Friday, May 31, 2013

शब्द संवेदना का दृश्य रूपान्तरण

कालिदास हमारे सांस्कृतिक वैभव के अनूठे चितेरे हैं। उनके लिखे में कलाओं के सौन्दर्यबोध की अन्तःसलिला सहज अभिव्यंजित हुई है। वन, प्रकृति के साथ नगर, प्रासादों के षिल्प-स्थापत्य का कालिदास ने अपने लिखे में अद्भुत चितराम ही तो किया है। लिखे में कला सौन्दर्य के उल्लसित भाव वह कुछ इस कदर उडेलते हैं कि बांचते हुए सब कुछ अनायास जैसे दृष्यमय हो जाता है। ‘मेघदूत’ को ही लें। प्रकृति प्रत्यय मेघ के जरिए प्रेम संदेष के साथ ही विरह वेदना की जो अभिव्यक्ति कालिदास ने इसमें की है, वह अनुपम है। संस्कृत छन्दों का अद्भुत लय-लालित्य। विरह वेदना का सांगीतिक आस्वाद। मुझे लगता है, कला और काव्य की समग्र पूर्णता कहीं है तो वह ‘मेघदूत’ में ही है। 
 ख्यात कलाकार कन्हैयालाल वर्मा ने इधर ‘मेघदूत’ को अपने उकेरे चित्रों में गहरे से जिया है। कालिदास रचित श्लोकों के सौन्दर्य में निहित भावों में जाते उन्होंने यक्ष की विरह वेदना, अलकापुरी के स्थापत्य को रंगो और रेखाओं से जीवंत किया है। रेखाआंे के गत्यात्मक प्रवाह में उन्होंने रंगो को घोलते श्रृंगार रस को जो चित्रात्मकता प्रदान की है वह अपूर्व है। 
‘मेघदूत’ का रम्य काव्य यूं भी आरंभ से ही कलाओं की प्रेरणा स्त्रोत रहा है। मेघदूत की कथा अलकापुरी के महाराज कुबेर की सेवा में रहने वाले यक्ष से जुड़ी है। कार्य दोष के कारण एक वर्ष के लिए उसे अपनी प्रियतमा से अलग रहना पड़ता है। रामगिरी पर्वत पर बिछोह काटते यक्ष की आषाढ़ माह में घुमड़ने वाले बादलों से विरह वेदना औचक बढ़ जाती है। वह मेघ से अपनी प्रियतमा को संदेश भिजवाता है। मेघ को दिया संदेश ही ‘मेघदूत’ की कथा का मूल है। कथा में आए अलकापुरी के महलों के स्थापत्य सौन्दर्य, भगवान शिव के भालचन्द्र की चांदनी, उमड़ते-घुमड़ते बादलों, हवाओं की उड़ान, पपीहे के गान के साथ ही कालिदास अभिव्यंजित तमाम प्रसंगों को कन्हैयालाल वर्मा ने अपने चित्रों में सांगोपांग स्वर दिया है। इस महाकाव्य को यू ंतो उन्होंने पूरा का पूरा ही अपने चित्रों में उकेरा है परन्तु उनके उकेरे कुछेक चित्र आंखों में बसते हैं। मसलन एक चित्र है जिसमें मेघ से की गयी यक्ष की अनुनय-विनय में कृषिक बालाओं के उनके सत्कार और खेतों में वर्षा करके प्रियतमा की ओर बढ़ जाने का आह्वान है। अलंकृत मेघों के वृत्त के पाश्र्व का नीला-काला रंग और उसके अंदर कृषक बालाओं का मनोहारी चितराम।  उड़ते पखेरू और बरसते जलज! धरित्री का क्रोड। ऐसा ही एक और चित्र है जिसमें चातक पक्षी के चांेच ऊपर करके पानी की लेती बूंदों और मेघों की गर्जना से डकर सहचरियों से आंलिगनबद्ध होते पुरूषों को अभिव्यंजित किया गया है। चित्र नहीं चित्र कोलाज। रंग-रेखाओं की रूप गोठ। चित्र और भी हैं। प्रदोषकाल में भगवान आशुतोष की भव्य आरती, घनघोर अंधेरे में बिजली रूपी रेखा की चमक, पुष्प बरसाते मेघ, नटेश के अट्टहास की रूप व्यंजना, शिव-पार्वती विचरण, यक्ष के वियोग में उनींदी पृथ्वी पर लेटी उसकी प्रियतमा। इन सबमें कन्हैयाल वर्मा ने कालिदास के श्लोकों के सौन्दर्य का अद्भुत चित्र रूपान्तरण किया है। ऐसा करते वह यक्ष की विरह वेदना में निहित संवेदना के मर्म को भी गहरे से छुआते हैं। 
सच! वर्मा कालिदास लिखित सौन्दर्य के सत्यान्वेषक हैं। चित्रांे में उन्होंने कालिदास लिखित सांस्कृतिक वैभव को ठौर-ठौर उद्घाटित ही नहीं किया है बल्कि रंगीय योजना, आकार संयोजन, प्रकाश पुंजों, छाया प्रभाव और कोण सज्जा में गहरे से जिया है। कालिदास कला अंर्तसंबंधों के संवाहक है। उनके लिखे शब्द दर शब्द को चित्रों में उभारते कन्हैयाला वर्मा ने इसीलिए तो रंग-रेखाओं में संगीत के सुरों की अनुभूति करायी है। भाव-भंगिमों नृत्य रस को भी जीवंत किया है। मुझे लगता है, कालिदास ने शब्द सौन्दर्य की अद्भुत कला सर्जना की है तो कन्हैयालाल वर्मा ने उस सौन्दर्य को अपने चित्रों से संस्कारित किया है।


Saturday, May 25, 2013

नृत्य छवि का सार्वभौम


नद् धातु से निस्पन्न है नाद। माने अव्यक्त शब्द। उत्सवधर्मिता का नाद आखिर जीवन में संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं से ही तो है। कल की ही बात है। श्रुतिमंडल की ओर से आयेाजित आठवे रघु सिन्हा स्मृति समारोह में सोनल मानसिंह की नृत्य प्रस्तुति हुई। सुबह समाचार पत्रो के आस्वाद में नृत्यमय देवी रूपों की उनकी प्रस्तुति का ही गुणगान था। पर सच में क्या सोनल मानसिंह ने अपनी इस प्रस्तुति में नृत्य किया? कथासृत्रों में नृत्य सरीखा अहसास कराना और किसी कथा को नृत्य में जीना दोनों अलग-अलग है। इधर हो यही रहा है। भले उस प्रस्तुति को सोनल मानसिंह की नृत्य प्रस्तुति कहा जाए परन्तु नृत्य का सर्वांग वहां कहां है! हां, नृत्य के भीतर की भंगिमाएं वहां है। भाव है परन्तु देह की गति, लोच कहां से आए! और नृत्य तो है ही देह से देह की गत्यात्मक यात्रा। माने नृत्य करते नृत्यंागना या नर्तक खुद कहीं नहीं होता, उसके भीतर की तमाम सर्जना देह में रूपान्तरित हो जाती है। 
बहरहाल, एक वय के बाद देह की थिरकन मंद पड़ जाती है। नृत्य की मति होती है परन्तु गति कहां से आए! और गति के बगैर जोश नहीं होता। बगैर इसके नृत्य का होना न होना एक ही है। इधर हो यही रहा है। सोनलजी की ही तरह अधिक वय की अधिकांश नृत्यांगनाएं नृत्य के नाम पर कथाओं की नाट्य प्रस्तुतियां कर रहीं है। कोई कहे हमने वहां भरपुर रस पाया तो रस तो नाट्य में भी होता ही है ना! नृत्य क्या है? मानवीय अभिव्यक्तियों का गत्यात्मक रसमय प्रदर्शन। सार्वभौम कला है यह। ऐसी जिसे देखते हुए भी अंग प्रत्यंग औचक थिरकने लगते हैं। देह की सुंदरतम अभिव्यक्ति। एक प्रकार का उत्सव। देह से देह की यात्रा का उत्सव। भले नृत्य में कथा का रूपक कुछ भी बने परन्तु भीतर का अरूप भी सज-धज कर इसमें देह से प्रकट हो ही जाता है। 
सोचता हू, देह से परे क्या नृत्य हो सकता है! फिर क्यों कर हो ऐसा प्रयास। सोनल मानसिंह के नृत्य का आरंभ से ही कायल रहा हूं। वह नृत्य में अंग-प्रत्यंग के साथ सदा ही भावों का अनूठा रस बिखेरती रही है परन्तु इधर बतौर नृत्य जो सामुहिक प्रस्तुति वह करती हैं, उसमें कथा का ही उत्स होता है, नृत्य का नहीं। प्रस्तुति का मोह ही है उनसे यह सब करवाता होगा परन्तु नृत्य आस्वादक मन उनकी इस सर्जना से कहां संतुष्ट हो पाता है। नृत्य का मायना आखिर भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन ही तो नहीं है, देह से उनको जीना भी है।  
बहरहाल, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला, छायांकन को मैं ‘रंग नाद’ प्रस्तावित करता हूं। रंग के साथ नाद जरूरी है। नृत्य में देह साथ नहीं दे तो फिर वहां नाद तो होगा परन्तु रंग गायब होगा। और नाद तभी अंतर्मन को भाता है जब उसमें रंग माने उत्सवधर्मिता का उजास हो। बाहर का ही नहीं अंदर का नाद भी उससे ही बजता है। वही तो है रंग-नाद।  अंर्तध्वनि का प्रतीक। यह बजाया नहीं जाता फिर भी परमानंद रूप में बज पड़ता है। सधे हुए वाद्य वृंद की भांति। ...तो नृत्य में गत्यात्मकता होगी और देह का गान होता तभी ना वह बजेगा! रंग-नाद का मूल स्त्रोत आखिर भीतर की हमारी कला आस्वादक चेतना ही तो है! यह चेतना ही अंतर के आनंद की अनुभूति कराती है। शब्द और अर्थ भी कलाओं की हमारी इस रसानुभूति के ही अधीन हैं। इसी से पूर्व का विसृजन हो नवीन का निर्माण होता है। नृत्य कला में नवीन का निर्माण नए कलाकारों से होगा। उनकी नृत्य प्रस्तुतियों से होगा। कथाओं की भाव भंगिमाओं से नहीं। सोनलजी नृत्य कला की देश की विरल प्रतिभा है। क्या ही अच्छा हो, अपने जैसी ही विरल नृत्य प्रतिभाओं का वह संभावनाओं का खुला आकाश रचे। 

Friday, May 17, 2013

नाट्यकला में समय संवेदना


नाट्य वेदों से उपजी कला है। ऋग्वेद के सूत्रों में आए उर्वशी और पुरूरवा के संवाद इसी के तो गवाह है! भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र में आया भी तो है,  ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर ही नाटक का निर्माण हुआ। संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि तमाम कलाओं का कहीं मेल है तो वह नाट्यकला में ही है।
बहरहाल, देश में नाट्य की परम्परा निरंतर विकसित होती रही है परन्तु एक दौर के बाद हिन्दी रंगमंच जड़ता का शिकार भी हुआ है। कहीं किसी एक नाटक का सफलतम प्रदर्शन हो जाता है तो नाट्य निर्देशक उसी नाटक की प्रस्तुतियों के लिए टूट पड़ते हैं। ‘अंधायुग’, ‘अंधेर नगरी’, ‘आषाढ का एक दिन’, ‘खामोश अदालत जारी है’ से आगे अभी भी हिन्दी रंगमंच कहां बढ़ पाया है। हालांकि जयपुर में नाट्य मंचन की परम्परा खासी समृद्ध है परन्तु जब कभी नाटक देखने जाता हूं, नाटक देखने आने वाले वही चिर-परिचित चेहरे दिखाई पड़ते हैं। माने एक विशेष वर्ग से इतर जयपुर का नाटक भी दर्शक जुटा नहीं पाया है।  ऐसे में रवीन्द्र रंगमंच पर नाटककार अर्जुनदेव चारण के नाटक ‘जमलीला’ के मंचन ने इधर मन में कुछ आश जरूर जगायी है। रंगमंच के बिगसाव की बहुतेरी संभावनाओं को उनके नाटक देखते महसूस किया। लगा, दर्शकीय लिहाज से कुछ नया चाहें तो हो सकता है।
अर्जुनदेव चारण मूलतः कवि हैं। पर नाटककार के साथ वह गहरी सूझ के नाट्य निर्देशक भी हैं।  ‘जमलीला’ मंचन वाले दिन दूरभाष पर उन्होंने आग्रह कर उसे देखने का न्योता दिया। नाटक की रिहर्सल के दौरान उनके साथ ही बैठकर नाटक के कुछ अंश देखे तो लगा, रंगकर्म को वह गहरे से जीते हैं। ‘जमलीला’ में उन्होंनंे दर्शकीय लिहाज से नाट्य संप्रेषण के सधे प्रयोग किए हैं। मसलन इसमें कथा में यमलोक का रूपक रचते वह आधुनिक समय की विद्रुपताओं, विषमताओं पर हास्य मिश्रित करारा व्यंग्य करते है। नाटक के दृश्य देखते जेहन में सवाल उभरते हैं, लोकतंत्र में सत्ता की जवाबदेही जनता की है तो फिर गलत चुनाव के लिए दोष तंत्र को क्यों? पर सवाल यह भी है कि प्रजातंत्र में सही चुनाव के लिए क्या आम जन की सोच स्वतंत्र है? प्रश्न और भी हैं। उनके पार्श्व में बुने घटनाक्रम में दृश्य दर दृश्य नाटक बहुतेरे स्तरों पर उत्तेजित करता बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। बकौल अर्जुनदेव उनका यह नाटक ‘भूतों के द्वारा कही गयी मानवीय कथा है।’ अर्जुनदेवजी ने इसमें भूतों के सरदार, यमराज, चित्रगुप्त, विष्णु, नारद आदि पात्रों के जरिए वर्तमान विद्रुपताओं,  व्यवस्था प्रसूत भ्रष्टाचार, बेईमानियों का सांगोपांग चितराम किया है। 
नाट्य के दृश्य आस्वाद करते अनुभूत करता हूं, नाट्य चिंतन और नाट्य प्रदर्शन में अर्जुनजी का गहरा हस्तक्षेप है। ‘जमलीला’ की कथा बतियाते वह पात्रों की संवाद अदायगी और भावाभिनय को भी बारीकी से जैसे खंगाल रहे थे। नाटक में दर्शकीय संप्रेषण के उन्होंने महत्वपूर्ण सूत्र तलाशे हैं। ऐसे जिनमें मिट्टी की सौंधी महक हैं। इस महक को नाट्य के दृश्यों, पात्रों द्वारा बोले गये राजस्थानी-हिन्दी संवादों में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। नाट्य आस्वाद करते लगता यह भी है कि हम अपने परिवेश से कहीं जुदा नहीं है। नाटक नहीं, बल्कि आस-पास के किसी दैनिन्दिनी घटनाक्रम से हम रू-ब-रू हो रहे हैं। अर्जुनदेवजी को मंचीय व्याकरण की भी गहरी समझ है। इसीलिए यमलोक के रूपक में वह नाटक की कलात्मकता के साथ वैचारिक भाष्य के साथ आधुनिकता के सरोकारों का सहज रूपान्तरण करते हैं। 
बहरहाल, ‘जमलीला’ के मंचीय दृश्यों का आस्वाद करते ब.व. कारन्त का कहा औचक ही याद आता है, ‘नाटक सच्चाई की खोज है। उसका अनुसंधान है।’ सच ही तो है! ‘जमलीला’ के बहाने अर्जुनदेवजी ने लोकतंत्र, जनता, चुनाव के बहाने जीवनमूल्यों मंे तेजी से आ रहे बदलावों का अपने तई अनुसंधान किया है। किसी नाटककार की सांस्कृतिक रचना प्रक्रिया आखिर यही तो है! 

"डेली न्यूज़" में प्रति सप्ताह प्रकाशित  लेखक के स्तम्भ "कला तट" में इसे आप यहाँ देखें-
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/1093001

Friday, May 10, 2013

संस्कारित सुरों के गान का बिछोह



संगीत माने वह ध्वनि जो रस की सृष्टि करे। स्वर और लय की कला ही तो है संगीत। नाद के चार भाग हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। ध्वनि की तरंग ही तो है नाद। सुनते हैं तो मन करता है इसी से जुड़ें।... और धु्रवपद तो नाद ब्रह्म है। आध्यात्मिकता का गान। सुनते हुए असार संसार का रहस्य जैसे समझ आने लगता है। कल की ही बात लगती है, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर को साक्षात् गाते हुए जब सुना था तो लगा संगीत के उजास को गहरे से अनुभूत कर रहा हूं। अब जब वह नहीं है, नाद ब्रह्म के उस महान उपासक के गान की यादें ही मन में घर कर रही है। मन में गहरा अवसाद भी है। इस बात का कि पहले रूद्रवीणा वादक असद अली खां साहब, उसके बाद रहीम फहीमुद्दीन डागर और अब उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर... धु्रवपद का जैसे पूरा एक युग देखते ही देखते हमारी आंखों से ओझल हो रहा है। 
सोचता हूं, यह डागर घराना ही है जिसने धु्रवपद की परम्परा का बिगसाव ही नहीं किया बल्कि उसे अपने तई सहेजा और निरंतर संरक्षण भी किया। कहीं पढ़ा हुआ मन में कौंध रहा है। डागर माने पथ। और डागर वाणी यानी पथ को प्रदर्शित करने वाली वाणी।...तो इस अर्थ में डागर घराने ने धु्रवपद का देश में पथ ही तो प्रदर्शित किया है। नाद की रहस्यमयी महिमा धु्रवपद में ही है। उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर की तीनों सप्तकों से युक्त लयकारी का गान विभोर करता था। वह गाते तो लगता संगीत जैसे बज नहीं रहा, जैसे रचा जा रहा है। शब्दों के मौन में वह जैसे किसी और को नहीं अपने आपको ही संबोधित करते। इसीलिए उनका गान किसी और के लिए नहीं स्वयं अपने लिए ही होता था। मुझे लगता है, उनका गान संगीत की आध्यात्मिकता का गान है। कभी रूसी कवि अलेक्जेंडर ब्लोक ने कहा था, ‘संगीत ने संसार को रचा है।’ सोचें जरा कि संगीत के स्वर और लय यदि जीवन में नहीं हो तो क्या इस संसार की कल्पना की जा सकती है!
बहरहाल, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन का धु्रवपद गान सुरों का भव्य लोक निर्मित करता था। ऐसा स्थापत्य जिसमें सौन्दर्य ध्वनित होता था। मौन जहां गुंजरित होता था। शब्दों का उजास जहां अनुठा भावलोक निर्मित करता था। सच! उनका गान गंभीर, उज्ज्वल गान था। समय को अतिक्रमित करता। निस्संग। विराट स्पेस रचता। घराने में आबद्ध परन्तु उसकी बढ़त करता। सुरों को संस्कारित करता। गमक का तो उनका कोई जवाब ही नहीं था, भले वह कम गाते थे परन्तु स्वरों का विशिस्ट निभाव और शब्दों का  गंभीरता से उचारण अद्भुत था! गान  की हमारी परम्परा का पोषण करता हुआ। उसे आगे बढ़ाता हुआ। अनन्त का रूपक। नाद ब्रहम का गान। एकान्त का आलाप। उनका धु्रवपद संगीत भर नहीं था बल्कि ज्ञान का संग्रह है। वह जो गाते जीवन की अद्भुत सुर साधना ही तो थी। 
देश में युवापीढ़ी को शास्त्रीय संगीत की हमारी जड़ों से जोड़ने का बड़ा कार्य इस समय स्पीक मैके संस्था द्वारा किया जा रहा है। बहुतों को यह जानकर हैरत हो सकती है कि इस संस्था के संस्थापक प्रोफेसर किरण सेठ नें कभी न्यूयार्क में उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर का गान सुनकर ही इस संस्था को स्थापित करने का निर्णय अपने मन में लिया था। यह तब की बात है जब सेठ आईआईटी खड़कपुर से शिक्षा प्राप्त कर आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए थे। न्यूयार्क में उन्होंने उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर का गान सुना और बस वहीं से वह शास्त्रीय संगीत में इस कदर रमे कि 1979 में बाकायदा युवाओं को अपनी ही तरह शास्त्रीय संगीत से जोड़ने के लिए ‘सोसायटी फॉर द प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक एंड क्ल्चर अमगस्ट यूथ (स्पीक मैके) की स्थापना कर डाली थी। आज यह संस्था देश-विदेश में शास्त्रीय संगीत की हमारी जड़ों को सींचने का महत्ती कार्य ही तो कर रही है।
बहरहाल, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर ने संगीत की शिक्षा अपने पिता उस्ताद जियाउद्दीन खां साहब से प्राप्त की थी। पिता से धु्रवपद और वीणा वादन में प्रवीण होने के बाद उन्होंने धु्रवपद की अपनी विरासत का विस्तार करते बेहतरीन शिष्य तैयार किए। गुंदेचा बंधु, ऋत्विक सान्याल, उदय भावलकर उन्हीें के शिष्य हैं।

Friday, May 3, 2013

सौन्दर्यान्वेषण करती कलाकृतियां


कालिदास कला सौन्दर्य के महाकवि हैं। उनकी काव्य उपमाओं पर जाएं तो लगेगा वहां प्रकृति और जीवन के विविध रूपो की एकरूपता है। सौन्दर्य और प्रेम का गहरा द्वन्द उनके लिखे में है परन्तु यह ऐसा है जिसे भाषा भर से ही नहीं बांचा जा सकता। संवेदना के गहन आकाश में उसे देखा जा सकता है। शब्द-शब्द चित्र जो वहां है!  महाकवि का तमाम लिखा दृश्यमय है। इसीलिए तो उनके काव्य से प्रेरणा पा चित्रकारों ने सदा ही अपने को सिरजा है। जवाहर कला केन्द्र में  पिछले दिनों कवि, चित्रकार पूर्ण चन्द्र किशन के चित्रों का जब आस्वाद किया तो लगा कालिदास की काव्य कहन कला को वह कैनवस पर रूपान्तरित करते हैं। प्रेम और सौन्दर्य को उनके रंग और रेखाओ में गंहरे से अनुभूत किया जा सकता है। यह बात अलग है कि इधर उन्होंने सामयिक संदर्भों को सहेजते बहुत कुछ अलग भी बनाया है। इन सामयिक संदर्भों में गोधरा कांड है, नारी उत्पीड़न है और तमाम वह सब है जिनसे उनका कला मन उद्वेलित होता रहा है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि तमाम इन सबमें भी भावात्मकता और रंग-रेखाओं की मूर्त-अमूर्त शास्त्रीयता है। 
बहरहाल, पूर्णचन्द्र किषन के चित्रों, उनके बनाए स्कल्पचर देखते यह अहसास भी होता है कि उनकी कला निर्मितियां में सांगीतिकता के साथ काव्य संवेदना के गहरे मर्म है। इसीलिए कईं चित्रों में रंगो की बरती उनकी भाषा सहज बांची जा सकती है। माने वहां रेखाओं से सृजित आकृतियां है परन्तु यह नहीं भी होती तो चित्रों का अर्थ स्पष्ट समझ आता है। धूसरित रंगों में रेखाओं की वह अद्भुत लय जो अंवेरते हैं! लाल, पीले रंगों के धब्बे आकृतियों में हैं परन्तु  वहां अनुभूतियों, स्वपन्न और यथार्थ का गजब का मेल है। उनकी कलाकृतियों का अजन्ता की कला के साथ ही समृद्ध भारतीय षिल्प और मूर्तिकला के साथ ही लोक कलाओं से गजब का नाता लगता है।  कालिदास, भवभूति सरीखे संस्कृत महाकवियों की अनुगूंज तो हर ओर, हर छोर उनकी कलाकृतियो ंमें है ही। इसीलिए मेघदूत, रघुवंश के कथा प्रसंगों से प्रेरणा ले उनका कैनवस बहुतेरे दृश्यों में जीवंत होता हमसे जैसे संवाद भी करता है। कहूं, संस्कृत महाकाव्यों के छंदों की स्मृतियां उनकी कलाकृतियों में रची-बसी हैं तो सौन्दर्य और उदात्त प्रेम की मधुर अर्थध्वनियां भी वहां है। पूर्णचन्द्र किषन के चित्रों का आस्वाद करते परम्परा पोषण के अंतर्गत राजा रवि वर्मा याद आते हैं, महादेवी का स्मरण होता है और पौराणिक, सांस्कृतिक आख्यान भी आंखों के समक्ष औचक ही तैरते हैं परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि इनसबमें स्वयं उनकी आधुनिक दीठ और मौलिकता है। माने वह हमारी संस्कृति और परम्पराओं को कला में जीते तो हैं परन्तु उन्हें अपने तई समय के साथ रंग-रेखाओं से संस्कारित भी करते हैं। सौन्दयात्मक गुणों से लबरेज उनके चित्रों में लयबद्ध रेखाओं का गत्यात्मक प्रवाह है। रंगाकंन के साथ रेखांकन भी भावदर्षी, सजीव है। कहें, उनकी कलाकृतियों में स्वयं उनके प्रकट हुए आंतरिक विचारों को पढ़ा जा सकता है।
दृष्य कला का आधार क्या है? रंग-रेखा, सतह ही तो है! इनका तादात्म्य यदि सजग, सचेत रहकर कलाकार करे तो भावपूर्ण चित्रसृष्टि स्वयमेव ही हो जाती है। पूर्णचन्द्र किषन यही करते हैं। बहुरंगी कला दृष्टि मंे वह बीते हुए सौन्दर्य के प्रति अपार आस्था जताते कलाकृतियों में अपने को ही रचते हैं। हर बार। बार-बार। पूर्वगामी कलाकारों का उन्होंने अपनी कलाकृतियांे में शास्त्रबद्ध अनुकरण आधुनिता के आग्रह के साथ किया है। उनकी कला बहुपढि़त भावना से उपजी चैतन्य की कला है। इसीलिए वह जो बनाते हैं वह भावस्पर्षी है। उनकी कलाकृतियां को देखते गौर करेंगे तो पाएंगे-आकृतियां हैं तो वह मन को सुकून देती हुई है और अर्धमूर्ताकार भी है तो उनमें कहीं कोई कथा, सामयिक संदर्भ, आख्यान ध्वनित हो रहा है। कलाकृतियों से रू-ब-रू होते औचक यह भी लगता है, उनकी कला सौन्दर्य का गहन अन्वेषण है।