Friday, October 25, 2013

सुर जो सजे

विश्वास नहीं हो रहा, मन्ना डे नहीं रहे! अभी कल की ही तो बात लगती है, वह जयपुर आए थे। गायन से पहले होटल में उनसे मुलाकात हुई तो ढेरांे बातें हुई थी। उनकी जिन्दादिली को तब गहरे से जिया था। उनकी मनुहार को भी तो अब तक कहां भूल सका हूं! कार्यक्रम का समय हो चला था उन्होंने साथ ही चलने की नूंत दी थी। बाद में तो तीन-चार दिन उनके साथ  रहने का भी सुयोग हुआ। लगा, गान में ही नहीं असल जिन्दगी की भी उनकी रेंज का कोई पार नहीं था!
याद पड़ता है, जयपुर में खुले आकाश के नीचे हल्की ठंड में रवीन्द्र मंच के ओपन थिएटर में वह गाने लगे थे। उनके सुर सजे तो सजते ही चले गए। पता ही नहीं चला था कब सांझ रात में तब्दील हो गई थी। उनके गान की वह अद्भुत सांझ थी। स्वयं भी वह जयपुर की फिजाओं में विभोर हो गए थे। हारमोनियम बजाते वह गा रहे थे, ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम मिले तो वीराने में भी आ जाएगी बहार’ सच में उनके गान से तब बहार आ गई थी। बच्चन की ‘मधुशाला’ भी तब उन्होंने मन से सुनाई। वह घड़ी भी आई जब उन्होंने गाया, ‘जिन्दगी कैसी है पहेली हाय...।’ लगा, जिन्दगी की पहेली का हल ढूंढते ही उनके सुर फिल्म संगीत में सजे। सजते ही रहे।
 मन्ना डे यानी प्रबोधचन्द्र डे। हिन्दी फिल्म संगीत के ऐसे गायक जिन्होने दुरूह से दुरूह गीत को गान से संवारा। हर रेंज के गीत गाए। आवाज का विरूपण करने की अद्भूत क्षमता उनमें जो थी! कभी अनिल बिश्वास ने यूं ही तो नहीं कहा था, ‘मन्ना डे की आवाज बहते झरने सा अहसास कराती है।’ सच भी है। रवीन्द्र संगीत, बाउल संगीत और खयाल गायकी से गायन का सफर प्रारंभ करते मन्ना डे ने फिल्म संगीत में स्वर की मौलिकता को सदा बरकरार रखा। शास्त्रीय ही नहीं रोमांटिक, तेज संगीत के गीत, कव्वाली, देशभक्ति, दर्शन, प्यार-रोमांस सभी तरह के गीत तो गाए हैं मन्ना डे ने। सब के सब सुरीले। पर उनके साथ ट्रेजिडी यह भी रही कि उन्हें सदैव वे गीत दिए जाते रहे हैं जो या तो किसी गायक कलाकार की रेंज से बाहर होता या फिर जो फिल्म में नायक की बजाय अतिरिक्त नायक या फिर फिल्म की थीम सांग होता। 
फिल्मों में गायन की सुर यात्रा के पहले एक दशक में उन्हें या तो उपदेश से भरे बोलों के गीत दिए जाते या फिर कठिन धुनों पर आधारित गीत। और तो और जो गीत उन्हें गाने को दिए जाते वे लोकप्रिय सिचुएशनों में उपयोग नहीं किए जाते थे बल्कि अक्सर चरित्रों के नैतिक संकट को सुलझाने के लिए किए जाते थे। बावजूद इसके उनके गाए उस दौर के गीतों केा भी विशेष पहचान मिली। यह वह दौर था जब मन्ना डे संगीतकार सचिनदेव बर्मन, के.सी.डे. और खेमचन्द प्रकाश के सहायक के रूप में काम किया करते थे। राजकपूर अभिनीत जितनी भी फिल्मों में मन्ना डे ने गाया, वे सभी फिल्में गीतों के कारण ही खासी सराही गई। लोक संगीत पर आधारित नौशाद के संगीत में ‘मदर इंडिया‘ का गीत ‘चुनरिया कटती जाए रे, उमरिया घटती जाए रे...‘ गीत हो या संवाद शैली का शंकर-जयकिशन का संगीतबद्ध ‘मेरा नाम जौकर का‘ गीत ‘ए भाई जरा देख के चल.‘ या आवाज में शोखी लिए ‘उजाला‘ फिल्म का ‘झूमता मौसम मस्त महीना, चांद सी गोरी एक हसीना...‘ या ‘श्री 420‘ का ‘प्यार हुआ इकरार हुआ..‘ जैसा गीत या फिर ‘पड़ोसन‘ का ‘यक चतुर नार कर के सिंगार...‘ और ‘पगला कहीं का‘ फिल्म का ‘मेरी भैंस को डंडा क्येां मारा..‘जैसा सदाबहार हास्य गीत। मन्ना डे ने हर गीत को अपने गान में गहरे से जिया। 
बहरहाल, ‘मेरा नाम जोकर’ के ‘ए भाई जरा देख के चलो...’ पर उन्हें  अवार्ड मिला। मजे की बात यह कि यह वह गीत था जिसे उन्होंने कभी गीत माना ही नहीं। याद पड़ता है, इसकी याद दिलाने पर उन्होंने इन पंक्तियो ंके लेखक से कहा, ‘अरे भई, यह गीत है कहां! सीधा-सादा, कोई सुर, लय तो इसमें है ही नहीं।’ मैंने तपाक से तब अगला प्रश्न किया था, ‘...तो फिर आप कौनसा वह गीत मानते हैं जो अवार्ड का हकदार है?’ तुरंत उन्होंने जवाब दिया, ‘पूछो न कैसे मैने रेन बिताई...,’ ‘लागा चुनरी में दाग...’ जैसे बहुत से गीत हैं।’ 
याद करता हूं, कभी भीमसेन जोशी के साथ उन्होंने ‘‘केतकी गुलाब जूही.....’ गीत गाया था। संगीतकार शंकर-जयकिशन ने पं. भीमसेन जोशी के साथ इस गीत को गाने के साथ ही गायन में पं. भीमसेन जोशी को हराने की बात भी बताई थी। मन्ना डे हैरान। यह कैसे हो सकता है! पर करना तो था ही सो उन्होंने जमकर रियाज किया। गायन की धुन में यह पता ही नहीं चला कि कब उन्हांेने पं. भीमसेन जोशी को हरा दिया था। इस बार जरा गौर से सुनेें इस गीत को, आपको भी हार-जीत समझ आएगी। पडित भीमसेन जोशी जी से भी इन पंक्तियो के लेखक ने कभी इस पर प्रश्न किया था तो उन्होंने कहा था ‘शास्त्रीय गीत को फिल्मी गीत में भी मन्ना डे वैसे ही हद तक ले गए थे।’ सच! उनके गान की यही तो खूबी थी। वह जो गाते उसे आत्मसात कर लेते।  
सोचता हूं, ‘सुर न सजे क्या गाऊं मै, सुर के बिना जीवन सूना...’ गीत जब मन्ना डे ने गाया था तब क्या किसी ने यह सोचा था कि उनके सुर इतने सजेंगे, इतने सजेंगे कि उनके बगैर फिल्मी गीतों की चर्चा ही नहीं की जा सकेगी!
बहरहाल, सच यही है। उनकी आवाज का जादू फिजाओं में आज भी गायन के प्रति उनकी दिवानगी को ही बंया करता हम में बसता है। प्रबोध चन्द डे फिल्मी दुनिया के अकेले ऐसे गायक रहे हैं जिनकी आवाज में खुद की निजता सदा बरकरार रही। हर काल, परिस्थिति में। सुनने वाले को आंनदानुभूति का अहसास कराते। भले आज वह देह से हमारे साथ नहीं है परन्तु गान में सदा ही वह हममें बसे रहेंगे। कहें, मन्ना डे ने जो गाया, उसमे -सुर जो सजे, सजते ही रहे। सजते ही रहेंगे।


Friday, October 18, 2013

पंचम वेद की दृश्य संवेदना

प्रदर्शनकारी कलाओं में नाटक ही वह विधा है जिसमें तमाम दूसरी कलाओ का उत्स है। चार वेदों के बाद पांचवे वेद के रूप में इसीलिए नाटक ही अभिहित है। पर इस समय हिन्दी नाटको के साथ विडम्बना यह है कि पर्याप्त मात्रा में खेले जाने के बावजूद दर्शकों का हर ओर टोटा है। भले यह कहें कि सिनेमा, टीवी और दूसरे माध्यमों के कारण ऐसा हुआ है परन्तु बड़ा कारण क्या यह नहीं है कि अच्छे नाटकों के प्रदर्शन के साथ प्रेक्षागृह में दर्शकों को उन्हें दिखाने के आग्रह गौण हो रहे है! कुछ समय पहले पणिक्कर नाट्य समारोह जब हुआ तो बावजूद संस्कृत और कन्नड़ भाषाओं में नाट्य प्रस्तुतियों के प्रतिदिन ही रवीन्द्र मंच दर्शकों से खचाखच भरा रहा। 
बहरहाल, नाटक द्विज है। माने दूसरा जन्म। जो बीत गया है, उसे फिर से मंच पर जीवन्त करने की कला। जीवन से जुड़े तमाम रंग जो वहां होते हैं! अंतर्मन संवेदनाओं का आकाश लिए। रवीन्द्र मंच स्वर्णजयन्ती समारोह में अशोक राही के निर्देशन और अभिनय में ‘सेल्विन का केस’ नाटक देखा था। लगा, राही नाटक के मर्म में जाते उसमें निहित तमाम संभावनाओं को अपने तई जीते हैं। ‘सेल्विन का केस’ का मंचन दुरूह है।  कहानी रोचक है पर बदलते दृश्यों में बार-बार फ्लेश बैक में ले जाती हुई। सिनेमा में यह सुविधा है कि वहां एक ही समय में अनेकों कालखंड दिखाए जा सकते हैं। दृश्य परिवर्तित होते वहां सैकण्ड लगते हैं पर मंच पर यह कैसे संभव हो! पर राही ने इसे संभव किया। नाटक में एक हत्यारे को निर्दोष जान ख्यात लेखक लियोनार्ड लंडन मानवाधिकार से जुड़ी लेखकीय दलीलों से हत्या के जुर्म से उसे बरी करा देता है। उसे इसके लिए अपार यश और नोबल पुरस्कार तक मिलता है। बाद में लंडन को पता चलता है कि जिसे उसने बचाया वास्तव में वही खूनी था। अब क्या किया जाए! नाटक लेखक का संघर्ष, द्वन्द, पीड़ा, विडम्बना के मध्य संवेदना की सूक्ष्म अभिव्यंजना है। राहीजी के नाटक पहले भी देखे हैं पर मुझे लगता है, इधर उन्होंने अपनी जो रंगभाषा ईजाद की है वह अद्भुत है। यह ऐसी है जिसमें रंगमंच से जुड़े बाहरी आवरण नहीं बल्कि वह स्वयं और उनका अभिनय प्रधान है। प्रदर्शन में खुलेपन के साथ सहजता। ऐसी जिससे दर्शक सीधे मंच से जुडें। 
माना यह जाता है कि थिएटर में स्थानीय संदर्भ डालने से दर्शक अधिक उसका हिस्स बनते हैं परन्तु राही अपने रंगकर्म में इस मिथक को तोड़ते हें। ‘सेल्विन का केस’ ही लें। अमूमन ऐसे नाटकों में प्लेबैक थिएटर होता है। माने कहानी दर्शक को सुनाई जाती है ताकि वे स्वयं ही अपेक्षित निर्णय पर पहुंच जाएं। परन्तु राही ने कहानी से नहीं अपने अभिनय से यह संभव किया कि वह दर्शको को प्रभावी रूप मंे संप्रेषित हो जाएं। अनुभूतियों और भीतर के द्वन्द को वह भाव भंगिमाओं से व्याख्यायित करते चरित्र में रमते हैं। हां, निर्देशक के रूप में उनके पास दृश्यों की संगत की भी प्रभावी दीठ है। इसीलिए फ्लेश बैक दृश्यों में अतीत का वर्तमान से नाता कराते वह कहीं कोई अवरोध नहीं आने देते। यही तो किसी नाटक की बड़ी विशेषता होती है।
मुझे लगता है, रंगमंच मूलतः अभिनेता का ही माध्यम है। इसलिए कि वहां चरित्र को जीते वह अपना स्पेस तलाशता एक प्रकार से उसमें अपने को घोल देता है। स्वयं की सीमाओं को लांघते हुए। यही उसका द्विज है। जो इसे साध ले वही तो होता है सच्चा अभिनेता। तो कहें, इस दीठ से अशोक राही सधे हुए अभिनेता, निर्देशक हैं!

Saturday, October 12, 2013

संस्कृति के सौन्दर्य चितराम

संस्कृति माने जीवन से जुड़े संस्कार। स्वाभाविक ही है, इसमें विचार, सूक्ष्म कल्पनाएं, भावनाएं आदि सभी कुछ के संस्कार निहित हैं। जब कभी किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा होता हूं, लगता है वहां प्रदर्शित-ध्वनित हमारी अनन्तरूपा संस्कृति से ही साक्षात् हो रहा होता हूं। उस संस्कृति से जो साहचर्य के गुणों से संपन्न है।  
बहरहाल, बिड़ला सभागार में कुछ दिन पहले पावरग्रिड कारपोरेशन आफ इण्डिया द्वारा क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं आयोजित की गई थी। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड और ऐसे ही तमाम दूसरे प्रांतो से जुड़े उपक्रम के कार्मिक और उनके परिजन कलाकारों ने इसमें अपनी प्रस्तुतियां दी। प्रतियोगिता निर्णायक की भूमिका के रूप में भाग लेते संकट मेरे समक्ष यह था कि बेहतरीन प्रस्तुतियों में से कैसे किन्हीं तीन उत्कृष्ट प्रस्तुतियों को छांटा जाए। इसलिए कि पंजाब से आए दल ने भांगड़ा में खेतों में होने वाले श्रम के महत्व का सांगोपांग चितराम किया था तो उत्तराखंड के कलाकार दल ने हाल ही आयी वहां की त्रासदी को जीवंत करते भगवान शिव का अद्भुत नृत्य प्रस्तुत कर सभागार को सम्मोहित सा कर दिया। आगरा के दल ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को जीवन्त किया तो बल्लभगढ़, कानपुर, लखनऊ से आए कलाकारों ने अपने-अपने क्षेत्र की संस्कृति जुड़ी नृत्य, नाट्य प्र्रस्तुतियां दी। राजस्थान के दल ने उत्सवधर्मी राजस्थान के विविध रंगों को अपनी प्रस्तुतियों में गहरे से जिया। संस्कृति से जुड़ी इन तमाम प्रस्तुतियों का आस्वाद करते निर्णय के वक्त यह भी अनुभूत किया कि देश-काल-परिवेश से उत्पन्न विभिन्नताएं हमें भिन्न करने की बजाय एकसूत्रता के धागे में पिरोती है। यह भी कि यह वैविध्यता से सराबोर हमारी संस्कृति के ही रंग है जिनमें खंड सौन्दर्य का भी विराट दृश्यगत होता है। शायद इसलिए कि वहां रमणीयता है। क्षण क्षण में नवीन जान पड़ती रमणीयता।
सांस्कृतिक प्रतियोगिता में देश के विविध भागों से आए सांस्कृतिक दलों की प्रस्तुतियों में रमते हुए यह भी लगा कि संस्कृति समाज को मानवीय मूल्यों से जोड़ती है। ऐसा है तभी तो सरकारी उपक्रम के वह लोग जो निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते हैं परन्तु जहां रहते हैं, वहां के परिवेश में रच-बस जाते। उनके इस अपनापे से ही संवेदना के मूल्य फिर उनमें जगते हैं। मसलन राजस्थान मंे पदस्थापित कार्मिकों के सांस्कृतिक दल की प्रस्तुति को ही लें। राजस्थान की लोक संस्कृति से सीधे उनका कोई सरोकार जन्मजात नहीं रहा है परन्तु यहां रहते उन्होंने राजस्थानी संस्कृति को जैसे आत्मसात कर लिया। श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ ही होता है सो अपने प्रांत की प्रस्तुति को प्रथम घोषित करने के संकोच के बावजूद निर्णय तो यही करना था! पर इस निर्णय मंे नहीं जाए तो भी यह कहा जा सकता है कि स्थान-विशेष  के नहीं होते हुए भी हर सांस्कृतिक दल ने वहां की संस्कृति से अपने को जोड़ा ही। पावरग्रीड के महाप्रबंधक एच.के.मलिक और उप महाप्रबंधक उपेन्द्र सिंह से संवाद हुआ तो यह भी पता चला कि सांस्कृतिक तैयारियों के लिए बाकायदा काॅरपोरेशन राष्ट्रीय स्तर पर बजट प्रावधान करता है। यही नहीं इस बजट के अंतर्गत कार्मिकों के परिजनों को प्रस्तुतियों का अवसर मिलता है। एक साथ मिल-बैठ बतियाने का मौका भी। माने कार्मिक के साथ उसके परिवारजन भी संस्कृति के विविध रंगों से अपने आप ही रंगते हैं। संस्कृति के सरोकारों का यह श्रेष्ठतम उदाहरण है। राजकीय सेवा में कार्यरत कार्मिक और उसके परिजनों को यदि संस्कृति से जुड़े सराकारों के श्रेष्ठतम प्रदर्शन की भावना से मंच पर आने के अवसर मिलते हैं, तो बहुत से स्तरों पर समाज में क्षीण होते जा रहे सांस्कृतिक मूल्यों का बिगसाव हो सकता है। आखिर, समय की बड़ी जरूरत आज यही तो है!   


Friday, October 4, 2013

राग में रूप की खोज

नादब्रह्म की उपासना है ध्रुवपद। संगीत के सप्तस्वरों का आदिरूप नादब्रह्म ओंकार ही तो है। ओंकार में शब्द भी है और स्वर भी। कहते हैं, सृष्टि की उत्पति इस नादब्रह्म से ही है । बहुश्रुत पद भी है, प्रथम आदि शिव शक्ति नादे परमेश्वर।’ इसीलिए तो कहते हैं, नाद से उत्पन्न रस ही संगीत है। और नाद की रहस्यमयी महिमा और संगीत शास्त्र से संबद्ध विषय का सांगोपांग कहीं है तो वह ध्रुवपद में ही हैं। ध्रुवपद को ज्ञान की परम्परा से शायद इसीलिए अभिहित किया गया है। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में ध्रुवपद संगीत समारोह में भाग लेते संस्कृत के कहन नादाधीनं जगत्को जैसे गहरे से अनुभूत किया। सच! असार जग का सार कहीं है तो वह संगीत में ही है। ध्रुवपद-धमार से जुड़े कलाकारों को सुनते लगा, संगीत बाहरी ही नहीं अंतर के सौन्दर्य का भी संवाहक है। समारोह में सुना तो और भी कलाकारों को पर डॉ मधु भट्ट तैलंग का ध्रुवपद मन में अभी भी गहरे से बसा है। लयकारी और सांसो पर उनका गजब का नियंत्रण है। गान में आलाप की साधना और स्वरों पर विलक्षण अधिकार और हां, गायकी की उनकी निरंतरता में शब्दों से जुड़े संस्कारों की ध्वनि ओप भी विरल है। जवाहर कला केन्द्र में उस दिन बूंदा-बांदी हो रही थी। अंदर प्रेक्षागृह में  मधुजी जब गाने लगी तो उनका गान भी जैसे भिगोने लगा। दुरूह होते हुए भी गान का सहज निभाव। गमक और मींडयुक्त उनका आलाप। लय वैचित्र्य के अंतर्गत उपज, बोलबांट, दुगुन-तिगुन आदि की विभिन्न लयकारियां। 

कोई कह रहा था, ध्रुवपद महिलाओ का गान नहीं है। गान में फेफड़ों पर जोर जो पड़ता है! दमदार और खुली आवाज से यह जो सधता है। भला, महिला स्वर में ध्रुवपद हो सकता है! शायद इसी सोच से ध्रुवपदको कभी मर्दाना गान कहा गया। इसका मतलब मधु भट्ट अपवाद हैं।  ध्रुवपद को उन्होंने अपने तई साधा है। स्वर, लय पर पूर्ण अधिकार के साथ। वह गाती है तो लगता है,  ध्रुवपद अपनी पूर्णता के साथ हृदय के अंतरतम में प्रवेश करता है। उनके स्वरों में सौन्दर्य का उजास भी है तो बेलौस खुलापन भी। स्वर माधुर्य के साथ काव्य का वह सुंदर प्रयोग करती है। विशेष लयकारी में वह गाने लगी थी, ‘घन घुमण्ड चण्ड प्रचण्ड...। झंकृत होने लगे मन के तार। लगा, संगीत के समुद्र की अतल गहराईयां नापते हैं उनके सुर। नाभि से उठता नाद। सच! सुरों की दुरूह साधना में वह ध्रुवपद को गहरे से जीती कलाकार हैं। आलाप के साथ स्वरों पर विलक्षण अधिकार लिए वह जब गा रही थी तो, अंतर से ध्वनित होती वाणी से ही जैसे साक्षात् हो रहा था। गमक में सुरों की अद्भुत धमक। सुनते हुए लगा, दूर से आते सुरों में वह अनंत की सैर कराती है। 

उनका आलाप सुनते यह भी लगा, होले-होले नदी, नाले, पर्वत, गली, संकड़ेपन के सफर में लय के साथ एक-एक कर आगे बढ़ते जा रहे हैं सुर। राग में रूप की खोज। मुझे लगता है, सधे सुरों में व्यक्ति अपने होने की तलाश कर सकता है। यह संगीत का ही सामर्थ्‍य है कि वह व्यक्ति को वहां ले जाता है, जहां चाहकर भी कोई जा नहीं सकता। सधे सुर ही तो करते हैं अनंत की चाह की राह आसान। ध्रुवपद गाने वाले कलावन्त कहे जाते हैं। माने कला के ज्ञाता। ज्ञान का अथाह सिलसिला ही तो है ध्रुवपद। ...और ऐसे दौर मे जब ध्रुवपद शनैः शनैः हमसे दूर होता जा रहा है, एक महिला गायिका गान की उस महान परम्परा से हमें जोड़े हुए हैं। अब बताईए, मधु भट्ट के होते, है कोई जो यह कहे-ध्रुवपद पुरूषों का ही गान है!