संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य आदि तमाम कलाएं काल के अनंतर अपना अलग समय गढ़ती है। यह है तभी तो उनमें रमते, उनमें बसते बहुतेरी बार यह भी अनुभूत होता है कि यह वह समय नहीं है, जिसमें हम जी रहे हैं। यह तो कला का समय है। तो क्यों नहीं यह प्रस्तावित किया जाए कि समय कलाओं को नहीं बल्कि कलाएं समय को रचती है।
कुछ दिन पहले राजस्थान विश्वविद्यालय में कलाओं से जुड़े देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों के प्राध्यापकों के पुन्शचर्या पाठ्यक्रम में संबोधित करने जाना हुआ था। औचक ही ज़हन में कौंधा, यह कलाएं ही हैं जो काल से परे सौन्दर्य की सर्जना करती है।
कला क्या है? आकार, रंग, स्पेस का सम्मिलित सौन्दर्य ही तो। ध्वनि का सामंजस्य संगीत का, लय का सामंजस्य कविता का, रंग-रूप का सामंजस्य चित्र का सौन्दर्य है। सामंजस्य का यह संसार ही अपने तई फिर समय की सर्जना करता है।
विचार करें, संध्या पहर कुछ सुन रहे हैं। ध्वनित राग सुबह का है। भोर की अनुभूति होगी। बारिश हो नहीं रही परन्तु मल्हार राग बूंदो से भीगो देता है। यही क्यों! प्रेक्षागृह में नाटक देखते अभिनय में निहित करूणा अपनी हो जाती है। मन भारी हो जाता है। यही तो है कलाओं का रचा समय। कला-अुनभूति का समय देखने, सुनने के समय का सच हो जाता है। इस समय की तीव्रता इस कदर होती है कि जिस समय में व्यक्ति जी रहा होता है, उसके सच को बदल देता है। इसीलिए संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य को अपने में बसाते हम कला के समय में रूपान्तरित हो जाते हैं। हम वह नही रहते जो पहले थे। कला के समय का इससे बड़ा सच और क्या हो सकता है!
प्रश्न हो सकता है कि फिर आधुनिकता क्या कला का समय नहीं है? आधुनिकता समय नहीं है। विचार है। कुछ अर्थों में तकनीक से जुड़ा विचार। कलाओं पर नियम-अनुशासन लागू होते हैं परन्तु वे आदेशात्मक नहीं होते। माने तकनीक कला संप्रेषण को सुगम कर सकती है परन्तु वह उसे आदेशित नहीं कर सकती। इसलिए कि कलाएं तो अपना समय स्वयं गढ़ती है।
हां, इस गढ़न में समाज से जुड़े संस्कार अपने आप ही तकनीक के रूप में जुड़ते चले जाते हैं और हम यह कहने लगते हैं कि समाज में हो रहे परिवर्तनों के समय का असर कला पर भी पड़ता है। ऐसा ही यदि होता तो कलाएं अपने स्वरूप में कार्यप्रेरक नहीं होती। वह भाषाओं, भौगोलिकता और व्यक्ति की सीमाओं से मुक्त नहीं होती। और इन सबके साथ व्यक्ति को रोबोटनुमा बनने से रोकती भी नहीं। यह कलाएं ही हैं जो व्यक्ति को संपूर्णता की ओर ले जाती संवेदना संपन्न किए रखती है।
व्यक्ति में देखने, विचारने, चीजों और उसके समय को परखने की दीठ देती है। कलाओं का यदि अपना समय नही होता तो क्या संवेदना शून्य होते व्यक्ति स्वयं अपने में ही कभी के गुम नहीं हो जाते। मुझे लगता है, कला का समय समाज का सच रचता है। और इसका प्रभाव सूक्ष्म, अस्पष्ट परन्तु सर्वव्यापी होता है। मानव उसी से संस्कारित होता है। इसीलिए तो देश, भाषा और काल की सीमाओं को लांघती कलाएं संवेदनाओं का हममें वास कराती रोबोट बनने से हमें बचाती है।
बहरहाल, संगीत एवं नाट्य विभागाध्यक्ष विदुषी माया टाक और अर्चना श्रीवास्तव के आग्रह पर जब विश्वविद्यालय में कलाओं पर कुछ बोलने की नूंत मिली तो संकट में था कि क्या कुछ नया कर पाऊंगा परन्तु लगता है, यह कलाओं के समय में प्रवेश ही रहा होगा जिससे विचार का वातायन यूं खुल पाया।