Sunday, January 20, 2013

नृत्य में सौन्दर्य के दृश्य चितराम


भारतीय दृष्टि जीवन को उसकी समग्रता में देखती है। उसमें जीवन के सभी पक्ष समाहित जो है! कला की दीठ से वहां संगीत है, चित्रकला है और नृत्य है। आपस मंे घुली यह तमाम कलाएं ही एक दूसरे को रूप देती है। बावजूद इसके, हर कला की अपनी स्वायत्ता भी है।  नृत्य की ही बात करें। नृत्य माने ताल और लय पर थिरकता सौंदर्यपूर्ण अंग संचालन। नाट्य और नृत्त का संगम। गीत में अन्र्तनिहित को देह की थिरकन वहां मूर्त करती है।...और भरतनाट्यम तो नृत्य में अभिनय भाव संजोए कला की सूक्ष्म दीठ है। इधर प्रख्यात नृत्यांगना मालविका सारूकाई ने भरतनाट्यम में अपने तई प्रयोगधर्मिता के नए ताने-बाने बुने हैं। परम्परा को समय सरोकारों से जोड़ते वह नृत्य में गजब की बढ़त करती है। कला के गहरे सरोकार रखने वाली विदूषी टिम्मीकुमार ने पिछले दिनों उसके नृत्य की सार्वजनिक प्रस्तुति कराई तो इसे गहरे से अनुभूत किया। 
नृत्य आस्वाद करते लगा, भरतनाट्य में मालविका दृष्य दर दृष्य की अद्भुत सौन्दर्य सर्जना करती है। देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर बनती गंगा और पर्वतों, पठारों से बहता उसका वेग मालविका के ‘गंगा अवतरण’ नृत्य में जीवंत होता है। नृत्य देखते लगता है, गंगा और उसक प्रचण्ड प्रवाह को हम सच में करीब से महसूस कर रहे हैं। नृत्य में हाथों की थिरकन और आंगिक चेष्टाओं की विषेष गति। सच! ताल-लय का मंत्रमुग्ध करता निःषब्द आवर्तन है मालविका का नृत्य।
बाह्यमुखी रंजकता में भीतर के ध्यान और नृत्यांगना की साधना को मालविका के नृत्य में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। गंगा पतित पावनी तो है ही, जन्म-मृत्यु और फिर से जन्म के जीवन चक्र की भी तो संवाहक है! मालविका अपने नृत्य में इसी दर्शन का नाद करती है। भाव मुद्राओं में वह अनूठा स्पेस सृजित करती है और तात्कालिक परिवेश को गहरे जीती है। सूक्ष्म भाव अभिनय के साथ वहां कोमल कल्पनाएं, विचार की गहरी सूझ दिखाई देती है। गंगा अवतरण के बाद की मालविका की बेहतरीन प्रस्तुति थी, ‘ठुमक चलत रामचन्द्र’। डी.बी. पलुस्कर की संगीतबद्ध इस रचना का मालविका का शब्दों पर रचा भाव संसार मन मोहने वाला था। हस्तमुद्राओं, नजर, मुस्कमान और अंगुलियों के मोहक बर्ताव में दृश्य के अनगिनत रूपाकार गढती मालविका ने श्रीरामचन्द्र के बाल्यकाल के अद्भुत चितराम नृत्य में उकेरे।  मुझे लगता है, संगीत में निहित बोल और ध्वनियों पर थिरकते अंगों से वह एकाभिनय नहीं अनेकाभिनय का अहसास कराती है। एक और प्रस्तुति ‘वंदेमातरम्’ वह जब कर रही थी तो जैसे भारतीय संस्कृति, परिवेश के तमाम पहलुओं को उसने अपने में समाहित कर लिया था। यथार्थ के रूपान्तरण का सशक्त दृश्य-श्रव्य माध्यम भी जिस सौन्दर्य को ठीक से व्यंजित नहीं कर सकता, वह अकेले मालविका अपने नृत्य में कर देती है। एक कलाकार अपने तई कितने-कितने पात्रों को अपने मंे समाहित कर भावपूर्ण दृश्यों का रचाव करता है, इसे मालविका के भरतनाट्यम से जाना जा सकता है।
बहरहाल, टिम्मीकुमार शहर की कलाकार, कला रसिक उद्यमी हैं। संगीत, नृत्य के बहुतेरे आयोजनों से सांस्कृतिक आयोजनों में पसरी एकरसता को उन्होंने तोड़ा है। मालविका सारूकाई उनकी मित्र भी हैं सो उन्हीं के सौजन्य से छायाकार मित्र महेश स्वामी के साथ जब इस नृत्यांगना से प्रस्तुंित के बाद संवाद हुआ तो भरतनाट्यम में  प्रयोगधर्मिता के उनके बहुत से अनछुए पहलुआंे से भी रू-ब-रू हुआ। कैसे किसी नृत्य में शरीर संतुलन के साथ नृत्यांगना अंतर्मन ध्यान को परिणत करती है, उसे भी तब गहरे से समझा। मालविका ने इस नाचीज से कहा भी, ‘नृत्य करते अपने आप से ही नहीं अनंत व्योम से, समय से और परिवेश से भी संवाद होता है।’ 


Saturday, January 12, 2013

कला का उजास


आत्मान्वेषण की सूक्ष्म अभिव्यंजना है चित्रकला। स्मृतियों, कल्पनाओ और स्वप्न संकेतों में वहां अर्न्तनिहित का सुगठित संयोजन जो होता है! चित्रकार रंग-रेखाओं में जो कुछ बनाता है, उसमें स्वयं उसकी अभिव्यक्ति व्याकुलता के साथ जीवनगत सौन्दर्य से जुड़े संस्कार भी तो होते हैं। प्रकाष, छाया तथा संदर्ष की अनगिनत छवियां कलाकार जब आंकता है तब उन्हें देखने वाले अपने तई अर्थ तलाषते हैं। कला का यही तो है आनंद हेतु। 
पिछले दिनों मनन चतुर्वेदी के रंग सरोकारों के साथ किसी कलाकार के आनंद हेतु से भी जैसे सीधे साक्षात् हुआ। यह ऐसा था जिसमें किसी कला मन के उर की उमंग उन बच्चों के लिए समर्पित थी, जिनका इस जहां में कोई नहीं है। ऐसा, जिसमें लगातार 72 घंटे रंगो में प्यार और स्नेह की छांव संजोयी जा रही थी। सोचता हूं, बच्चे इस जग में प्यार के फरिष्ते ही तो हैं! निराश्रित और परित्यक्त बच्चों के लिए कुछ करने के ‘एंजिल ऑफ लव’ केन्द्रित कला उपक्रम के बारे में भारतीय पुलिस सेवा के बेहद संजिदा, मगर कलाकार मन अधिकारी बी.एल. सोनी ने जब बताया तो मनन की कलाकृतियांे से रू-ब-रू होने का औचक ही मन हुआ था। 
ठिठुरती सुबह में धूप के ताप का तब सुखद आगाज हुआ ही था, जब मनन की बन रही कलाकृतियांे को देखने औचक पहुंच गया था। ढेरों बने चित्रों में उभरती मूर्त-अमूर्त आकृतियों में जीवन का उल्लास जैसे बंया हो रहा था। अनुभूत किया, वहां लोक का उजास भी था। जीवन से जुड़े संघर्ष थे तो जो है, उसे सहेजने का जतन भी और जो नहीं है, उसे बिसारने की सहज उत्कंठा भी। हरे, पीले, नीले-चटक, धुसरित रंगों में जीवन रचाव को देखने जब पहुंचा तब मनन की अनवरत कलायात्रा के 68 घंटे व्यतीत हो चुके थे। पता चला, मनन इस दौरान न सोयी है, न थक कर बैठ विश्राम किया है। बस कलाकृतियों के रचाव में ही लगी रही है। मगन मनन रच रही थी रंगों से कैनवस।  बगैर ब्रष। उंगलियों के पोरों से। हाथों की थाप से। उपस्थिति का बगैर भान कराये कुछ देर यह नाचीज़ मनन की अनथक कला में ही खोया रहा। देखा, वह कैनवस पर कभी रंग छिड़क रही थी तो कभी हाथों से रंगों का लेप़ करती जैसे अपने को ही उनमें बुन रही थी। औचक, एक चित्र में नन्हीं सी कोई बच्ची झूला झूलती उभरी तो दूजी में धुसरित रंगों में गांव और गांव का जीवन बंया हो रहा था। वहां हरे खेत थे, मृण पात्र थे और थे जीवन से जुड़े तमाम सरोकार।  
मनन समाज सेवा से मन से जुड़ी कलाकार है। बच्चों में रमती, उनमें ही बसती। पता चला, कभी निराश्रित एक बच्चे को वह अपने घर ले आयी थी। उसे पालते-पोषते ही कलाकार मन को लगा, ऐसे बच्चे जहां में और भी हैं जिनका कोई नहीं। क्यों नहीं, उन्हें भी प्यार की छांव दी जाए। बस इस सोच से ही नींव डाली मनन ने सुरमन आश्रम की। आज इस बाल आश्रम में परित्यक्त, निराश्रित 88 बच्चें हैं। स्वाभाविक ही है, मनन के कलाकार मन में भी यही बच्चे बसते हैं। इसीलिए तो उसकी कलाकृतियों में बच्चों की ईच्छाओं, उनकी हंसी के रंग हैं तो जीवन से जुड़ा वह दर्द भी औचक बंया होता है जिसमें नन्हीं कोंपलों के लिए आसमान की छत के सिवा कोई और सहारा नहीं। रंगों से जुड़े जीवन सरोकारों की अपनी कलाकृतियों की बिक्री से मनन नन्हीं कांेपलों के सुखद भविष्य के स्वप्न संजोए हुए हैं। उनके यह स्वप्न पूरे हों। आमीन! 
बहरहाल, किसी कलाकार की यह अद्भुत सर्जना ही तो है, जिसमें अपने लिए नहीं दूसरों के लिए कुछ करने का आत्मान्वेषण रंगों से यूं बंया हुआ है। आप क्या कहेंगे!


Sunday, January 6, 2013

बचा है कुछ हरा



पेड़ों में 
बचे हैं 
अभी भी 
हरे पत्ते; 
नम आंखों में 
बचे हैं 
अभी भी 
बहुत-से सपने; 
धूप में 
बची है 
अभी भी 
थोड़ी-सी छांव; 
रीतते मन में 
बचा है 
अभी भी 
बीता अतीत; 
उदासी में 
बची है 
अभी भी 
थोड़ी-सी मुस्कान; 
बाहर नही तो अंदर 
बचा है 
अभी भी 
कुछ हरा। 
नहीं, 
अभी तो 
कुछ भी 
नहीं झरा।