Friday, June 24, 2011

सर्वमंगला रूद्र वीणा के माधुर्य का यह मौन

 स्वरों पर अवलम्बित अद्भुत कला है संगीत। पूरी तरह से नियमबद्ध। सात शुद्ध और पांच विकृत स्वरांे को मिलाकर इसके कुल बारह स्वर हैं। बाईस श्रुतियों से निकले हैं ये स्वर। प्राचीन संगीत सिद्धान्त के अनुसार छः राग और छत्तीस रागिनियां हमारे यहां है परन्तु इनका अस्तित्व स्वरों पर ही निर्भर है। भले गायन हो या फिर वादन, स्वरों के प्रति समर्पण ही किसी कलाकार को अद्वितीय बनाता है। संगीत रत्नाकर की टीका में कल्लीनाथ मत्कोकिला को लोक में स्वरमंडल की संज्ञा देते हैं। स्वरमंडल माने स्वरों का साथ देने वाला। वीणा का उपयोग नारद स्वरमंडल रूप में ही शायद करते रहे हैं। यह सब सोचते ही ध्यान रूद्रवीणा पर जा रहा है। उस्ताद असद अली खां जेहन में कौंधने लगे हैं। कंधे पर रूद्रवीणा में श्रुति-दर-श्रुति आलाप, जोड़, झाले के बाद बंदिष पर जाते मन के तारों को झंकृत करते। सबसे बड़ी बात यह कि वह ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपनी तमाम उम्र रूद्रवीणा की साधना को ही समर्पित की।

रूद्र वीणा माने बीन। नारदकृत संगीत मकरंद में इसका विषेष उल्लेख है। सारिकाओं के मौलिक अंतर को छोड़ दें तो लगता है किन्नरी का ही परिष्कृत रूप कभी रूद्रवीणा रहा है। संगीतसार के अनुसार भगवान षिव को यह अत्यधिक प्रिय है। शायद इसीलिए इसे रूद्र वीणा कहा गया परन्तु पौराणिक ग्रंथ कहते हैं रूद्रवीणा में तमाम देवताओं का वास है। इसके दंड में षिवजी का, तांत में पार्वती का, कुकुभ में विष्णु, तुम्बों में ब्रह्माजी, नाभि में सरस्वती व मोरों में वासुकी नागराज का निवास है। सभी देवताओं से युक्त है यह। सर्वमंगला।

इसी सर्वमंगला के साधक असद अली खां के चिरमौन होने पर बीन की भारतीय परम्परा का ही जैसे लोप हो रहा है। पिछले पचास से भी अधिक सालों से लगातार कंधे पर रख रूद्रवीणा की विषुद्ध परम्परा को उन्होंने अपने तई ही संजोया। कहना अतिषयोक्तिपूर्ण न होगा कि उनके निधन के साथ ही धु्रपद और बीन की परम्परा के एक युग का अवसान हो गया है। उस युग का जिसमें कभी अकबर के दरबारी कलाकार मिश्रीसिंह तानसेन के धु्रपद गायन के साथ वीणा की संगत किया करते थे। बीन परम्परा के अतीत पर जाएं तो पाते हैं, जयपुर के बन्दे अली खां और रजब अली खां कभी मषहूर बीनकार रहे। रजब अली के षिष्य मुषर्रफ खां ने भी बीन को परवान चढ़ाया और बाद में उनके पुत्र सादिक अली खां ने बीन का पुराना बाज सुरक्षित रखा परन्तु जब उनका देहान्त हुआ तो लगा था कि बीन की समृद्ध परम्परा कहीं लुप्त न हो जाए। संयोग देखिए कि उनके पुत्र असद अली खां ने न केवल बीन की उस समृद्ध परम्परा को परवान चढ़ाया बल्कि रूद्रवीणा वादन जैसे कठिन साज को अपने तई सदा ही जिया।

असद अली खां सच्चे सुर साधक थे। ऐसे जिन्हांेने सदा ही इसे कंधे पर रखकर सुर सजाए, गोद में रखकर नहीं। शागीर्द भी उनके बहुत हुए परन्तु कोई सितार बजाता है, कोई सरोद...रूद्रवीणा जैसे कठिन वाद्य को किसी ने नहीं निभाया। कहते थे, ‘रूह सुर मांगती है-सच्चा सुर। आपका गाना-बजाना ऐसा हो कि पहला सुर लगते ही राह हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए और कहे कि लीजिए मैं हाजिर हूं।...आपका सुर असरदार है तो संगीत लुभाएगा।’

बहरहाल, ध्रुपद की चार बानियों में से एक है, खंडारबानी। कहते हैं राजस्थान के के योद्धाओ के धारदार शस्त्र ‘खांडे’ से ही कभी ध्रुपद की इस बानी का नामकरण हुआ। खांडे की ही तरह धारदार और शुद्ध। खंडारबानी के बीनकार असद अली खां की रूद्रवीणा भी धारदार, शुद्ध हर आम और खास के लिए असरदार थी। रागों के साथ ही उन पर लगने वाले स्वरों पर उनका गजब का अधिकार जो था। बहाउद्दीन के बाद नाद के शुद्धतर विष्व से साक्षात् कराती रूद्रवीणा का माधुर्य अब और कहां मिलेगा!

Friday, June 17, 2011

नमन रामायण। नमन!

धर्म, अध्यात्म और साधना की छांव मंे पला-बढ़ा है हमारा पारम्परिक भारतीय संगीत। बाद में इसी संगीत ने परिमार्जित कला का रूप भी धारण किया। भजन, हरजस के साथ तुलसी, सुर, मीरा की संगीतबद्ध पदावलियों सुनें तो मन उसे गुनें। अनुभूत होता है, शास्त्रीय संगीत से निकली धाराएं कहां-कहां जा पहुंची है। साहित्य की हमारी कालजयी कृतियों को संगीत की इन धाराओं ने ही तो कभी घर-घर पहुंचाया। संगीत की परिवर्तनषीलता का यही वह गुण है जिससे इसकी जड़े हर युग में हरी रहती है।

बहरहाल, मन्ना डे के स्वर माधुर्य में मधुषाला से मन आज भी झंकृत होता है। जयषंकर प्रसाद की कामायनी, गालीब की संगीतबद्ध शायरी सुनें तो मन न भरें। लिखे को लोकप्रिय कर कंठों में उसे गुनगुनाने का अवसर संगीत ने ही सदा दिया है। रामायण को ही लीजिए। कितनी बार, कितने संगीतकारों ने इसे सुरों पुनर्नवा किया है। पार्ष्वगायक मुकेष के स्वरों में सुनी इसकी चौपाईयां की याद को इधर जयपुर के संगीतकार दीपक माथुर के संगीत ने फिर से हरा किया। कैलाष परवाल ने रामायण के सात काण्डों को सरल हिन्दी रूप दिया और इन्हें नयी दीठ से संगीतबद्ध किया है दीपक माथुर ने।

रामायण संगीत की जो धुनें हमारे मन में अर्से से रची-बसी है, उससे इतर नयी धुनों में संवारने की चुनौती भी कम नहीं रही है। दीपक ने इसे स्वीकारते परम्परा के साथ प्रगतिषीलता के संगीत के सहज गुणों से भी जैसे अनायास साक्षात्कार कराया है। राग यमन, बागेष्वरी, भीम पलाषी, तोड़ी, भैरवी आदि के साथ ही शास्त्रीय संगीत की समृद्ध भारतीय परम्परा उनकी संगीतबद्ध रामायण के पदों में हर ओर, हर छोर है। खास बात यह भी है कि उन्होंने इसमें मिश्रित वाद्य यंत्रांे का प्रयोग करते चौपाईयों में निहित संवेदना के भावों को गहरे से जिया है। मसलन बाल काण्ड, अवध काण्ड, सुन्दर काण्ड, उत्तर काण्ड और वनवास काण्ड के अंतर्गत सितार, बासूंरी, स्वरमंडल का बेहद खूबसूरत उपयोग उन्होंने किया है तो लंका काण्ड में युद्ध को रणभेरी और नगाड़ों के वाद से जीवंत किया है। यही कारण है कि रामायण के उनके श्रव्य में औचक ही दृष्य का आस्वाद होता है। वंदनाओं, सीता स्तुति, श्रीरामचन्द्र आरती, रामायण आरती को भजनमाला के अंतर्गत अलग से भी यहां संजोया गया है। जड़त्व को तोड़ते संगीत का नया उजास रचते। रकाब, हारमोनियम, स्वरमंडल, जलतरंग के साथ ही रामायण की इस नयी संगीत सर्जना में अजय प्रसन्ना की बांसूरी की तान भी अलग से ध्यान खींचती है।

मुझे लगता है, दीपक शब्द संवेदना को संगीत का नया आकाष देते स्वयं भी उसमें रचते-बसते हैं। यह है तभी तो उनकी संगीतबद्ध यह रामायण सहज कानों में रस घोलती है। वह कहते हैं, ‘पिछले तीन-चार साल से निंरतर रामायण की संगीत सर्जना में ही लगा हुआ था। हमने प्रतिदिन 4 से 10 घंटे तक इसकी रिकॉर्डिंग की है। इस बात को ध्यान में रखते कि परम्परा में आधुनिकता हावी नहीं हो जाए।’

रामायण के सात काण्डों की दीर्घ संगीत रचना को सुनता हूं तो, अनुभूत भी करता हूं कि उन्होंने इसमें नवीनता के साथ शास्त्रीयता को कहीं अलग-थलग नहीं होने दिया है। राम जन्म, सीता से विवाह, वनवास, लंका दहन, सेतु रचना, रावण वध, राम के अयोध्या आगमन और राम-भरत मिलाप के प्रसंगों का संगीत रूपान्तरण करते दीपक परम्परागत संगीत वाद्यों में आधुनिक वाद्यों का गजब का मिश्रण करते है। यह ऐसा है जिसमें आनंद का वही अपनापा है, जिसकी कि आप-हमको चाह होती है।

बहरहाल, आकाषवाणी जयपुर के एफएम रेडियो पिंकसिटी का शीर्षक संगीत दीपक का ही है तो लोकप्रिय दूरदार्षन धारावाहिक भारतायन की संगीत रचना भी उन्हीं की है। उनके संगीतबद्ध मीरा, सुर, तुलसी के भजनों को तो सदा सुनता ही रहा हू परन्तु मुझे लगता है, रामायण को उनके संगीत ने परवान चढ़ाया है। संगीत शख्स की इस कला को नमन! नमन रामायण। नमन।

Friday, June 10, 2011

घोड़े बेच सदा के लिए सो गए हुसैन

टीवी चैनल समाचार प्रसारित कर रहा है, हुसैन नहीं रहे। मैं चौंक पड़ता हूं।...सोचता हूं, हुसैन कैसे कहीं जा सकते हैं।...रेखाओं की अद्भुत गत्यात्मकता में शक्ति रूपक उनके घोड़े तो हमारे पास हैं। नहीं, उनकी रेखाएं, उनके रंग और जीवन जीने का ढंग कहीं नहीं यहीं है। यहीं। अभी कल ही तो अखिलेष का लिखा पढ़ रहा था, ‘हुसैन से मिलना पूरी एक सदी से मिलने जैसा है।’ मन ही मन इस लिखे में संषोधन हुआ था, ‘हुसैन के चित्रों से मिलना कला की पूरी एक सदी से मिलना है।

जन-मानस की सोच, लोक संस्कृति में विन्यस्त उनके रूपाकार युगीन संदर्भों की अनवरत श्रृंखला हमारे समक्ष रखते हैं। रेखाओं का जादूई सम्मोहन वहां है तो रंगों का अद्भुत उजास भी है। उनके रचे कैनवस में बिम्ब और प्रतीकों में बनते-बिगड़ते अक्षरों के एक नहीं अनेक अर्थ हैं तो रेखाओं का सम्मोहन संवेदनाओं के गहरे मर्म स्पर्ष कराता है।

बहरहाल, पंढ़रपुर गांव में हुसैन जन्में। इन्दौर में उनका बचपन बीता और एन.एस. ब्रेन्द्रे से कला की उन्हांेने प्रारंभिक षिक्षा प्राप्त की। साईकिल पर रात-बेरात लालटेन लिए घुमते आरंभ में उन्होंने खूब लैण्डस्केप बनाये। कविता, फिल्म से भी उनके सरोकार कम नहीं रहे। शमषेर बहादुर सिंह की कविता ‘पतझर’ पर बनाया उनका उनका चित्र जेहन में अभी भी कौंध रहा है तो स्वयं उनकी लिखी कविता पंक्तियां ‘मुझे आसमान की बर्फ ढकी चादर भेजो/जिस पर कोई दाग न हो/तुम्हारी अनन्त उदासी के घेरे को/मैं सफेल फूलों से कैसे चित्रित करूं?’ पंक्तियां आज भी मन में हलचल मचाती है। याद पड़ता है, अर्सा पहले उनसे मुम्बई में भेंट हुई थी। मुस्कुराते हुसैन ने जब जाना कि कला पर लिखता हूं तो कलाकृतियों की अपनी एक पुस्तिका मय हस्ताक्षर भेंट की। उनकी दी यह धरोहर सहेजे यह जब लिख रहा हूं तो डायरी के उन पन्नों को भी खंगाल रहा हूं जिनमें उनका बताया लिखा पड़ा झांक रहा है, ‘मैं जीवन को समग्रता में कैनवस पर उकेरता हूं। चाहता हूं कि अब कुछ ऐसा बने जो पहले कभी न बना हो। जो बने उसमें कुछ भी बंधन नहीं हो। कुछ ऐसा जिसे देखकर खुद चमत्कृत हो सकूं।’

सच ही तो है। उनका सर्जन बंधन रहित है। वहां कोई बनावट नहीं, सहजता का अपनापा है। भले वह उनकी बनायी मषहूर पेंटिंग ‘बिटविन स्पाईडर एंड लैंप’ हो या फिर अमेरिका के इराक पर हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप बनायी ‘द थीफ ऑफ बगदाद’ हो। फिल्मों का लगाव सदा उनके साथ रहा है। ‘गजगामिनी’, ‘मीनाक्षी: तीन शहरो की कहानी’ उन्होंने बनायी तो ‘हम आपके हैं कौन’ को 65 बार देखा। ‘थ्रू द आईज ऑफ ए पंेटर’ जब देखी तो लगा, फिल्म निर्माण की बारीकियों में जाते उन्होंने कला की गहराईयों को इसमें जिया है। बहुतों को यह जान हैरानी हो सकती है कि 1955 में आयोजित राष्ट्रीय कला प्रदर्षनी में ललित कला अकादेमी ने उन्हें जिस ‘जमीन’ पंेटिंग पर पहला राष्ट्रीय कला सम्मान दिया, वह विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ से प्रेरित है। यह हुसैन ही हैं जिन्हांेने पहले पहल रामायण, महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों को आत्मसात करते इन पर पूरी की पूरी चित्र श्रृंखलाओं का निर्माण किया परन्तु अचरज इस बात का भी है कि बाद में यही हुसैन देवी-देवताओं के बनाए चित्रों पर ही विवादों के चर्म पर पहुंचे। कभी संस्कृति का इतिहास रचती ‘थ्योरामा’ श्रृंखला के अंतर्गत 12 फूट से लेकर 40 फूट तक की लम्बी पेंटिंग भी बना उन्होंने कला सर्जना का सर्वथा नया मुहावरा भी रचा।

बहरहाल, कैनवस पर उकेरे घोड़ों, उनमें निहित फोर्स और ऊर्जा से वह जब शौहरत की बुलन्दियों पर पहुंचे तो किसी ने उनसे सवाल किया, ‘आजकल क्या कर रहे हैं आप?’ मकबुल ने माकुल जवाब दिया, ‘घोड़े बेचकर सो रहा हूं।’ विश्वास नहीं हो रहा,...अब वह सदा के लिए ही सो गए हैं!

Friday, June 3, 2011

शास्त्रीयता की लोक लय


कंठ में अद्भुत माधुर्य। सुनें तो मन न भरे। संगीत के सुर और उनके साथ हाथों और पावों की सहज थिरकन भी। शास्त्रीय संगीत की पारम्परिक रागों की लोक लय। जोग वस्त्रों में ढलती उम्र में भी गान के साथ यह नाच है। नृत्य नहीं परन्तु बंधे घुंघरूओं के साथ होले-होले उठते पांव। गति नहीं परन्तु संगीत और नृत्य का गत्यात्मक प्रवाह। एकटक स्क्रिन पर ही नजर टीकी है। छोटी सी कालीन और उसके चारों ओर सारंगी, तबला, हारमोनियम वादक और सहयोगी कलाकार। यह तमाषा है। कलाकार है गोपीकृष्ण भट्ट ‘गोपीजी’। रिकॉर्डिंग आज की नहीं है, 1988 की है। थोडे़ अंतराल में ही साजिन्दों के मध्य जोग वस्त्र पहने बैठे रंगकर्मी, संगीत-नाट्य कलाकार ईष्वरदत्त माथुर उठते हैं और गोपीजी के सुरों के साथ मिला देते हैं अपना सुर। जोगी-जोगन तमाषा में गुरू गोरखनाथ आख्यान परवान चढ़ने लगा है।...

पिछले दिनों पिंकसिटी प्रेस क्लब में लोक नाट्य तमाषा देखने का यह संयोग अनायास ही बना। गोपीजी के साथ बहुत से तमाषा में कलाकार के रूप में भाग लेने वाले ईष्वरदत्त माथुर ने एक अनूठी पहल की, उनकी कला के सम्मान की और जयपुर के तमाम कलाकार, रचनाधर्मी उनके साथ जुटते चले गए। उम्र की ढ़लान पर गोपीजी का अभिनंदन हो रहा था और वह भी शासन द्वारा नहीं, कलाकारों, सृजनधर्मियों द्वारा। मंच पर बच्चों की सी मासुमियत लिए गोपीकृष्ण भट्ट को देखते न जाने क्यों उस्ताद बिस्मिला खां की याद हो आई। वही सहजता। वही फक्कड़पन।

कला समालोचक विजय वर्मा ने तुर्रा कलंगी, खयाल और नाच की लोक परम्पराओं के साथ जयपुर तमाषा की बारीकियों में ले जाते जब यह कहा कि इसमें पंजाब के प्रेमाख्यान, वहां के परिवेष के साथ ही हिन्दुस्तान के बहुत से दूसरे अंचलों की लोक परम्पराओं की भी सुगन्ध है तो लगा यह लोक कलाएं ही हैं जिनमें जीवन की विविधता की सांगोपांग लय है। फिर जयपुर तमाषा तो ऐसा है जिसमें गंभीर शास्त्रीय गान में लोक की अनूठी लय है। गोरखनाथ और लोक में प्रचलित तमाम दूसरे आख्यानों की कथाएं वहां है परन्तु उनमें हंसी ठट्ठे को नहीं ढूंढा जा सकता। ईष्वरदत्त कहते हैं, ‘गोपीजी तमाषा करते वक्त एक ही समय में किसी लोक आख्यान को तमाम शास्त्रीय रागों में निभा सकते थे।’ तमाषा की उनकी रिकॉर्डिंग देखते इसे गहरे से अनुभूत भी किया।

मूलतः तमाषा महाराष्ट्र की नाट्य विधा है। जयपुर खयाल और ध्रुवपद की बारीकियां लिए इस कला को हमारे यहां पं. बंषीधर भट्ट और उस्ताद फूलजी भट्ट ने परवान चढ़ाया। गोपीजी ने इस परम्परा को निरंतर जीवंत रखा। लैला-मंजनू, जोगी-जोगन, उद्धव, हीर-रांझा जैसे कथानकों पर तमाषा निरंतर होता रहा है। भले गोपीजी के परिवार की नई पीढ़ी अभी भी इस परम्परा को सहेजे हुए है परन्तु लोक की इस विरासत को कब आधुनिकता की आंधी उड़ा ले जाएगी, कहा नहीं जा सकता।

बहरहाल, तमाषा लोक नाट्य की ऐसी परम्परा है जो शास्त्रीय संगीत की भिन्न-भिन्न रागों, नृत्य से प्रसूत अद्भुत लोक लय लिए है। यह ऐसी है जिसमें लोकसत्संग से प्राप्त बुद्धि का कलाकार अपने तई सांगीतिक अनुष्ठान करते हैं। इस अनुष्ठान में पुरखों के ज्ञान, उनकी परम्पराओं से व्यक्ति खुद को जोड़ता है। कहते हैं, अखाड़े में जब तमाषा किया जाता था तो बाकायदा उससे पहले कलाकार भभूत लगाते। कला की इस विधा में रचने-बसने के लिए। महज मनोरंजन ही नहीं बल्कि कला की अनूठी साधना के रूप में भी तब इसे देखा जाता रहा है। देवर्षि कलानाथ शास्त्री तमाषा का गहराई से विवेचन करते हैं। मैं उन्हें सुनता हूं और तमाषा, गुरू गोरखनाथ और जोगी-जोगन की याद मन में बसाए औचक लोक को वेदों से जोड़ने लगता हूं। आखिर दोनों ही प्रत्यक्ष ज्ञान से ही तो शक्ति अर्जित करते रहे हैं। मनुष्य को लोक-चेतस् दृष्टि देते। आप क्या कहेंगे!