Friday, November 25, 2011

कविन्द्र रवींद्र का "ताशेर देश"

रवीन्द्रनाथ टैगोर के सर्जन पर जब भी जाता हूं, लगता है साधारण के व्यतिक्रम हैं कविन्द्र। विश्वजनीन संस्कृति में पिरोई चित्रकला और संगीत की उनकी सर्जना में सौन्दर्य की जीवन अभिव्यक्ति की तलाश जैसे पूरी होती है। यह रवीन्द्र ही हैं जो कहते थे, ‘चित्र देह है एवं संगीत प्राण।’
बहरहाल, साहित्य अकादमी ने इस बार महत्वपूर्ण पहल की। टैगोर के 150 वें जन्मशती वर्ष के अंतर्गत विभिन्न भारतीय भाषाओं के लेखको का कोलकता में रचना पाठ रखा गया। उन्हें शांतिनिकेतन और  उनके कला-संगीत से जुड़े रचना स्थलों पर भी ले जाया गया। भारतीय लेखकों के इस दल में खाकसार भी था। कविताओं के रचना पाठ से पहले के दिन की स्मृति रह-रह कर जेहन में कौंध रही है।

शांतिनिकेतन परिसर में बांग्लादेश के कलाकारों द्वारा रवीन्द्रनाथ के सुप्रसिद्ध नृत्यनाटक "ताशेर देश" का मंचन किया गया। ताशेर  बांग्ला शब्द है। "ताशेर देश" माने ताश का देश । ओपेरा से प्रभावित संगीत और नृत्य के अनूठे मेल की गुरूदेव की रचना का आस्वाद करते लगा वह जिस विश्वजनीन संस्कृति की बात करते थे, उसे अपने रचनाकर्म में गहरे से जीते भी थे।

"ताशेर देश" की कथा मर्मस्पर्शी  है। किसी देश का राजकुमार भ्रमण करते हुए ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है जहां सब कुछ नियमों से बंधा है।  नियम-कानूनों की बेड़ियों में जकड़े लोगों से राजकुमार का संवाद होता है। राजकुमार की आजादी-प्रगति और सहजता की बातें सभी को लुभाती है। उस देश  के राजा का फरमान है कि नियमों को तोड़ने वाले की बात न सुनी जाये। राजकुमार तब वहां की रानी साहिबा से बात करता है। रानी को स्वतंत्रता की बात सुहाती है। ताश के पतों की मानिंद वहां के निर्जीव जीवन में राजकुमार के आने से सजीवता का संचार होता है। हर ओर उल्लास और उमंग भी जैसे लौट आती है। उत्सवधर्मिता का गान होता है।

बांग्ला भाषा का ज्ञान नहीं है परन्तु मूल बांग्ला की इस नृत्य नाटिका का मंचन इतना सशक्त था और रवीन्द्र का लिखा इतना मधुर कि संगीत-नृत्य में निहित कथन पूरी तरह से समझ आता है। मुझे लगता है, कलाओं का यही वह आकाश है जिसे समझने में भाषा बाधा नहीं बन पाती। वैसे भी रवीन्द्र के लिखे में जीवन के माधुर्य का वह गान है जो सौन्दर्य से स्निग्ध है। "ताशेर देश"  इस मायने में भी अद्भुत लगा कि इसमें  ओपेरा शैली है, मणिपुरी नृत्य की भंगिमाएं हैं तो पष्चिम बंगाल के पुरलिया में किये जाने वाले छऊ नृत्य का आस्वाद भी अनायास होता है। कहते हैं रवीन्द्र ने जब इस नृत्य नाटक की रचना की थी तो वह ‘एलीस इन वण्डरलैण्ड’ से खासे प्रभावित थे। इसीलिये "ताशेर देश" में स्वप्न संसार की अनूठी झलक भी दिखती है।

ओपेरा दरअसल गीतिनाटक है। संवाद की बजाय वहां गायन से ही कुछ कहा जाता है। पात्र नृत्य करते हैं परन्तु लगता है, सधे हुए हवाओं में तैर रहे हैं। मणिपुरी में सांकेतिक भव्यता में मनमोहक गति से नृत्य होता है और छऊ में ढोल मांदर की धुन पर मुखौटा लगाकर नृत्य होता है। "ताशेर देश" में इन सबका सांगोपांग मेल दिखा। ओपेरा करते राजकुमार ताश  के देश में पहुंचता है तो वहां के मुखौटा लगाये पात्रों को देखते लगता नहीं है, वे मानव हैं। भाव-भंगिमाएं, अंग संचालन और मुखौटों की सहजता से आंखे नहीं हटती।


नृत्य-संगीत में एक के बाद एक प्रभावी दृष्यों और रवीन्द्ररचित बांग्ला का गीति कहन इतना सशक्त कि कब दो घंटे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। भाषा भिन्नता के बावजूद कला के अपनेपन से सराबोर मन शांतिनिकेतन की शांति के सुकून में भी जैसे खो सा गया। कला और संगीत के क्षेत्र में आखिर क्रांति का श्रेय रवीन्द्र को यूं ही तो नहीं दिया जाता। शांतिनिकेतन से लौटे एक सप्ताह हो रहा है परन्तु "ताशेर देश" आंखों के सामने अभी भी घूम रहा है। नमन कर रहा है मन रवीन्द्र के तपःपूत जीवन को। संगीत और कला के उनके ज्ञान को। नमन रवीन्द्र। नमन!


Tuesday, November 22, 2011

भूमण्डलीकरण, बाजार और कला

भूमंडलीकरण माने भूमंडलीय समरूपीकरण। संस्कृति के साथ अर्थ के जुड़ाव से बाजार आधारित कला का सर्वथा नया लोकतंत्र हमारे सामने आ रहा है। यह ऐसा है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के बेरोकटोक आवागमन की संस्थागत सुनिष्चितता विष्व अर्थव्यवस्था को सर्वथा नया आयाम दे रहा है। कहना यह चाहिये कि बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण ने एक ऐसी संस्कृति विकसित करनी प्रारंभ कर दी है जिसमें कलादीर्घाएं उपभोक्ता और उत्पादक के रूप में कार्य करने लगी है। कलादीर्घाएं कला की उत्कृष्टता को अपने तई ही तय करने लगी है। माने जिस कलाकार को चाहे वह आसमान पर बैठा दे और जिसे चाहे नीचे उतार दे। यह प्रचारित भर करना है कि फंला कलाकार की कलाकृतियों विष्व बाजार में सर्वाधिक बिक रही है। भूमंडलीकरण का बड़ा अस्त्र साइबर स्पेस है ही सो वहां संबंधित कलाकार की वर्चुअल कला यात्रा भी करवा दी जाती है।
बहरहाल, जेम्स क्ल्फिर्ड ने ‘द प्रेडिकांमेंट ऑफ कल्चर’ में लिखा भी है, ‘जब कोई यात्रा ‘चेतना में समा कर’ अपना अर्थ देती है तो उसका वृतांत आपकी अस्मिता को मजबूती से घेर लेता है।’ कला मंे आज यही हो रहा है। इन्टरनेट के तहत ऑनलाईन कलादीर्घाएं जिसे चाहे उसे उठा देती है, जिसे चाहे पटक देती है। कभी पॉल विरिलियो ने भी यही तर्क दिया था कि साइबर स्पेस ऐसे भूमंडलीय समय का वाहक है जो स्थानीय समय को आच्छादित कर देगा।...भविष्य मंे बहुत जल्दी ही हमारे इतिहास का निर्माण अपने आप में तात्कालिकता के गर्भ से उपजे सार्वभौमिक-समय में होने लगेगा।’ कला बाजार में कलाकृतियों की बिक्री सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के साथ उसके उपयोगकर्ता के हाथ में जब चली गयी है तो स्वाभाविक ही है कि कलाकृतियां गौण हो गयी है, बाजार प्रमुख हो गया है। कलाकृतियां आत्म विसर्जन की हेतु रही है परन्तु आज बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण में जीवन के उपादान के रूप में नहीं होकर वह बाजार प्रायोजित हो रही है।
 सवाल यह भी है कि बाजारीकरण के इस दौर में आखिर कला की कौनसी नयी भाषा गढ़ी जा रही है। याद पड़ता है, जयपुर में एक पांच सितारा होटल मंे निजी आर्ट गैलरी द्वारा एक राष्ट्रीय कला षिविर का आयोजन किया गया था। षिविर के अंतर्गत देष के ख्यातनाम कलाकारों ने आर्ट गैलरी के लिए ‘ऑन द स्पॉट’ पेंटिंग्स बनाई। षिविर में जब जाना हुआ तो ईजल पर कलाकारों को काम करते देख बेहद सुकून हुआ। कलाकारों और उनकी कला पर लेखन के अपने कर्म के अंतर्गत बहुत से कलाकारों से स्वाभाविक ही था कि संवाद भी हुआ। एक ईजल पर देष के ख्यातनाम कलाकार कार्य कर रहे थे। वे तेजी से कैनवस पर कुछ पोत रहे थे, साथ-साथ मुझसे बातचीत भी कर रहे थे। कोई 20 मिनट बाद ही चौंक कर उन्होंने घड़ी देखी और वहां मौजूद आर्ट गैलरी के कर्मचारी से कहा कि उनकी फ्लाईट का क्या हुआ? कर्मचारी दौड़ा दौड़ा आर्ट गैलरी संचालिका के पास पहुंचा और फ्लाईट वाली बात बताई। संचालिका दौड़ी चली आई। देखती है कलाकार मुझसे संवाद भी कर रहे हैं और उनके हाथ कैनवस पर भी बड़ी तेजी से चल रहे हैं। धीरे से वह मुझे एक किनारे ले जाकर अनुनय विनय में कहने लगी, ‘देखिए, आप इनसे बातचीत कर डिस्टर्ब न करें। उन्हें आज ही दिल्ली लौटना भी है, फिर उनकी पेंटिंग अधूरी ही रह जाएगी।’
 भूमण्डलीकरण में यही आज कला की बाजार भाषा है। यह ऐसी है जिसमें कलाकार को तो अपना काम जल्द से जल्द समाप्त कर कहीं ओर दूसरे काम के लिए भागने की जल्दी है और गैलरी को इस बात की फिक्र कि ब्राण्ड कलाकार का काम बस पूरा हो जाए ताकि उसे बाजार में बेचा जा सके। हर व्यक्ति जल्दी से जल्दी कला से कमा लेना चाहता है। आर्ट गैलरियां कला षिविरों के बहाने ख्यात-विख्यात कलाकारेां को अपने यहां बुलाकार धड़ाधड़ पेंटिंग्स बनवा रही है। बाजार मांग वाले कलाकार भी इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी कला नहीं, उनका नाम बिक रहा है इसलिए वे भी बगैर समय गंवाए अपने कलाकर्म से ज्यादा से ज्यादा कमाने की होड़ में जो चाहे बना रहे हैं। मानों वह बाजार को पहचानने लगे हैं कि वह कभी भी करवट बदल सकता है, चुनांचे क्यों न करवट बदलने से पहले ही इतना कमा लिया जाए कि बाद में अफसोस नहीं रहे।



Friday, November 11, 2011

आकृतिमूलकता का अमूर्तन

हर शिव  शर्मा रेखाओं और रंगों में किसी क्षण की भंगिमाओं के बहाने आत्मान्वेषी अनुभवों की अनवरत यात्रा कराते हैं। रंग, रेखाओं और रूप के संधान में आवरण रहित देह के जरिये वह जीवन  के अबूझ रहस्यों में ले जाते भीतर की हमारी सुप्त संवेदनाओं को जैसे झकझोरते हैं। देखते हैं तो चित्रों में रंगों का गहरा कोहरा और रेखाओं के उजास में स्त्री देह की सिकुड़ी, लेटी, असावधानी में बैठी आकृतियां दिखाई देती है परन्तु वहां रंग, रेखाओं का अद्भुत संयोजनकौषल है। नैसर्गिक दृष्य के प्रति अंतर्मन में छिपी भावनाओं के प्रतीक रूप में इन चित्रों में भले क्षण विशेष की भंगिमा ही सर्जन का आधार बनी है परन्तु यथार्थ जीवन के गहरे अनुभव यहां है।
बहरहाल, हर शिव छायाकला में भी दक्ष है। यही कारण है कि उनके चित्रों में दूर एवं समीपवर्ती वस्तुओं के धुंधलेपन, दृष्य का अनैच्छिक विभाजन भी अलग से ध्यान खींचता है। कैनवस की उनकी रेखाओं का रंग संयोजन बगैर सूचना अकस्मात् खींचे छायाचित्रों का अहसास भी अनायास कराता है। असावधानी का स्वाभाविक प्रभाव वहां जो है! स्त्री देह की वह जो चित्र भाषा हमारे समक्ष रखते हैं उसमें विषेष किसी परिवेष के बहाने जीवन की विडम्बनाओं, त्रासदियों और तमाम घटनाओं के प्रति स्थितिप्रज्ञता को सहज पढ़ा जा सकता है। मसलन बहते रंगों के बीच घुटनों पर कोहनी टिकाए असावधानी मे बैठी स्त्रीदेह की एक आकृति के आस-पास जो परिवेष सृजित किया गया है, उसमें जीवन के तमाम द्वन्द जैसे उभर आए हैं। ऐसे ही लाल रंग के कोहरे में झांकती लेटी आकृति पर सफेद, पीला, नीला और थोड़ा सा बचा हरा रंग जैसे भीतर की हमारी संवेदना को झंझोड़ता कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहता है। मुझे लगता है, रंगों में अटकी, घुली, प्रवाह में बहती और एक प्रकार से बसी हुई उनकी आवरण रहित स्त्री आकृतियांे में प्रभाववाद भी है और प्रतीकवाद भी। उठने, बैठने, लेटे हुए के सामान्य स्त्री देह दृष्यों में अंकित क्षणिक दृष्य में निहित जीवन के शाष्वत सत्य की अनुभूति वहां की जा सकती है।
चित्रों के कहन पर जाता हूं तो नाबि चित्रकार पियर बोन्नार की भावनाओं को मानवीय आकृतियों में रूपायित करती उन कलाकृतियों की भी सहसा याद हो आती है, जिनमें समकालीन जीवन के विषयों को चुनकर उनका कल्पनारम्य, काव्यपूर्ण चित्रांकन है। हां, हर शिव शर्मा अपने गतिदार रेखांकन, किसी क्षण विषेष की भंगिमा के जरिये जीवन के शाष्वत सत्य से साक्षात्कार कराने की सोच और उद्देष्यपूर्ण रंग योजना के सर्वथा नये सर्जन संदर्भ हमें देते हैं। वहां अपने पूर्ववर्ती चित्रकारों के कला संस्कार तो हैं परन्तु उनका अनुकरण नहीं है। मसलन असावधानी की किसी मानवीय भंगिमा के इरोटिक फिगर और चटख रंगों का अद्भुत संयोजन जिसमें कभी रंग बहते नजर आते हैं तो कभी परिवेष में घुले विषय-वस्तु से अपनापे का सहज दर्षाव करते हैं। खास तौर से लाल रंग की वहां प्रधानता है परन्तु फ्रेम में उभरे दूसरे तमाम रंग अंष में रेखाओं का उनका कहन अलग से ध्यान खींचता है। मुझे लगता है प्रकृति और मानव निर्मित जीवन का वह अपने तई चित्राविष्कार करते क्षण विषेष की भंगिमा में अनुभूतियों की अनंतता का विस्तार करते हैं। उनकी कलाकृतियों को किसी एक अर्थ की बजाय क्षण विषेष की तमाम अर्थ संभावनाओं में देखा जा सकता है। ज्यॉं सेरॉ से कभी उनके चित्रों के अर्थ बताने के लिये आग्रह किया गया था तो उन्होंने उत्तर में बेहद रोचक कहानी सुनायी थी, जिसका सार यह था कि शब्दों से अगर चित्रों का अर्थ बताया जा सकता तो फिर चित्रकार को चित्र आंकने की क्या आवष्यकता होती। चित्रकला ही क्यों तमाम ललित कलाओं पर ज्यॉ सेरॉ का यह कहा प्रासंगिक है। तमाम हमारी कलाएं अपनी स्वायत्ता में अर्थ की अनंत संभावनाएं लिये ही तो होती है।
बहरहाल, हर शिव शर्मा आवरण रहित स्त्री देह के बहाने प्रकृति के पंचभुत तत्वों के अर्थ गांभीर्य में ले जाते जीवन की उस समग्रता का कैनवस रूपान्तरण करते हैं जिसमें चीजों, लोगों और उनसे संबंधित विचारों को देखने का, उनके बारे में सोचने का हमारा ढंग बदल जाता है। चित्रकला में दिख रहे दृष्य की आकृतिमूलकता का यही तो अमूर्तन है। आप क्या कहेंगे!

Friday, November 4, 2011

विवाह गीतों के लोक का आलोक

लोकगीतों को किसने रचा, कहां से आये और कब ये हर आम और खास के अपने हो गये, कोई नहीं जानता। सभ्यता और संस्कृति का अनहद नाद करते कंठ दर कंठ आगे बढ़े है ये। व्यक्ति ही नहीं धरती, आकाष, नदी, जीव-जंतु, पषु-पक्षियों का गान इनमें है। हर ओर, हर छोर प्रकृति की सौरम इनमें है।
जन्म से मृत्यु तक के तमाम संस्कारों का उजास लोकगीतों में ही तो है। मुझे लगता है, परम्पराओं का अखूट धन कहीं है तो वह इनमें ही है। विवाह संस्कार को ही लें। परिवार की उत्पति, समुदाय और राष्ट्र का निर्माण इस एक संस्कार से ही तो होता है। मानव संबंधों की आधारषिला विवाह ही है। तमाम हमारा जीवन इस संस्कार में ही जैसे परिव्याप्त है। विवाह के लोकगीत सुनें तो संबंधों में निहित संवेदनाओं को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। वहां तमाम हमारे विवाह के संस्कार हैं। रीत-रिवाजें हैं और है परिवार संबंधो का अद्भुत उजास। राजस्थानी लोकगीत संग्रह में तो विवाह गीत पहले भी दिखे हैं परन्तु पूरी तरह से विवाह केन्द्रित लोकगीतों को एक साथ बड़ी-बड़ी दो जिल्दों में देखना सर्वथा नया अनुभव था।  लूंठा-अलूंठा यह संग्रह संपादित किया है के.सी. मालू ने। यह ऐसा है जिसमें एक तरह से लोक की हमारी परम्परा का पुनराविष्कार है। बिखरी और बहुत से स्तरों पर विलुप्त विवाह लोक गीतों की परम्पराओं को परोटते मालू ने लिखित के साथ उसका सांगीतिक स्वरूप भी सहेजा है।  राजस्थान की संस्कृति, धरोहर सहेजने के अंतर्गत किसी एक संस्कार पर मुझे लगता है यह अपनी तरह का पहला व्यक्तिगत वृहद कार्य है। विवाह में सावा थरपण, मूंग बिखेरण के साथ ही विनायक, देव निमंत्रण, भात बत्तीसी, भात मायरा, मेंहदी, रातिजगा, उबटन, घोड़ी, फेरा सीख, बधावा, विदाई, नेगचार आदि तमाम रस्मों के राजस्थानी लोकगीतों, उनके हिन्दी भावानुवाद और अंग्रेजी सार संक्षेप के इस कार्य में मोहक चित्रांकन विवाह परम्परा को आंखो के समक्ष जैसे जीवन्त करते हैं। यह सब लिख रहा हूं तो ‘जल्ला मारू आमलिया पाक्या नै अब रूत आई रै...’, ‘घोड़ी अधर-अधर पग मेलै...घोड़ी घुघरा बजावै...’, और ऐसे ही बन्ने-बन्नी के मांगलिक, छेड़-छाड़, उलाहने और श्रृंगार के गीत भी कानों में रस घोल रहे हैं। हर गीत का अपना माधुर्य, अपनी राग।
विवाह गीतों की खास बात गायन का उनका काव्यगत प्रयोग है। रीत-रिवाज का लय में बखान। गायन के बाद टेक। सुनते हुए गौर करता हूं, किसी बात, किसी संदेष, किसी घटना को लयात्मक पंक्ति में जोड़ कर अद्भुत गेय रूप की सर्जना यहां है। दोहे-सोरठों की छंदोमय अभिव्यक्ति। सच! लोगीतों में सोरठों की अद्भुत सौरम भी है। सोरठ माने सोराष्ट्र। संगीत की दीठ से सोरठ राग भी है। बींझा की नायिका भी तो है सोरठ। कहीं पढ़ा याद आ रहा है, ‘सोरठियौ दूहौ भलौ/भल मरवरण री बात/जोबन छाई धण भली/तारां छाई रात।’ लोकगीतों की गेय शैली का प्रमुख अंग इस तरह के छंद ही है। परम्पराओं को उड़ाती आधुनिकता की आंधी में मुख परम्परागत का भावी पीढ़ियों के लिये विवाह लोकगीत संग्रह श्रमसाघ्य कार्य है। के.सी. मालू से संवाद होता है तो पता चलता है दीर्घकालीन सोच की परिणति है यह। गांव-गांव, शहर-षहर की बाकायदा इसके लिये यात्राएं हुई। विवाह गान को घरों में मूल गायी राग में उसे सुना गया, लिखा गया और पहले लिखे की प्रतिलिपियां भी की गयी। ऐसे ही कोई 250 से अधिक विवाह गीत एकत्र हो गये और फिर हुआ बड़े आकार के दो भागों में इन्हें संपादित कर प्रकाषित करने का कार्य। मूल रागों में उन्हें संगीत में संजोया गया। विवाह गीतों, परम्पराओं के अनमोल खजाने को पढ़ते, सुनते और गुनते जीवन की उत्सवधर्मिता के बहुविध रूप अनायास दिखाई पड़ते हैं। कहें, आप-हम और हमारा परिवार ही इनमें ध्वनित होता है। समय की तेज रफ्तार और उससे उड़ने वाली धूल की जैसे धूंध हटाते है ये। देष-काल की परिधि से परे कालजयी हैं ये। ताजगी लिये। आल्हाद, आह्वान के निरालेपन में संस्कृति के जीवन्त चितराम जो इनमें हैं। लिखे को गुनते, लो अब मैं गुनगुनाने भी लगा हू। लोक का यही तो है आलोक!