय मुहावरे के चलते संस्थापन कला के नये तेवर हमारे समक्ष उभरे हैं तो भारतीय संगीत-वादन सरहदों की सीमा लांघते और परिस्कृत हुआ है। रंगकर्म में परम्परा के साथ आधुनिकता के मेल ने नयी जमीन भी तैयार की है। संगीत नाटक अकादमी ने इस वर्ष सुप्रसिद्ध कला समीक्षक, कवि प्रयाग शुक्ल के संपादन में ‘संगना’ पत्रिका के जरिये संगीत, नृत्य और नाट्य कलाओं पर प्रकाषन की महत्ती पहल की तो वर्ष के आरंभ में ही नेषनल मोर्डन आर्ट गैलरी में हुए अनिष कपूर के स्कल्पचर प्रदर्षन ने विष्व कला जगत में खासी हलचल मचायी। विज्ञान और कला के नये षिल्पाकाष में अनिष कपूर अपने कलाकर्म में वृहद विष्व को ही जैसे रूपायित करते हैं।

राजस्थान में इस वर्ष कलाओं में परम्परा के जड़त्व को तोड़ते बहुत से स्तरों पर नयी राहों का सृजन हुआ है। रंगकर्म की ही बात करें तो सुप्रसिद्ध रंगकर्मी भारत रत्न भार्गव के निर्देषन में संगीत नाटक अकादेमी के सहयोग से नाट्प्रषिक्षण के साथ रवीन्द्र मंच में नाट्य विधा के नये तेवर देखने को मिले तो अषोक राही, रणजीत सिंह के निर्देषन में मंचित नाटकों ने भी दर्षक उपस्थिति के नये रिकॉर्ड बनाये। नृत्य की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण यह भी रहा कि देष की सुप्रसिद्ध कथक नृत्यांगना प्रेरणा श्रीमाली की अर्से बाद जयपुर में नृत्य वापसी हुई। अचल, चल थाट को कुषलता से बरतती प्रेरणा दर्षकों को अपनी प्रस्तुति से बांधती है। विभिन्न तोड़े टूकड़े उठाती वह विलम्बित में छेड़छाड़ की गत की मोहक छटा बिखेरती है।

बहरहाल, गोपीजी भट्ट के निधन से तमाषा परम्परा के एक युग का अवसान हो गया है। ताउम्र फक्कड़ जीवन जिये गोपीजी। रियासतों में पली-बढ़ी उनकी कला के सम्मान की अड़ी भी किसे थी! सुखद पहलू यह जरूर रहा कि निधन से कुछ समय पहले ही पिंकसिटी प्रेस क्लब में उनका जयपुर की तमाम कला संस्थाओं ने मिलकर सार्वजनिक सम्मान किया। पहल की रंगकर्मी ईष्वरदत्त माथुर ने। नमन गोपीजी! नमन।

चित्रकला के अंतर्गत वर्षपर्यन्त मूर्त-अमूर्त कलाओं की प्रदर्षनियां का सिलसिला जारी रहा परन्तु कलानेरी कला दीर्घा का उल्लेख यहां जरूरी होगा। इसलिये कि कलाओं पर संवाद का नया आगाज इस निजी कलादीर्घा ने अपने तई किया। सुप्रसिद्ध कला समीक्षक विनोद भारद्वाज को आमंत्रित कर कलानेरी ने रजा और मकबूल फिदा हुसैन पर बनायी गयी लघु फिल्में दिखाने के साथ ही कलाओं की दीठ पर उनका संवाद भी करवाया। जवाहर कला केन्द्र लोकरंग जैसे वृहद आयोजन के साथ ही संगीत, नृत्य, नाट्य की नयी नयी प्रस्तुतियों से पूरे बरस ही आबाद रहा परन्तु राजस्थानी सिनेमा उत्सव का आयोजन इस साल की खास उपलब्धि कही जाएगी। राजस्थानी सिनेमा के अतीत, वर्तमान और भविष्य पर इसमें जहां विमर्ष हुआ वहीं दर्षकों को राजस्थानी सिनेमा की बेहतरीन फिल्में भी देखने को मिली। साल बीतते बीतते राजस्थान ललित कला अकादेमी को भवानीषंकर शर्मा और संगीत नाटक अकादमी को अर्जुनदेव चारण के रूप मंे अध्यक्षीय सौगात भी मिल गयी। बातें, यादें और भी है। लिखूंगा तो शायद विराम ही न हो। सो थमता हूं।...आईए, स्वागतातुर हों नये साल की भोर को। नयी भोर में आखिर कलाएं ही देंगी हमें रचनात्मकता का उजास!


Friday, December 23, 2011

अनंत अर्थ संभावनाओं का छायाकला आकाश

कहते हैं, जर्मनी के ज्योतिर्विद और वैज्ञानिक जॉन हरसेल ने 1839 ईस्वी में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में पहले पहल फोटोग्राफी शब्द का इस्तेमाल किया था। इससे पहले 1826 में फ्रांसीसी आविष्कर्ता निप्से ने विष्व का पहला फोटोग्राफ बनाया था। छायांकन कृति देखकर तभी पेरिस में चित्रकार-प्राध्यापक पॉल देलारोष ने यह कहा कि चित्रकला आज से मर गयी है तो ब्रितानी सैरा चित्रकार टर्नन ने भी इसे कला का अंत बताया था। फ्रांसीसी कवि बोदलेयर ने तो फोटोग्राफी को अन्य कलाओं की दासी तक की संज्ञा दी थी परन्तु संयोग देखिये तकनीक की दृष्टि से बेहद संपन्न डिजिटल हुई आज फोटोग्राफी तमाम हमारे कला स्वरूपों का प्रमुख आधार बनती जा रही है। जो कुछ दिख रहा है, उसे हूबहू वैसे ही कैमरे में यदि उतार लेते हैं तो वह फोटोग्राफी ही होगी परन्तु यदि दृष्य मंे निहित संवेदना, उसके अनुभूति सरोकारों को भी यदि छायाकार कैमरे से अपनी दीठ देता है तो इसे फोटोग्राफी नहीं छायाकला ही कहेंगे। तकनीक तब कला का साधन होगी, साध्य नहीं। कहें तो यह छायाकला ही है जिसमें विस्तृत दृष्य को भी एक छोटे से आयतन में तमाम उसकी बारीकियों के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है तो लघुतम दृष्य को भी दुगने-तिगुने और उससे भी बड़े आकार में सहज दिखाया जा सकता है। थर्मोग्राफी के अंतर्गत अब तो यह भी होने लगा है कि आप किसी जीवन्त वृक्ष के पत्ते के कुछ अंष को काट कर उसके संपूर्ण भाग को दर्षा सकते हैं। इसे तकनीक का कमला कह सकते है परन्तु फोटोग्राफी का दूसरा सच यह भी है कि इसके जरिये यथार्थ में निहित तमाम हमारी दृष्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का कला रूपान्तरण किया जा सकता है। शबीहों के लिये फोटोग्राफ का आधार नया कहां है!बहरहाल, इससे कौन इन्कार करेगा कि इतिहास कलाओं को जगाता है। फोटोग्राफी के इतिहास को इसी नजरिये से देखे जाने की जरूरत है। भले आरंभ में इसे कैनवस कला के दौर की समाप्ति के रूप में देखा गया परन्तु कालान्तर में इसने कलाओं के मोटिफों में जो सर्जनात्मक बदलाव किये उनसे ही कैनवस कला समृद्ध भी हुई। प्रकाष-छाया सम्मिश्रण के अंतर्गत जीवन से जुड़े दृष्यों, षिल्प सौन्दर्य की बारीकियांे में जाते दृष्यावलियों के जो आख्यान कैमरे ने हमारे समक्ष रखे हैं उनमें कला के गहरे सरोकार ही प्रतिबिम्बित हुए हैं। अभी बहुत समय नहीं हुआ, जयपुर के जंतर-मंतर पर ख्यात ग्राफिक कलाकार जय कृष्ण अग्रवाल की छाया कलाकृतियांे का आस्वाद किया था। छाया-प्रकाष और उससे आभासित स्पेस के अंतर्गत उन्होंने जंतर-मंतर की नयी सौन्दर्य सृष्टि की। प्रिंट मंेकिंगं के तहत जयकृष्णजी ने हमारे समक्ष दूरी की नजदीकी के साथ ही इतिहास के उस अपरिचय से भी परिचय कराया जिसमें दीवारों, सीढ़ियों और पाषाण यंत्रों से संबद्ध विषय-वस्तु को खंड खंड मंे अखंड किया गया है। छाया-प्रकाष की स्वायत्त सत्ता का अद्भुत रचाव करते उन्होंने अपनी इस कला में इतिहास, वर्तमान और भविष्य को जैस गहरे से बुना है। मसलन यहां पत्थरों का पीला रंग है तो प्रकाष से परिवर्तित इस पीले का लाल भी है। स्पेस से झांकते नीले आसमान के रंग की उत्सवधर्मिता भी यहां है अंधेरे में निहित रहस्य की बहुत सी परतें भी उघड़ती साफ दिखाई देती है। कैमरे से जंतर-मंतर की प्रतिकृति नहीं बल्कि सजीव सरल कला छवियों का बेहतरीन भव एक प्रकार से उन्होंने अपने तई तैयार किया है। प्रकाष-छाया सम्मिश्रण की उनकी इस कला अभिव्यक्ति में स्थापत्य के नये दृष्य आयाम है। इतिहास का मौन जैसे उनकी इस छायाकला में मुखर हुआ है। दृष्य की अनंत अर्थ संभावनाओं, संवेदनाओं के उनके इस आकाष में फोटोग्राफी के कला रूपान्तरण को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सच! यह छायाकला ही है जिसमें वस्तुओं के रूप, टैक्सचर, आकार जैसी चक्षुगम्य लाक्षणिकता को यूं उद्घाटित किया जा सकता है। अब भी यदि फोटोग्राफी को कला नहीं कहेंगे तो क्या यह हमारी बौद्धिक दरिद्रता नहीं होगी!

Saturday, December 10, 2011

रेखीय आयामों का संवेदना आकाश



कलाएं हमें सौन्दर्य अनुभूति के आंतरिक चक्षु देती है। वहां जो दिख रहा है, वही सच नहीं रहता बल्कि उससे परे भी संवेदना का एक नया आकाष उभरता है। चित्रकला की ही बात करें। विषय-वस्तु सादृष्य की अपेक्षा वहां उसके अभिव्यंजक रूप में ही अधिक और सुदीर्घ असरकारी नहीं होते! अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र में अब्दुल करीम के चित्रों से रू-ब-रू हुआ था। लगा, ज्यामीतिय संरचनाओं में कला के अनूठे सौन्दर्य लोक में पहुंच गया हूं। हर ओर, हर छोर रंग और रेखाओं के जड़त्व को तोड़ते वास्तविक सृष्टि का जैसे पुनःस्ािापन किया गया है। चटख रंगों से सजी उनकी कलाकृतियों का आस्वाद करते प्रकाष और रेखीय कोणों के नये संदर्भ भी अनायास मिले। मुझे लगता है, आत्मिक और विषुद्ध सौन्दर्य के बीच के द्वन्द में वह कला में प्रयोगषीलता का सर्वथा नया मुहावरा रचते हैं। यह ऐसा है जिसमें मानवाकृतियों को रेखीय आवरण में रंग, प्रकाष संवेदना के नये अर्थ हैं। अर्सा पहले पढ़ा कुर्बे का कहा औचक जेहन में कौंधने लगा है, ‘कला में कोई शैलियां नहीं होती, वहां केवल कलाकार होते हैं।’ 
सच ही तो है...अब्दुल करीम के ज्यामीतिय आकारों में बाह्य की बजाय उनके आंतरिक दर्षन की अनुगूंजे है। इन अनुगूंजों में छीजती मानवीय संवेदनाओं को अनुभूत किया जा सकता है तो आधुनिकता में रोबोटीय होते जीवन में घुलते परिवेष के रंगो की महीन परतें भी साफ देखी जा सकती है।
बहरहाल, अब्दुल करीम के कैनवस पर उभरी  बहुआयामी आकृतियों के बिम्ब-प्रतीकों में रेखाओं का सघन टैक्सचर है। नीले, पीले, हरे, लाल और चटख से धूसरित रंगों में आकृतियां स्पष्ट है परन्तु वहां संवेदना के अनगिनत रंग हैं। रेखीय आयामों की सामर्थ्य का वह जो कैनवस रचते हैं उसमें कला की किसी एक शैली की बजाय तमाम आधुनिक कला शैलियों का सांगोपांग मेल है। माने वहां मानवाकृतियों के साथ विज्ञान है तो सूक्ष्मग्राही सौन्दर्य संवेदना का भी अनूठा आकाष है। मूक व अचल वस्तु समूहों के साथ प्रकृति और जीवन का संगीत उनकी ज्यामीतिय संरचनाओं में सहज सुना जा सकता है। प्रायः सभी चित्रों में एक दूसरे को भिन्न अर्थों में काटती रेखाओं के कोण और उनसे झांकती मानव आकृतियां में कला का नया अर्थान्वेषण है। कलाकृतियों के साथ भीतर के उनके दर्षन की थाह लगाते औचक एक चित्र पर नजर ठहर जाती है। कैनवस के शीर्ष पर चांद है। ज्यामीतिय संरचना में कोण लिये रेखाओं और रंगो का अनूठा उजास यहां है। गौर करता हूं, प्रकाषीय किरणों की मानिंद जो प्रतीक और बिम्ब करीम ने इस चित्र में रखे है उसमें जैसे सृष्टि के गूढ अर्थ रूपायित हुए हैं। प्रकाष की रेखीय लय में  सहज सरल आकृतियां। एक प्रकार से प्रकृति की गूढ शक्तियों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति। ओपते रंग जैसे अभिव्यक्ति की उनकी अनुकूलता के संवाहक हैं। ऐसे ही एक चित्र में गहरे रंगों की लेयर में मानव मस्तिष्क के जरिये अध्यात्म की गहराई के साथ दर्षन के अनूठे चितराम हैं। कुछेक चित्र ऐसे भी हैं जिनमें प्रकाषीय रेखाओं के साथ अलंकार भी उभरे दिखाई देते हैं। सहज। हां, रंग और रेखाओं की उनकी बड़ी विषेषता ज्यामीतिय नियमबद्धता से युक्त चित्रकाव्यात्मकता है। अंतर्मन संवेदनाओं के साथ दर्षन की गहराईयां में उभरे ज्यामीतिय कोलाज  में वह कला का सर्वथा नया मुहावरा हमारे समक्ष रखते हैं। 
बहरहाल, अब्दुल करीम के चित्रों से रू-ब-रू होते पिकासो की याद आती है, जॅक्सन पोलाक याद आते हैं और ओरोस्को शागाल के नायाब चित्रों की कुछ स्मृतियां जेहन में कौंधती है। आखिर कलाकार स्मृतियां ही तो कैनवस में रूपान्तरित करता है। शैली का रूपान्तरण वहां नहीं होता। यही तो है कला की मौलिकता। इसी में तो कलाकार प्रकृति और जीवन को जैसा है वैसा ही देखने की बजाय आंतरिक चक्षु से सर्वथा नये ढंग से देखे जाने का आग्रह करता है। यह जब लिख रहा हूं, अब्दुल करीम के चित्रों में उभरे बिम्ब और प्रतीक फिर से मन को मथने लगे हैं। आप क्या कहेंगे!

Friday, December 2, 2011

सौ रंगों की सारंगी हुई मौन

शब्द के साथ जब सुर मिलते हैं तभी होता है गान। उस्ताद सुल्तान खां की सांरगी को सुनें तो लगेगा वहां शब्द न भी घुले हों तब भी गान का माधुर्य है। उनकी सारंगी गाती थी। इस गाये में आलाप, स्वर की स्थिरता, मींड, गमक, मुरकी और तान की तमाम कंठ क्रियाओं को सहज अनुभूत किया जा सकता था। माने कंठ से जो स्वर निकले वह सब उस्ताद की सारंगी निकालती थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, पं. भीमसेन जोषी, मल्लिकार्जुन मंसूर, केसरबाई केरकर के गान में उनकी सारंगी संगत जैस सुरों की वर्षा करती। जब भी इनके स्वरों के साथ संजोयी उस्ताद की सारंगी पर जाता हूं, लगता है कंठ की हरकत को पकड़ते विकट तानों पर भी उनकी सारंगी सम पर जाकर ही थमती। पंडित रविषंकर के सितार, उस्ताद जाकिर हुसैन के तबला, पंडित षिवकुमार के संतुर और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसूरी के साथ उस्ताद सुल्तान खां की सारंगी बढ़त करती। बहुतेरी बार तो शब्द और सुरों को पूर्णता उनकी सारंगी ही प्रदान करती। तानों के उनके निकास पर जब भी जाता हूं मुझे लगता है वह जो बजाते उसमें लड़ियों का जैसे कोई सुन्दर सा नौलखा हार पिरोया गया है। भीतर के खालीपन को भरती उनकी सारंगी रागों को जैसे जीवंत करती। हर राग को गाती उनकी सारंगी में स्वर रस का जैसे निर्झर बहता।

सारंगी तत्सम शब्द है। अर्थ करें तो स्वर के माध्यम से अंगों में जो अमृत घोले वह सारंगी है। उस्ताद सुल्तान खा की सारंगी ऐसी ही थी। वह जब सारंगी बजाते तो ऐसा लगता जैसे कोई गला गा रहा है। गजल, ठुमरी, दादरा के सुरों में मिलती उनकी तरजें माधुर्य के अनुठे लोक में ले जाती। यह उस्ताद की सारंगी ही है जो ख्यात गायकों, वादकों के गान-वादन में सुनने की अवर्णनीय अनुभूति कराती है। शास्त्रीय ही नहीं लोकप्रिय संगीत में भी उनकी सारंगी के घुले रस जीवन के जिस आनंद रस का संचार करती रही है, उसे शब्द कहां बंया कर सकते है! राग भैरव, बसंत, मारवा और भी दूसरे रागों का गान करती उनकी सारंगी के साथ बहुतेरी बार दूसरे वाद्य सहयोग जरूर करते परन्तु मुझे लगता है किसी ओर के समाश्रित नहीं रही उनकी सारंगी। माने अन्य किसी भी वाद्य का आश्रय वहां नहीं है। बीन अंग के आलाप करते हुए मन्द्र सप्तक से लेकर अतितार सप्तकों तक वह विस्तार करते। गज चलाने की अद्भुत निपुणता। उल्टे सीधे-छोटे-लम्बे गज पर नियंत्रण। शायद इसका बडा कारण यह भी था कि उन्होंने सारंगी में अपने को समर्पित करते हुए साधा था। बड़े गुलाम अली खा, आंेकार नाथ ठाकुर, सिद्धेष्वरी देवी और भी तमाम उन लोगों से निरंतर उन्होंने सीखा जिनके साथ वह सारंगी वादन किया करते थे। उनकी सारंगी किसी एक घराने से नहीं बल्कि संगीत के तमाम घरानों से ताल्लुक रखती। घरानों की बढ़त में संगीत की विराटता का अहसास वहां है। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। देर तक चलने वाले लम्बे-लम्बे छंदों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सधे हुए गायक की मानिंद उनकी सारंगी स्वरों के अनूठे लोक में ले जाती। यह ऐसा था जिसमें मींड और गमक के साथ विकट तानों की पूर्णता होती थी। इसीलिये स्वर साधकों के साथ की उनकी सारंगी संगत गान को निखारती। गला जहां आलाप नहीं ले सकता, तान को पूरा नहीं कर सकता वहां उनकी सारंगी चली जाती। जब भी उनकी प्रस्तुति से साक्षात् हुआ, लगा उंगलियों को बाज के तार के किनारे दबाये रखते ऊपर-नीचे चलते वह सारंगी में रम जाते। साधनारत किसी जोगी की मानिंद। सारंगी की उनकी इस साधना से ही बाद में उनके गले के सुर भी सजे। ‘अलबेला सजन आयो रे...’, ‘पिया बसंती...’, ‘आंखो से ख्वाब रूठकर, पलकों से अष्क टूटकर...’ गान सुनें तो माधुर्य की अनूठी मौलिकता की अनुभूति होगी। अक्सर वह कहते भी थे, ‘मेरा रियाज नहीं गाता, रूह गाती है।’ सच! गान की उनकी यह रूह जैसे बंदे का खुदा से साक्षात् ही कराती। पंडित रामनारायण, मुनीर खां, शकूर खां, गुलाम साजिद, बन्ने खां, गोपाल मिश्र की सारंगी परम्परा को उन्होंने संजोया ही नहीं बल्कि अपने तई उसे सदा आगे भी बढ़ाया। सीकर में जन्में। बाद में जोधपुर आ बसे। विष्वभर में उन्होंने सारंगी को लोकप्रिय किया। सारंगी नहीं सौरंगी कहें। गायन-वादन के सौ रंग वहां जो हैं!


Friday, November 25, 2011

कविन्द्र रवींद्र का "ताशेर देश"

रवीन्द्रनाथ टैगोर के सर्जन पर जब भी जाता हूं, लगता है साधारण के व्यतिक्रम हैं कविन्द्र। विश्वजनीन संस्कृति में पिरोई चित्रकला और संगीत की उनकी सर्जना में सौन्दर्य की जीवन अभिव्यक्ति की तलाश जैसे पूरी होती है। यह रवीन्द्र ही हैं जो कहते थे, ‘चित्र देह है एवं संगीत प्राण।’
बहरहाल, साहित्य अकादमी ने इस बार महत्वपूर्ण पहल की। टैगोर के 150 वें जन्मशती वर्ष के अंतर्गत विभिन्न भारतीय भाषाओं के लेखको का कोलकता में रचना पाठ रखा गया। उन्हें शांतिनिकेतन और  उनके कला-संगीत से जुड़े रचना स्थलों पर भी ले जाया गया। भारतीय लेखकों के इस दल में खाकसार भी था। कविताओं के रचना पाठ से पहले के दिन की स्मृति रह-रह कर जेहन में कौंध रही है।

शांतिनिकेतन परिसर में बांग्लादेश के कलाकारों द्वारा रवीन्द्रनाथ के सुप्रसिद्ध नृत्यनाटक "ताशेर देश" का मंचन किया गया। ताशेर  बांग्ला शब्द है। "ताशेर देश" माने ताश का देश । ओपेरा से प्रभावित संगीत और नृत्य के अनूठे मेल की गुरूदेव की रचना का आस्वाद करते लगा वह जिस विश्वजनीन संस्कृति की बात करते थे, उसे अपने रचनाकर्म में गहरे से जीते भी थे।

"ताशेर देश" की कथा मर्मस्पर्शी  है। किसी देश का राजकुमार भ्रमण करते हुए ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है जहां सब कुछ नियमों से बंधा है।  नियम-कानूनों की बेड़ियों में जकड़े लोगों से राजकुमार का संवाद होता है। राजकुमार की आजादी-प्रगति और सहजता की बातें सभी को लुभाती है। उस देश  के राजा का फरमान है कि नियमों को तोड़ने वाले की बात न सुनी जाये। राजकुमार तब वहां की रानी साहिबा से बात करता है। रानी को स्वतंत्रता की बात सुहाती है। ताश के पतों की मानिंद वहां के निर्जीव जीवन में राजकुमार के आने से सजीवता का संचार होता है। हर ओर उल्लास और उमंग भी जैसे लौट आती है। उत्सवधर्मिता का गान होता है।

बांग्ला भाषा का ज्ञान नहीं है परन्तु मूल बांग्ला की इस नृत्य नाटिका का मंचन इतना सशक्त था और रवीन्द्र का लिखा इतना मधुर कि संगीत-नृत्य में निहित कथन पूरी तरह से समझ आता है। मुझे लगता है, कलाओं का यही वह आकाश है जिसे समझने में भाषा बाधा नहीं बन पाती। वैसे भी रवीन्द्र के लिखे में जीवन के माधुर्य का वह गान है जो सौन्दर्य से स्निग्ध है। "ताशेर देश"  इस मायने में भी अद्भुत लगा कि इसमें  ओपेरा शैली है, मणिपुरी नृत्य की भंगिमाएं हैं तो पष्चिम बंगाल के पुरलिया में किये जाने वाले छऊ नृत्य का आस्वाद भी अनायास होता है। कहते हैं रवीन्द्र ने जब इस नृत्य नाटक की रचना की थी तो वह ‘एलीस इन वण्डरलैण्ड’ से खासे प्रभावित थे। इसीलिये "ताशेर देश" में स्वप्न संसार की अनूठी झलक भी दिखती है।

ओपेरा दरअसल गीतिनाटक है। संवाद की बजाय वहां गायन से ही कुछ कहा जाता है। पात्र नृत्य करते हैं परन्तु लगता है, सधे हुए हवाओं में तैर रहे हैं। मणिपुरी में सांकेतिक भव्यता में मनमोहक गति से नृत्य होता है और छऊ में ढोल मांदर की धुन पर मुखौटा लगाकर नृत्य होता है। "ताशेर देश" में इन सबका सांगोपांग मेल दिखा। ओपेरा करते राजकुमार ताश  के देश में पहुंचता है तो वहां के मुखौटा लगाये पात्रों को देखते लगता नहीं है, वे मानव हैं। भाव-भंगिमाएं, अंग संचालन और मुखौटों की सहजता से आंखे नहीं हटती।


नृत्य-संगीत में एक के बाद एक प्रभावी दृष्यों और रवीन्द्ररचित बांग्ला का गीति कहन इतना सशक्त कि कब दो घंटे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। भाषा भिन्नता के बावजूद कला के अपनेपन से सराबोर मन शांतिनिकेतन की शांति के सुकून में भी जैसे खो सा गया। कला और संगीत के क्षेत्र में आखिर क्रांति का श्रेय रवीन्द्र को यूं ही तो नहीं दिया जाता। शांतिनिकेतन से लौटे एक सप्ताह हो रहा है परन्तु "ताशेर देश" आंखों के सामने अभी भी घूम रहा है। नमन कर रहा है मन रवीन्द्र के तपःपूत जीवन को। संगीत और कला के उनके ज्ञान को। नमन रवीन्द्र। नमन!


Tuesday, November 22, 2011

भूमण्डलीकरण, बाजार और कला

भूमंडलीकरण माने भूमंडलीय समरूपीकरण। संस्कृति के साथ अर्थ के जुड़ाव से बाजार आधारित कला का सर्वथा नया लोकतंत्र हमारे सामने आ रहा है। यह ऐसा है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के बेरोकटोक आवागमन की संस्थागत सुनिष्चितता विष्व अर्थव्यवस्था को सर्वथा नया आयाम दे रहा है। कहना यह चाहिये कि बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण ने एक ऐसी संस्कृति विकसित करनी प्रारंभ कर दी है जिसमें कलादीर्घाएं उपभोक्ता और उत्पादक के रूप में कार्य करने लगी है। कलादीर्घाएं कला की उत्कृष्टता को अपने तई ही तय करने लगी है। माने जिस कलाकार को चाहे वह आसमान पर बैठा दे और जिसे चाहे नीचे उतार दे। यह प्रचारित भर करना है कि फंला कलाकार की कलाकृतियों विष्व बाजार में सर्वाधिक बिक रही है। भूमंडलीकरण का बड़ा अस्त्र साइबर स्पेस है ही सो वहां संबंधित कलाकार की वर्चुअल कला यात्रा भी करवा दी जाती है।
बहरहाल, जेम्स क्ल्फिर्ड ने ‘द प्रेडिकांमेंट ऑफ कल्चर’ में लिखा भी है, ‘जब कोई यात्रा ‘चेतना में समा कर’ अपना अर्थ देती है तो उसका वृतांत आपकी अस्मिता को मजबूती से घेर लेता है।’ कला मंे आज यही हो रहा है। इन्टरनेट के तहत ऑनलाईन कलादीर्घाएं जिसे चाहे उसे उठा देती है, जिसे चाहे पटक देती है। कभी पॉल विरिलियो ने भी यही तर्क दिया था कि साइबर स्पेस ऐसे भूमंडलीय समय का वाहक है जो स्थानीय समय को आच्छादित कर देगा।...भविष्य मंे बहुत जल्दी ही हमारे इतिहास का निर्माण अपने आप में तात्कालिकता के गर्भ से उपजे सार्वभौमिक-समय में होने लगेगा।’ कला बाजार में कलाकृतियों की बिक्री सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के साथ उसके उपयोगकर्ता के हाथ में जब चली गयी है तो स्वाभाविक ही है कि कलाकृतियां गौण हो गयी है, बाजार प्रमुख हो गया है। कलाकृतियां आत्म विसर्जन की हेतु रही है परन्तु आज बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण में जीवन के उपादान के रूप में नहीं होकर वह बाजार प्रायोजित हो रही है।
 सवाल यह भी है कि बाजारीकरण के इस दौर में आखिर कला की कौनसी नयी भाषा गढ़ी जा रही है। याद पड़ता है, जयपुर में एक पांच सितारा होटल मंे निजी आर्ट गैलरी द्वारा एक राष्ट्रीय कला षिविर का आयोजन किया गया था। षिविर के अंतर्गत देष के ख्यातनाम कलाकारों ने आर्ट गैलरी के लिए ‘ऑन द स्पॉट’ पेंटिंग्स बनाई। षिविर में जब जाना हुआ तो ईजल पर कलाकारों को काम करते देख बेहद सुकून हुआ। कलाकारों और उनकी कला पर लेखन के अपने कर्म के अंतर्गत बहुत से कलाकारों से स्वाभाविक ही था कि संवाद भी हुआ। एक ईजल पर देष के ख्यातनाम कलाकार कार्य कर रहे थे। वे तेजी से कैनवस पर कुछ पोत रहे थे, साथ-साथ मुझसे बातचीत भी कर रहे थे। कोई 20 मिनट बाद ही चौंक कर उन्होंने घड़ी देखी और वहां मौजूद आर्ट गैलरी के कर्मचारी से कहा कि उनकी फ्लाईट का क्या हुआ? कर्मचारी दौड़ा दौड़ा आर्ट गैलरी संचालिका के पास पहुंचा और फ्लाईट वाली बात बताई। संचालिका दौड़ी चली आई। देखती है कलाकार मुझसे संवाद भी कर रहे हैं और उनके हाथ कैनवस पर भी बड़ी तेजी से चल रहे हैं। धीरे से वह मुझे एक किनारे ले जाकर अनुनय विनय में कहने लगी, ‘देखिए, आप इनसे बातचीत कर डिस्टर्ब न करें। उन्हें आज ही दिल्ली लौटना भी है, फिर उनकी पेंटिंग अधूरी ही रह जाएगी।’
 भूमण्डलीकरण में यही आज कला की बाजार भाषा है। यह ऐसी है जिसमें कलाकार को तो अपना काम जल्द से जल्द समाप्त कर कहीं ओर दूसरे काम के लिए भागने की जल्दी है और गैलरी को इस बात की फिक्र कि ब्राण्ड कलाकार का काम बस पूरा हो जाए ताकि उसे बाजार में बेचा जा सके। हर व्यक्ति जल्दी से जल्दी कला से कमा लेना चाहता है। आर्ट गैलरियां कला षिविरों के बहाने ख्यात-विख्यात कलाकारेां को अपने यहां बुलाकार धड़ाधड़ पेंटिंग्स बनवा रही है। बाजार मांग वाले कलाकार भी इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी कला नहीं, उनका नाम बिक रहा है इसलिए वे भी बगैर समय गंवाए अपने कलाकर्म से ज्यादा से ज्यादा कमाने की होड़ में जो चाहे बना रहे हैं। मानों वह बाजार को पहचानने लगे हैं कि वह कभी भी करवट बदल सकता है, चुनांचे क्यों न करवट बदलने से पहले ही इतना कमा लिया जाए कि बाद में अफसोस नहीं रहे।



Friday, November 11, 2011

आकृतिमूलकता का अमूर्तन

हर शिव  शर्मा रेखाओं और रंगों में किसी क्षण की भंगिमाओं के बहाने आत्मान्वेषी अनुभवों की अनवरत यात्रा कराते हैं। रंग, रेखाओं और रूप के संधान में आवरण रहित देह के जरिये वह जीवन  के अबूझ रहस्यों में ले जाते भीतर की हमारी सुप्त संवेदनाओं को जैसे झकझोरते हैं। देखते हैं तो चित्रों में रंगों का गहरा कोहरा और रेखाओं के उजास में स्त्री देह की सिकुड़ी, लेटी, असावधानी में बैठी आकृतियां दिखाई देती है परन्तु वहां रंग, रेखाओं का अद्भुत संयोजनकौषल है। नैसर्गिक दृष्य के प्रति अंतर्मन में छिपी भावनाओं के प्रतीक रूप में इन चित्रों में भले क्षण विशेष की भंगिमा ही सर्जन का आधार बनी है परन्तु यथार्थ जीवन के गहरे अनुभव यहां है।
बहरहाल, हर शिव छायाकला में भी दक्ष है। यही कारण है कि उनके चित्रों में दूर एवं समीपवर्ती वस्तुओं के धुंधलेपन, दृष्य का अनैच्छिक विभाजन भी अलग से ध्यान खींचता है। कैनवस की उनकी रेखाओं का रंग संयोजन बगैर सूचना अकस्मात् खींचे छायाचित्रों का अहसास भी अनायास कराता है। असावधानी का स्वाभाविक प्रभाव वहां जो है! स्त्री देह की वह जो चित्र भाषा हमारे समक्ष रखते हैं उसमें विषेष किसी परिवेष के बहाने जीवन की विडम्बनाओं, त्रासदियों और तमाम घटनाओं के प्रति स्थितिप्रज्ञता को सहज पढ़ा जा सकता है। मसलन बहते रंगों के बीच घुटनों पर कोहनी टिकाए असावधानी मे बैठी स्त्रीदेह की एक आकृति के आस-पास जो परिवेष सृजित किया गया है, उसमें जीवन के तमाम द्वन्द जैसे उभर आए हैं। ऐसे ही लाल रंग के कोहरे में झांकती लेटी आकृति पर सफेद, पीला, नीला और थोड़ा सा बचा हरा रंग जैसे भीतर की हमारी संवेदना को झंझोड़ता कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहता है। मुझे लगता है, रंगों में अटकी, घुली, प्रवाह में बहती और एक प्रकार से बसी हुई उनकी आवरण रहित स्त्री आकृतियांे में प्रभाववाद भी है और प्रतीकवाद भी। उठने, बैठने, लेटे हुए के सामान्य स्त्री देह दृष्यों में अंकित क्षणिक दृष्य में निहित जीवन के शाष्वत सत्य की अनुभूति वहां की जा सकती है।
चित्रों के कहन पर जाता हूं तो नाबि चित्रकार पियर बोन्नार की भावनाओं को मानवीय आकृतियों में रूपायित करती उन कलाकृतियों की भी सहसा याद हो आती है, जिनमें समकालीन जीवन के विषयों को चुनकर उनका कल्पनारम्य, काव्यपूर्ण चित्रांकन है। हां, हर शिव शर्मा अपने गतिदार रेखांकन, किसी क्षण विषेष की भंगिमा के जरिये जीवन के शाष्वत सत्य से साक्षात्कार कराने की सोच और उद्देष्यपूर्ण रंग योजना के सर्वथा नये सर्जन संदर्भ हमें देते हैं। वहां अपने पूर्ववर्ती चित्रकारों के कला संस्कार तो हैं परन्तु उनका अनुकरण नहीं है। मसलन असावधानी की किसी मानवीय भंगिमा के इरोटिक फिगर और चटख रंगों का अद्भुत संयोजन जिसमें कभी रंग बहते नजर आते हैं तो कभी परिवेष में घुले विषय-वस्तु से अपनापे का सहज दर्षाव करते हैं। खास तौर से लाल रंग की वहां प्रधानता है परन्तु फ्रेम में उभरे दूसरे तमाम रंग अंष में रेखाओं का उनका कहन अलग से ध्यान खींचता है। मुझे लगता है प्रकृति और मानव निर्मित जीवन का वह अपने तई चित्राविष्कार करते क्षण विषेष की भंगिमा में अनुभूतियों की अनंतता का विस्तार करते हैं। उनकी कलाकृतियों को किसी एक अर्थ की बजाय क्षण विषेष की तमाम अर्थ संभावनाओं में देखा जा सकता है। ज्यॉं सेरॉ से कभी उनके चित्रों के अर्थ बताने के लिये आग्रह किया गया था तो उन्होंने उत्तर में बेहद रोचक कहानी सुनायी थी, जिसका सार यह था कि शब्दों से अगर चित्रों का अर्थ बताया जा सकता तो फिर चित्रकार को चित्र आंकने की क्या आवष्यकता होती। चित्रकला ही क्यों तमाम ललित कलाओं पर ज्यॉ सेरॉ का यह कहा प्रासंगिक है। तमाम हमारी कलाएं अपनी स्वायत्ता में अर्थ की अनंत संभावनाएं लिये ही तो होती है।
बहरहाल, हर शिव शर्मा आवरण रहित स्त्री देह के बहाने प्रकृति के पंचभुत तत्वों के अर्थ गांभीर्य में ले जाते जीवन की उस समग्रता का कैनवस रूपान्तरण करते हैं जिसमें चीजों, लोगों और उनसे संबंधित विचारों को देखने का, उनके बारे में सोचने का हमारा ढंग बदल जाता है। चित्रकला में दिख रहे दृष्य की आकृतिमूलकता का यही तो अमूर्तन है। आप क्या कहेंगे!

Friday, November 4, 2011

विवाह गीतों के लोक का आलोक

लोकगीतों को किसने रचा, कहां से आये और कब ये हर आम और खास के अपने हो गये, कोई नहीं जानता। सभ्यता और संस्कृति का अनहद नाद करते कंठ दर कंठ आगे बढ़े है ये। व्यक्ति ही नहीं धरती, आकाष, नदी, जीव-जंतु, पषु-पक्षियों का गान इनमें है। हर ओर, हर छोर प्रकृति की सौरम इनमें है।
जन्म से मृत्यु तक के तमाम संस्कारों का उजास लोकगीतों में ही तो है। मुझे लगता है, परम्पराओं का अखूट धन कहीं है तो वह इनमें ही है। विवाह संस्कार को ही लें। परिवार की उत्पति, समुदाय और राष्ट्र का निर्माण इस एक संस्कार से ही तो होता है। मानव संबंधों की आधारषिला विवाह ही है। तमाम हमारा जीवन इस संस्कार में ही जैसे परिव्याप्त है। विवाह के लोकगीत सुनें तो संबंधों में निहित संवेदनाओं को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। वहां तमाम हमारे विवाह के संस्कार हैं। रीत-रिवाजें हैं और है परिवार संबंधो का अद्भुत उजास। राजस्थानी लोकगीत संग्रह में तो विवाह गीत पहले भी दिखे हैं परन्तु पूरी तरह से विवाह केन्द्रित लोकगीतों को एक साथ बड़ी-बड़ी दो जिल्दों में देखना सर्वथा नया अनुभव था।  लूंठा-अलूंठा यह संग्रह संपादित किया है के.सी. मालू ने। यह ऐसा है जिसमें एक तरह से लोक की हमारी परम्परा का पुनराविष्कार है। बिखरी और बहुत से स्तरों पर विलुप्त विवाह लोक गीतों की परम्पराओं को परोटते मालू ने लिखित के साथ उसका सांगीतिक स्वरूप भी सहेजा है।  राजस्थान की संस्कृति, धरोहर सहेजने के अंतर्गत किसी एक संस्कार पर मुझे लगता है यह अपनी तरह का पहला व्यक्तिगत वृहद कार्य है। विवाह में सावा थरपण, मूंग बिखेरण के साथ ही विनायक, देव निमंत्रण, भात बत्तीसी, भात मायरा, मेंहदी, रातिजगा, उबटन, घोड़ी, फेरा सीख, बधावा, विदाई, नेगचार आदि तमाम रस्मों के राजस्थानी लोकगीतों, उनके हिन्दी भावानुवाद और अंग्रेजी सार संक्षेप के इस कार्य में मोहक चित्रांकन विवाह परम्परा को आंखो के समक्ष जैसे जीवन्त करते हैं। यह सब लिख रहा हूं तो ‘जल्ला मारू आमलिया पाक्या नै अब रूत आई रै...’, ‘घोड़ी अधर-अधर पग मेलै...घोड़ी घुघरा बजावै...’, और ऐसे ही बन्ने-बन्नी के मांगलिक, छेड़-छाड़, उलाहने और श्रृंगार के गीत भी कानों में रस घोल रहे हैं। हर गीत का अपना माधुर्य, अपनी राग।
विवाह गीतों की खास बात गायन का उनका काव्यगत प्रयोग है। रीत-रिवाज का लय में बखान। गायन के बाद टेक। सुनते हुए गौर करता हूं, किसी बात, किसी संदेष, किसी घटना को लयात्मक पंक्ति में जोड़ कर अद्भुत गेय रूप की सर्जना यहां है। दोहे-सोरठों की छंदोमय अभिव्यक्ति। सच! लोगीतों में सोरठों की अद्भुत सौरम भी है। सोरठ माने सोराष्ट्र। संगीत की दीठ से सोरठ राग भी है। बींझा की नायिका भी तो है सोरठ। कहीं पढ़ा याद आ रहा है, ‘सोरठियौ दूहौ भलौ/भल मरवरण री बात/जोबन छाई धण भली/तारां छाई रात।’ लोकगीतों की गेय शैली का प्रमुख अंग इस तरह के छंद ही है। परम्पराओं को उड़ाती आधुनिकता की आंधी में मुख परम्परागत का भावी पीढ़ियों के लिये विवाह लोकगीत संग्रह श्रमसाघ्य कार्य है। के.सी. मालू से संवाद होता है तो पता चलता है दीर्घकालीन सोच की परिणति है यह। गांव-गांव, शहर-षहर की बाकायदा इसके लिये यात्राएं हुई। विवाह गान को घरों में मूल गायी राग में उसे सुना गया, लिखा गया और पहले लिखे की प्रतिलिपियां भी की गयी। ऐसे ही कोई 250 से अधिक विवाह गीत एकत्र हो गये और फिर हुआ बड़े आकार के दो भागों में इन्हें संपादित कर प्रकाषित करने का कार्य। मूल रागों में उन्हें संगीत में संजोया गया। विवाह गीतों, परम्पराओं के अनमोल खजाने को पढ़ते, सुनते और गुनते जीवन की उत्सवधर्मिता के बहुविध रूप अनायास दिखाई पड़ते हैं। कहें, आप-हम और हमारा परिवार ही इनमें ध्वनित होता है। समय की तेज रफ्तार और उससे उड़ने वाली धूल की जैसे धूंध हटाते है ये। देष-काल की परिधि से परे कालजयी हैं ये। ताजगी लिये। आल्हाद, आह्वान के निरालेपन में संस्कृति के जीवन्त चितराम जो इनमें हैं। लिखे को गुनते, लो अब मैं गुनगुनाने भी लगा हू। लोक का यही तो है आलोक!

Friday, October 21, 2011

दीपो यत्नेन वार्यताम्

कार्तिक उत्सवधर्मिता का मास है। आम आदमी के कला सरोकारों, संस्कृति और परम्परा के पोषण का महिना। धार्मिक अर्थ में सूर्योदय से पहले स्नान का पावन मास। तमाम महिनों में श्रेष्ठतम। अनगिनत पर्व-परम्पराओं का संयोग इसी माह में होता है। शरद पूर्णिमा आती है। करवा चौथ आती है। धन तेरस, छोटी दिवाली, बड़ी दिवाली, गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, भैयादूज, गोपाष्टमी, देव उठनी एकादषी, तुलसी विवाह और भी बहुत सारे उत्सव दिन। मुझे लगता है, भीतर की हमारी कलाओं का पोषण इन सबमें ही तो होता है। करवा चौथ में सोलह श्रृंगार कर छलनी से चांद निहारने की परम्परा हो या फिर शरद पूर्णिमा में खीर बना उसे चांद की रोषनी में रख पान की परम्परा हो या फिर गोवर्धन पूजा के अंतर्गत गोबर में हिरमच और दूसरे रंग मिला मांडणे मांड दीप जला पूजने की रीत। सबमें उत्सवधर्मिता के साथ कलाओं को ही तो हम गहरे से जीते हैं। दीपावली आती है तो एक साथ असंख्य दीपकों का प्रकाष मन में भी उजास भरता है।

बहरहाल, कार्तिक माह में स्नान का विषेष महत्व है। याद पड़ता है, बीकानेर के अपने घर में दादी जब काति नहान करती थी तो घर उत्साह के अनगिनत रंगो से भी जैसे रंग जाता था। भोर के उजास से पहले दादी उठती। हरजस गाती ईष्वर को स्मरण करती। पौ फटने से पहले नहा लेती। ठंडे जल से। सुबह हम उठते तो स्नानघर के पास जगमगाते दीपक की लौ और हरजस का माधुर्य मन में अवर्णनीय आनंद की अनुभूति कराता। दादी कहती, नदी में स्नान होता तो और पुण्य मिलता। नदियां यहां कहां! दादी स्नानघर में ही नदियों को बुला लेती। अचरज होता कभी स्कूल नही गयी दादी परन्तु तमाम हमारी धार्मिक नदियों का संस्कृत आह्वान करती थी-

पुष्करादीनि तीर्थानिगङ्गाद्यारूसरितस्तथा।आगच्छन्तुपवित्राणिस्नानकालेसदा मम॥

गङ्गे चयमुनेचैवगोदावरिसरस्वति।नर्मदेसिन्धु कावेरिजलेऽस्मिन्संनिधिंकुरु॥

कला का यही जीवन उत्स है। जो नहीं है, अपूर्ण है उससे पूर्णता की गमन। किसी विषेष अनुभूति को निपुणता द्वारा अभिव्यक्त करना ही तो है कला। नदी नहीं है परन्तु नदी को अनुभूत करना। उसमें नहान के आनंद की यह अभिव्यक्ति ही क्या कला नहीं है!

मानव संस्कृति का आवष्यक अंग ही कला है। जीवन के सहज आनंद की अभिव्यक्ति के अलावा कला का कोई अन्य उद्देष्य हो भी कैसे सकता है। महात्मा गॉंधी ने इसीलिये तो कला को आत्मा का ईष्वरीय संगीत कहा है। कार्तिक नहान की परम्परा को पुण्य प्राप्ति से जोड़ा गया है। इस माह में नहान माने बाह्य और आभ्यन्तर की पवित्रता।

बहरहाल, परम्पराओं से ही कलाएं पोषित होती है। धर्म, संस्कार, रीत-रिवाज के तमाम हमारे कर्म कलाओं के ही तो हेतु हैं। दीप पर्व दीपावली तो कला का सिरमौर पर्व है। मिट्टी के जगमगाते दियों की अनवरत श्रृंखला के सौन्दर्य की दीठ इसी पर्व पर होती है। प्रजापति कुम्हार मिट्टी के दीये गढ़ता है, और भी बहुत सारी मूर्तियां बनाता है। मोलेला मृण मूर्तियों के लिये विष्व विख्यात है। अभी कुछ दिन पहले ही उदयपुर जाना हुआ तो वहां भी गया। पता चला सड़क के मोड़ पर है यह गांव सो इसका नाम कभी था ‘मोडेडा’। कालान्तर में परिष्कृत होते यह मोलेला बन गया। कार्तिक माह में मोलेला की मूर्तियां, दीपकों की सर्वाधिक बिक्री होती है। वहां बनी लोक देवी-देवताओं की मिट्टी की फड़ तो अब हर आम और खास में लोकप्रिय है। मिट्टी की फड़ माने लोक देवी-देवताओं की मूर्तियों का कोलाज। सोचता हूं तो पाता हूं जीवन में तमाम कलाओं का उत्स हमारी परम्पराओं, उत्सवधर्मिता की संस्कृति से ही तो है। उत्सवधर्मिता का उजास जीवन में होता है तभी तो कलाओं का सृजन होता है। दीपावली को ही लें, कला की उत्सवधर्मिता इस त्योहांर पर अपनी पूर्णता में होती है। शहरों में तो नहीं परन्तु गांव और बीकानेर जैसे हमारे कस्बाई शहर में घरों में दीपावली पर लक्ष्मी के आगमन के लिये प्रतीक रूप में कुमकुम से उसके पगलिये अभी भी बनाये जाते हैं। सुन्दर पगलिये। मांडणे। मिट्टी के सुन्दर दीपक घरों में लाये जाते हैं। उन्हे पहले धोकर साफ किया जाता है फिर तेल-बाती डाल घर के हर कोने में रखा जाता है। दीवारों पर दीपकों की पूरी की पूरी श्रृंखला बनायी जाती है। दीपक जलाते हैं परन्तु पूर्ण जतन से। कला की समग्रता से। ‘दीपो यत्नेन वार्यताम्’ माने दीया जलाओ पर जतने से जलाओ।



Friday, October 14, 2011

विज्ञान और तकनीक का शिल्पाकाश

अनिश कपूर अपने षिल्प में अस्तित्व से संबंधित गूढ़ता लिये कलाकार हैं। कला की उनकी यह गूढ़ता ऐसी है जिसमें जीवन में होने वाले तमाम प्रकार के परिवर्तनों और प्रतिक्रियाओं का दर्षाव है। भले वह जो बनाते हैं उनमें बहुत सा ऐसा जिसमें नगरीय आर्किटेक्ट की आवष्यकता से जुड़े आष्चर्य का लोक है परन्तु वहां तकनीक के कला रूपान्तरण की पूरी की पूरी एक विचार पद्धति को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। उसमें स्वय की उनकी कला दीठ और सृजनात्क षिल्प शैली है।
दिल्ली की नेषनल मोर्डन आर्ट गैलरी में उनके कलाकर्म से पहले पहल रू-ब-रू जब हुआ तो लगा यह षिल्प की वह दुनिया नहीं है, जिसे पहले देखता रहा हूं। रहस्य लोक में ले जाते बड़े-बड़े षिल्प। समय जैसे उनमें ध्वनित हो रहा है। और स्पष्ट कहंू तो अन्तराल का षिल्पाकाष। फाईबर, मोम, मैटल और तमाम दूसरी तरह की चीजों के मिश्रण से निर्मित उनकी आकृतियों में वैज्ञानिक बोध भी है। कला में विज्ञान और तकनीक के विकास की प्रतिध्वनि। ब्रिटेन का उनका ‘आर्क लोर मित्तल ओरबिट’ कभी खासा चर्चित रहा था। यांत्रिकता के समय की तमाम संवेदनाओं को जैसे वहां पिरोया हुआ है। यही क्यों, उनकी बेहद प्रसिद्ध कलाकृति ’क्लाउड गेट’ को ही लें। घेरदार स्टेनलेस स्टील के ढ़ांचे का क्लाउड गेट अपने ढ़ाचे में इमारत के साथ आकाष को जैसे समाहित करता है। याद पड़ता है, नेषनल मोर्डन आर्ट गैलरी में ही उनके तमाम दूसरे कार्यों से रू-ब-रू होते उनसे संवाद भी हुआ था। तब वह भारत मंे ही थे। संवाद से पहले कलाकृतियों से रू-ब-रू होते औचक यह भी लगा कि किसी फेंटेसी जगत में पहंुच गया हूं। टाईम मषीन की मानिंद शीषे के घेरे में आप प्रवेष करते हैं तो कितने ही और अक्स आपको अपने नजर आते हैं। ऐसे ही पिरामिड आकृतियों और उनके पास रंगों को देख उनके भारतीयपन को गहरे से अनुभूत किया जा सकता था। लाल, ब्ल्यू, पीले रंगों की ढे़री अलग से ध्यान खींच रही थी। उनके इस रूपक को देख अपने शहर बीकानेर में गणगौर पूजन की याद हो आयी। गीत गाते हुए गणगौर, ईषर, के मांडणों के लिये गुलाल की ढ़ेरियां से मुट्ठी भर गुला लेती लड़कियां, ऐसा करते जमीन पर छिटकती गुलाल। मुझे लगता है, अनिष कपूर के पिरामिड के पास गुलाल की रक्ताभ लाली का देसज ठाठ  उनकी भारतीयता की उत्सवधर्मिता है। हरे, पीले, नीले रंगों के बावजूद लाल रंग अनिष कपूर के षिल्प के केन्द्र में रहता है। संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘यह पूर्णतः भारतीय रंग है। शरीर के आकर्षण का केन्द्र भी यही रंग है।’ सच ही तो है लाल जीवन संबंधों के साथ ही खतरे, भय को भी व्यक्त करता है। खून का रंग भी तो लाल ही है। कभी ‘रॉयल एकेडमी’ में अनिष कपूर का एक ऐसा ही इन्स्टालेषन खासा चर्चित रहा था। वह तोप से बारूद दागने, खून के रंगों में लथपथ टूकड़े टूकड़े हुए शरीर के चमड़ों के लोथड़ों का संस्थापन था। ऐसे ही उनकी एक कलाकृति में खून और पटरियों के संबंधों को की व्यंजना है। चर्चित षिल्प और भी हैं, ‘तारातंत्र’, ‘मार्सयस’, ‘‘टीजवेली’, ‘स्वयंभ’, ‘मेमरी’ और भी परन्तु तमाम में मानव जीवन और जीवन से जुड़े सरोकार हैं।
अनिष विष्वभर में अपने वृहद स्कल्पचर के लिये जाने जाते हैं। स्कल्पचर की विविधता, विषालता के लिये भी। विष्व की तमाम कला छवियों को उनकी कला में अनुभूत किया जा सकता है। जीवन के रहस्य जगत को पकड़ते हुए वह विज्ञान और तकनीक का अपने तई कला पुनराविष्कार करते हैं। कला का अनूठा आष्चर्यलोक अनिष के कलाकर्म में है। संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘कला वृहद विष्व का विषय है। मैं आधुनिक कलाकार हूं परन्तु परम्परावादी भी हूं। मूलतः मैं भारतीय हूं परन्तु मुझे यह कहने में कतई कोई शकोच नहीं है कि सौन्दर्य की कोई सीमा नहीं होती। इसे किसी राष्ट्रीयता के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए।’
सच ही तो है। कला में विचारों की उनकी लय में तमाम विष्व के सरोकार हैं। एक अनूठी पारदर्षिता भी वहां है। ऐसी जिसमें सृजन की बारीकियां है और है विज्ञान और तकनीक के विकास की कला संगतता।

Tuesday, October 11, 2011

धूप की नदी में पावं छपछपाती चांदनी

जगजीत सिंह अपने गान में गजल गायकी का जैसे अर्थ समझाते थे। सुनने तो अपने आप ही हम उन्हें गुनने लगते। मन में अजीब सी कषीष का अहसास होता। आवाज का वह लरजपन, मर्मस्पर्षी रूमानियत, शब्दों को होलै से निभाने का अलहदा उनका ढंग और जीवन के तमाम भावों के संस्पर्षों की नर्मियां। थमती नहीं है गान की उनकी बारीकियां की उनकी यादें। सुनते हुए किसी ओर जग में जैसे वह ले जाते। यह हर व्यक्ति के अंदर का अपना लोक है। जहां भावनाओं का ज्वार है, तन्हाईयां है और जी भर कर रोने की फुर्सत भी जैसे तलाष ली गयी है। जगजीत माने रूमानी आध्यात्मिकता के स्वर। दर्द के समन्दर का अपनापन। हम नहीं गाते परन्तु उन्हें सुनते हुए भीतर का हमारा मन उनके साथ औचक गाने लगता है। अंदर से रूह हिल जाये, ऐसा वह गाते। भीतर के सन्नाटे का गान। दिल की तन्हाई का संगीत यानी जगजीत सिंह।
जगजीत सिंह की मर्मस्पर्षी आवाज दिल के अंदर जैसे हलचल मचा रही है। ‘किसने रास्ते में चांद रखा था, मुझको ठोकर लगी कैसे...।’ पहले गुलजार के लफ्जों के ‘मरासिम’ में और बाद में ‘कोई बात चले’ एलबम में जिस तरह से उन्होंने निभाया, वैसे क्या कोई ओर निभा सकता है! यही है पारम्परिकता के जड़त्व को तोड़ना।
संगीत के अधीरजनों की प्यास बुझाने के लिये ही जैसे उनका गान बना। उन्हें सुनते हुए गीत, गजल, भजन के बोल ही नहीं उन्हें बरतने का उनका अंदाज भी मन को भाता। यह उनका अपना और केवल अपना था। ऐसा जिसमें मुहब्बत को जिस्मानी रिष्तों से मनुष्य के वजूद से जोड़ने का प्रयास था। गायन की उनकी रोषनी में सर्जन की उन तमाम संभावनाओं को तलाषा जा सकता है जिसमें व्यक्ति अपने खुद के वजूद को ढूंढता है, अपने होनेपन को तलाषता है। मुझे लगता है गजल में छंद की संस्कृति को बोल की रंगत देते वह जो थरथरापन सुनने वालों को देते थे उसमें एक मीठा सा दर्द बंया होता था। गजल में यह रूमानियत लिये होता तो भजन में प्रार्थना के अंदरूनी संस्पर्षों की नीरवता को मुखरित करता हमें अपना लगता था। इसीलिये उनकी आवाज दिल की गहराईयों तक उतरती  अपनी कषीष में दिलो दिमाग पर छा जाती है। हम डूब जाते हैं, संगीत के उनके समन्दर में। आंसू का सैलाब उमड़ता है...भीगती है रूह। याद पड़ता है, कभी सुनामी पीड़ितों की मदद के ख्याल से उन्होंने ‘साईं धुन’ एलबम निकाला था। यह धुन उनके मन की धुन थी। उस मन की जिसमें खुद उनका दर्द दूसरों के दर्द से घुल-मिल हल्का होता था।
बहरहाल, जगजीत राजस्थान के थे। श्रीगंगानगर के जाये जन्मे। संगीत की सुरूआती तालीम उन्हें छगनलाल शर्मा से मिली। बाद में सेनिया घराने के उस्ताद जमाल खान के वह शागिर्द भी बने। गायन की शुरूआत गुजराती फिल्म में पार्ष्वगायन से हुई और वर्ष 1976 में उनका एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल’ निकला। जगजीतसिंह ने सच में इससे जग को जीत लिया। याद करें इसमें गाया उनका वह गीत, ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी...’। यह शायरी की समझ वाला गान था। ‘कौन रोता है किसी और के गम की खातिर, सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया...।
उनका मूल नाथ था जगमोहन। गायन में जगजीत से मषहूर हुए। जग को मोहने वाला कहें या जीतने वाला क्या फर्क प़ड़ता है! सुरों की जगजीत की सर्वथा अलग कायनात, एक पूरी दुनिया उनके पास जो थी। इसमें सुनने वालों को वह कभी रूमानी तपिष का अहसास कराते तो कभी शर्मो हया का हिजाब डालते। गायन के अलहदा बिंब रचते वह खंड-खंड होते स्वरों को पिरोने की साझा विरासत जैसे हमें सौंप गये हैं। शायरी के मिजाज में आवाज का उनका घुला रस बहुविध रंगों में पतझर के दरख्तों के खालीपन का अहसास कराता है। वहां एक अलग तरह की बैचेनी, गहराई है। मन के रीतेपन को भरती हुई। गजल के बारे में मधुरिमा सिंह का लिखा औचक जेहन में कौंधने लगा है, ‘गजल जिदंगी की पलकों पर थरथराती हुई आसूं की बूंदे हैं जो सूरज की रोषनी अपने अंदर समाकर सतरंगी आभा से आलोकित हो जाती है।’ मुझे लगता है जगजीत सिंह की गायकी ऐसी ही है जिसमें धूप की नदी में पावं छपछपाती है चांदनी। आप क्या कहेंगे!

Friday, October 7, 2011

कलाओं से रचा ‘संगना’ छंद

कहीं पढ़ा जेहन में कौंध रहा है, ‘ज्योतिरूपो रसः स्मृतः।’ केवल रस रूप नहीं। ज्योतिरूप रस। ज्योति का संवाहक रस। संगीत, नृत्य, नाट्य कलाओं के आस्वाद की अनुभूति। कलाओं से खाली रस ही थोड़े ना मिलता है। सोचिए! संगीत सुनते हम उसे गुनते हैं। नृत्य-नाट्य कलाओं का आस्वाद करते बहुतेरी बार हम खुद ही उनमें रमने लगते हैं। वहां जो रस मिलता है, वह देखने-सुनने के समय ही नहीं बल्कि उसके बाद भी सजीव रूप में बचा रहता है। कईं बार पूरा जीवन ही उस रस से ओत-प्रोत हो जाता है। कलाओं के आस्वाद की स्मृति छायाएं ही तो नहीं है कहीं यह ज्योति रस!
 ख्यात कला समीक्षक, कवि प्रयाग शुक्ल ने कुछ दिन पहले स्नेहवष ‘संगना’ भेजी। संगीत नाटक अकादमी ने इसे उनके संपादन में प्रकाषित किया है। ‘संगना’ शब्द ‘संगीत नाटक’ में प्रयुक्त अक्षरों से निर्मित किया गया है। संगीत से संग और नाटक से ना लिया गया है। ‘संगना’ माने जो संग हो। ‘संगना’ में ध्वनित ‘हमारे संग हो ना’ की उनकी सम्पादकीय व्याख्या लुभाती है।
बहरहाल, संगीत, नाटक और नृत्य कलाओं पर  216 पृष्ठीय सामग्री का आगाज सुखद है। मसलन मुकुन्द लाठ का विषेष आलेख ही लें जिसमें संगीत की शास्त्रीयता के साथ ही जन सरोकारों पर रोषनी डाली गयी है। लाठ संगीत को स्वर-पद-ताल का समवाय कहते हैं। लिखते हैं, ‘लय को काल का ऐसा प्रवाह कह सकते हैं जिसका हमारे भावबोध से अंतरंग संबंध होता है...हम कुछ भी गाए या बजाएं तो स्वर का प्रवाह लय मंे छन्द के गुच्छे उभारता चलता है...।’ रमेषचन्द्र शाह द्वारा संगीत और अन्य कलाओं पर समय-समय पर लिखी ‘डायरी’ भी गजब की है। ‘जब जो सुना सुनकर गुना’ में वह संगीत और नृत्य में शरीर और साहित्य में शब्द माध्यम पर विचारते आधुनिक जीवन की लय को ही जैसे व्याख्यायित करते हैं। ऐसे ही रवीन्द्र संगीत की लय को जीवन से जोड़ती नवनीता देवसेन का शब्द माधुर्य भी लुभाता है। गीतों के झरने तले’ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों से गुंफित जीवनानुभवों में नवनीता के कथाकार, कवि मन को भी गहरे से समझा जा सकता है।
अषोक वाजपेयी के कहन में सदा ही शब्दों की संस्कार परिणति देखी है। और स्पष्ट करूं तो कला संस्कार परिणति।  मल्लिकार्जुन मंसूर पर लिखी कविताएं और उनके गान, व्यक्तित्व पर उनके लिखे संस्मरण की पंक्तियां देखें, ‘मल्लिकार्जुन मंसूर का संगीत जीवन की सुरों से आरती उतारते हुए संसार का गुणगान  था: उसमें गहरी आसक्ति, उच्छल मोह, अदम्य आवेग और निपट एकान्त सब थे जैसे कि संसार में होते हैं।...’
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के शहनाई गान और उनके व्यक्तित्व पर ‘संगना’ में व्योमेष शुक्ल का रचा शब्द रूपक और पंडित भीमसेन जोषी के गान पर यतीन्द्र मिश्र का आलेख गायन-वादन को समझने की नयी दीठ देता है। हबीर तनवीर की रंग दृष्टि के बहाने रंगकर्म में लोक एवं शास्त्र की सूक्ष्म आवाजाही को संगीता गुंदेचा ने आलेख में गहरे से उद्घाटित किया है। बाल रंगमंच की पुरोधा रेखा जैन के व्यक्तित्व और उनके रंग सरोकारों पर ज्योतिष जोषी का संस्मरण भी पठनीय है। असमिया सिनेमा के अंतर्गत श्रीमंत शंकर देव पर बनी फीचर फिल्म पर लिखा रत्नेष कुमार का आलेख भी अलग से ध्यान खींचता है।
उदयन वाजपेयी के लिखे की चर्चा भी मुझे जरूरी लगती है। लिखे में दृष्य आस्वाद कराते वह पणिक्कर के साथ नाटक पर काम करते की जो याद करते हैं, उसमें उनकी प्रकृति संवेदना से भी साक्षात् होता है। लिखते हैं, ‘कावालम में पणिक्कर का घर खूबसूरत पम्पा नदी के तट पर था। मेरी सोच में यह नदी रामायण से निकलकर इस गांव तक बहती चली आई थी।...बहती हुई नदी चित्र-लिखित-सी...’
सामग्री और भी है, महत्वपूर्ण भी। लिखूंगा तो न जाने और कितने पन्ने भर जाए। हां, यह जरूर है कि प्रयाग शुक्ल ने अपनी गहरी सम्पादकीय सूझ से ‘संगना’ के जरिये संगीत, नृत्य और नाट्य पर सोचने, विचारने का नया वातायन दिया है। आखिर यह कलाएं ही तो हैं जिनमें जीवन का उजास है। विद्यानिवास मिश्र के शब्द उधार लूं तो कहूं कला सन्निविष्ट है हमारा जीवन। कलाओं के बिना जीवन अपना सहज छंद क्या पहचान पाएगा! लिख रहा हूं तो ‘संगना’ साथ है। आप भी तो हैं!
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Friday, September 30, 2011

संस्कृति के सिनेमाई सरोकार

तमाम कलाओं का सामूहिक मेल सिनेमा है। वहां संगीत है। नृत्य है। नाट्य है, तो चित्रकला भी है। ऋत्विक घटक ने इसीलिये कभी कहा था कि दूसरे माध्यमों की अपेक्षा सिनेमा दर्षकों को त्वरित गति से चपेट में लेता है।...एक ही समय में यह लाखों को उकसाता और उत्तेजित करता है।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में राजस्थानी फिल्म महोत्सव में भाग लेते मायड़ भाषा और उसके सिनेमा सरोकारों को भी जैसे गहरे से जिया। सदा हिन्दी में बोलने वाले सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के शासन सचिव कुंजीलाल मीणा राजस्थानी में बोल रहे थे और सिनेमा से जुड़े गंभीर सरोकारों पर बखूबी बतिया भी रहे थे। अचरज यह भी हुआ, 1942 में जिस भाषा में महिपाल, सुनयना जैसे ख्यात कलाकारों को लेकर पहली फिल्म ‘निजराणो’ का आगाज हो गया था, वह सिनेमा विकास की बाट जो रहा है। जिस सिनेमा में कभी रफी ने ‘आ बाबा सा री लाडली...’ जैसा मधुर गीत गाया, जहां ‘जय संतोषी मां’ समान ही ‘सुपातर बिनणी’ जैसी सर्वाधिक व्यवसाय करने वाली फिल्म बनी, वह 69 वर्षों के सफर में भी पहचान की राह तक रहा है। भले इसकी बड़ी वजह दर्षकों का न होना कहा जाये परन्तु तमाम हिट-फ्लॉप फिल्मों से रू-ब-रू होते इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि तकनीक की दीठ से अभी भी यह सिनेमा बहुत अधिक समृद्ध नहीं है। सच यह भी है कि सिनेमा जैसे बड़े और फैले हुए माध्यम की समझ का भी मायड़ भाषा में टोटा सा ही रहा है। राजस्थान की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और कलाओं को बखूबी परोटते हिन्दी सिनेमा ने निरंतर दर्षक जोड़े हैं जबकि राजस्थानी सिनेमा कैनवस इससे कभी बड़ा नहीं हुआ।
पचास से भी अधिक वर्ष हो गये हैं, हिन्दी फिल्म ‘वीर दुर्गादास’ में भरत व्यास रचित मुकेष-लता का गाया पूरा का पूरा राजस्थानी गीत ‘थाने काजळियो बणा लूं...’ था। तब भी और आज भी यह लोकप्रिय है परन्तु राजस्थानी सिनेमा ‘बाबा रामदेव’, ‘लाज राखो राणी सती’ करमा बाई’ ‘वीर तेताजी’, ‘नानी बाई को मायरो’ जैसी धार्मिक फिल्मांे और ‘बाई चाली सासरिये’, ‘ढोला-मरवण, ‘म्हारी प्यारी चनणा’, ‘दादो सा री लाडली’ और इधर बनी ‘पंछिड़ो’ ‘भोभर’ जैसी कुछेक गिनाने लायक फिल्मों से आगे नहीं बढ़ सका है। जो फिल्में बनी हैं, उनमें अधिकतर ऐसी हैं जो हिन्दी सिनेमा की तड़क-भड़क का बगैर सोचे अनुकरण करती भद्दे, विकृत और हीन वृत्त्तियों को उत्तेजन देने वाले तरीकों पर ही केन्द्रित रही है। हल्केपन की इस नींव में कितने ही खूबसूरत कंगूरे लगा दें, इमारत के भरभराकर गिरने से रोकने की गारंटी क्या कोई दे सकता है!

बहरहाल, राजस्थानी फिल्म महोत्सव सार्थक पहल है। इसलिये कि इसके अंतर्गत दिखाई फिल्मों और आयोजित विभिन्न विचार सत्रों से चिंतन और समझ के नये वातायन खुले हैं। सिनेमा की गहरी समझ रखने वाले मित्र संजय कुलश्रेष्ठ से संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘फिल्म समारोह से निर्माता जगेंगे। दूसरे पक्षों में भी कुछ चेतना तो आएगी ही।’ सवाल यहां यह उठता है कि फिल्म निर्माण की कला को राजस्थानी में क्या वाकई सुनियोजित रूप से लिया गया है? जब राजस्थानी लोकगीतों का संस्कृति के मूल सरोकारों के साथ तकनीकी दीठ से के.सी. मालू जैसे शख्स अपने तई पुनराविष्कार कर उसका सुदूर देषों तक व्यापक प्रसार कर सकते हैं तो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि राजस्थान की संस्कृति यहां की भाषा का सिनेमा सषक्त संप्रेषण माध्यम हो सकता है। दक्षिण का ही उदाहरण लें। बदलते हुए समय में भी वहां सिनेमा ने समाज को संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखा है। किसी भी भाषा में यह जरूरी नहीं है कि जो फिल्में बने वह सबकी सब महान या कालजयी हों ही परन्तु जो फिल्में बनें उनमें कला की दीठ तो हो। तकनीक की समझ तो हो। यह सिनेमा ही है जो अपनी बात कान, वेनिस, कार्लोवी, वारी से लेकर सुदूर गांवों तक पहुंचा सकता है। फिल्म प्रदर्षन की सीमाओं के चलते एक आस जवाहर कला केन्द्र के महानिदेषक हरसहाय मीणा ने भी दी है। राजस्थानी सिनेमा के लिये तमाम पक्षों की ओर से सार्थक पहल यदि इस फिल्म महोत्सव के बहाने ही होती है तो इसमें बुरा ही क्या है!

Friday, September 23, 2011

कैनवस और संस्थापन की नयी दीठ

इन्स्टालेशन माने संस्थापन। कला में विज्ञान, तकनीक और दर्शन  का एक प्रकार से मेल। तमाम तरह की वस्तुओं के विन्यास के साथ ही इर्द-गिर्द फैलायी चीजों से एक नया वातावरण पैदा करने का प्रयास। कला का यह आज ‘न्यू मीडिया’ है। कुछ और स्पष्ट कहूं तो कला का लोकतंत्र। ऐसा जिसमें माध्यमों-संसाधनों का किसी भी तरह से उपयोग करने के लिये कलाकार स्वतंत्र होता है। दर्शक  यहां दृष्टा भर नहीं होता, बल्कि बहुतेरी बार इन्स्टालेशन का हिस्सा भी हो जाता है।
जवाहर कला केन्द्र में भारत एवं कोरिया की समकालीन कला प्रदर्शनी ‘पिंक सिटी आर्ट प्रोजेक्ट 2011’ में कैनवस के साथ ही संस्थापन की भी बहुलता दिखाई दी। विडियो इन्स्टालेशन के साथ ही फाईबर ग्लास, पेपर, झाड़फानुस, पुराने दरवाजे और भी बहुत सारी चीजों से उभारी नये दौर की यह कला अपनी ओर जैसे बुला रही थी। भले वहां माध्यमों का अतिरेक था फिर भी संप्रेषण की दीठ का नयापन भी था। मसलन जयपुर की सड़कों पर चलने वाले रिक्साचालक का विडियो इन्स्टालेशन। पैडल पर पड़ते पैरों से उत्पन्न गति और ध्वनि दृष्य जेहन में तो बसता है परन्तु उसमें मोनोटोनी है। ली जून जीन द्वारा पर्दे पर प्रोजेक्टर के जरिये उभारे अर्थहीन बिम्बों को कहने भर को कला कहा जा सकता है। मुझे लगता है, संस्थापन के अंतर्गत कोरियाई कलाकारों में तकनीक का आग्रह अधिक है। इन्स्टालेशन की यही बड़ी सीमा है। तकनीक कला के संप्रेषण का हेतु तो हो सकती है परन्तु वह कला कैसे हो सकती है! नयेपन के नाम पर संस्थापन मे यह मनमानी सही नहीं है।
बहरहाल, विनय शर्मा का संस्थापन अर्थ गांभीर्य लिये संवेदना को झकझोरता है। रचनात्मक और विजुअल इन्स्टिंक्ट में पुरानी चीजों के अस्तित्व से भूत, भविष्य और वर्तमान के मायने जैसे रखे गये। पुरानी बहियों के पन्ने, नगाड़ों, लालटेन, कलम और दवात के ऊपर टंगे झाड़फानुस को रोशनी रंग देता आधुनिक प्रोजेक्टर और अंधेरे कमरे में आस-पास फैलायी ताजी दूब की गंध से सोच को जैसे पंख लगते है। ऐसे ही सुरेन्द्रपाल जोषी का संस्थापन भी संवेदना को नये आयाम देता है। फाइबर ग्लास, सूत की डोरियों में में झांकती रोषनी की परतों से उभरती जीवाश्म   सरीखी आकृतियां और कैप में उभरे नाखुनों के अंतर्गत वहां सृजन के सरोकारों की गहरी तलाष की जा सकती है। हां, कोरियाई कलाकार ली सेंग ह्यून का और ना सू यीओन का इन्स्टालेशन शहरों से जुड़ी स्मृतियों के जीवंत बिम्ब भी अलग से ध्यान खींचते लगे।
प्रदर्शनी में भारतीय-कोरियाई कैनवस में बहुत से स्तरों पर साम्यता की अनुभूति होती है। रंग और संवेदना के स्तर पर देखें तो कोरियाई कलाकार कोह अ बीन की जल रंगों में झांकती ‘अ टेल आॅफ चियोंग’, किम योंग क्वान की ज्यामीतिय संरचना, किम येंग ही के रंग कोलाज, किम क्योंग ए की ‘नेस्ट ऑफ  फोनिक्स’, किम यून जिन का स्त्रीआकृति के साथ ही सुधांशु  सूथार, कालीचरण गुप्ता, आलोक बल, मनीष शर्मा और बोस कृष्णमाचारी की कैनवस कलाकृतियां में निहित संवेदना के चक्षु देशों  की दूरियां जैसे पाटते हैं।
कला में इन्स्टालेशन  कोई नई बात नहीं है। भारतीय परम्पराओं में  तो संस्थापन की भरमार है। मेले, पर्व, अनुष्ठान, जन्माष्टमी सजाई और दुर्गा विसर्जन सब संस्थापन ही तो है। चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में पश्चमी  कला जगत में दृक अनुभवों के अंतर्गत अलग-अलग चीजों, तत्वों को किसी एक अवकाश या स्पेश  में ले जाने की कला शैली कुछ-कुछ संस्थापन जैसी ही तो रही है। कभी मार्षल दूषां ने ‘युरिनल पोट" को प्रदर्शनी में बतौर ‘फाउण्टेन’ शीर्षक से शिल्प  करार देते परम्परागत मर्यादाओं को तोड़ते संस्थापन ही तो किया था।
दृश्य, ध्वनि, स्पर्श और शब्द के इन्स्टालेशन में विषय-वस्तु और फोरम  के कारण तताम तत्वो ंका संयोजन किसी एक संबंध में रूपान्तरित होता नये अनुभव का संवाहक होता है। यह जब लिख रहा हूं, भारतीय-कोरियाई कलाकारों की प्रदर्शनी  के अंतर्गत कैनवस और इन्स्टालेशन आर्ट में कला के वैश्वीकरण  को भी जी रहा हूं। आप क्या कहेंगे!

Saturday, September 17, 2011

अंतर्मन संवेदनाओं के चित्राख्यान

सावित्री पाल की अंतर्मन संवेदनाओं को उनकी रेखाओं में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। बारीक रेखाओं के अंतर्गत स्त्री-पुरूष की देह से लिपटे-फूलों, बेलपत्तियांे के बहाने वह जीवन की अपने तई कला व्याख्या करती है। तकनीक की दृष्टि से ही नहीं बल्कि संवेदनाओं के भव की दीठ से भी। स्त्री-पुरूष संबंधों, देह से जुड़े सवालों से उनकी कलाकृतियां जूझती लगती है तो ठीक इसके उलट बहुत से स्तरों पर उनका कलाकर्म निर्वाण के मौन की भी पुनर्व्याख्या करता प्रतीत होता है। कह सकते हैं दर्षन की गहराईयों में वह जो उकेरती रही है, उसमें जीवन का सांगोपांग चितराम है। भले वह जो बनाती हैं, वह आकृतिमूलक है परन्तु उसके अर्न्तनिहित अमूर्तन का वह कैनवस भी है जिसमें देखने वाले को विचार का सर्वथा नया आलोक भी मिलता है। मसलन बुद्ध से संबद्ध उनकी कलाकृतियों को ही लें। मौन बुद्ध की शांत आकृतियों को सावित्री पाल ने अपनी दीठ से विस्तार दिया है। निर्वाण का अर्थ जग से पलायन नहीं है, जग से भागना नहीं है बल्कि जगत को ज्ञान से दीक्षित करना है। बुद्ध ने यही तो किया था। ऐसे वक्त में जब तमाम समाज कर्मकाण्डों के जाल में उलझा हुआ था, यह बुद्ध ही तो थे जिन्होंने व्यक्ति को अपने भीतर झांकते हुए पूर्वाग्रहों से मुक्ति की राह दिखाई थी। कर्मकाण्डों से परे ऐसे धर्म पर चलने की राह सुझाई जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता को बरकरार रखते हुए भीतर के अपने आलोक को बाहर ला सके।

सावित्री पाल की कला में बुद्ध के निर्वाण के साथ ही उनके इस दर्षन से गहरे से साक्षात् हुआ जा सकता है। उनके बुद्ध हमारी चेतना को जगाते हैं। बुद्ध का अर्थ भगवान बुद्ध ही थोड़े ना है, बुद्ध का अर्थ है ज्ञान जो हमारे भीतर है। रेखाओं के अद्भुत न्यास में सावित्री पाल के चित्रों के खुलते अर्थ गवाक्षों में भले ही स्त्री-पुरूष आकृतियों के कोलाज सरलतम रूप मंे हमारे समक्ष आते हैं परन्तु उनमें निहित बुद्धत्व के भाव अलग से ध्यान खींचते है।

स्त्री-पुरूष संबंधों और उनकी अंतर्मन संवेदनाओं को रेखाओं के रूपाकार में वह देखने वाले की दृष्टि और उसके अनुभवों का विस्तार करती है। मुुझे लगता है, आपाधापी मंे तेजी से छूटते जीवन मूल्यों, भावनाओं के ज्वार और देह के भुगोल में सिमटते जा रहे रिष्तों की उनकी कलाकृतियां एक तरह से गवाही देती है। जो जीवन हम जी रहे हैं, उसके द्वन्दों को सावित्री पाल की कला गहरे से रेखाओं में व्याख्यायित करती है। प्रतिदिन के जीवन से रू-ब-रू होने के बावजूद हम कहां उसको समझ पाते हैं। बहुतेरी बार जब तक समझते हैं, तब तक अनुभूति बदल जाती है। जीवन में जो कुछ छूट जाता है, उस छूटे हुए को सुक्ष्म संवेदना, दृष्टि में सावित्री पाल अपने चित्रों में जताती हुई भी लगती है। सहज, सरल मानवाकृतियों के साथ ही पार्ष्व के परिवेष, बेल-बूटे, लताओं, फूलों और तमाम चित्र के दूसरे परिदृष्य में उनका कलाकर्म आमंत्रित करता है, बहुतेरी बार देखने वाले पर हावी होता है, कुछ कहने के लिए मजबूर करता हुआ।

ब्हरहाल, सावित्री पाल के चित्र संवेदना के जरिए गतिमान होते हैं। उनमें भावों की लय है। वहां उत्सवधर्मिता, विषाद, हर्ष की अनुभुतियां भी है तो आकृतिमूलक कला का वह माहौल भी है जिसमें अनुभव और मन के भावों से बनती नारी-पुरूष देह यष्टि के हाव-भाव आपको भीतर से झकझोरते हैं, कुछ सोचने को विवष करते हुए। परम्परा का निर्वहन तो वहां है परन्तु आधुनिकता की वह संवेदनषीलता भी है, जिसमें उभरे प्रतीक, बिम्ब देखने वाले से संवाद करते हैं।

कांट का कहा याद आ रहा है ‘प्रकृति सुन्दर है क्योंकि वह कलाकृति जैसी दिखती है और कलाकृति को तभी सुदंर माना जा सकता है जब उसका कलाकृति जैसा बोध होते हुए वह प्रकृति जैसी प्रतीत होती है।’ स्त्री-पुरूष से ही तो यह प्रकृति है। सोचिए! प्रकृति की लय यदि गायब हो जाय तो क्या फिर हम सौन्दर्य का आस्वाद कर सकते हैं!

Friday, September 9, 2011

रेखाओं और रंगो का काव्य कहन


यह जून 2010 की बात है। जहांगीर सबावाला ने तब नया विष्व रिकॉर्ड बनाया था। उनकी एक कलाकृति ‘द कसअरीना लाइन आई’ सैफ्रोनार्ट की ऑनलाइन नीलामी में 1.7 करोड़ में बिकी थी। अखबारों की सुर्खियों में औचक वह छा गये थे परन्तु पिछले शुक्रवार को जब इस कलाकार का देहान्त हुआ तो समाचार जगत मौन था। मन में विचार कौंधा, कला और कलाकार की समाचार गत क्या यही है?

बहरहाल, जहांगीर सबावाला अपनी धुन के ऐसे कलाकार थे जो कैनवस पर ही बोलते थे। असल जीवन में एकान्तिक। एकाधिक बार संवाद हुआ तो अपने बारे में बताने से भी बचते ही रहे। लगातार उन्होंने काम किया और कुछ समय तक प्रभाव वाद, घनवाद के करीब रहने के बावजूद भारतीय परिवेष, रंग और सोच से उन्होंने अपने तई कला की नयी भाषा भी रची। यह ऐसी थी जिसमें पिकासो की कला शास्त्रीयता को आगे बढ़ाते भारतीय दृष्टि के अंतर्गत जीवन से परे स्वर्गिक सौन्दर्य सृष्टि के चितराम उन्हांेने उकेरे। पूर्व-पष्चिम के मेल की कला शैली। भारतीय दर्षन में पष्चिम की दृष्टि। उनके लैण्डस्केप और मानवाकृतियां इसी की संवाहक है। सौन्दर्य की तमाम संभावनाओं का उजास वहां है। नदी, समुद्र, पक्षी, आकाष, भोर, सांझ के कैनवस पर उभरते उनके दृष्य परत दर परत घुले रंगों में देखने के हमारे ढंग को भी जैसे नयी दीठ देते हैं।

सबावाला के प्रकृति चित्र सांगीतिक आस्वाद कराते हैं। दृष्यों में वहां समय का मधुर गान है। लैण्डस्केप में उभरी भोर की लाली, दोपहर, सांझ और धूप की परछाई समय की गति को ध्वनित करती हमें ‘अरे! यह सूर्योदय, यह सांझ!’ जैसा ही कुछ कहने के लिये उकसाती है। दैनिन्दिन जो दिखता है, वैसा ही परन्तु दृष्य रूपान्तरण में अलग मोहकता। वायवीयता। भारतीय रंग और परिवेष परन्तु पष्चिम से सीखी कला की शास्त्रीयता। आकृतियों जैसे वातावरण में घुल रही है। देखने का हमारा अनुभव बदल जाता है। मुझे लगता है, उनकी प्रकृति दृष्यावलियां मैंटल लैण्डस्केप हैं। दृष्यों के मनःदृष्य।

याद पड़ता है, संवाद में एक बार उन्होंने कहा था, ‘चित्र बनाने से पहले मैं अपनी डायरियंा टटोलता हूं। मैं प्रकृति, चीजों को देखकर नोट लेता हूं। देखे हुए अनुभवों के साथ ही सुबह, दोपहर, सांझ के रंगों की डिटेल भी कईं बार लिख लेता हूं। बाद में कैनवस पर काम करता हूं तो यह सब काम आता है।’ सच ही तो कहा था सबावाला ने। वह जब कुछ बनाते तो दृष्य मन के उनके सौन्दर्य का संवाहक बन जाते। ऐसा लगता है, रंग और रेखाओं के साथ बहती हवा को भी वह जैसे घोल देते। हवा का संगीत भू दृष्यों पर, आकृतियांे पर तैरता है। अजीब सा सुकून देता हुआ। परत दर परत घुले हुए रंग। जल, थल और नभ के अनगिनत बिम्ब। वहां पक्षी है, रात है, सांझ की लालिमा है परन्तु यह सब हमारे पृथ्वीलोक के नहीं होकर किसी ओर लोक के लगते हैं। यह दृष्य की काव्य भाषा है। फंतासी। परिचित वस्तुओं, मानवाकृतियों का अपनी दीठ से वह अद्भुत रंग संयोजन कर दृष्यांकन का जैसे नया मुहावरा बनाते। शरीरचना शास्त्र के बाह्य बंधनों से परे मानव निर्मित ज्यामीतियता प्रधान वस्तुओं के दृष्य प्रभावों का अनंत आकाष उनके चित्रों में है। कला सौन्दर्य की अपूर्वता वहां हैं। रंग और रेखाओं में भावों का अनूठा स्पन्दन। सौन्दर्य का उनका चित्रकहन कला की वैष्विक भाषा है। ऐसी भाषा जिसमें भारत के साथ ही तमाम दूसरे देषों की रेखाओं, रंगो, परिवेष और विचारों को जैसे गूंथा गया है। देष काल की सीमा से परे सौन्दर्य की उनकी कला अभिव्यंजना में सम्मोहन है। यह उनका कला सम्मोहन ही है जो जो हमें उनकी कलाकृति के आस्वाद के बाद भी उसके अनुभव से मुक्त नहीं होने देता है। कला की यही उनकी निजता है।

Monday, September 5, 2011

मूल के साथ कला का यह प्रतिकृति बाजार


मौलिक सर्जन को बहुत से स्तरों पर प्रसव वेदना के बाद के सुख से अभिहित किया गया है। सोचिए! इस अंतःप्रक्रिया के बाद कोई कलाकार अपनी निर्मिती की ही कहीं नकल पाता है तो उस पर क्या गुजरती होगी। आज के कलाबाजार का यही कड़वा सच है। असली के साथ ही 20 से 25 प्रतिषत कलाकृतियां आज बाजार में नकली बेची जा रही है। पिकासो, वॉन गॉग, सलवाडोर डाली, मार्क चगाल से लेकर रजा, हुसैन, मनजीत बावा, जे. स्वामीनाथन, सुबोध गुप्ता, अतुल डोडिया, अंजली इला मेनन की कलाकृतियों की बिक्री में जैसे असल-नकल का कोई भेद ही नहीं रह गया है।

कभी अंजली इला मेनन की ‘फीमेल हेड’ पेंटिंग की नकल के चर्चे खूब रहे थे और एस.एच. रजा उस दिन को शायद ही कभी भूल पाये होंगे जब उन्हें अपनी ही नकल की हुई कलाकृतियों के उद्घाटन अवसर पर याद किया गया था। अमेरिका की प्रतिष्ठित क्रिस्टीज और सोथबीज कलादीर्घाओं में भारतीय मूल के चौदह प्रख्यात कलाकारों की कलाकृतियों नकली होने के संदेह में उन्हें नीलामी सूची से हटाया गया तो ख्यात कलाकार अजय घोष की कलाकृतियों को नंदलाल बोस की कलाकृतियों बता कर बेचे जाने का मामला भी खासा चर्चित रहा है। गणेष पाईन के रेखाचित्रों की रंगीन फोटोप्रतियां को असली बताकर बेचे जाने ने तो कला मे नैतिकता के तमाम मूल्य जैसे बदलकर रख दिये हैं। नकल के इस गोरखधंधे में बारीकी इस कदर है कि बड़े से बड़ा कला पारखी ही नहीं बल्कि स्वयं कलाकार भी धोखा खा जाये।

याद पड़ता है, कभी हुसैन की राज श्रृंखला की पेंटिग ‘राजा और रानी’ को उनके बेटे ने चैन्ने की एक मषहूर कलादीर्घा में देखा तो पाया कि वह नकली थी। बाकायदा हुसैन ने तब समाचार पत्रों में अपील जारी की कि कला संग्राहक उनकी कलाकृतियों के असली होने की पुष्टि के लिये उनके रंगीन फोटोग्राफ भेजे परन्तु खुद हुसैन अपनी पेंटिंग की नकल की बारीकी को पकड़ नहीं पाये और धोखा खा गये।

बहरहाल, कला में नकल की इस प्रवृति का बड़ा कारण है तेजी से पनपता कला बाजार। यह ऐसा है जिसमें हैसियत के हिसाब से कलाकृतियां खरीदी और बेची जाती है। मषहूर कलाकारों के सहायकों और प्रषंसक कलाकारों ने भी इसे कम बढ़ावा नहीं दिया है। मसलन अंजलि इला मेनन के सहयोगी हामीद ने ही उनकी कलाकृतियों की नकल बाजार में पहुंचायी तो मनजीत बावा के सहायक महेन्द्र सोनी ने बावा की कलाकृतियां की नकल जमकर बेची। जे. स्वामीनाथन के चित्र बहुत कम लोगों के पास है परन्तु उनकी चिड़िया और पहाड़ श्रृंखला की नकल अमेरिका की प्रमुख आर्ट गैलरी बेचती पायी गयी। स्वामीनाथन के पुत्र संस्कृति समीक्षक कालीदास को इस बात का पता लगा तो उन्होंने नकली कलाकृति की निलामी रूकवाई। मजे की बात यह रही कि कलादीर्घा स्वामीनाथन की जिस चित्र शैली को 1966 का बता रही थी वह शैली असल में सत्तर के दशक में आयी थी।

मुझे लगता है, कला के इस गोरखधंधे के प्रति हमारे यहां अभी भी खास कोई सजगता नहीं है। यही कारण है कि असल के साथ नकल की प्रवृति निरंतर बढ़ती जा रही है। क्यों नहीं कला षिक्षा के अंतर्गत कला की असल-नकल पर भी चर्चा की जाये। तकनीकी तौर पर कलाकृति निर्माण में कलाकारों द्वारा ऐसा कुछ जरूर किये जाने की पहल की जाये जिससे वह स्वयं वह अपनी कलाकृति की असल-नकल को पहचान सके। क्यों नहीं कलाकृतियों की नकल संबंधी कॉपीराइट कानूनों की भी षिक्षा कला षिक्षण संस्थान अपने यहां दें। कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर और अमृता शेरगिल की कलाकृतियों को राष्ट्रीय धरोहर मानते हुए इनके निर्यात पर धरोहर और कलानिधि कानून 1972 के तहत रोक लगायी गयी थी परन्तु यह कानून भी अब इतना पुराना हो चुका है कि अपनी प्रासंगिता ही जैसे खो चुका है। आपको नहीं लगता, धड़ल्ले से हमारी राष्ट्रीय कलानिधियां अब विदेषों की कलादीर्घाओं की शोभा बनती जा रही है!

Friday, August 26, 2011

नाचती-गाती रेखाओ में जीवन की लय


कंटिगेरी कृष्ण हेब्बार ने भारतीय संस्कृति और यहां के जीवन को अपनी कलाकृतियों में देषज आधुनिकता के साथ जीवंत किया है। यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। स्मृति से कलाकृतियों के उनके गलियारे में प्रवेष करता हूं तो पाता हूं, कैनवस पर उनकी रेखाएं अद्भुत लय अवंेरती सांगीतिक आस्वाद कराती है। संस्कृति और सभ्यता का वहां मधुर गान है। मानव मन से जुड़ी कथाएं हैं, व्यथाएं हैं तो उत्सवधर्मिता का उल्लास भी है।
यह हेब्बार ही हैं जो प्रकृति और रोजमर्रा के जीवन को पारम्परिक भारतीय चित्रकला शैली की लयबद्ध रेखाओं, रंगों के साथ ही यथार्थवाद और पाष्चात्य आधुनिक कला के सांगोपांग मेल से रूपायित करते रहे है। उनके चित्रों में रेखाओं के गतित्व और लय के साथ ही मानव शरीर के गहन अध्ययन का प्रभाव भी है।
स्वयं उन्होंने कभी गुरू सुन्दर प्रसाद से जो कथक सीखा था, उससे जुड़ी स्मृतियों और अनुभव संवेदनाओं का सांगोपांग रूपान्तरण भी वहां है। इसे उनकी नृत्य, संगीत के साथ ही मानव शरीर के गहन अध्ययन की परिणति ही कहें कि उनके चित्रों में बरते रंग और रेखाएं सहज सांगीतिक आस्वाद करती अनायास भारतीय संस्कृति के अपनापे से साक्षात् कराती है। तमाम उनकी चित्रकृतियों में सहजता है, जिस परिवेष में हम रहते हैं उससे जुड़े संदर्भ हैं और ऐसा करते वह अपनी कलाकृतियों में विषय के महत्व के अलावा सतह की बुनावट पर भी गये हैं और आवष्यकता अनुसार उन्होंने अपने चित्रों में घनवादी विभाजन भी किया है। मुझे लगता है, उनकी कला अभिव्यंजनावाद से भी अधिक यथार्थवाद के निकट है।
बहरहाल, के.के. हेब्बार के चित्रों में दृष्यों की जीवंतता है। कैनवस पर वह रेखाओं की बढ़त करते हुए दृष्य नहीं बल्कि उसमें निहित संवेदना की बारीकियों में जाते हैं। समय के अवकाष को पकड़ते हुए। मसलन ‘मछुआरों की बस्ती’ चित्र। इसमें उभरे दृष्य कोलाज संवेदनाओं का दृष्य-आस्वाद कराते हैं तो ‘मुर्गा युद्ध’ के उनके चित्र में उभरी रेखाओं की गति में पार्ष्व में उभरे व्यक्ति समूह और रंग संगति की आकर्षक योजना देखे हुए के अनुभव की जबरदस्त अभिव्यंजना है। ऐसे ही ‘जंगल’ चित्र का दृष्य आस्वाद चाह कर भी हम बिसरा नहीं सकते।
थोड़े स्पेस में मध्य में दो रेखाओं को परस्पर उभारते उन्होंने रेखा-तान में कुछ नहीं कहते हुए भी जंगल को समग्रता में रूपायित कर दिया है। भूरेपन के पार्ष्व में जंगल के हरेपन का अद्भुत रंग संयोजन। सहज रेखाओं में उभरते पेड़, हरियाली से वह चित्रकला का नया मुहावरा जैसे दे रहे हैं। ‘धान कुटाई’ चित्र में विषय के महत्व के अलावा वह जीवन से जुड़े तमाम संदर्भों मंे गये है। एक चित्र में पूरे जीवन की कथा जैसे कही गयी है। आकृतिमूलक इन चित्रों के साथ ही अमूर्तन के उनके जो चित्र हैं, उनमें भी रंगो के थक्कों, ज्यामीतिय संरचनाओं और अलग-अलग परतों के जरिये उन्होंने रेखाओं की लय का अद्भुत उजास दिया है।
बांग्लादेष की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का एक ऐसा ही खूबसूरत चित्र जेहन में कौंध रहा है जिसमें लाल, पीले, हरे, सफेद रंगों की हल्की, गहरी परतों में उन्होंने विषय को सांगोपांग रूपायित किया है। गहरी, हल्की रंग परतों के विभाजन में उन्होंने रेखाओं की गति में जन-मानस के स्वतंत्र प्रवाह को रूपायित किया है।
हेब्बार की कलाकृतियो से नयेपन की लीक को तोड़ती हमें ऐसे जीवनानुभव अनायास ही देती है जिनमे देखने की हमारी चेतना अतीत को खंगालती, परम्परा के बहाने वर्तमान को टटोलती है। इससे भी आगे वह भविष्य को देखने की नयी दीठ भी हमंे देती है। मूर्त-अमूर्त कला में वहां परम्परा का गहन अन्वेषण है तो आधुनिकता की दुरूहता की बजाय उसके सहज समय संदर्भ हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि भारतीय रंग और रूपाकार लिये हेब्बार की चित्रकृतियां मानव सभ्यता और संस्कृति का अनहद नाद है। यह जब लिख रहा हूं, नाचती-गाती उनकी रेखाओं में बरते उत्सवधर्मी रंगों में सूर्योदय के उनके विष्वप्रसिद्ध चित्र का आस्वाद कर रहा हूं। आप भी करें!

Friday, August 19, 2011

थिरकती देह में घुंघरूओं का गान

नृत्त, नृत्य और नाट्य का संयोग कहीं है तो वह कथक में है। नृत्त माने अभिनय रहित नर्तन। नृत्य यानी नाट्य के साथ नृत्त और नाट्य वह है जिसमें किसी निष्चित पात्र का उसके वेष-चाल-रंग-रूप और बोली की हू-ब-हू नकल की जाती है। कथक में देह की लयबद्ध थिरकन के साथ ही ताल के जटिल रूपों को पैरों में बंधे घूंघरू अभिव्यक्ति देते हैं।

बहरहाल, रवीन्द्र मंच पर अर्से बाद प्रेरणा श्रीमाली के कथक का आस्वाद करते यही सब जेहन में कौंध रहा है। कथक में वह बढ़त करती है। गुरू से सीखे में परम्परा को सहेजते हुए भी अपने तई नई-नई परनों और नये-नये टूकड़ों का अद्भुत रचाव करते। लय के दूसरे दर्जे में भी थिरकते पैरों के उनके घंूंघरू ताल को जैसे गहरे से जीते हैं। विलक्षण चमत्कार दिखाते। भावों के साथ लय की अद्भुत सूक्ष्मता वहां है।

भगवान षिव की स्तुति से होता है प्रेरणा के नृत्य का शुभारंभ। षिव के ताण्डव रूपों को साकार करते वह नृत्य की मोहक छटा बिखेरती है। नृत्य की सहजता वहां है परन्तु स्वयं की मौलिकता भी है। इस मौलिकता में लयकारियों को उनके पैरों में बंधे घुंघरूओं की खनक से बखूबी अनुभूत किया जा सकता है। तबले और सारंगी के साथ दाहिने और बांये पैर की एक सी बोल निकासी में ध्वनित हो रहा है ‘ता थेई थेई तत...आ थेई थेई तत’। चमत्कारिक पद संचालन। अंग-प्रत्यंग-उपांगो से भावों की प्रस्तुति में नृत्य रस की समग्रता। देह की थिरकन भर नहीं, भावों का कहन भी इस नृत्य में है। मैं नृत्य देख रहा हूं और अनुभूत करता रहा हूं कि यह कथक ही है जिसमें विलम्बित, मध्य तथा द्रुत लय में ततकार रूपी पद संचालन होता है।

औचक पं. राजाराम द्विवेदी का लिखा जेहन में कौंधने लगा है। ततकार का मूल वर्ण है त थ ई। इसे व्याख्यायित करें तो अर्थ आता है त से तन। थ से थल और ई से ईष्वर। यानी ईष्वर प्रदत्त तन द्वारा धरती पर जो भी कार्य हो वह उन्हें ही समर्पित हो। प्रेरणा अपने नृत्य में इसे जीवंत करती है। वह नृत्य करती है परन्तु अपनी इस साधना को ईष्वर को समर्पित करती उर में आनंद के भाव जगाती है। वहां ताल को सुना भर नहीं जा सकता बल्कि सहज देखा भी जा सकता है। नृत्य में पैर के उसके घूंघरू जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं। एक तिहाई ताल पर पर पैरों का गान।

नृत्य की शास्त्रीयता में अचल, चल थाट को कुषलता से बरतती यह प्रेरणा ही है जो दर्षकों को अपनी प्रस्तुति से बांधती है। थाट के उपरान्त आमद। चक्रदार परन। चरम पर है नाच का रस। विभिन्न तोड़े-टुकड़े उठाती वह विलम्बित में छेड़छाड़ की गत की मोहक छटा भी औचक बिखेरती है। थाट बांधने के बाद आमद, टूकड़े, चक्रदार, परन् आदि नृत्त पक्ष में बढ़त। इस विस्तार में पैरों के स्पन्दन के अलावा भाव पक्ष की भी गहराई है। प्रेरणा की यही नृत्य मौलिकता है। इसमें परम्परा है परन्तु उसका जड़त्व नहीं। शास्त्रीयता है परन्तु उसकी दुरूहता नही है। सहज आनंदानुभूति कराता नृत्य। मसलन श्रृगार रस में गुरू की रची उनकी ठुमरी प्रस्तुति को ही लें। विलम्बित में वह नायिका की गत, बंदिष, तिहाईयां, कवित्त के अलावा तबले की गत में लड़ी को पिरोकर कलात्मकता का सर्वथा नया मुहावरा बनाती है। नृत्य के अंतर्गत हर अंग में यहां उपज है। कठिन तालों में घेरदार घुमाव है और है द्रुतगामी पदाघात।

ठुमरी में कथा नहीं होती। किसी एक क्षण की बात होती है। इस क्षण को ही तो नर्तक अपनी कला से जीवंत कर कथा की समग्रता का अहसास देखने वाले को कराता है। कहीं पढ़ा हुआ याद आने लगा है। कथा कहने वाले ही कभी कथक कहाया करते थे। पौराणिक कथाओं को कुछ गाकर और कुछ अभिनय द्वारा बताने वाले। धीरे-धीरे कथक का परिमार्जन हुआ। शास्त्रीयता में निबद्ध होते यह सम्पूर्ण भारतीय नृत्य हो गया। मुझे लगता है, प्रेरणा कथक की संपूर्णता को भीतर की अपनी कला से संवारती और अंवेरती है। तबले की गूंज पर थिरकती देह में पैरों में बंधे उसके घूंघरूओं की अमृत रस वर्षा का पान करते इसीलिये मन कहने लगा है, नमन प्रेरणा। नमन!

Friday, August 12, 2011

समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र


पौराणिक काल से ही हमारे यहां नाट्यवृत्ति अनुष्ठानमूलक नृत्य, गायन, कार्यकलाप के रूप में जीवन से अभिन्न जुड़ी रही है। विष्णुधर्माेत्तर पुराण को ही लें। इसके तीसरे खंड के नृत्तसूत्र अध्याय में नृत्यकला, रस और भावानुभवों के साथ ही ललित कलाओं के परस्पर अर्न्तसंबंधों का सांगोपांग विवेचन है। वेदव्यास रचित महाभारत में सूत और मागध, नृत्य और नाटक का उल्लेख है। हरिवंषपुराण में रामायण के नाट्यान्तर की, भागवत और मार्कण्डेय पुराणों में नट, नर्तक का, पांतजल महाभाष्य में कंसवध और बलिबंधन नाटकों का और भरतमुनि के नाट्यषास्त्र की नाट्योत्पति कथा में देवासुर संग्राम, अमृत मंथन नाटकों पर जाएं तो नाट्य विधा की हमारी समृद्धता का सहज ही अनुमान लग जाता है।

यह नाट्यवृत्ति ही है जिसमें देष-काल का कोई बंधन नहीं है। वहां धरती-आकाष-पाताल, भुत-भविष्यत्-वर्तमान सहज अनायास सिमट आते हैं। कभी लोकानुरंजन का मूल नाट्य की हमारी यह शास्त्रीय परम्परा ही थी। लोग प्रेक्षागृह में नाटक देखने जाया करते थे। पारसी रंगमंच के साथ ही अधुनातन सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के दौर पर जाता हूं तो पाता हूं सेटेलाईट चैनलों के धारावाहिकों में भी तो आखिर नाट्य की हमारी पारम्परिक वृत्ति ही तो है। माने नाटक जारी आहे!

बहरहाल, नाट्यकला पर लिखा भी निरन्तर गया है। भले परम्परा के जड़त्व ने नाट्य समीक्षा को पूर्ण विकसित नहीं होने दिया है परन्तु नाटक की समकालीनता को हमसे तिरोहित भी नहीं होने दिया है। कुछ दिन पहले संगीता गुन्देचा ने अपनी सद्य प्रकाषित कृति ‘समकालीन रंगकर्म में नाट्यषास्त्र की उपस्थिति’ भेजी। अकादमिक शीर्षक देखकर चौंका। लगा, नाट्य के उद्भव, विकास पर ही इसमंे पहले जो पढ़ा वही लिखा होगा परन्तु पाठकीय आस्वाद सुखद था।

संगीता गुन्देचा के चिन्तन का लोक बहुत से आयाम लिये पाठकों से संवाद करता है। पारम्परिक नाट्य आलोचना के स्थान पर संगीता स्मृतियों के वातायन में नाट्य की भारतीय परम्परा, उसके शास्त्र के साथ ही लोक में प्रचलित धारणाओं का अपने तई पुनराविष्कार करती है। इसमें वह स्वयं के अनुभवों के साथ ही तेजी ग्रोवर की कविता, मणीकौल के सिनेमा, कवि उदयन वाजपेयी के संवाद, रतन थियम के नाट्यषास्त्र चिन्तन, हबीब तनवीर के नाट्यकौषल, कावलम नारायण पणिक्कर की निर्देषकीय दीठ की साक्षी भी अनायास देती है। रंग सामग्री की ‘आहार्य प्रदर्षनी’ के आस्वाद के साथ ही यात्राओं की अपनी स्मृतियों को भी वह परम्परा और शास्त्र से जोड़ती समकालीन रंगकर्म की व्याख्या का अपने तई नया मुहावरा गढ़ती है।

रंगकर्म पर चिन्तन का उनका यह पाठ सहज लुभाता बहुत से स्तरों पर नवीनतम जानकारियों से भी पाठक को लबरेज करता है। मसलन कालिदास के मालविकाग्निमित्र को वह फईमुद्दीन डागर के संगीत विस्तार और उसूल, फिल्मकार मणीकौल के चिन्तन की समकालिनता से जोड़ती है। भरतमुनि के सूत्रों पर विचारते वह श्रीकान्त वर्मा को याद करती है और रंगकर्म के संभावित उत्कर्ष और सूक्ष्मातिसूक्ष्म अभिव्यक्ति को अपने तई व्याख्यायित करती है। ‘मृच्छकटिकम्’ मंे विट जैसे बौद्धिक को उन्होंने इजरायल के भौतिक शास्त्री डेनियल अमिट की उस सोच से जोड़ा है जिसमें अमेरिकन फिजिकल सोसायटी की पत्रिका ‘फिजिकल रिव्यू इ’ के लिये मध्यपूर्व एषिया में अमेरिकी कार्यवाही के चलते उन्होंने एक पाण्डुलिपि की समीक्षा करने से इन्कार कर दिया था। ऐसे ही भासकृत ‘स्वप्नवासवदत्तम्’, कालिदास के ‘अभिज्ञानषाकुन्तलम्’ श्री हर्षकृत ‘रत्नावली’ की काव्य रूढ़ियों को संगीत की भिन्न रागों से जोड़ती संगीता लेखक के आत्म के परम्परा में घुलने का गहन विष्लेषण भी करती है। नाट्यषास्त्र की समकालीनता में वह केरल की पारम्परिक रंग नृत्य शैली ‘कुडियाट्टम्’ और संस्कृत नाटकों के विलक्षण मंगलाचरणों पर जाती उनकी विषेषताओं से हमारा साक्षात्कार कराती है। दरअसल संगीता के लिखे में नाट्य की समकालीनता का पाठ है, उसकी बोझिलता नहीं। शास्त्र है परन्तु उसकी जटिलता नहीं। षिल्प, संगीत और अभिनय की सूक्ष्मता है परन्तु कहन की सहजता भी है। रंग परम्परा पर लालित्य का अनूठा आस्वाद लिये है उनकी यह कृति।


Friday, August 5, 2011

सुनने वाला लोक, गुनने वाला लोक


भारतीय संगीत में उदात्ता है। पूर्ण-संपूर्ण राग-स्थायी, अंतरा, बोल, तान के शास्त्रबद्ध नियम वहां है परन्तु प्रस्तुति की अपार स्वतंत्रता भी। समयानुकूल रंजक तत्वों को अपने मंे समाहित करने की अपार शक्ति लिये है संगीत। कवि रवीन्द्र कहते हैं, ‘साहित्य का जहां अंत होता है, संगीत वहीं से प्रारंभ होता है।’ यह भारतीय संगीत ही है जिसमें गायक और वादक सीखे हुए को ही नहीं गाते-बजाते बल्कि स्वयं अपने तई भी मौलिकता रचते हैं। लम्बे समय तक सांगीतिक परम्पराएं जीवित भी शायद इसीलिए रह पायी है कि वे जन जीवन के सतत प्रवाह से जुड़ी है। वहां परम्परा है उसके बंधन नहीं।

संगीत पर लिखे की ही बात करें। अव्वल तो संगीत पर लिखा ही कम गया है। और जो लिखा है, वह इस कदर शास्त्रीय है कि बजाय जोड़ने के संगीत के श्रोता उसने तोड़े ही है। गायक, वादक अपने तई सीखे हुए की बढ़त करते हैं परन्तु लिखे की कौन करे!

जयपुर गायकी के पुरोधा उस्ताद अल्लादिया खां धु्रपद घराने के थे परन्तु साधा उन्होंने अपने को ख्याल में। धीमी आलापचारी में उनके गान में धु्रपद अंग स्पष्ट दिखाई देता था। उन्हें सुनें तो लगेगा, धु्रपद अंग की विषिष्ट गमक तथा टप्पा वहां है। टप्पा माने छोटी-छोटी तानों की मलिका। तन धातु से निकला है तान। वह जिससे राग का विस्तार हो। खयाल मंे यही होता है। सिद्धान्ततः धु्रपद मंे तान नहीं होती परन्तु गमक अंग से की गई चौगुन की लयकारी नोम् तोम् पर जब भी जाता हूं, न जाने क्यों बोलतान का आस्वाद होता है। श्रोता मन तो माधुर्य का पान करता है। शास्त्रीय निबद्धता गान का आधार हो सकती है, उसकी श्रेष्ठता और माधुर्य का पैमाना नहीं। भाव अभिव्यक्ति के लिये ही तो संगीत बना है। उसका शास्त्र तो बाद में बना है। शास्त्र के नियमों को ही महत्व देते उसे सुना जायेगा तो क्या भावाभिव्यक्ति की सहजता को हम मार नहीं देंगे!

बहरहाल, पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का कहा याद आ रहा है, ‘संगीत की षिक्षा से कोई तानसेन नहीं बन सकता, कानसेन जरूर बन सकता है।’ उनके इस कहे पर जाएं तो लगेगा संगीत सच मंे सागर है। वहां शब्दों के अर्थ निष्चित होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार से गाकर नये नये अर्थ उत्पन्न किये जाते हैं। काव्य से जो व्यक्त नहीं होता, संगीत उसे व्यक्त करता है। ध्वनि की अपरिमित गमक वहां है। गमक माने वाग्। और स्पष्ट करें तो शब्दोच्चार। तराने को ही लें। ‘तन देरे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम्’ आदि निरर्थक   शब्दों का प्रयोग वहां होता है। क्यों? क्या पद नहीं है जो गान की यह गत हुई! ऐसा नहीं है। कहते हैं, अमीर खुसरो जब भारत आए तो संस्कृत देखकर घबराए। उन्होंने फिर निरर्थक शब्द गढ़कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही तराने हुए। तराना माने राग, ताल और लय। हमारे संगीत की यही विराटता है। चरैवेति, चरैवेति। यानी चलते रहें, चलते रहें। सबको समाहित करते हुए। यही जीवन है। जहां रूक गए, वहीं मरण है।

कोयल की कूक से मन में हूक उठती है। मयूर  का नृत्य दिल में हिलोरें जगाता है। निर्झर-निनाद में, भंवरों के गान में और वर्षा की रिम-झिम में संगीत का आस्वाद है। आखिर हृदय के सूक्ष्म भावों की भाषा ही तो है संगीत। माधुर्य इसकी सहजता है। यह कहीं नियमों से आबद्ध हो सकता है! धु्रपद को ही लें। नाट्य शास्त्र के रचययिता भरतमुनि ने अपने गं्रथ में धु्रवा गीतों का उल्लेख किया। उनके ध्रुवगान मंे ऋक, पाणिक और गाथाएं अपने सात रूप और अंगो के साथ सम्मिलित है। धु्रवागीत धु्रवपद हुआ और लोक में धु्रपद। यही बढ़त है। सुनने वाला लोक, गुनने वाला लोक। संगीत की शब्दावली अलग है। सुनने और अनुभव की अलग। उसे संगीत के शास्त्रों से निबद्ध करेंगे तो संगीत श्रोता नहीं जुटेंगे। लिखा यदि सुनने की संवेदनषीलता जगा सके तो इससे बड़ा और उसका हेतु क्या होगा! तानसेन नहीं हमें कानसेन बनाने हैं।