Friday, April 26, 2013

सौन्दर्य की अर्थ अभिव्यंजना


छायांकन वह कला है जिसमें प्रकृति प्रदत्त चीजों को ज्यों का त्यों ही प्रस्तुत ही नहीं किया जाता बल्कि प्रकृति के प्रस्तुत गुणों में से उकेरे जाने वाली विषय-वस्तु की एक प्रकार से अन्विति की जाती है। कहूं, विषय में निहित आंतरिक सौन्दर्य, सौन्दर्य के किसी अंश को अनुभूत करते कैमरे की तीसरी आंख से उसे छायाकार परोटता है।  ऐसा करते वह क्षण में परिवर्तित घटना की गति को पकड़ते यथार्थ का अर्थान्वेषण ही तो करता है!  
बहरहाल, बतौर अतिथि सम्पादक ललित कला अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन कला’ के लिए जब देष के ख्यातनाम कलाकारों की कलाकृतियों के छायांकन की तलाष कर रहा था, दिनेषकुमार ने छायाचित्रों के चयन में बेहद मदद भी की। तभी आग्रहवष उनके छायाचित्रों के भव में भी गया। लगा, उनके छायाचित्रों में रंगों और प्रकाश का सधा प्रयोग आकृतियों का अनूठा टैक्सचर निर्मित करता है। किसी कलाकृति की मानिंद। ऐसे में कैमरा जो दृश्य लेता है, एक प्रकार से संवेदना की उनकी आंख उसे फिर से गढती है। दृश्य की अनंत संभावनाओं में जाते वह उसके किसी एक हिस्से को पकड़ते उस पर कैमरे को फोकश करते हैं। ऐसा करते वह वहां उभरी छाया और प्रकाश की अपने तई कैमरे से अनूठी अर्थ अभिव्यंजना भी करते हैं। चट्टानों, शिलाओं और पत्थरों की प्रकृतिप्रदत्त संरचनाओं के शिल्पायन पर जाते वह वहां फैले प्रकाश और छाया को अपने कैमरे से पकड़ यथार्थ मंे जो दिख रहा है उससे भिन्न कलात्मक सौन्दर्य दिखाते हैं। ऐसा करते बहुतेरी बार चट्टान या पहाड़ के किसी कोने, पत्थर में छाया-प्रकाश से जो टैक्सचर निर्मित होता है-उसकी सूक्ष्म सौन्दर्य व्यंजना से वह देखने वालों को रू-ब-रू कराते हैं। दिनेश के ऐसे ही छाया-चित्रों से गुजरते यह अहसास भी बार-बार होता है कि हम अतीत के किसी कला काल मंे प्रवेश कर गए हैं। इस काल में गुफा और शैल चित्रों के अनूठे दृश्य चितराम अनायास उभरते प्रतीत होते सभ्यता और संस्कृति की हमारी संवेदना को जैसे स्पर्श करते हैं। अंधेरी गुफा, गुफा में कहीं से छनता आता प्रकाश और झिल्लीनुमा उभरती संरचना में रेत के रेगिस्तान के पद्चिन्हों की आहट सरीखी भी कुछ होती है। माने वहां जो दृश्य है, उससे बहुतेरे दूसरे दृश्यों की स्मृतियों से भी औचक अपनापा होता है।
दिनेश दृश्य में भी किसी एक आयाम को केन्द्र में रखते उसके संपूर्ण रहस्य को आंखों के समक्ष जैसे खोलते हैं। मसलन उनके एक छाया-चित्र में स्त्री-पुरूष आकृतियों की छाया है। विपरीत प्रकाश में लिए इस छायाचित्र में स्त्री-पुरूष साथ-साथ जा रहे हैं। आप उनके पीछे हैं, अंधेरे में परछाई भर उभरती है, बाकी सब में प्रकाश है। यहां आकृतियों पर पड़ते प्रकाश के बिम्ब में धुंधलाती देहों के साये कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहते हैं। छायाचित्र में अब जबकि डिजिटल कैमरे में सब कुछ आॅटोमेटिक होता है, यू देखा जाए तो करने को कुछ नहीं होता। दृश्य को कैमरा जैसा चाहे आपके समक्ष रख सकता है परन्तु व्यक्तियों, प्रकृति, चीजों में प्रकाश के साथ होते परिवर्तनों को आप कैसे लेते हैं, कैसे किसी दृश्य में संवेदना की तलाश करते हैं-यह तो आपके पास की कला दीठ से ही आपको मिल सकती है। दिनेश के पास इस कला दीठ की कोई कमी नहीं है, इसीलिए वह यथार्थ में जो दिख रहा है, उसके भीतर निहित कला आयामों को गहरे से अपने कैमरे से छूते है। 
मुझे लगता है, प्रकृति और चीजों को उसके सर्वोत्तम रूप में पकड़ भीतर के अपने कलाकार से उसे जीवंत करते हैं दिनेश के छायाचित्र। उनके चित्रों का आस्वाद करते ही बहुत कुछ लिख गया हूं परन्तु छायाकार जो अभिव्यक्ति करता उसे सच में क्या व्यक्त किया जा सकता है! 


Friday, April 19, 2013

संवेदना संचार की संवाहक कलाएं


कलाओं पर काल का वश नहीं है। कहने में यह बात कुछ विरोधाभाश  लिए हो सकती है कि आज जो समकालीन है कल वह क्या इतिहास  नहीं होना है! परन्तु यहां गौर करने की बात यह है कि कलाओं की अन्तर्निहित शक्ति उसका काल नहीं बल्कि उसके सर्जन का दृष्टिकोण तथा चीजों और विचारों के पीछे की मौलिक दृष्टि होती है।भले ही काल विशेष  के बाद किसी कलाकृति का संदर्भ बदल जाए परन्तु उसमें निहित विचार और दृष्टिकोण की स्थापना सदा अपना अस्तित्व बचाए रखती है।
कहूं, व्यक्ति में संवेदनाओं का संचार कलाएं ही कराती हैं। संवेदनाएं यदि छीजती है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि हमारा कला-बोध शून्य है। 
भारतीय दृष्टि जीवन में  सृजन से ही तो जुड़ रही है। वहां जीवन की समग्रता पर वहां विचारा गया है। जाहिर सी बात है, कला के परिप्रेक्ष्य में उसमे संगीत है, नृत्य है, चित्रकला है और तमाम प्रकार की दूसरी कलाएं भी सम्मिलित हैं। भरत मुनि के नाट्यषास्त्र का नाम भले नाटक से संबद्ध हो परन्तु उसमें सभी कलाओं के अर्न्तसंबंधों की परिणति में हर कला की अपनी स्वायत्ता है। और यह कलाएं ही हैं जो जीवन के अव्यक्त को व्यक्त करती हैं। जो व्यक्ति में संवेदना को जीवित रखती है। इसीलिए मानव मूल्यों के लिए जीवन में कलाओं का होना जरूरी समझा गया है। शास्त्रों में तो इसीलिए बगैर कलाओ ंके मनुष्य को पषुतुल्य समझा गया है।
बहरहाल, संगीत को ही लें। आलाप के अंतर्गत राग का हल्के हल्के विस्तार होता है। इस विस्तार में ही पूरा एक भाव लोक तैयार होता है। ठीक ऐसे ही रंगमंच के साथ है। वहां किसी पात्र सें संबंधित दृष्य में विस्तार होने के बाद ही अगला दृष्य मंचित होता है। नृत्य में दृष्टि, हाव-भाव आदि की भंगिमाएं ही उसका विस्तार करती है। यही बात चित्रकला के साथ भी है। रंग और रेखाएं बढ़त करती है। इसमें ही कैनवस पर मूर्त और अमूर्त चित्र की परिणति होती है। हर कला अपने रूप में सौन्दर्य और श्रेष्ठता का वरण दूसरी कला के मेल से करती है। सुखद जीवन का मंत्र भी तो यही है। सबके साथ तालमेल। 
...और कलाएं संवाद और सहकार का ही तो नाद करती है। विडम्बना यह है कि इधर कलाएं कलाकारों से ही नहीं आम जन से भी निरंतर दूर होती जा रही है। भूमंडलीकरण ने बाजार को अंतिम मंजिल जो बना दिया है! संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्रकलाएं जब बाजार की वस्तु बनेगी तो फिर जीवन में संवेदषीलता भी कहां बची रह जाएगी! सोचने की बात यह है कि आप-हम कलाओं के लिए क्या कर रहे हैं। हमारा कलाओं के बिगसाव में क्या योगदान है। कला प्रस्तुतियों में क्या हम पहुंचते हैं! कलाओं के संरक्षण में क्या किसी स्तर पर हम योगदान देते हैं! मूलभूत प्रष्न यही तो हैं। 
कला बोध के लिए जरूरी यह भी है कि शिक्षण संस्थाओं में आरंभ से ही बच्चों में सांस्कृतिक कलाओं के संस्कार दिए जाएं। समाज की नींव वहीं से तो तैयार होती है। घरों में इन संस्कारों पर ध्यान दिया जाए। स्वैच्छिक संस्थाएं इसके लिए अधिक से अधिक आगे आए। बहुतों को यह जानकार अचरज हो सकता है कि स्पिकमैके की स्थापना कभी आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर किरण सेठ ने की थी। सरकार व कॉरपोरेट जगत के अर्थ सहयोग से यह संस्था आज देषभर में शास्त्रीय संगीत व कलाओं के आयोजन करती है। स्पिकमैके ने वह काम किया है जो प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये, बहुतेरी संस्थाएं स्थापित करके सरकार नहीं कर सकती। इस तरह के व्यापक प्रयास सभी स्तरों पर होने जरूरी है। इसी से कलाएं बची रह सकती है। संवेदनाएं बची रह सकती है।


Friday, April 12, 2013

रंग-रेखाओं में शिव


सुखद अनुभूति माने सुंदर। सुन्दरता का अर्थ भद्र और कल्याण का भाव ही तो है। सौंदर्य की अवधारणा आनंदानुभूति में है। सौन्दर्य में  शुचि, शुभ और भद्र की समन्विति है। मंगल की भावना है। कलाओं का हेतु सौन्दर्य के यह भाव ही तो है। सृष्टि के पहले जब कुछ भी नहीं था। तब केवल शिव  था। सौन्दर्य था। कहा भी तो है, ‘न सन्नासच्छिव एव केवलः।’ माने सृष्टि के आदिकाल में जब केवल अंधकार ही अंधकार था, न दिन था न रात्रि, न सत् यानी कारण था न असत् यानी कार्य। तब केवल निर्विकार शिव  ही विद्यमान थे। शिव सोंदर्य   के संवाहक हैं। तमाम कलाओं के प्रेरक। संगीत-गीत, वाद्य एवं नृत्य के आदि देव। आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक अभिनयों के साथ-साथ गायन-वादन-नर्तन आदि सभी कलाओं के प्रयोक्ता भगवान शिव  ही तो हैं। इसलिए उन्हें ‘विद्यातीर्थं महेष्वरम्’ से भी अभिहित किया गया है।
बहरहाल, शिव  शक्ति  का घर बिन्दुनाद है। बिन्दुनाद से ही तो तमाम कलाएं बढत करती है। जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों सिल्वी माहेष्वरी की भगवान शिव   कन्द्रित कला प्रदर्षनी का आस्वाद किया। लगा, रंगो और रेखाओं के अंतर्गत मूर्त-अमूर्त में भगवान षिव को कला में गहरे से जिया गया है। सिल्वी की कला की बड़ी विषेषता यह है कि वह कल्पनाओ के साथ भावनाओं के भव में रंग और रेखाओं को वीलीन करती है। ऐसा है तभी तो उसकी उकेरी आकृतियों में अंतर्मन संवेदनाओं का सूक्ष्म अंकन है। रंग है तो वह संवेदना से उपजे भीतर के निनाद का संवाहक है। रेखाएं हैं तो उनमें मन के सौन्दर्य की लय है।
सिल्वी के चित्र अध्यात्म भावों से लबरेज हैं। स्तुत्य देव की आराधना की राग वहां है परन्तु बहुत कुछ ऐसा भी है जो लगता है बगैर किसी प्रयास के स्वतःस्फुर्त है। वहां जो उकेरा गया है उसमें रंग-रेखाएं माध्यम जरूर है परन्तु उनका मूल आत्म की अभिव्यंजना है। चित्र है तो वहां संगीत है। भीतर का नृत्य है। नाट्य है और है जीवनानुराग। सिल्वी ने भोले भंडारी के कल्याण भावों को मन में बसाते। उनमें रमते-बसते किया है प्रदर्षनी में प्रदर्षित तमाम चित्रों का सर्जन। इसीलिए उसके चित्रों में रंग और रेखाएं होते हुए भी वें गौण हैं। उनमें निहित भाव वहां प्रधान है। सिल्वी का एक चित्र है जिसमें रंगों के बीच घंटी का प्रवाह है। नाद है और है रंगों की उत्सवधर्मिता। शिव  की यह सूक्ष्म सौन्दर्याभिव्यक्ति है। घंटी से निकलती ओंकार ध्वनि यहां जैसे रंग सजी सृष्टि नाद की संवाहक है। ऐसे ही एक और चित्र है जिसमें वृक्ष के नीचे ध्यान को संजोया गया है। चित्र और भी हैं जिनमें शिवलिंग, शिव  मंदिरों और शिव के  ध्यान-योग के बहाने भीतर उपजते भावों की अभिव्यंजना की गयी है। महत्वपूर्ण यह भी है कि अन्र्तनिहित सोच को रंगो से कैनवस पर जैसे पंख लगे हैं। इसीलिए तो सिल्वी के अध्यात्म प्रेरित इन चित्रों में औचक ही अनहद नाद का आभाष होता है।
सोचता हूं। यह भगवान शिव  ही हैं जो रावण रचित तांडवस्त्रोत पर नाच उठे थे। शिव  ने चैदह बार डमरू बजाया। पाणिनी ने इसी से तो व्याकरण की रचना की। तमाम हमारी कलाएं शिव  के रूप का ही तो विस्तार है।  शिव अनन्त है। नटराज काल-संहारशिव केवल अपने वैभव, शक्ति, शांति, संयम और ऐष्वर्य में ही सर्वोत्तम नहीं है, वे समय और स्थिति के आध्यात्मिक अतिक्रमण के भी प्रतीक हैं। इसीलिए तो वह महादेव हैं। जहां कहीं भी ‘ईष्वर’ अथवा ‘ईष’ शब्द बगैर किसी विषेषण के आया है उसका अर्थ शंकर ही तो है।...संसार में व्याप्त कला सौन्दर्य के स्त्रोत। शिव शंकर!

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर भी आप इसे पढ़ सकते है। लिंक है-

Friday, April 5, 2013

लोक कलाओं से अपानापा


कलाओं का सूक्ष्म और बहुत से स्तरों पर मार्मिक विवेचन कहीं है तो वह हमारी लोक संस्कृति में है। इसलिए कि सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ उसका बिगसाव हुआ है। राजस्थान की ही बात करें। हमारे गांव आंज भी लोक के उजास में ही रचे-बसे हैं। कभी लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी ने लोक से जुड़ी कलाओं के अनमोल खजाने की तह में जाते उसका आस्वाद हमें भी कराया था। न जाने तब कहां-कहां से वह कलाओं और कलाकारों को ढूंढ कर लाए और उनसे हमारा नाता कराया। 
इधर उनकी इसी परम्परा को बीकानेर के डाॅ. श्रीलाल मोहता आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ दिन पहले जब बीकानेर जाना हुआ तो लोक कलाओं को सहेजने, लुप्तप्रायः होती जा रही कलाओं और उनसे संबंधित कलाकारों की तलाश कर उन्हें आगे बढ़ाने के उनके कार्य को गहरे से जाना। लगा, अपनी ही धुन में संलग्न मोहता ने लोक की हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को भावी पीढि़यों के लिए संजोने का महत्ती कार्य किया है। लोक संस्कृति का वास्तविक स्वरूप लोक के इतिहास बगैर संभव भी कहां है! सो मोहता ने बड़ा काम यह भी किया है कि लोप होती कलाओं  पर विमर्श की राहें खोली और ‘मरू-परम्परा’ संस्थान के जरिए राजस्थान के सुदूर क्षेत्रों में स्वयं पहुचकर लोक कलाओं को संजोया। लोक कलाकारों के रूप में विरासत के अनमोल मोती ही तो उन्होंने सहेजे हैं!
डा श्रीलाल मोहता ने कभी ‘मरू लोक संस्कृति कोष’ लेखन का महत्ती कार्य भी किया। इस कोश में व्यक्ति है तो व्यक्ति से जुड़े संस्कारों की सौरम भी है। संस्कृति के तमाम उपादान भी हैं। बड़ी बात यह भी है कि जो कुछ उन्होंने इस कोष में संजोया है वह केवल वर्णात्मक ही नहीं है, उसमें मोहता का लोक में बसा मन भी है। कहें, उन्होंने लोक को इतिहास नहीं रखते उसे आधुनिक समय संवेदना से भी जोड़ा है। इस कोश के साथ ही उन्होंने बीकानेर परिक्षेत्र में विकसित भारतीय चित्रकला परम्परा की विशिष्ट शैली मथेरण कलम से भी नई पीढ़ी को रू-ब-रू कराने का महत्ती कार्य भी किया है। बीकानेर चित्रशैली के रूप में अब तक मुगल चित्रकला की ही पहचान होती रही है जबकि मरूभूमि की संवेदना, परिवेश और स्थानीय रंगो के साथ लोक जीवन से जुड़ी बीकानेर की मूल शैली मथेरण कलम ही है। ‘मथेरण कलम’ से जुड़े चंद बचे कलाकारों से उन्हांेने स्वयं संवाद किया और एक तरह से लोप हो चुकी इस चित्रशैली को प्रकाश में लेकर आए। डाॅ. मोहता के साथ कुछ दिन पहले ‘मरू-परम्परा’ संस्थान में जाना हुआ तो उनके द्वारा किए लोक संस्कृति संरक्षण के उन कार्यों को भी जाना जो बगैर किसी को बताए वह अपने तई चुपके से करते रहे है। मसलन गांवों में विवाह, उत्सव पर बनने वाले लोक चित्र, संस्कारों से जुड़े मांडणे और अब केवल कुछ ही गांवों में बचे ख्याल, रम्मतों आदि के कलाकारों से संजोयी विशिष्ट बातों का इतिहास भी उनके पास एकत्र है।  
मुझे लगता है, लोक संस्कृति का उनका कर्म लोक साक्ष्यों का आधार तो लेता है परन्तु उसमें चिन्तन की संवेदना का राग भी है। लोक संस्कृति, लोक मुहावरों, लोक साहित्य को इतिहास के नवीन स्त्रोत के रूप में विकसित करने के उपक्रम के तहत उन्होंने ऐसे ऐसे कलाकारो को ढूंढ निकाला जो अन्यथा बिसरा दिए गए थे। जमाली बाई की मांड को परखा। उसे मंच दिया। हेला, ख्याल, हरजस, वाणी के सुदूर गांवो में बसने वाले कलाकारों के बीच गए और उन्हें ढूंढ निकाल उनके लिए कला प्रस्तुति के अवसर तलाशे। वह लोक के मौखिक और लिखित दोनों ही स्त्रोतों पर जाते हैं तो लोक संस्कृति के ऐसे मर्मज्ञ भी हैं जो लोक की बौद्धिक प्रक्रिया को संस्कृति के चिन्तन में रूपान्तरित करते हैं। कहें, मोहता व्यक्तित्व की अपनी अंतःप्रक्रिया में निरंन्तर सौन्दर्य की सर्जना करते लोक का आलोक लिए हैं।

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार  एडिट पेज पर प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" में 5 अप्रैल को प्रकाशित
आप इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं -
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/950551

Tuesday, April 2, 2013

सांस्कृतिक परम्पराओं का कला उजास


म्यूरल माने भित्ति चित्र। दीवार पर उभरे रूपाकार। फ्रेस्को पंेटिंग। पारम्परिक भारतीय शब्दावली में इन्हें आलागीला, मोराकषी भी कहा जाता है। भारत में म्यूरल की समृद्ध परम्परा आरंभ से ही रही है। किले-महलों में राग-रागिनियों के चित्र और मूगल पेंटिंग के अंतर्गत भांत-भांत के चितराम म्यूरल के जरिए ही तो बहुत से स्तरों पर बचे हुए हैं। लोक संस्कृति तो समृद्ध ही भित्तिचित्रों से ही हुई है। मुझे लगता है, सांस्कृतिकपरम्पराओं, पौराणिक, सामाजिक इतिहास का वातायन भित्तिचित्रण से ही तो खुलता नजर आता है।केन्द्रीय ललित कला अकादेमी ने अपनी पत्रिका ‘समकालीन कला’ के एक अंक का अतिथि सम्पादक इस नाचीज को बनाया। अंक में लीक से हटकर कुछ सामग्री देने के प्रयास के अंतर्गत प्रख्यात चित्रकार शांति दवे से संवाद के लिए ग्रेटर कैलास स्थित उनके निवास स्थान पर जाना हुआ। उनके निवास पर लगी कलाकृतियों में रंग पट्टियों में उभरता षिल्प और म्यूरल्स में उभरती मिनिएचर पेंटिंग सदा के लिए जैसे ज़हन में बस गई। इसलिए कि म्यूरल्स में वह अक्षरों को काठ में डाल चिपकाते है। उनके म्यूरल्स में लिपि के टूकड़े सरीखे अलग से देखने वालों का ध्यान खींचते हैं। वहां रंग और रेखाएं हैं तो षिल्प का अहसास भी होता है। परम्परा में आधुनिकता की उनकी इस दीठ से ही म्यूरल को नई पहचान भी मिली। मुम्बई, दिल्ली हवाई अड्डों पर बनाए उनके म्यूरल इसीलिए आज भी देखने वालों को लुभाते हैं।
बहरहाल, कालिदास ने ‘मेघदूत’ की रचना नागपुर के समीप स्थत रामटेक नामक स्थल पर की थी। रामटेक स्थित कालिदास स्मारक जाना हुआ तो वहां की दीवारों पर उनके महाकाव्य ‘मेघदूत’ आधारित चित्रों से भी साक्षात् हुआ। लगा, महाकवि का गीतिकाव्य आंखो के सामने जीवंत हो उठा है। भित्तिचित्रों की यही विषेषता है।श्बहुतेरी बार चलायमान होते दृष्य संस्कृति से जैसे हमारा संवाद कराते हैं। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भी प्रवेष करते हैं तो  प्रवेष कक्ष की चारों दीवारों पर बने म्यूरल औचक देखने वालों का ध्यान खींचते हैं। सतीष गुजराल, के.के. हेब्बार, ज्योति भट्ट और ष्यामबक्स चावड़ा जैसे मषहूर चित्रकारों द्वारा बनाए भित्तिचित्रों का अनूठा लोक विज्ञान भवन की अनुपम धरोहर है। अकबर द्वारा चलाए गए नवीन धर्म दीन-ए-इलाही, ह्वनेसांग की भारत यात्रा, फूलवालों की सैर और होली विषयों के म्यूरल देखते लगता है कला के सर्वथा नये लोक में हम प्रवेष कर गए हैं।
देष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी राजकीय इमारतों पर म्यूरल की शुरूआत की थी। इस सोच के साथ कि इतिहास में हमारी इमारतें कला की दृष्टि से शून्य और नगण्य मानी जाएगी, यदि वहां सांस्कृतिक परम्पराओं  का उजास नहीं होगा। भित्ति चित्रण को प्रोत्साहन के पीछे पंडित नेहरू का उद्देष्य यह भी था कि आम आदमी जिसका कला से सीधे कोई नाता नहीं हो, वह भी कला के संपर्क में आकर कला में रूचि ले सके। तब निर्णय यह भी लिया गया था कि प्रत्येक सरकारी इमारत के खर्च का दो प्रतिषत इमारत में कला समावेष पर रखा जाए। सरकार द्वारा तब एक अलंकरण समिति की भी स्थापना की गयी थी। समिति ने सर्वप्रथम सज्जा कार्य के लिए विज्ञान भवन को चुना और और इसके प्रवेष द्वार की चारों दीवारों के लिए अलग-अलग षीर्षक चुने गए। देषभर के प्रमुख सार्वजनिक स्थानों पर भी इसी संदर्भ में म्यूरल के जरिए हमारी परम्पराओं को संजोया गया। जयपुर रेलवे स्टेषन पर देवकीनंदन शर्मा का ढोला-मारू म्यूरल बरसों तक यात्रियों को लुभाता रहा है। वनस्थली कला मंदिर की दीवारों पर भी राजा पुलकेषी दरबार, बोधिसत्व, पदमपाणी और अन्य जातक कथाओं पर बनाये उनके आरायष अपनी मौलिकता में भित्ति चित्रों की हमारी समृद्ध परम्परा के संवाहक हैं।
क्या ही अच्छा हो, सरकारी इमारतों में म्यूरल के जरिए सांस्कृतिक परम्पराओ ंके उजास की पंडित नेहरू की पहल पर फिर से सरकारें विचार करे। इसी से हम हमारी संस्कृति को सदा के लिए बचा रख पाएंगे।