Friday, August 30, 2013

समय रचती कलाएं


संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य आदि तमाम कलाएं काल के अनंतर अपना अलग समय गढ़ती है। यह है तभी तो उनमें रमते, उनमें बसते बहुतेरी बार यह भी अनुभूत होता है कि यह वह समय नहीं है, जिसमें हम जी रहे हैं। यह तो कला का समय है। तो क्यों नहीं यह प्रस्तावित किया जाए कि समय कलाओं को नहीं बल्कि कलाएं समय को रचती है।

 कुछ दिन पहले राजस्थान विश्वविद्यालय में कलाओं से जुड़े देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों के प्राध्यापकों के पुन्शचर्या  पाठ्यक्रम में संबोधित करने जाना हुआ था। औचक ही ज़हन में कौंधा, यह कलाएं ही हैं जो काल से परे सौन्दर्य की सर्जना करती है।  

कला क्या है? आकार, रंग, स्पेस का सम्मिलित सौन्दर्य ही तो। ध्वनि का सामंजस्य संगीत का, लय का सामंजस्य कविता का, रंग-रूप का सामंजस्य चित्र का सौन्दर्य है। सामंजस्य का यह संसार ही अपने तई फिर समय की सर्जना करता है।

विचार करें, संध्या पहर कुछ सुन रहे हैं। ध्वनित राग सुबह का है। भोर की अनुभूति होगी। बारिश हो नहीं रही परन्तु मल्हार राग बूंदो से भीगो देता है। यही क्यों! प्रेक्षागृह में नाटक देखते अभिनय में  निहित करूणा अपनी हो जाती है। मन भारी हो जाता है। यही तो है कलाओं का रचा समय। कला-अुनभूति का समय देखने, सुनने के समय का सच हो जाता है। इस समय की तीव्रता इस कदर होती है कि जिस समय में व्यक्ति जी रहा होता है, उसके सच को बदल देता है। इसीलिए संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य को अपने में बसाते हम कला के समय में रूपान्तरित हो जाते हैं।  हम वह नही  रहते जो पहले थे। कला के समय का इससे बड़ा सच और क्या हो सकता है!

प्रश्न हो  सकता है कि फिर आधुनिकता क्या कला का समय नहीं है? आधुनिकता समय नहीं है। विचार है। कुछ अर्थों में तकनीक से जुड़ा विचार। कलाओं पर नियम-अनुशासन  लागू होते हैं परन्तु वे आदेशात्मक नहीं होते। माने तकनीक कला संप्रेषण को सुगम कर सकती है परन्तु वह उसे आदेशित नहीं कर सकती। इसलिए कि कलाएं तो अपना समय स्वयं गढ़ती है। 

हां, इस गढ़न में समाज से जुड़े संस्कार अपने आप ही तकनीक के रूप में जुड़ते चले जाते हैं और हम यह कहने लगते हैं कि समाज में हो रहे परिवर्तनों के समय का असर कला पर भी पड़ता है। ऐसा ही यदि होता तो कलाएं अपने स्वरूप में कार्यप्रेरक नहीं होती। वह भाषाओं, भौगोलिकता और व्यक्ति की सीमाओं से मुक्त नहीं होती। और इन सबके साथ व्यक्ति को रोबोटनुमा बनने से रोकती भी नहीं। यह कलाएं ही हैं जो व्यक्ति को संपूर्णता की ओर ले जाती संवेदना संपन्न किए रखती है। 

व्यक्ति में देखने, विचारने, चीजों और उसके समय को परखने की दीठ देती है। कलाओं का यदि अपना समय नही होता तो क्या संवेदना शून्य होते व्यक्ति स्वयं अपने में ही कभी के गुम नहीं हो जाते। मुझे लगता है, कला का समय समाज का सच रचता है। और इसका प्रभाव सूक्ष्म, अस्पष्ट परन्तु सर्वव्यापी होता है। मानव उसी से संस्कारित होता है। इसीलिए तो देश, भाषा और काल की सीमाओं को लांघती कलाएं संवेदनाओं का हममें वास कराती रोबोट बनने से हमें बचाती है। 

बहरहाल, संगीत एवं नाट्य विभागाध्यक्ष विदुषी  माया टाक और अर्चना श्रीवास्तव के आग्रह पर जब विश्वविद्यालय  में कलाओं पर कुछ बोलने की नूंत मिली तो संकट में था  कि क्या कुछ नया कर पाऊंगा परन्तु लगता है, यह कलाओं के समय में प्रवेश  ही रहा होगा जिससे विचार का वातायन यूं खुल पाया। 


Friday, August 23, 2013

सुरों के रस का सारंगी गान


तत्वाद्य है सारंगी। करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करता वाद्य। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी वहां है। मुरकियांे के साथ खटका और तानें भी। माने कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। कोई कह रहा था, अतीत का ‘सारिंदा’ सारंगी बन गया। ‘रावणहत्था’ से भी कोई इसे जोड़ता है। 
बहरहाल, यह जब लिख रहा हूं और पंडित रामनारायण की सारंगी के सुर ज़हन में बस रहे हैं। राग पीलू ठुमरी। सारंगी के स्वरों का जादू तन-मन को जैसे भीगो रहा है। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सारंगी रच रही है दृश्य की भाषा। ठुमरी के रंग रच गए तो लो अब सारंगी के तारों पर पंडितजी ने राग जोगिया की तान छेड़ दी है। सारंगी जैस समझा रही है असार संसार का सार। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते सारंगी के सुर। निरवता का गान। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है यह नाद! सुरों का अनूठा उजास है पंडितजी की सारंगी में। मन के अंदर तक घर करती है सारंगी की उनकी गूंज। सुनते लगता है, बीन और अंग के आलाप के साथ मन्द्र सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों तक वह सारंगी की बढ़त करते हैं। गज चलाना कोई उनसे सीखे! दोनों हाथों की अंगुलियों का संतुलित संचालन। सारंगी बजाते खुद भी वह जैसे खो जाते हैं और सुनने वालों को सुरों के समन्दर की जैसे सैर कराते हैं। एक लहर आती है, दूर तक बहा ले जाती है। दूसरी आती है और जैसे अपने में समा लेती है। भीगोती, पानी के छींटे डालती हुई। ...सच! पंडित रामनारायणजी की सारंगी बजती नहीं, गाती हुई हममें जैसे सदा के लिए बस जाती है।
पंडित रामनारायण जी उदयपुर में जन्में। और फिर बाद में मुम्बई में ही बस गए। सारंगी की शास्त्रीय पहचान का श्रेय उन्हीं को है।  कहें, वह नहीं होते तो सारंगी कब की हमसे विदा ले चुकी होती। पिता नाथूजी बियावत दिलरूबा बजाते पर  पंडितजी ने सारंगी अपनायी। उस्ताद वहीद खां से सुर, लय और ख्याल गायकी सीखी तो धु्रवपद को भी अपने तई साधा। आकाशवाणी में भी रहे पर सारंगी को स्वतंत्र पहचान दिलाने में नौकरी बाधा लगी सो छोड़ दी। वर्ष 1956 में पंडितजी ने मुम्बई के संगीत समारोह में पहली बार एकल सारंगी वादन किया। बस फिर तो देश-विदेश में उनकी सारंगी की धूम मच गयी। उस्ताद विलायत खां के साथ उनका एलपी रिकाॅर्ड आया। सारंगी के सुरों की वर्षा पहले पहल फिल्मों में उन्होंने ही की। याद करें ‘कश्मीर की कली’ का ‘दिवाना हुआ बादल...’ गीत। गीत की धुन में सारंगी के सुरों पर गौर करें। मन करेगा बस उन्हें गुनें। गुनते ही रहें। पंडितजी ने सत्यजीत राय की कुछेक फिल्मों के साथ तपन सिन्हा की ‘क्षुधित पाषाण’ का पाश्र्व संगीत भी दिया है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले पंडितजी जयपुर में थे तो कलाकार मित्र विनय शर्मा और महेश स्वामी के साथ उनसे खुब बतियाया हुआ। लगा, सारंगी में ही नहीं, उनकी बातों में भी अद्भुत रस है। होटल की खिड़की से बाहर झांकते तरण-ताल पर उनकी नजर गयी। उसके कम पानी को देख वह कहने लगे, ‘...स्विमंगपुल में इतना चुल्लूभर पानी है कि कोई आराम से इसमें डूब मरे!’ उनका कहन इतना धीमा, गंभीरता लिये था कि औचक समझ ही नहीं आया। जब समझे तो हंसी के मारे बुरा हाल था। फिर से पंडितजी ने फरमाया, ‘लो...हम तो आपकी इस हंसी पर ही मर मिटे।’ 

Friday, August 9, 2013

लोक संस्कृति का गान

हरिमोहन भट्ट रेखाओ में सौन्दर्य की सर्जना करते हैं। लोक संस्कृति का गान करती उनकी रेखाएं जीवन की उत्सवधर्मी संवेदनाओं का नाद है। उनकी रेखाओं में रंग हैं, रूप है और है संवेदनाओं का आकाश। रेखाओं में सौन्दर्य का अन्वेषण करते भट्ट पारम्परिक प्रशिक्षित कलाकार नहीं है। वह रंगीन बालपोईन्ट पैन से उकेरते हैं रेखाएं। बाल्यकाल में कभी अपने लिखे को सजाने में इस कदर प्रवृत हुए कि बाद में तो उनका बालपोईन्ट पैन रेखाओं का सौन्दर्य संवाह ही बनता चला गया। अपनी कला में राजस्थान की उत्सवधर्मी संस्कृति में बिखरे भांत-भांत के रंगों के वह संवाहक हो गए। लोक संस्कृति में रचा-बसा उनका मन सर्जना में दृश्य ही नहीं बल्कि उसमें निहित संवेदना की बारीकियां की बढ़त करता है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले ही हरिमोहन भट्ट के बालपोईन्ट पैन रेखाचित्रों का आस्वाद किया। लगा, रेखाओं में भांत-भांत के रंगों को घोलते वह दृश्य की हमारी संवेदना को ही नहीं बल्कि सुनने के हमारे माधुर्य को भी गहरे से छूते हैं। उनके रेखांकनों का आस्वाद करते सहसा ही राजस्थान के मांडणों की याद आती है। मांडणे सरीखे उनके रेखांकन बारिश के इस मौसम में अपने पंखों से रंगों की छटा बिखरते मोर की याद दिलाता है तो बरसती बूंदों की रिम-झिम के साथ आसमान में उभरते इन्द्रधनुष को भी औचक ही मन मे बसाता है। सांगीतिक आस्वाद कराती उनकी रेखाएं नृत्य करती हुई हममें प्रवेश करती है तो कभी गांव के उस परिवेश से भी हमारा अनायास साक्षात् करा देती है जिसमें मन बनावटीपन से कोसों दूर बस सहज सौन्दर्य का पान करता है। ज़हन में बचपन कौंधने लगा है।  तब शहर की चारदीवारी से दूर बड़ा सा बीकानेर के घर का हमारा आंगन हुआ करता था। आंगन के बीचोबीच उगा खेजड़ी का वृक्ष। त्योंहारों पर कच्चे आंगन पर गोबर पूतता। दादी चाव से आंगन संवारती। गैरू-गोबर से आंगन लीपती। इस लीपे पर फिर मांडणे मंडते। मनभावन मांडणे। मूढ़ से बनी घर की बड़े ओसार की दीवारें भी दादी के हाथों से तब अलंकृत होते देखता। अक्षर ज्ञान से कोसों दूर दादी रेखाओं में सधी माधुर्य की अनूठी लय अवंेरती। 
सोचता हूं, हरिमोहन भट्ट के बालपोईन्ट पैन से बने रेखाचित्र लोक मन में बसे ऐसे अलंकरण ही तो है! इनमें कहीं कोई बनावट नहीं है। जीव-जंतु, फल-फूल, प्रकृति और लोक आस्था के अनगिनत सुर। संवेदनाआंे को जगाते। हमसे बतियाते। इनमें रेखाओं का अद्भुत उजास है तो आत्मिक अनुभूतियां से जुड़े अनगिनत छलकते रसों के संदर्भ भी हैं। मुझे लगता है, लोक संस्कारों के सर्जनषील तत्वों को भट्ट शुद्ध व स्पष्ट रूप में हमारे समक्ष रखते हैं। वह बेल बूटों को इनमें सूक्ष्म उकेरते हैं तो बहुतेरी बार भारतीय शिल्प की गहराईयों में भी ले जाते दिखते हैं। अजन्ता की कलाओं का आस्वद यहां होता है तो मूगल चित्र शैलियों के अलंकरण तत्वों की सूक्ष्म दीठ भी यहां है। राजस्थान की राजपूत-मूगल शैली के साथ ही मिनिएचर तत्वों का अहसास ठौर-ठौर उनकी कला में है। सौन्दर्य से जुड़े मन के भावों के दृष्यों का अपने तई वह  आकाश ही तो रचते हैं! अलंकृत रेखाएं। कहीं कहीं वलयकार रेखाओं में सरल, सीधी रेखाओं का विलोप। मुल्कराज आनंद के शब्द उधार लेकर कहूं तो हरिमोहन भट्ट की बालपोईन्ट पैन  रेखाएं सौन्दर्य की सर्जना में बहुत से स्तरों पर ईष्वर की आषुलिपि है। रंग-बिरंगी रेखाएं मेंहदी सजे गौरी के हाथों की याद दिलाती उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का नाद भी तो करती है। लय का अनुसरण करती एक-दूसरे में समाती। एक दूसरी से ओत-प्रोत होती कब यह सौन्दर्य का आत्मरूप हो जाती हैं, कहां पता चलता है!


Friday, August 2, 2013

टेराकोटा छायाचित्रों का संवेदना आकाश



कलाएं संवेदना की सृष्टि करती है। भावनाओं के अनंत आकाश में व्यक्ति अपने होने को कलाओं में ही तो सार्थक करता है। शिल्प की ही बात करें। कलाकार जब कोई मूरत गढ़ रहा होता है तो वहां मूरत ही प्रधान नहीं होती कलाकार का स्व भी तो रूपान्तरित होता है। पाषाण, धातु और मिट्टी के शिल्प इसीलिए तो देखने वालों को लुभाते हैं कि वहां कलाकार का संवेदन मन भी कहीं निहित होता है। 

बहरहाल, हिम्मत शाह इस युग में मिट्टी के अनूठे सर्जक हैं। खंड खंड अखंड के मूर्तिशिल्पी। माने जो कुछ उन्होंने बनाया है, देखने में केवल वही नहीं बल्कि सर्जना के सर्वांग को हम उनके शिल्प में अनुभूत कर सकते हैं।

यहां उनके जिक्र की वजह यह भी है कि हाल ही उनके टेराकोटा का एक एलबम आया है, जिसमें शिल्प छायाचित्रों में मिट्टी की संवेदना को गुना गया है। टेराकोटा ऐसे जिन्हें देखा ही नहीं स्पर्श करके भी उनकी सर्जना को अनुभूत किया जा सकता है। कागज उभरे रंगीन चित्रों को स्पर्श करेंगे तो मिट्टी का भूरभूरापन, उसकी खुदाई, पक्काई के साथ शिल्प सर्जना जैसे आपके समक्ष जीवंत हो उठेगी। जो कुछ उन्होंने गढ़ा उस श्रेष्ठ की बानगी है उनका टेराकोटा एलबम, ‘टेराकोटा बाय हिम्मत शाह’।

लकड़ी के बोर्ड की जिल्द और उसमें आवरण पर गोल डिस्कनुमा कला। इस गोल में फिर से एक गोल। मिट्टी की छोटी सी मूरत। इस पर स्वयं हिम्मत शाह का लिखा अपना नाम। इसके बाद पृष्ठ खोलेंगे तो उनके स्कल्पचरं नजर आएंगे। एक नहीं पूरे 288 पन्नों पर मंडे स्कल्पचर के रंगीन चित्र। शिल्प के चित्र भर नहीं बल्कि उसमें निहित माटी से जुड़ी संवेदना भी। हाथ से स्पर्श करेंगे तो संवेदना से साक्षात् होगा। शिल्प का दृश्य ही नहीं स्पर्श रूपान्तरण। 

मिट्टी से अपनापा रखते भांत-भांत के रूप हिम्मत शाह ने गढ़े हैं। वह मिट्टी को मथते, उसे पकाते और फिर उसी में बसते रूप की अनथक यात्रा कराते हैं। गौर करेंगे तो पाएंगे उनकी मृण कला में राजस्थान के गांव, मरूस्थल, देवरे और ग्रामीण सभ्यता के चिन्ह भी बहुत से स्तरों पर हैं। मंदिरों है तो उस पर लहराती ध्वजा भी। दीवार है तो उससे जुड़ स्पेस भी। पाबूजी और दूसरे लोकदेवताओं के थान भी हैं। गांव के लोगों द्वारा इस्तेमाल में ली जाने वाली वस्तुएं हैं-पर यह सब वैसे ही नहीं जैसे कि दिखते हैं बल्कि इन सबका कुछ-कुछ आभास हैं उनका शिल्प कर्म। इसलिए कि वहां अर्थ का आग्रह नहीं है। इसीलिए जो कुछ जीवंत एलबम में रखा है, वहां कहीं कोई शीर्षक नहीं है। 

बहरहाल, ‘टेराकोटा बाय हिम्मतशाह’ का आस्वाद करते कबीर की साखी ‘माटी एक रूप धरी नाना’ ज़हन मंे कौंधती है।  कबीर के कहे को मूर्तिशिल्पों में जीवंत आप यहां देख सकते हैं, स्पर्श से अनुभूत कर सकते हैं। वहां बोतलें हैं, पेड़ के तन्ने हैं, गांव का हैडपंप सरीखा कुछ है तो हुक्का जैसा भी कुछ है पर कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे ठीक से हम शब्दों से व्यंजित कर सकंे। कोई अर्थ दे सकें। 


माने आप रूप के अर्थ और उसके भीतर के अर्थ तलाशते रहेंगें। एक बार देखने के बाद बार-बार देखे को देखना चाहेंगे। यही उनकी कला की विशेषता है। वह मिट्टी से जो गढ़ते हैं उसमें हमारा यह जीवन स्पन्दित होता है। मुझे लगता है, कागज पर शिल्प की स्पर्श संवेदना की ‘टेराकोटा बाय हिम्मत शाह’ अनूठी कल्पना है। 

एक साथ हिम्मत शाह के अद्भुत शिल्पों का आस्वाद करना हो तो, इससे आपको गुजरना होगा। मिट्टी की जीवंत मूर्तियों का संग्रह। लगेगा, कागज के पन्नों से हेाते हुए माटी षिल्प की किसी सभ्यता में हम प्रवेष कर गए हैं। इस सभ्यता में देवराज डाकोजी, ज्योति भट्ट, कुमार शाह, राघव कनेरिया, रघुराय, रवि शेखर, शेलन पार्कर के हिम्मत शाह के बनाए शिलप छायाचित्रों का कला आस्वाद भी अवर्णनीय है। हिम्मत शाह ने यह जीवंत शिल्प अपने मित्र रामूकाटकम को समर्पित किए हैं।