Friday, August 31, 2012

सभ्यता-संस्कृति की छाया कला दीठ



विश्व की प्राचीनतम और अब तक निरंतरता रखने वाली सभ्यता और संस्कृति में भारत के साथ चीन भी शुमार है। यह चीन ही है जिसका  लिखित इतिहास चार हजार वर्ष से भी पुराना है। माने अधुनातन विकास से ही नहीं अतीत की कला, साहित्य और संस्कृति से भी चीन अत्यधिक समृद्ध है। संस्कृति की उसकी निरंतरता को वहां के जन-जीवन, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और तमाम दूसरी कलाओ में गहरे से अनुभत किया जा सकता है।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों चीन की सभ्यता एवं सस्कृति से साक्षात् कराते नारायणी गुप्ता के छायाचित्रों की प्रदर्षनी लगी थी। सुखद यह था कि इसमें चीन के कलात्मक जीवन के किसी एक पहलू की बजाय तमाम आयामों को नारायणी ने अपने कैमरे की अपनी आंख से पकड़ते उसे सार्वजनीन किया है। 
मुझे लगता है, छायाकला रूपों की मौन मुखराभिव्यक्ति है। इसमें देखना ही महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि दृष्य के भीतर निहित सौन्दर्य की दीठ भी बेहद महत्वपूर्ण होती है। यह छायाकला ही है जिसमें अंतर्मन संवेदना के जरिये छायाकार बहुतेरी बार दृष्य मंे निहित सौन्दर्य को कईं गुना अधिक सघनता से मुखरित कर देता है। तब यथार्थ दृष्य की बजाय उसका कैमरे की आंख का संवेदन रूपान्तरण अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। नारायणी के छायाचित्रों के साथ यही है। वह देखे हुए दृष्यों की विषय-वस्तु के साथ घटना की संवेदना, क्षण की अपूर्वता और उसमंे निहित गति को अपने कैमरे में भीतर की अपनी संवेदना से पकड़ती है। इसीलिये बहुतेरी बार साधारण दृष्य भी उसके छायाचित्रों में संवेदना की छाया-कला दीठ से असाधरण प्रतीत होने लगते हैं। मसलन उसकी इस छायाचित्र प्रदर्षनी में एक दृष्य है सुन्दर से एक पूल का। चाईना के इस ब्रिज का नारायणी का कैमरा फ्रेम दृष्य में निहित सौन्दर्य को कईं गुना अधिक उद्घाटित करता है। इस तस्वीर में छाया-प्रकाष प्रभाव, कोण, दृष्य माप और गति का संतुलन अद्भुत है। पानी में उभरती ब्रिज की छाया और ठीक ब्रिज के नीचे चलती नाव और ऊपर पर्यटकों की रेलमपेल। देखता हूं तो, दृष्य संयोजन की यह दीठ मुग्ध करती है। आकाष की निलाई के साथ दृष्य संयोजन में नारायणी की छाया-कला सूझ को इस चित्र में गहरे से पहचाना जा सकता है। 
बहरहाल, दृष्य संवेदन के ऐसे ही छायाचित्र और भी हैं। संघई के सुप्रसिद्ध बौद्ध मंदिर में बुध की लेटी हुई प्रतिमा के चित्र को ही लें। इसमें नारायणी ने लेटे हुए बुद्ध के मौन और निर्वाण को गहरे से मुखरित किया है। खास बात यह कि प्रतिमा के साथ आस-पास का शांत परिवेष भी यहां उद्घाटित है। एक छायाचित्र में सिंघई के पुराने घरों का दृष्य है तो एक में कला संग्रहालय के संस्थापन का दर्षाव अतीत के साथ अधुनातन संस्कृति से रू-ब-रू कराता है। सिंघई के एंटिक बाजार में इमारतों का वास्तु षिल्प भी मन मोहता है। यह नारायणी के कैमरे की आंख की वह संवेदना ही है जिसमें बाजार की इमारतों से निकले छज्जों को परस्पर मिलाते वहां के वास्तु सौन्दर्य की सूक्ष्म अभिव्यंजना की गयी है। मुझे लगता है, वह छाया चित्रों में दृष्य के साथ तमाम उसकी दूसरी संभावनाओं को भी अपने कैमरे से पकड़ती है। ऐसा ही एक चित्र है छोटे से एक बच्चे का। चाईना के भविष्य से अभिहित इस छायाचित्र में सीढ़ियां, बच्चे की मासूमियत और भयमुक्तता के बहाने दृष्य के गहरे संवेदन आयाम हैं। दृष्य संवेदना की दीठ ही तो है छायाकला! टाईनामेन स्कवायर, चीन की दीवार, संगीत, नृत्य और चित्रकलाओं के साथ ही आधुनिक चीन के विष्व सरोकारों को भी बहुत से चित्रों में अभिव्यंजित किया गया है। कोई संस्कृति कैसे बरसों-बरस अपनी निरंतरता बनाये रखती है, कैसे वह संस्कारित होती है और कैसे उसमें कलाओं की अनुगूंज को सुना जा सकता है, नारायणी के छायाचित्रों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सोचता हूं, चीन की सभ्यता और संस्कृति के साथ ही नारायणी की छाया कला दीठ की भी तो संवाहक है यह छायाचित्र प्रदर्षनी। आप क्या कहंेगे!


Saturday, August 25, 2012

कुमारस्वामी व्याख्यान में रवीन्द्र का चित्रकर्म


भारतीय कला का सूक्ष्म मूल्यांकन कर उसे विश्वभर में प्रतिष्ठित करने का श्रेय किसी कला अध्येता को जाता है तो वह डॉ. आनन्द के. कुमारस्वामी हैं। पढ़ते हैं तो हमारे यहां की चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, नृत्य, संगीत आदि का उनका चिंतन गहरे से मन में घर करता है। शायद इसलिये कि यह कुमारस्वामी ही हैं जो कला के इतिहास के साथ उसकी निर्माण-प्रक्रिया की गहराई में भी जाते हैं। 
बुधवार को जवाहर कला केन्द्र में आनन्दकुमार स्वामी स्मृति व्याख्यान रखा गया था। केन्द्रीय ललित कला अकादमी प्रतिवर्ष यह आयोजन करती है। इस बार सुखद यह रहा कि यह आयोजन राजधानी दिल्ली में नहीं होकर जयपुर में हुआ। शांतिनिकेतन विश्वभारती से आए प्रो. आर.शिवाकुमार ने कुमारस्वामी व्याख्यान के अंतर्गत रवीन्द्रनाथ टैगोर की चित्रकला में आधुनिकता को चुनते हुए बहुत सी पहले प्रकाश में नहीं आयी बातों को साझा किया। उन्हे सुनते हुए आनन्दकुमार स्वामी के कला आलोचना कर्म की उन विशेषताओं पर भी औचक ध्यान गया जिसमें चित्रकला में जो दिख रहा है, वही नहीं बल्कि चित्र के भीतर निहित में भी वह गहरे से जाते उसकी अपने तई खोज करते रहे हैं। 
बहरहाल, प्रो. आर.शिवाकुमार अपने व्याखान में जब यह बता रहे थे कि रवीन्द्रनाथ ने चित्रकला की विधिवत शिक्षा नहीं ली बल्कि अपने अग्रजों और घर-परिवार के परिवेश, घटनाओं से उन्होंने सीखा तो लगा यही तो वह कारण थे जिससे अपने तई प्रयोगधर्मिता के साथ उम्र के आखरी पड़ाव में भी उन्होंने चित्रकला में संवेदना का सर्वथा नया मुहावरा दिया। मुझे लगता है, यही वह मुहावरा है जिसके अंतर्गत उनकी कलाकृतियों मे उभरे बिम्ब, प्रतीक और कालेपन में औचक उभरती रेखाओं की धवलता अपनी मौलिकता में आज भी हमें आकृष्ट करती हैं। 
प्रो. आर.शिवाकुमार ने रवीन्द्र की कला पर चर्चा के साथ ही जापान और योरोप में कला मंे आधुनिकता के प्रयोगों से रवीन्द्र की कला को जोड़ा भी। मसलन जापान की कलाओं के अर्न्तनिहित उस चुप्पी पर भी वह गये जिसमें भीड़ के बावजूद सन्नाटे का छंद हैं। जहां चाय की केतली में उभरी आकृतियांे में समुद्र की लहरें, बहती नदियों के गान के साथ ही कैलिग्राफी में सौन्दर्य की सर्जना है। जापान ही क्यों चीन की कलाओं में उभरी मानव संरचनाओं, भांत-भांत की मुखाकृतियों और वहां की वास्तु कला में उभरी आधुनिकता भी तो किसी न किसी रूप में विश्व में कला सर्जन का हेतु रही ही है।
रवीन्द्र के चित्रांे पर गौर करता हूं तो न जाने क्यों वहां एक खास तरह की एकान्तिका को अनुभूत करता हूं। माने वहां सब कुछ हैं, रेखाएं-सघन टैक्सचर और रंगों की आभा परन्तु इस सबके बावजूद जो निरवता और शांति वहां है वह अपने आपमें देखने वाले से जैसे बतियाती है। और रवीन्द्र ने तो अपने समय के आधुनिकतावाद को गहरे से चित्रों में जिया है। यह ऐसा है जिसमें भीड़ के बावजूद खालीपन ध्वनित होता है और शोर के बीच भी पसरे सन्नाटे का कहन है। कभी रवीन्द्र ने कहा भी था, ‘मैं अकेला हूं परन्तु मेरे आस-पास बहुत से लोग हैं और  उनसे मेरी संवेदनशीलता बहुत से स्तरों पर प्रभावित होती है।’ उनके चित्रों को देखंेगे तो लगेगा अपनी एकान्तिका में आस-पास की घटनाओं, लोगों की संवेदनशीलता को भी वह ध्वनित करते हैं। यह उनके चित्रों के सन्नाटे का मधुर छंद हैं। स्याह से धवलता की ओर उन्मुख होती उनके चित्रों की रेखाएं, और रंगों की आभा इसीलिये सौन्दर्य का सर्वथा नया मुहावरा लिये है। आधुनिकता में रचे-बसे उनके चित्रों को देखते हुए इसीलिये राफेल की याद आती है, जापानी कला की निरवता को हम अनुभूत करते हैं, पिकासो की मुखाकृतियां औचक जेहन में कौंधती है तो माइकल एन्जेलो की शरीर संरचना वाली कलाकृतियां भी न जाने क्यों मन में घर करने लगती है। कला में आधुनिकतावाद के इस सामने से ही तो सिरजा उन्होंने कला का अपना जग! आनन्दकुमार स्वामी व्याख्यानमाला में प्रो. आर.शिवाकुमार को सुनना सुखद था, इसलिये भी कि इसमें उन्होंने रवीन्द्र की वह दुर्लभ कलाकृतियां भी दिखायी, जिनमें आधुनिकता बोध के साथ भीतर की उनकी कला संवेदनशीलता का गहरा आकाश है। 

Saturday, August 18, 2012

माटी एक भेष धरि नाना


बरसात की बूंदे धरती के लिये जीवन है। बारिष होती है तभी तो ओढ़ती है धरती हरियाली की चादर। मिट्टी में घूला बीज प्रस्फुटित होता है। धरती से उठती है सौंधी सी महक। यह ऐसी है जिसे हर कोई महसूस करता है। ऐसे ही तो षिल्प में ढ़ल मिट्टी सर्जन की संपूर्णता का हेतु बनती है। यह मिट्टी का ही गुण है कि उसे किसी भी आकार और सांचे में ढाला जा सकता है। कैसे भी इसे बरत षिल्प की सुन्दर परिणति की जा सकती है। माटी है ही सर्जन की प्रतीक। सर्जन से गहरा अंतःसंबंध जो है इसका।  
माटी माने मिट्टी। मनुष्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिये उपयोगी वस्तुओं के निर्माण का प्राचीनतम साधन। कुम्हार मिट्टी से ही तो करता है सर्जन। सोचिए! पृथ्वी, सूर्य, पवन, अग्नि और जल से ही तो यह संसार है और कुम्हार जब नया घड़ा ढालता है तो इन सबसे ही अपने सर्जन को संपूर्णता देता है। पंचभूत तत्वों से बनता है शरीर और माटी का सर्जन भी इन्हीं तत्वों से होता है। कुम्हार को आखिर यू ंतो प्रजापति नहंी कहा जाता! 
हमारे यहां तो मिट्टी के ही हैं तमाम हमारे सर्जन सरोकार। तमाम हमारी परम्पराओं का निर्वाह। दुर्गा पूजा, गणगौर, गणपति आदि की प्रतिमाएं मिट्टी से ही तो बनती है। बाकायदा इनमें प्राण प्रतिष्ठा होती है। माना जाता है, पर्वोत्वस पर दुर्गा, गौरी, गणति जगते हैं और जब उनसे आत्मा अलग होती है तो फिर से ये भूमि और जल में विसर्जित कर दिये जाते हैं। माने जहां से ये आए, वहीं फिर से लौट जाते हैं। मिट्टी इसीलिये तो जीवन का प्रतीक मानी जाती है। कहें, मनुष्य को उसके समग्रपन में अवस्थित करने का कार्य किसी के जरिये होता है तो वह माटी ही है।
राजस्थान की मोलेला की मृण मूर्तियांे जग प्रसिद्ध है। मोलेला में कलाकारों को माटी मूर्तियों गढ़ते बहुतेरी बार देखा है। हर बार लगा, धरती पुत्र षिल्पकार सहज सरल तरीके से सर्जनात्मकता का निर्वहन करते हैं। पीढ़ी-दर पीढ़ी सर्जन की यह विरासत वह ऐसे ही छोड़ते जाते हैं। परम्परा और आस्था से निरंतर आगे बढ़ता जाता है सर्जन का यह सफर। षिल्पकार मिट्टी में रूप-अरूप, अदृष्य-प्रत्यक्ष, खंडता-असंलग्नता के बहुविध वैचित्र्य का एक ऐक्य सुर का गान करते हैं। कुम्हार जो मूर्तियां गढ़ते हैं, उनमें भीतर और बाहर के तमाम संघर्षों की बानगी है परन्तु अनूठी संगति भी है। सर्जन की संगति। जो दिखता है, वह इस जगत से है भी और नहीं भी। माने चिन्मय वास्तव। 
कहते हैं, मानवीय-सम्बन्धों में भाषा से भी अधिक व्याप्त होने वाला तत्व कोई है तो वह षिल्प ही है। इसमें संप्रेषण के सामान्य अवरोधों को समाप्त करने की क्षमता जो है। शायद इसीलिये आदि मानव ने अपने दैनिक उपयोग की वस्तुओं और भावनाओं का षिल्प संसार सर्वप्रथम रचा। सिन्धुघाटी काल के उपलब्ध षिल्पकारिता अवषेषों पर जाएं तो सहज यह कहा जा सकता है कि वहां सामान्य व्यवहार की वस्तुएं भी सौन्दर्यबोधक कृतियों में रूपान्तरित हो गई। कला के हमारे इतिहास में उपयोगिता में सौन्दर्य का समावेष कर षिल्प के अंतर्गत अंतरंग जीवन में भी सुन्दरता के महत्व को सदा प्रतिपादित किया गया है। यूं भी षिल्पकारिता जीवन के सहज स्पन्दन से उत्पन्न पूर्णता के गर्भ में ही प्रस्फुटित हुई है। यह माटी ही तो है, जिसमें विराट् से व्यष्टि के संबंध रूपायित होते हैं। कबीर इसीलिये तो एक मिट्टी में अनेक रूपधारी अखंड ब्रह्म का नाद करते हैं, ‘माटी एक भेष धरि नाना तामहि ब्रह्म पछाना।’ ...तो बारिष के इस दौर में भूमि पर पड़ती टप-टप बूंदों को निहारें। अनुभूत करें माटी के सर्जन की सौंधी महक। 


Friday, August 10, 2012

कृष्णम वन्दे जगदगुरुम

भगवान श्रीकृष्ण! बंसी बजईया, कृष्ण कन्हैया। वह जिसमें सम्मोहन है। आकर्षण है। तमाम हमारी कलाओं के संदर्भ अंतत: इस श्रीकृष्ण से ही तो जुड़े हैं। वे रसेश्वर हैं। वेणुवादक हैं। नर्तक हैं। शंखनाद करने वाले हैं। कलाओं के युग्म। ईश्वर! चौसठ कलाओं की समग्रता लिए पुरूषोत्तम। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिनका चरित्र मोर पंखों की मानिंद मनभावन रंगों से रंगा है। सब ओर से विरक्त। स्वयं अनासक्त। पर कर्षयति इति कृष्ण।" माने श्रीकृष्ण का अर्थ ही है, वह जो आकर्षित करे। इसीलिए तो उन पर हर कोई आसक्त हुआ जाता है। कोई उनकी बांसुरी की तान पर। तो कोई उनकी मधुर मुस्कान पर। कल्पना करता हूं...वे बसी बजाते होंगे, तो वन मे सभी भाव विभोर हो नर्तन ही तो करते होंगे। स्वयं श्रीकृष्ण नर्तक हैं। नृत्य सम्राट। आनंद, उमंग और उत्सवधर्मिता है उनका नाच। सबको रिझाते। हंसते-गाते। कहते हैं कृष्ण जब बंसी बजाते तो आठ राग और सोलह हजार उप राग बजाते। उनके रास अंतर्गत ब्रज में ही तो जन्मी थी सोलह हजार राग-रागिनियां। सच! श्रीकृष्ण हैं ही रागानुरागी। उनका रास सृजन है और जो बंसी वे बजाते हैं, उसकी धुन उस सृजन का गीत। उनका मनोहरी रूप हमें सदा मोहता है। उनकी मुस्कान मन में बसती है।
मीरा का यह गान सुनें- "थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ, मैं हाजिर-नाजिर कद री खड़ी।" स्मरण करें श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप को। कौस्तुभादि आभूषण। गले में पुष्पहार। पीताम्बरादि वस्त्र। किरीट में मयूर पंख। अधरों पर मुरली। कला का समग्र बोध लिए हैं श्रीकृष्ण का यह रूप। इसीलिए तो यह मन में घर करता है। चाहकर भी इस मनोहारी छवि से हम कहां मुक्त हो पाते हैं! श्रीकृष्ण की छवि में प्रेम झर-झर झरता है। नेह में भीगता है मन। उन्हें पूजने का नहीं प्रेम करने का करता है मन। बस प्रेम करने का। शायद इसलिए कि श्रीकृष्ण न भूत, न भविष्य, न वर्तमान है। वे तो बस हैं। काल का अविरल प्रवाह है उनका होना। मेघ वर्ण। सांवले। सलोने। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार श्ृंगार का रंग भी सांवला है। और श्रीकृष्ण तो श्ृंगार के ही पर्याय हैं।

श्रीकृष्ण का जीवन कला के गहरे मर्म लिए हैं। कलाएं हमें मुक्त करती हंै, तमाम बंधनों से। जीवन जीना भी कला है और यह कला कोई श्रीकृष्ण से सीखे। विषमताओं में भी वे बंसी बजाते मिलते हैं। किसी भी परिस्थिति में अरूचिकर गंभीरता को उन्होंने कभी न ओढ़ा। पाने-खोने का गम वहां नहीं है। एक बार जहां से वे चले गए, फिर पीछे मुड़कर कहां देखा! गोकुल छोड़ दिया तो छोड़ दिया। मथुरा छोड़ दी तो बस छोड़ दी। मुझे लगता है, उनका समग्र जीवन निरंतरता का संदेश है। आगे बढ़ने का संदेश। उनका कर्म उपदेश वह है जिसमें आपके होने का मर्म हो। कर्म। चरम नहीं परम। गीता के श्रीकृष्ण कर्मयोग का संदेश देते हैं तो भागवत के मुरारी जीवन जीने का धर्म और कला सिखाते हैं। ऎसी कला जिसमें हंसते, मुस्कुराते कठिनाइयों झेलते हुए भी निर्णय लेने की प्रतिज्ञा है।

यह श्रीकृष्ण के जीवन की विडंबना ही है कि जन्म के समय उन्हें विष दिया, तो एक स्त्री ने और मृत्यु का कारण भी स्त्री ही बनी। जन्म लेते ही पूतना ने विष दिया। गांधारी ने उनके सपूर्ण परिजनों के सत्यानाश का शाप दिया। फिर भी स्त्री सम्मान के लिए ही ता उम्र वे लड़ते रहे। द्रोपदी का चीर बढ़ाया। आदिवासी कन्या जाम्बवती से विवाह किया। नारकासुर की नारकीय कैद से छुड़ाकर उन çस्त्रयों को अपनी पत्नी बनने का अधिकार दिया, जिन्हें समाज ने कुलटा, पतिता कहा। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने राजसूय यज्ञ में आमंत्रितो के झूठे पात्र उठाए। सारथि दारूक, निर्धन सुदामा को मित्र का मान दिया। श्रीकृष्ण! माने युगंधर। युग प्रवर्तक। आखिर यूं ही तो नहीं कहा गया है, श्रीकृष्ण यदि भारतीय जीवन दर्शन में न रहे तो फिर बचेगा ही क्या! न साहित्य, न संगीत और न जीवन की उत्सवधर्मिता। जीवन जीने की कला के उत्तम पुरूष हंै भगवान श्रीकृष्ण! 

Monday, August 6, 2012

मोहन वीणा की सौन्दर्य रस सृष्टि



वीणा भारतीय संस्कृति का संवाहक वाद्य है। बाहर और भीतर सौन्दर्य से परिपूर्ण। वीणा का अर्थ ही है कल्याणी, शुभता, उत्कृष्टता और उदात्तता। नटराज षिव के विष्व नृत्य में सरस्वती वीणा बजाती है। भोले स्वयं भी तो वीणाधर है। दक्षिणामूर्ति। वैणिकों के राजा। षिव जब तांडव करते हैं तो पार्वती लास्य करती है। वह श्रेष्ठ नर्तकी ही नहीं वीणा वादिनी भी है। रामायण के सुंदर कांड में नौ तारों की विपंची वीणा का उल्लेख है। यह वीणा ही है जिसमें सूक्ष्म और जटिल ध्वनियों के जरिये स्वर का परिस्कार होता है। वादन में अध्यात्म के साथ सौन्दर्य रस की अनुभूति करनी हो तो वीणा सुनें। सुनेंगे तो लगेगा मन भी तरंगायित हो मौन में गाने लगा है।
बहरहाल, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में पंडित विष्वमोहन भट्ट की वीणा को सुना। सुना पहले भी है परन्तु इस बार न जाने क्यों सुना तो लगा उसे गुनूं। सो गुना। लगा सप्तकों में वह सुनने के जिस रस का सर्जन करते हैं, उसमें मन उल्लसित होता है। विष्वमोहन जो वीणा बजाते हैं उसका उल्लेख वीणा के इतिहास में कहीं नहीं मिलता। उसे उन्होंने अपने तई आविष्कृत किया है। हवाईयन गिटार में कुछ और तार जोड़ वीणा में उसे रूपान्तरित कर उन्होंने उसमें भारतीय रस की सृष्टि की। नाम दिया मोहन वीणा। अपने नाम के साथ मिला उन्होंने इस वाद्य को पारम्परिक भारतीय शास्त्रीय रागों के माधुर्य से जोड़ विष्वजनीन किया। मोहन वीणा गिटार का संषोधित शास्त्रीय रूप है। 
विष्वमोहन भट्ट ने संगीत की षिक्षा पं. रविषंकर से ग्रहण की। इसीलिये शास्त्रीय रागों की उनकी समझ गहरी है। रागों के मूल को बचाते वह समयानुरूप उनमें सुनने के तमाम रसों को मिलाते रहे हैं। जवाहर कला केन्द्र में मोहन वीणा के तारों पर उनकी उंगलियां मिंया मल्हार पर बज रही थी परन्तु झाला, विलम्बित में वह सुनने के अदभुत रस की ही जैसे वृष्टि कर रहे थे। मिंया मल्हार वर्षा ऋ़तु की राग है। वर्षा के मौसम में यह सर्वकालिक हो जाती है। पं. विष्वमोहन भट्ट ने अपनी वीणा में इस राग में बंद सभागार में वर्षा बूंदों से भिगने की अनुभूति करायी तो वर्षा जल के साथ बहती हवा में पत्तों की सरसराहट, कोयल, मोर, पपैये बोलने की अनुगूंज भी अनायास करायी। उनके वादन की बड़ी विषेषता यह भी है कि वह वीणा के तारों पर माधुर्य की बढ़त करते हैं। माने राग के तीव्रतम स्वरों में वह तारों को छेड़ उनके नैरन्तर्य का गजब का निभाव करते हैं। यही कारण है कि उनकी वीणा जब माधुर्य के चर्म पर होती है तो उसका असर वह तारों के दबाव से देर तक कराते हैं। उनके साथ बनारस के पंडित रामकुमार मिश्र ने तबले की भी अद्भुत संगत की। वीणा के तार जहां मंद पड़ते वहां तबले की उनकी थाप राग की समग्रता में अपने होने को गहरे से अनुभूत कराती। मुझे लगता है, पंडित विष्वमोहन भट्ट ने पाष्चात्य वाद्य गिटार का मोहन वीणा में रूपान्तरण कर उसे शास्त्रीय वाद्य जरूर बना दिया है परन्तु इसमंे शास्त्रीय रागों के माधुर्य में बहुतेरी बार खटका भी होता है। गिटार के तारों की बोझिल झनझनाहट राग माधुर्य में बाधा जो उत्पन्न करती है। 
बहरहाल, यह वाद्य संगीत ही है जो शब्दों के परे नाद की शुद्धता के जग में ले जाता है। वस्तु और व्यक्ति के बीच की संधी को विलिन करते हुए। सच! वीणा आंतरिक भावों, मन के उल्लास, उमंग की अनुभूतियों को संगीतात्मक ध्वनि लय तथा बोलों से प्रकट करने वाला उपकरण है। मोहन वीणा विष्वमोहन भट्ट का वह सर्जन है जिसे सुनते शास्त्रों में उल्लेखित विचित्र वीणा की अनुभूति भी अनायास होती है। जवाहर कला केन्द्र में हालंाकि पंडितजी ने उस्ताद गाजीखां मांगणियार और साथी कलाकारों के साथ अपनी वीणा से लोक सुर भी बिखेरे, सस्ते संगीत का भी कथित रस बिखेरा परन्तु उसमें वह बात कहां जो राग मिंया मल्हार में थी!