Friday, November 4, 2011

विवाह गीतों के लोक का आलोक

लोकगीतों को किसने रचा, कहां से आये और कब ये हर आम और खास के अपने हो गये, कोई नहीं जानता। सभ्यता और संस्कृति का अनहद नाद करते कंठ दर कंठ आगे बढ़े है ये। व्यक्ति ही नहीं धरती, आकाष, नदी, जीव-जंतु, पषु-पक्षियों का गान इनमें है। हर ओर, हर छोर प्रकृति की सौरम इनमें है।
जन्म से मृत्यु तक के तमाम संस्कारों का उजास लोकगीतों में ही तो है। मुझे लगता है, परम्पराओं का अखूट धन कहीं है तो वह इनमें ही है। विवाह संस्कार को ही लें। परिवार की उत्पति, समुदाय और राष्ट्र का निर्माण इस एक संस्कार से ही तो होता है। मानव संबंधों की आधारषिला विवाह ही है। तमाम हमारा जीवन इस संस्कार में ही जैसे परिव्याप्त है। विवाह के लोकगीत सुनें तो संबंधों में निहित संवेदनाओं को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। वहां तमाम हमारे विवाह के संस्कार हैं। रीत-रिवाजें हैं और है परिवार संबंधो का अद्भुत उजास। राजस्थानी लोकगीत संग्रह में तो विवाह गीत पहले भी दिखे हैं परन्तु पूरी तरह से विवाह केन्द्रित लोकगीतों को एक साथ बड़ी-बड़ी दो जिल्दों में देखना सर्वथा नया अनुभव था।  लूंठा-अलूंठा यह संग्रह संपादित किया है के.सी. मालू ने। यह ऐसा है जिसमें एक तरह से लोक की हमारी परम्परा का पुनराविष्कार है। बिखरी और बहुत से स्तरों पर विलुप्त विवाह लोक गीतों की परम्पराओं को परोटते मालू ने लिखित के साथ उसका सांगीतिक स्वरूप भी सहेजा है।  राजस्थान की संस्कृति, धरोहर सहेजने के अंतर्गत किसी एक संस्कार पर मुझे लगता है यह अपनी तरह का पहला व्यक्तिगत वृहद कार्य है। विवाह में सावा थरपण, मूंग बिखेरण के साथ ही विनायक, देव निमंत्रण, भात बत्तीसी, भात मायरा, मेंहदी, रातिजगा, उबटन, घोड़ी, फेरा सीख, बधावा, विदाई, नेगचार आदि तमाम रस्मों के राजस्थानी लोकगीतों, उनके हिन्दी भावानुवाद और अंग्रेजी सार संक्षेप के इस कार्य में मोहक चित्रांकन विवाह परम्परा को आंखो के समक्ष जैसे जीवन्त करते हैं। यह सब लिख रहा हूं तो ‘जल्ला मारू आमलिया पाक्या नै अब रूत आई रै...’, ‘घोड़ी अधर-अधर पग मेलै...घोड़ी घुघरा बजावै...’, और ऐसे ही बन्ने-बन्नी के मांगलिक, छेड़-छाड़, उलाहने और श्रृंगार के गीत भी कानों में रस घोल रहे हैं। हर गीत का अपना माधुर्य, अपनी राग।
विवाह गीतों की खास बात गायन का उनका काव्यगत प्रयोग है। रीत-रिवाज का लय में बखान। गायन के बाद टेक। सुनते हुए गौर करता हूं, किसी बात, किसी संदेष, किसी घटना को लयात्मक पंक्ति में जोड़ कर अद्भुत गेय रूप की सर्जना यहां है। दोहे-सोरठों की छंदोमय अभिव्यक्ति। सच! लोगीतों में सोरठों की अद्भुत सौरम भी है। सोरठ माने सोराष्ट्र। संगीत की दीठ से सोरठ राग भी है। बींझा की नायिका भी तो है सोरठ। कहीं पढ़ा याद आ रहा है, ‘सोरठियौ दूहौ भलौ/भल मरवरण री बात/जोबन छाई धण भली/तारां छाई रात।’ लोकगीतों की गेय शैली का प्रमुख अंग इस तरह के छंद ही है। परम्पराओं को उड़ाती आधुनिकता की आंधी में मुख परम्परागत का भावी पीढ़ियों के लिये विवाह लोकगीत संग्रह श्रमसाघ्य कार्य है। के.सी. मालू से संवाद होता है तो पता चलता है दीर्घकालीन सोच की परिणति है यह। गांव-गांव, शहर-षहर की बाकायदा इसके लिये यात्राएं हुई। विवाह गान को घरों में मूल गायी राग में उसे सुना गया, लिखा गया और पहले लिखे की प्रतिलिपियां भी की गयी। ऐसे ही कोई 250 से अधिक विवाह गीत एकत्र हो गये और फिर हुआ बड़े आकार के दो भागों में इन्हें संपादित कर प्रकाषित करने का कार्य। मूल रागों में उन्हें संगीत में संजोया गया। विवाह गीतों, परम्पराओं के अनमोल खजाने को पढ़ते, सुनते और गुनते जीवन की उत्सवधर्मिता के बहुविध रूप अनायास दिखाई पड़ते हैं। कहें, आप-हम और हमारा परिवार ही इनमें ध्वनित होता है। समय की तेज रफ्तार और उससे उड़ने वाली धूल की जैसे धूंध हटाते है ये। देष-काल की परिधि से परे कालजयी हैं ये। ताजगी लिये। आल्हाद, आह्वान के निरालेपन में संस्कृति के जीवन्त चितराम जो इनमें हैं। लिखे को गुनते, लो अब मैं गुनगुनाने भी लगा हू। लोक का यही तो है आलोक!

No comments: