Friday, June 29, 2012

स्वर और लय की रस सृष्टि


संगीत माने स्वर और लय की कला। रस की सृष्टि। सुनने के रस की सृष्टि। आंग्ल भाषा में संगीत के लिये ‘म्यूजिक’ शब्द प्रचलित है। ‘म्यूज’ से बना है म्यूजिक। ‘म्यूज’ दरअसल यूनानी शब्द है। शब्द कोश खंगालता हूं तो म्यूज का अर्थ ‘द इन्सपायरिंग गॉडेज ऑफ सॉंग’ पाता हूं। माने गान की प्रेरक देवी। म्यूज ज्यौस की कन्या है। ज्यौस माने स्वर्ग। यानी संगीत स्वर्ग की कन्या है। सोचता हूं, संगीत रस का पान जब कर रहे होते हैं तो मन में स्वर्गिक सुखानुभति ही तो होती है। संगीत के लिये अरबी और फारसी में मौसीकी शब्द है। सुनने में ही संगीत का आस्वाद नहंी होता! 
बहरहाल, हमारे यहां गान की प्रेरक देवी सरस्वती है। संगीत के आदिदेव शिव हैं। इसीलिये तो नटराज स्तुति में कहा है, ‘गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्मंडना, नित होत नाद प्रचंडना, नटराज राज नमो नमः। मााने यह संपूर्ण विश्व आपके मृदंग की ध्वनि से ही संचालित होता है। इस संसार में व्याप्त प्रत्येक ध्वनि के श्रोत आप ही हैं। हे नटराज आपको नमन है! 
संगीत की उत्पति वेदों से मानी गयी है। सामवेद तो संगीत से ही संबद्ध है। ऋग्वेद की ऋचाएं सामवेद का आधार है। वहां शब्द ऋग्वेद से लिये गये हैं और स्वर स्वयं का है। इस अर्थ में साम का अर्थ है ऋचाओ के आधार पर किया गया गान। 
ध्वनि, स्वर और ताल संगीत के ही अंग है। जो संगीतोपयोगी नाद है, वही ‘स्वर’ है। इसीलिये संगीतज्ञों ने एक स्वर से उसमें दुगनी ध्वनि तक के क्षेत्र में ऐसे संगीतोपयोगी कुल बाईस नाद बताये हैं। यही श्रुतियां हैं। ध्वनि की प्रारंभिक अवस्था यह श्रुतियां हैं और इनका गुंजन स्वर। स्व वह नाद है जो स्वयं मधुर हो। संगीत ग्रंथ ‘संगीत दर्पण’ में कहा गया है, ‘श्रुति के पश्चात उत्पन्न होने वाला स्निग्ध, अनुरणनात्मक, स्वयं रंजक नाद ‘स्वर’ है।’ ...और सात शुद्ध स्वरों का समूह जब बन जाता है तो वह सप्तक हो जाता है। नाद से श्रुति, श्रुति से स्वर, स्वर से सप्तक और सप्तक से थाट। थाट हैं-बिलावल, यमन, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावरी, भैरवी, तोड़ी आदि। इन्हीें के अंतर्गत वर्गीकृत हैं तमाम हमारे संगीत के राग। राग माने स्वर और वर्ण से विभूषित चित्त का रंजन करने वाली मधुर ध्वनि। रागों का उनके अंगों के अनुसार विभाजन करने वाले पहले भारतीय संगीतज्ञ हैं पं. विष्णु नारायण भातखंडे। राग वर्णन के लियें उन्होंने ही हमें उठाव, चलन, पकड़, आरोह, अवरोह आदि का प्रयोग दिया। कहें, रागों का थाटों में विभाजन करते उसका विवरण दिया। ऐसा विवरण जिसमें ख्याल, धु्रपद, धमार, साधरा, तराना आदि रचनाएं निबद्ध होती है। कहें हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के वह पहले ऐसे गायक थे जिन्होंने राग में पकड़ अंग का निर्माण किया।  भारतीय संगीत की उन्नति और प्रचार का महत्ती कार्य भातखंडेजी ने ही अपने तई किया। लखनऊ में उन्होंने ही कभी ‘मैरिस म्यूजिक कॉलेज’ की स्थापना की। यही कॉलेज आज उनके नाम से ‘भातखंडे यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूजिक’ के नाम से विश्वभर में जाना जाता है। ग्वालियर का माधव संगीत विद्यालय और बड़ौदा का संगीत महाविद्यालय भी उन्हीं की देन है।
बहरहाल, हमेशा की तरह इस बार भी पिछले सप्ताह विश्व संगीत दिवस आया और परम्परा निभाते संगीत आयोजनों की धूम भी मची। इन आयोजनों में संगीत रस का आस्वाद करते ही पं. विष्णु नारायण भातखंडे बहुत याद आए। संगीत सुनते और गुनते भातखंडे जी के संगीत अवदान को ही याद कर रहा था। सोचता हूं, उन्होंने ही तो भारतीय संगीत को क्रमबद्ध किया, व्यवस्थित किया। वह नहीं होते तो संगीत की हमारी समृद्ध विरासत के बहुत से पहलुओं से क्या हम यूं रू-ब-रू हो पाते!

Monday, June 18, 2012

चले भी आओ ...



मेंहदी हसन साहब के गान में अजीब तरह की एक बैचेनी और एक अनकहे खालीपन को अनुभूत किया है। गान में बोल के टूकड़े करते उसे अपने तई निभाते वह बहुतेरी बार चमत्कारिक अहसास भी कराते रहे है। उनके इस अहसास में न जाने क्यों हर बार गजल के शब्दों के भीतर के ओज से अपनापा भी हुआ है। वह गाते तो गजल के शब्दों को अपने तई आवाज का जैसे लिबास पहनाते। याद करता ह तो उनकी गायी ‘रफ्ता-रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गये...’ गजल बहती हवा के सुरमय झोंको का अहसास कराती मन को अजीब सा सुकून देती है तो दूसरी तरफ ‘मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो...’ सुनकर जो अहसास होता है उसे बंया ही नहीं किया जा सकता। 
अभी बहुत समय नहीं हुआ फरहत शहजाद की लिखी गजल उनके स्वर में सुनी थी, ‘भूल भी जाओ पागल लोगों/क्या-क्या खोया, क्या क्या पाया है।’ सुनते हुए उनके गान के मखमलीपन और पुरकशिश अंदाज मंे जैसे खो सा गया। यह अंदाज उनका अपना है। गान की यही उनकी वह मौलिकता है जिसने उनकी आवाज के असंख्य दिवाने बनाए। मीर तकी मीर ने कभी एक गजल लिखी थी, ‘पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है’। बी.आर. ईशारा निर्देशित ‘एक नजर’ फिल्म में मजरूह ने इस गजल की शुरूआती पंक्तियां लेते हुए गीत लिखा और उसे गाया लता मंगेशकर और रफी ने। मीर तकी मीर की असल गजल को मेंहदी हसन ने अपने अंदाज में गाया है। इसे सुनते हैं तो फिल्मी गीत को भूलने का मन करता है। मीर तकी मीर के एक-एक शब्द को जैसे मेंहदी हसन ने इस गजल में जिया है। मुझे लगता है, यह मेंहदी हसन ही हैं जो गजल के शब्दों के उस अनकहे पर भी जाते हैं जिसमें संगीत का अवकाश होता है। माने जहां शब्द नहीं पहुंचते वहां मेंहदी हसन की आवाज पहुंच जाती है। संगीत और काव्य का यही तो वह मेल है जिसमें कोई कलाकार अपने होने का यूं अहसास कराता है।
प्रायः सभी गायी उनकी गजलें मकबूले-आम है परन्तु फैज अहमद फैज की लिखी ‘...चले भी आओ कि, गुलशन का कारोबार चले...’ सुनते जैसे उन्हंे गुनने का मन करता है। वह अपने गाये में लिखे हुए के भावों या रस को अक्षुण रखते हैं। गजल गान के उनके आलाप में स्वरों के उतार-चढ़ाव का जादू उनके गाये से हमें जुदा नहीं होने देता। इसीलिये उनके बहुत नहीं परन्तु थोड़े बहुत गाये को जैसे भी सुना है वह जेहन में बार-बार औचक उस सुर निभाव के साथ कौंधता है।  शब्द की स्थूल लौकिकता स्वरों में वहां तिरोहित जो हो जाती है। मेंहदी हसन साहब 20 के थे तब बंटवारे के दौरान पाकिस्तान के हो गये। उस मुल्क की नाकद्री देखिए शंहशाहे गजल का मोल उसने पहचाना ही नहीं। शायद यही कारण था कि वह भारत के लिये सदा बैचेन रहे। मुझे नहीं पता इसमें कितना सच है परन्तु कहते हैं मेंहदी हसन के गान को कभी लता ने ईश्वर की आवाज बताया था। हां, इसमें कोई शक नहीं कि यह मेंहदी हसन ही थे जिन्होंने उस दौर में अपनी पहचान अपने तई बनायी जब उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर जैसे गायकों को सुनने के लिये अवाम टूट पड़ती थी।
बहरहाल, मेंहदी हसन ने अपने पिता उस्ताद अजीम खान साह और चाचाइस्माईल खान साहब से गान की तालिम ली थी। जगतीत उन्हें सुनकर ही कभी पाकिस्तान जा पहंुचे थे, उनसे मिलने। जगतीत तो बाद में जहां से ही चले गये परन्तु यह नहीं पता था कि उनके बाद अब इतना जल्दी मेंहदी हसन भी इस जग को छोड़कर यूं चले जाएंगे!


लहर-लहर सौन्दर्य की सर्जना


महेश शर्मा शिरा अपने चित्रों में प्रकृति सौन्दर्य का स्मृति रूपान्तरण करते हैं। ऐसा करते वह कैनवस को जो ओप देते हैं, उसमें प्रकृति के बहुविध रूप है। मसलन वहां ओस की बूंदों, सागर की लहरों, दूधिया झरनें, नभ मंे उड़ते खग, बर्फ से ढके पर्वत, पहाड़, और हरियाली की चादर ओढे धरित्री का अनूठा स्मृति भव है।

अभी बहुत समय नहीं हुआ, पहले मुम्बई के जहांगीर आर्ट गैलरी में उनके चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित हुई थी।

कुछ समय पहले दिल्ली में आईफा गैलरी में भी उनके चित्र देखे थे। सहज स्फूर्त क्रियाषीलता के अंतर्गत आत्मिक भावों के उनके ऐसे रूपांकन में सादृष्य से स्वतः अपनापा होता है। इसलिये कि रंग आच्छादकता का उनका यह लोक सांगीतिक आस्वाद कराता हमें देखे हुए को गुनने का अवसर देता है। प्रकृति जैसी है, उसका यथार्थ अंकन करने की बजाय वह उसमें स्मृतियों की संवेदनाओं को परोटते हैं।  कैनवस पर उनके दृष्य कोलाज कोहरा छंटाती धूप की मानिंद हमारे समक्ष जैसे-जैसे प्रकट होते हैं, हम उनमें प्रकृति और जीवन के अपने अनुभवों की तलाष करने लगते हैं। घना जंगल, कोहरा ढका आकाष, पहाड़ों पर इतराती धूप और जीव जंतुओं के उनके कैनवस चितराम अदृष्य से दृष्य की एक प्रकार से यात्रा है। आरंभ में कैनवस पर रंगों की पारदर्षी लेयर भर नजर आती है। झीने प्रकाष में आवृत फिर धीरे-धीरे कहीं कोई चिड़िया, कहीं कोई पहाड़, कहीं कोई झरना दिखाई देने लगता है। वस्तुओं, प्राणियों में सादृष्य का विचार किए बगैर वह रंगों, रेखाओं में आकारों की ऐसे ही अनूठी सौन्दर्य निर्मिति करते हैं।

बहरहाल, महेष शर्मा षिरा खैरागढ़ स्थित देष के एक मात्र इन्दिरा कला और संगीत विष्वविद्यालय में कला संकाय के अधीष्ठाता हैं। खैरागढ़ जाना हुआ तो उनके चित्रों से गहरे से रू-ब-रू हुआ। मुझे लगा, भीतर की अपनी कला संवेदनाओं का कैनवस रूपान्तरण करते वह प्रकृति और जीवन की अपने तई खोज करते हैं। कभी पिकासो ने कला को ‘खोज की यात्रा’ ही तो कहा था। इस दीठ से मुझे लगता है, महेष शर्मा के चित्र प्रकृति और जीवन की कैनवस खोज है। परछाईनुमा आकृतियों में वह रंगों के पारदर्षीपन में स्मृतियों का अनूठा निरूपण करते है। समुद्र की लहरें, उनमें बसती-तैरती मछलियां, पहाड़, पेड़, फूल-पत्तियां और अनंत नभ में उड़ते खग। इन सबका उनका कैनवस एक प्रकार से गान है। प्रकृति निनादित उनके इस कैनवस गान में सफेद में पीला, नीला, हरा, लाल रंग जैसे हमसे बतियाता है। रंगो से दीप्त एक चित्र में फूल-पत्तियों से औचक पक्षी की आकृति झांकती है तो दूसरे चित्र में ओस की बूंदो के पार्ष्व में हरियाली के अक्ष उभरते हैं। ऐसे चित्र और भी हैं। मसलन कहीं गुफा से झांकता आधा चांद नीले-काले में अद्भुत सौन्दर्य से साक्षात् कराता है तो कहीं धूंए में लिपटी जंगली जीव-जन्तुओं की आकृतियां गत्यात्मक प्रवाह में तेजी से भागती औचक आंखों से ओझल हो जाती है। प्रकृति और जीवन के ऐसे ही जीवन्त दृष्यों में महेष शर्मा षिरा नैसर्गिक रूप का अनुकरण करते कहीं गाढ़े तो कहीं हल्के रंगों में अंगीकृत छाया लोक का सृजन करते हैं। माने उनके तमाम चित्र छाया-आच्छादित हैं। इनमें देखे गये दृष्य नहीं बल्कि उनका प्रभाव हैं। रंग आच्छादकता मे कैनवस पर सफेद को प्राथमिकता है परन्तु तमाम रंगों का अपना अलग अस्तित्व भी है। इस अस्तित्व में कभी नीला प्रमुख हो जाता है तो कभी लाल तो कभी हरा तो कभी पीला। दृष्य में परिणामकारक प्रभाव लिये भी हैं उनके चित्र।

मुझे लगता है, प्रकृति को अपने तई रंग कैनवस में बरतते वह लहर-लहर सौन्दर्य की सर्जना करते हैं। रगों की अनूठी सांगीतिक लय है। धूंध से उभरती आकृतियों में पक्षियों के कलरव को वहां सुना जा सकता है तो मछलियों के तैरने को अनुभूत भी किया जा सकता है।


Friday, June 8, 2012

सहज मन के सुरों में प्रकृति की धुन



सम और गीत से बना शब्द है संगीत। सम माने सहित और गीत का अर्थ है गान। कोयल की कूक सुनते हैं तो मन में मीठी सी कोई हूक जगती है न! झरनों का झर-झर, नदियों का कल-कल, बरसात की बूंदों की रिम-झिम यह सभी सुनें तो मन करे अंदर से इन्हें गुनें। प्रकृति की यह धुनें ही तो हैं संगीत का आदिम स्त्रोत। आपने महसूस किया होगा, मन पाखी भी तो प्रकृति में विचरते बहुतेरी बार औचक गाने लगता है। कईं बार प्रकृति की कोई धुन मन के भीतर इस कदर उतरती है कि बार-बार उसे सुनने को, गुनने को मन करता है। प्रकृति की धुन माने वह सच्चे हृदय से उपजी हो। जिसमें कोई बनावट नहीं हो। सहज जो सुनायी दे।
बहरहाल, कुछ दिन पहले पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर द्वारा लिखी उनकी आत्मकथा ‘रस यात्रा’ का आस्वाद कर रहा था। इसमें वह लिखते हैं, ‘अच्छा संगीत श्रोताओं को भावों के उच्चासन पर पहुंचा देता है।’ सच ही तो है! यह संगीत ही है जिसमें मन सांसारिकता से दूर एक अलग दुनिया में चला जाता है। भौतिकता की उपस्थिति वहां नहीं रहती। हरिओम शरण को सुनते ऐसा ही लगता है। सांसारिकता में होते भी लगता है, मन उससे अलग अपने भीतर की तलाष में पहुंच गया है। भले वहां शास्त्रीयता की सौन्दर्य परिणति नहीं है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं के गान की गहन अनुभूती है। कहें, सहज, सरल शब्दो में आप-हम सबका मन वहां जैसे गाता है। मन करता है, बार-बार उन्हें सुनें। शायद इसलिये कि उनके सुरों मंे प्रकृति की धुन है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। अपने को संप्रेषित करने का कहीं कोई आग्रह नही। वहां प्रभु अर्चना है। मन की वेदना है। व्यर्थ किये का सच्चा पश्चाताप है। और है एक साधक की साधना। मुझे लगता है, संगीत की प्रकृति को सही से समझना है तो उन्हें सुनना ही चाहिए। इसलिये कि उन्हें सुनते एकरसता से परे हर बार नव आनंद की प्राप्ति होती है। संस्कृत में कहा गया है, ‘स्थाने-स्थाने यत नवतम् उपैति/तदैव रूपम रमणीयताया।’ नवीनता का सौन्दर्य निकष। क्षण-क्षण की रूप रमणीयता। सुर, राग, बोल सभी वही परन्तु सुनने में सदा नये की अनुभूति।
बहरहाल, भजन संगीत की हमारी समृद्ध परम्परा को हरिओम शरण ने अकेले अपने बूते संपन्न किया। वह ऐसे हैं जिन्हें आज भी उसी चाव से सुना जाता है। सादगी के उनके गान पर मन न्योछावर होता है। सच्चे अर्थों की सुर अभ्यर्थना वहां जो है। यह लिख रहा हूं और उनका गाया जेहन में गहरे से बस रहा है, ‘निर्मल वाणी पाकर तुझसे, नाम न तेरा गाया। नैन मूंदकर हे परमेष्वर, कभी न तुझको ध्याया।’ शब्द भर नहीं, शब्दों के भीतर का गान है यहां। बहुत छोटा था तब। अलसुबह घर में दादी को हरजस गाते सुनता था। न जाने कहां से आए थे उनके हरजस के वे बोल। मैंने बहुत से लिखे हुए भी है परन्तु उनका स्त्रोत अभी भी नही जान पाया परन्तु उनमें सच्चे अर्थों की अभिव्यंजना को आज भी अनुभूत करता हूं। दादी को संगीत का ज्ञान कहां था! वह तो हरि स्मरण करती थी। ऐसा करते बोलों के निभाव में वह अपने को भी जैसे तब भूल जाती। उनकी उस तंद्रा को याद करते लगता है, संगीत के सच्चे सुरों में अपने को भूलना जरूरी होता है। हरिओम शरण का गान ऐसा ही है जिसमें उन्होंने जो भी गया अपने को भूलकर गाया। ‘दाता एक राम’, ‘प्रभु हम पे दया करना’, ‘तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार’, ‘उद्धार करो भगवान’ जैसे गाये उनके भजन सुनते मन नहीं भरता। प्रार्थना। अर्चना। याचना। करूणा। और मनुष्य होने का मामूलीपन। अबोध और निर्दोष भाव। कहें, सच्चे मन की सुराजंलि। जो गाया अंतर्मन से। उनका गाया सांस और संगीत का मेल है। यही तो है प्रकृति के सुर। विष्वास नहीं हो तो उन्हें सुनें। मन करेगा उन्हें गुनें। 

Friday, June 1, 2012

लोक नाट्यों में है तमाम हमारी कलाओं का मेल


लोक विश्वास, परम्परा, मनोरंजन और जीवन की उत्सवधर्मिता का सांगोपांग चितराम कहीं हैं तो वह लोकनाट्यों में है। सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक कथानकों का सीधी सरल भाषा में रोचक रूप में सहज संप्रेषण वहां जो है। लोकनाट्यों की समृद्ध संस्कृति देशभर में रही है। महाराष्ट्र में यह तमाशा है तो उत्तरप्रदेश में रास-लीला, नौटंकी, भाण। मध्यप्रदेश में यह मांच है तो बंगाल में जात्रा और गंभीरा। दक्षिण भारत में यक्षगान और विथि नाटकम लोकनाट्य के ही रूप हैं। राजस्थान में यह ख्याल, रम्मत, नौटंकी, स्वांग के रूप में हैं। नाट्य के सभी तत्व इनमें मिलेंगे परन्तु ताम-झाम नगण्य।  

बहरहाल, पिछले दिनों राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष अर्जुनदेव चारण के आमंत्रण पर मेड़तारोड़ में कुचामणी ख्याल यात्रा आयोजन संगोष्ठी में भाग लेते लोकनाट्यों की हमारी परम्परा को गहरे से जिया। लगा, यह लोक नाट्य ही हैं जिनमें तमाम हमारी कलाओं का मेल है। किसी एक कला में नहीं बल्कि तमाम कलाओं में लोक कलाकार निष्णात होते हैं। निष्णात न भी कहें तो अभ्यासी कह सकते हैं। लम्बे-लम्बे संवाद भी सहज सांगीतिक रूप में अदा करते वह कहन की अपनी शैली से चमत्कृत करते हैं। मुझे लगता है, कलाओं के अंन्र्तसंबंधों को व्यवहार में यदि जानना है तो लोकनाट्य हमारी मदद कर सकते हैं। मित्र शैलेन्द्र उपाध्याय के साथ हमने दूरदर्शन के लिये ब्रह्माणी मंदिर परिसर में कुचामणी ख्याल राजा हरिष्चन्द्र को षूट किया। बगैर पूर्वाभ्यास के कलाकार लोकनाट्य विधा को जैसे अपने में आत्मसात किये थे। संवादों की अनूठी लय अदायगी। चरित्र को अपने में समाहित करने की गजब जीवंतता। ख्याल में भूमिका निभाने वाले कलाकार संगीतज्ञ होते हैं। अभिनेता होते हैं। नर्तक होते हैं और गायक भी होते हैं। माने तमाम कलाओं का मेल कहीं है तो वह इन लोक नाट्यों में ही हैं। विडम्बना देखिए, बावजूद इस समृद्धता के आधुनिकता की आंधी बहुत से लोकनाट्यों को उड़ा भी ले गयी है। शायद इसका कारण यह भी है कि लोकनाट्यों में समय सरोकार समाप्त से होते चले गये है।

बहरहाल, कभी देवीलाल सामर ने कुचामणी ख्याल में आधुनिक समय के संदर्भ डालते फिर से उन्हें रचा। मसलन मीरा को अपने तई ‘म्हाने चाकर राखोजी’ से उन्होंने पुनर्नवा किया। धुनें वही रखी। नाचने गाने की शैली वही रखी। यहां तक कि नगाड़े, ढोलक की तालें भी वहीं रखी गयी परन्तु कुछेक प्रतिकात्मक रंगमंचीय सामग्री का प्रयोग अधुनातन परिवेश के हिसाब से किया गया। देशभर में ख्याल की उनकी यह प्रस्तुति खासा लोकप्रिय हुई। देवीलाल जी ने इसी तरह के प्रयोग ढोलामारू, मूमल-महेन्द्र के नाम से राजस्थान की चिड़ावा शैली में भी किये और उनमें उनको अपार सफलता भी मिली। ख्याल, नोटंकी, स्वांग, रम्मतों आदि लोकनाट्यों को समय के हिसाब से इसी तरह से पुनर्नवा करना होगा। माने पारम्परिक कथानक के स्थान पर नवीन कथानक लिया जा सकता है। समाज की नवीन समस्याएं ली जा सकती है। परिवेश नया हो सकता है परन्तु कला का मूल वही रखें। इस से होगी लोकनाट्यों की हमारी समृद्ध परम्परा का सही में संरक्षण। 

संगीत नाटक अकादमी और दूसरी संस्थाओं को यह भी चाहिए कि लोकनाट्यों से जुड़े पारम्परिक कलाकारों में से कुछेक को चिन्हित करें। लोकनाट्य गुरूओं के रूप में। राज्य स्तर पर लोकनाट्य प्रशिक्षण के लिये उन्हें बुलाया जा सकता है। आधुनिक समय संदर्भों से यदि लोकनाट्य होते है तो लोग उन्हें पसंद भी करेंगे क्यांेकि लोक नाट्य में पद्यांशों की बंदिशें परम्परागत स्वरबद्ध होती है। ये बंदिशे गायी अवश्य जाती है परन्तु वे कुछ इस तरह से बंधी हुई होती है कि सीधे संवादो की तरह असर करती है। पात्रो को अपनी कल्पना के हिसाब से गद्य में भी पद्य़ की मानिंद वहां बहुत करने की छूट होती है। इसी से होती है दर्शकों की भागीदारी।