Friday, February 24, 2012

उत्सवधर्मी संस्कृति के आख्याता और व्याख्याता

कला माने जिसका कलन होता है। काल में जिसकी गणना की जा सके। काव्य में भाषा, चित्र मंे रंग और रेखाएं संगीत में नाद आदि कलाओं की हमारी भिन्नता का बोध कराते हैं। यही सब तो वह है जिससे उत्सधर्मिता की संस्कृति है। बहरहाल, कला संस्कृति संस्थानों में रहते अषोक वाजपेयी ने सदा ही उत्सवधर्मिता की हमारी इस संस्कृति से हमारा नाता कराया है। केन्द्रीय ललित कला अकादमी के अध्यक्ष पद रहते भी उन्होंने चित्रकला के साथ ही उसके दूसरी कलाओं से संबंधों पर महत्वपूर्ण आयोजन किये। ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर देष में अपनी तरह का पहला नेषनल आर्ट वीक भी उनकी सोच से ही चंडीगढ़ में हो पाया। यह उनका कार्यकाल ही रहा जिसमें ललित कला अकादेमी चित्रकला षिविरों तक ही सीमित नहीं रहकर कलाओं पर संवाद का भी केन्द्र बनी। हिन्दी और अंग्रेजी सहित भारतीय भाषाओं में कला और कलाकारों पर लिखे गये निबंधों का दो बड़े जिल्दों में कवि, कला समीक्षक पीयूष दईया के संपादन में ‘कला भारती’ शीर्षक से प्रकाषन भी अषोकजी के कार्यकाल में ही हुआ। रचनात्मक गतिविधियॉ और भी हुई परन्तु कार्यकाल पूरा होने पर जब उन्होंने कहा कि वह जो चाहते थे नहीं कर सके और यह भी कि वह संस्थाएं बना तो सकते हैं परन्तु उन्हें चला नहीं सकते हैं तो इसमें निहित सरकारी तंत्र में चाहकर भी इच्छित नहीं कर पाने की उनकी मजबूरी को भी समझा जा सकता है। सरकारी तंत्र में कलाओं के लोकतंत्र की कहां कोई गुंजाइष होती है!बहरहाल, मुझे लगता है, कला-संस्कृति आयोजनों के अषोकजी अविराम पथिक है। रजा फाउण्डेषन के ग्यारह वर्ष पूरा होने पर दिल्ली में ललित कला, कविता, संगीत और नृत्य के ‘अविराम’ समारोह की उनकी सोच इसी का प्रमाण कही जा सकती है। भारत भवन, उस्ताद अलाउद्दीन खां अकादमी और भी न जाने कितने संस्थानो के जरिये सदा उन्होंने कला उत्सवधर्मिता का नाद किया है। कला-साहित्य की उनकी उत्सवधर्मिता और पंगे मोल लेकर भी कुछ करने की उत्सुकता से बहुतेरे स्थापित हुए, बहुतों ने बहुत कुछ पाया भी और नुगरे बन उन्हें गालियां भी दी है परन्तु आयोजनधर्मी अषोकजी को इसकी क्या परवाह! बकौल वाजपेयी ‘अविराम’ भी उनकी निंदित उत्सवधर्मिता का ही प्रमाण हैं।बहरहाल, आपा-धापी के इस दौर मंे जब हमें अपने पास के आदमी की आवाज भी सुनने की फुर्सत नहीं है, कलाओं के अर्न्तनिहित को सुनाने वाला ऐसा कोई है जिसे सुनने का, बल्कि कहें गुनने का मन करता है। उन्हें पढते, सुनते साहित्य और संस्कृति के हमारे संपन्न संसार की अनुभूतियों के अनगिनत संदर्भ मिलते हैं। यह ऐसे हैं जिनमें जिस समय में हम जी रहे हैं, उस समय की संस्कृति की उत्सवधर्मिता बंया होती है। कहें वह संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि तमाम हमारी कलाओं के आख्याता भी हैं और व्याख्याता भी। मुझे लगता है, कलाओं पर तमाम उनका लिखा हमारा सांस्कृतिक चिन्तन है। ऐसा सांस्कृतिक चिन्तन जिसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य कुछ इस तरह से घुले-मिले हैं कि उसमें कलाकार नहीं होते हुए भी हम अपने होने की तलाष कर सकते हैं। आडम्बरप्रियता और वाक्वैदग्ध्य के प्रदर्षन की होड़ में उनका होना और कुछ करना सुकून देता है। इसलिये भी कि हम में से कोई है जो कला-संस्कृति के प्रति घटते रूझानों पर खाली विलाप ही नहीं करता बल्कि सदा कुछ कर कलाओं की हमारी उत्सवधर्मिता को जिंदा रखे हुए हैं। संवाद में अषोकजी ने बहुतेरी बार कहा है ‘साहित्य और कलाएं मनुष्य का ऐसा प्रजातंत्र है, जहां आप सिर्फ अपनी प्रतिभा, उपलब्धि और संघर्ष के बल पर ही प्रवेष पा सकते हैं और जहां से आपको कोई भी, चाहे वह सत्ता हो या ईष्वर, संघ हो या संगठन, अभियान हो या कुप्रचार, देषनिकाला नहीं दे सकता।’ अषोकजी की रचनाधर्मिता, आयोजकीय व्यक्तित्व पर जब भी विचार करता हूं, उनका यह कहा ही जेहन में कौंधता है। नौकरषाह कह कर उन पर सवाल उठाने वालों को यह तो समझना ही चाहिए कि इतने नौकरषाहों में क्यों केवल अषोक वाजपेयी ही संस्कृतिकर्मी, कला मर्मज्ञ के रूप में विवादों को झेलते हुए भी अपनी रचनाधर्मिता से हमारे सामने से कभी लोप नहीं हुए हैं!

Friday, February 17, 2012

नटराज राज नमो नमः

संगीत-नाट्य के आदि प्रवर्तक हैं भगवान शिव। कहते हैं, कभी अपनेे नृत्य के बाद उन्होंने डमरू बजाया। डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ। यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह सूत्र हुए। नृत्य में ब्रह्ाण्ड का छन्द, अभिव्यक्ति का स्फोट सभी कुछ इसी में छिपा है। महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण तत्व को ग्रहण किया तो इस माहेश्वरसूत्र की परम्परा के संवाहक बने पाणिनि।
बहरहाल, आदि देव हैं भगवान शिव। देवों के भी देव। सुर-ताल के महान ज्ञाता। नृत्य की चरम परिणति शिव का ताण्डव ही तो है। नटराज जब नृत्य करते हैं तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वेश्वर की लीला का उच्छास उनके अंग-प्रत्यंग मंे थिरक उठता है। शिव का नृत्य तांडव है और पार्वती का लास्य। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार लास्य का अर्थ लीला या क्रीडा करना है। स्त्री-पुरूषांें के आपसी मनोभावों के आधार पर होने वाली लीला लास्य है। यह एक ही अर्थ या अलग-अलग अर्थों पर अवलम्बित हो सकती है। पारम्परिक मान्यता यह भी है कि नटराज शिव ने पहले पहल पृथ्वी पर तमिलनाडू के चिदम्बरम मंदिर मंे ही संध्या ताण्डव किया। चिदम्बरम् के मंदिर जाएं तो ध्यान दें, वहां नटराज पंचम प्राकार के अंदर हैं। यहां उनका आकाश स्वरूप हैं। माने कहीं कोई अवकाश नहीं। नटराज की शक्ति-स्वरूपा नाट्येश्वरी भी है।
मन में कल्पना होती है, नटराज शिव मगन हो नृत्य कर रहे हैं। वह जब नृत्य करते हैं तो एकाकी कहां होते हैं! सृष्टि के विकास में सभी प्रादुर्भूत सहायक शक्तियां वहां एकत्र है। ब्रह्मा ताल देते हैं। सरस्वती वीणा बजाती है। इन्द्र बांसूरी बजाते हैं और विष्णु मृदंग। लक्ष्मी गान करती है। भेरी, परह, भाण्ड, डिंडिम, पणन, गोमुख आदि अनद्ध वाद्यों से गुंजरित है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड।
बहरहाल, नटराज प्रवर्तित नृत्य के अनेक प्रकार हैं। ताण्डव सर्वप्रमुख है। कहते हैं शिव ने त्रिपुरदाह के बाद उल्लास नर्तन किया। भगवान शिव उल्लास में आकर पृथ्वी पर अपना पैर पटके भुजाओं को संकुचित करते हुए अभिनय करते हैं ताकि यह लोक उनकी भुजाओं के आघात से छिन्न-भिन्न न हो जाये। शिव तीसरा नेत्र खोले तो यह लोक भस्म हो जाये सो वह तृतीय नेत्र बंद करके ही नाच करते हैं। भोले भंडारी नाचने लगे तो सब कुछ भूल गये। नाचते ही रहे। निर्बाध। कहते हैं, उन्हें संयत करने के लिये ही तब पार्वती ने लास्य नृत्य किया। शिव ताण्डव रस भाव से विवर्तित था और पार्वती का किया लास्य रस भाव से समन्वित। कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के नृत्य का वर्णन करते लिखा है, यह नाट्य देवताओं की आंखों को सुहाने वाला यज्ञ है। पार्वती के साथ विवाह के अनन्तर शिव ने अपने शरीर में इसके दो भाग कर दिये हैं। पहला ताण्डव है और दूसरा लास्य। ताण्डव शंकर का नृत्य है-उद्धत। लास्य पार्वती का नृत्य है-सुकुमार तथा मनोहर।
ताण्डव नामकरण की भी रोचक कथा है। कहते हैं महादेव के नृत्य का अनुकरण उनके शिष्य ‘तण्ड’ या ‘तण्डु मुनि’ ने किया। तण्ड मुनि द्वारा प्रचारित होने से यह ताण्डव कहलाया। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मंे इसका सांगोपांग उल्लेख है। शिव आज्ञा से ही तण्डु ने उनके इस नृत्य को अभिनय के प्रयोग निमित्त भरतमुनि को दिया। अभिनवगुप्त की टीका मंे तण्डु को ही भगवान शिव का प्रख्यात गण नन्दी बताया गया है।
बहरहाल, नटराज की नृत्यशाला यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड है। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक नटराज का नृत्य ही है। शिव के आनंद तांडव के साथ ही सृजन का आरंभ होता है और रोद्र ताण्डव के साथ ही संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है। यह जब लिख रहा हूं, नटराज स्तुति ही जेहन में कौंध रही है, ‘सत सृष्टि तांडव रचयिता नटराज राज नमो नमः/हे आद्य गुरू शंकर पिता/गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्माण्डना/ नित होत नाद प्रचंडना, नटराज राज नमो नमः।’ माने हे नटराज आप ही अपने तांडव द्वारा सृष्टि की रचना करने वाले हैं। आप ही परम पिता और आदि गुरू हैं। हे शिव, यह संपूर्ण विश्व आपके मृदृंग की ध्वनि द्वारा ही संचालित होता है। इस संसार में व्याप्त प्रत्येक ध्वनि के स्त्रोत आप ही हैं। हे नटराज राज आपको नमन है! नमन प्रभू। नमन!

Friday, February 10, 2012

कर्षयति इति कृष्णः

कृष्ण का अर्थ है, जो आकर्षित करे। बाह्य रूप मंे ही नहीं, आंतरिक रूप मंे भी। कहा भी तो गया है, ‘कर्षयति इति कृष्णः।’ माने चिरंतन है जिनका आकर्षण। यह कृष्ण ही तो हैं जिन्होंने 64 कलाओं में पूर्णता को जिया। चन्द्रमा की भी 14 ही कलाएं है परन्तु कृष्ण तो तमाम कलाओं की पूर्णता लिए हैं। पूर्णावतार भगवान श्री कृष्ण। उनके मोहक स्वरूपों पर जब भी मन विचारता है, त्रिभंगी मुद्रा में खड़े गोपियों को रिझाने वाले बंशी बजैया कान्हा की छवि आंखों के सामने घूमती है तो महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन रथ के सारथी बन उन्हें कर्मयोग की शिक्षा देते कृष्ण भी औचक नजरों के सामने प्रकट होते हैं। श्रीमद्भागवत् में गोचारण के बाद घर लौटती गायों के पीछे गऊओं के खुर से उठती धूल से सने श्री कृष्ण का रूप वर्णन भी जेहन में अनायास ही कौंधता है। चेहरे पर पसीने की छिटकी बूंदे और धूल से लथपथ थका थका उनका चेहरा। अद्भुत शोभा लिये। छवियां और भी है। राधा संग रास रचाते कृष्ण। सबको थिरकाते स्वयं अचल कृष्ण। यह कृष्ण ही हैं जिनके लोकरंजक स्वरूप ने जन-मानस को सदा ही आनंदित, आल्हादित किया है। नृत्य, संगीत और चित्रकला तो कृष्ण लीलाओं से जुड़कर ही सदा समृद्ध होती रही है।
बहरहाल, कुछ समय पहले ही जवाहर कला केन्द्र की सुरेख कला दीर्घा में कृष्णा मौर्य के बनायी कृष्ण कलाकृतियों को देखकर सुखद अनुभूति हुई। रेखाओं के गत्यात्मक प्रवाह में कृष्ण और उनके प्रतीक रूप में मोर पंखों के जरिये अद्भुत सौन्दर्य सर्जना जैसे की गयी थी। कृष्णा कृष्ण की मोर मुकुट बंशीवाले की छवि से इस कदर मुग्ध है कि कैनवस में प्रेम के बहुविध रूपों में उन्हें ही रूपायित किया है। हरे, काले, लाल, पीले और नीले रंगों का उसका सधा प्रयोग भी बहुत से स्तरों पर मन को स्पन्दित करता है। स्ट्रोक तो खैर कृष्णा के महत्वपूर्ण हैं ही। मोर पंखों के रेखीय आयाम का कृष्णा का एक चित्र बेहद महत्वपूर्ण है। इसमें रेखाओं के जरिये कृष्ण-राधा के रूपों का बेहद मोहक अंकन किया गया है-मूर्त में अमूर्त। माने वहां रेखाओं में ही कृष्ण की मुरली, राधा की मूरत, कृष्ण की सूरत और और रास का अद्भुत रचाव किया गया है। गौर करेंगे तो मोर पंखों का सौन्दर्य ही हर ओर, हर छोर नजर आयेगा। मुझे लगता है, रेखाओं की यही तो वह गतिशीलता है जिसमें संगीत, नृत्य को कैनवस जीवंत करता है। एक ओर चित्र है जिसमें राधा-कृष्ण की बस मूरत है...मोर पंख यहां भी अंतर्मन संवेदना के संवाहक बने हैं। चित्र और भी हैं जिनमें राधा-कृष्ण के प्रेम के बहाने जीवन सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में रंगो और रेखाओं की उत्सवधर्मिता को कृष्णा ने जैसे जिया है।
राधा-कृष्ण के बारे में रोचक तथ्य यह भी है कि महत्वपूर्ण पुराण इस बारे में मौन ही है। यह गीत गोविन्द रचयिता जयदेव ही थे जिन्होंने राधा-कृष्ण की मोहक लीलाओं को स्वयं अपने काव्य मंे रूपायित करते दूजों को भी निरंतर इसकी प्रेरणा दी। कृष्ण-राधा प्रसंग उनके कारण ही फिर लोक में इस कदर रचे-बसे कि जीवन में प्रेम की कल्पना का प्रमुख आधार ही यही हो गये।
बहरहाल, कृष्णा मौर्य के कृष्ण चित्र ही नहीं बल्कि कलादीर्घा में लगाये उनके ऐतिहासिक सामोद पैलेस के चित्र भी अलग से ध्यान खींचते लगे। हां, सामोद महल के विभिन्न द्वार, वहां के स्थापत्य और शिल्प सौन्दर्य को कैनवस पर बरतते कृष्णा ने दृश्य के सौन्दर्य आयामों को ही छुआ लगता है। अच्छा होता वह दृश्य संवेदना के उन आयामों पर भी जाती जिसमे किसी ऐतिहासिक इमारत का अतीत वक्त में हो रहे बदलावों के साथ वर्तमान मंे ध्वनित होता है। यथार्थ के कैनवस अंकन में यही तो महत्वपूर्ण होता है कि हम दिख रहे सौन्दर्य की बजाय उस अदेखे को भी कैनवस पर अनुभूत कराएं जिसमें समय की महीन पदचाप ध्वनित होती है। किसी कलाकृति की जीवंतता आखिर इसी मंे तो है कि इतिहास का मौन भी वहां रंग और रेखाओं में मुखर हो।


Saturday, February 4, 2012

जदि तोर डाक सुने केउ ना आरने तबे एकला चलो रे...


रवीन्द्र संगीत माने भाषा, भाव और रस। शास्त्रीय और लोक संगीत का मेल। आत्मा का गान। ध्रुपद, खयाल, ठुमरी वहां है तो बंगाल के लोक संगीत की अजस्त्र धारा बाउल, भटियाली का माधुर्य भी वहां है। कहें हिन्दुस्तानी संगीत की राग-रागिनियों में लोक के समवेत स्वर कही हैं तो वह रवीन्द्र संगीत में ही हैं।
रवीन्द्र नाथ टैगौर अपने युग के अद्भुत संगीत मर्मज्ञ रहे हैं। ‘गीत वितान’ में रवीन्द्र ने अपने गीतों को ‘गान’, ‘बंधु’, ‘प्रार्थना’, ‘विरह’, ‘साधना और संकल्प’, ‘अन्तर्मुख’, ‘निःसंशय’, ‘उत्सव’, ‘बाउल’ आदि उपशीर्षकों से संयोजित करते बाकायदा उनकी स्वरलिपि भी दी है। बांगला भाषा में उनके ये गीत ‘भांगा-गान’ से भी लोकप्रिय हुए। यह रवीन्द्र ही हैं जिन्होंने गान में स्वरानंद के साथ ही गीतों मंे निहित भावों के संप्रेषण की भी राह सुझाई। रवीन्द्र संगीत की यही तो बड़ी विशेषता है कि वह शास्त्रगत नहीं होकर लोक से जुड़ा है। उसे सुनते अनुभूति का आलोक मिलता है। शुद्ध एवं मिश्रित रागों में लोकसंगीत की छोंक से बना रवीन्द्र संगीत हृदय के अंतरतम उद्गारों का गान है।
बहरहाल, आरंभ से ही संगीत संगीत हमारे यहां इतना अधिक शास्त्रगत और अनुष्ठानगत रहा है कि उसके सहज माधुर्य से आम जन की एक प्रकार से दूरी होती चली गयी। ऐसे में रवीन्द्रनाथ टैगौर ने शास्त्रीय राग-रागिनियों की समृद्ध परम्परा की जीवंतता के साथ उसमें लोक का रस घोला। संवेदना, भाव और संगीत का मेल किया। संगीत की ऐसी धारा का प्रवाह किया जिसमें सकल विश्व की हॉर्मनी है।
रवीन्द्र संगीत माने जिसमें स्वरानंद के लिये ही गान न हो बल्कि सुर माधुर्य के साथ गीत रस भी हो। एक साथ कईं रागों का मिश्रण। रागाश्रयी की बजाय भावाश्रयी संगीत। सुनें तो गुनने का मन करे। कोरा गान भर नहीं, अंतर्मन अनुभूतियों का भव। शास्त्रीय राग-रागिनियां की छटा परन्तु उनमंे निहित बंधनों की क्लिष्टता नहीं। लोक संगीत मंे निहित मानव मन की तमाम सहज संवेदनाएं परन्तु कहीं कोई असंयत आवेग और चित्कार नहीं।
मुझे लगता है, प्रकृति, पूजा, भक्ति प्रेम और ऋतुओं में निहित आनंद की खोज कहीं है तो वह रवीन्द्र संगीत में ही है। कारण, वहां पारम्परिक राग-रागिनियों का मूल परिवेश तो है परन्तु श्रवण मंे आनंद के अवरोधों की जकड़न नहीं है। बंधनों में निर्बन्ध। माने रवीन्द संगीत।
अभी बहुत समय नहीं हुआ। रवीन्द्र जन्मशती आयोजनों के सिलसिले में साहित्य अकादमी की ओर से भारतीय लेखकों के दल में शांतिनिकेतन जाना हुआ तो बांगला कथाकार मित्र बिनोद घोषाल के साथ रवीन्द्र संगीत का आस्वाद करते जैसे अपने आपको फिर से जिया। लगा, रवीन्द्र संगीत खाली संगीत भर नहीं है। भावों का आनंद प्रवाह वहां है। रवीन्द्र संगीत माने पूजा पर्व गान, माने ऋतु पर्व गान। माने स्वदेश पर्व गान, माने भक्ति पर्व गान। रवीन्द्र के गान में आत्मा की अभ्यर्थना है। यह जब लिख रहा हूं, जेहन में रवीन्द्र संगीत अमृत रस घोलने लगा है, ‘आमि तोमारो शौंगे बेंधेछी आमारो प्राण शूरेरो बांधोने...तुमि जानोना आमि तोमारे पेयेछि अजाना शाधोने...’ और ‘स्वर्ग हइते बिदाय...’, ‘आजि झोझेर राते तोमार अभिसार...’ गीत और भी है। सुनते हैं तो दर्शन की गहराईयों में उतरने लगते हैं। अनुभूतियों का अनुठा भव जो वहां है। भावांे के अनुभव का भव।
अकेलेपन का गान। किसी के साथ की जरूरत वहां कहां है। रवीन्द्र गान का यही तो संदेश है, ‘जदि तोर डाक सुने केउ ना आरने तबे एकला चलो रे...’। यदि कोई साथ नहीं आता है तो कोई बात नहीं। अकेले चलो। चलते चलो। कोरा गान नहीं बल्कि अंर्तमन संवेदनाओं की भावाभिव्यक्ति। आनंद का गान। कलाओं के मर्म को जो गहरे से जीता है, वही रच सकता है ऐसा कालजयी संगीत। इसीलिये तो रवीन्द्र कालजयी हैं। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि तमाम कलाओं के वे साधक, संवाहक हैं।