Saturday, December 27, 2014

दुनिया मेरे आगे

जनसत्ता  का लोकप्रिय स्तम्भ है, "दुनिया मेरे आगे" इस बार शुक्रवार को इसमें नृत्य के एक कार्यक्रम की अनुभूतियों को जो संजोया, वह प्रकाशित हुआ है. आस्वाद करें -


Thursday, November 27, 2014

देश की वह सितारा


सितारा देवी 
सच है! चमकता सितारा आसमां पर ही नहीं होता जमीं पर भी होता हैं। और सितारा देवी से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा। देश में कथक के लोकप्रियकरण की नींव जिनने रखी, उनमें सितारा देवी अग्रणी रही। कथक की गतियों, बोलों और पढ़न्त का जो स्पेस वह रचती थी, वह अद्भुत था। आप उनके नृत्य की पुरानी कोई रिकाॅर्डिंग देख लीजिए, पाएंगे शास्त्रीयता को अंवेरते, परम्परा को सहेजते और सामयिकता की जीवंत करते सितारा देवी नृत्य में अवर्णनीय उत्साह, उमंग और ऊर्जा को जैसे ध्वनित करती। 
 मुझे लगता है, अंग-प्रत्यंग-उपांग में कथक को संवारने और लय के भांत के भांत के रूपक रचने का कार्य किसी ने हमारे यहां किया है तो वह सितारा देवी ही है। शास्त्र के साथ लोक की अनूठी संवेदना उनके पास थी। नृत्य में कहन का विरल लयात्मक अंदाज उनके पास था। उनके नृत्य में स्थापत्य की विविधता थी। कृष्ण लीलाओं की उनकी कथक प्रस्तुतियां को ही लें। देखते लगेगा, किसी एक कलाकार ने कृष्ण से जुड़े तमाम आख्यानों को अकेले अपने बूते भीतर की अपनी ऊर्जा से जीवंत किया है। याद करें, उनके ‘कालिया मर्दन’ नृत्य को। लगेगा, दृष्टि, शिर, ग्रीवा से वह कथा में निहित कहन को जैसे साक्षात् साकार कर रही है।  और यही क्यों, सूरदास की रचना ‘ठुमक चलत रामचन्द्र’ भी अद्भुत! यह सही है, अंत तक वह प्रस्तुति देती रही और इधर वय का असर भी साफ दिखने लगा था। पर चेहरे का उनका ओज और भाव-भंगिमाओं में निहित उत्साह से यह भी लगता कि वही ऐसी कलाकार हैं जो नृत्य के रूपाकारों में जीवन की उदात्ता को ढलती हुई उम्र्र में भी इस कदर खूबसूरती से रच सकती है। 
बहरहाल, दीपावली के दिन कोलकता में 1920 को यह महान नृत्यांगना जन्मी। पिता ने नामकरण किया धनलक्ष्मी। प्यार का नाम हुआ धन्नो। पर यही धन्नों बाद में कथक की प्रस्तुतियों से इस कदर चमकी कि पिता ने उन्हें सितारा कहना आरंभ कर दिया।  नृत्य में कहन के सौन्दर्य के बीज सितारा देवी में उनके अपने पिता सुखदेव महाराज ने ही बोये। वह संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान, नाट्यशास्त्र मर्मज्ञ और बनारस घराने के प्रसिद्ध कथक नर्तक, कथाकार थे। कथक में पंडित सुखदेव महाराज ने ही धार्मिक तत्वों की कभी नींव रखी थी। सितारा देवी ने कथक में शास्त्रीय ताने-बाने को बरकार रखते हुए भी परिवेश से जुड़ी संवेदना और समय के साथ हो रहे परिवर्तनों से उसे निरंतर समृद्ध किया। संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, पद्मश्री के बाद भारत सरकार ने जब उन्हें पद्मभूषण देना चाहा तो सितारा देवी ने उसे ठुकरा दिया। उनकी  चाह ‘भारत रत्न’ की थी।...और मुझे लगता है, इसकी वह असल हकदार थी भी। आखिर क्यों नहीं ‘भारत रत्न’ उन्हें नहीं दिया जाता जिन्होंने संगीत, नृत्य, चित्रकला में अपने अप्रतिम योगदान के जरिए भारतीय संस्कृति की जड़ों को सींचने का कार्य किया है! 



Friday, November 21, 2014

उत्सवधर्मिता से जुड़ा कला पर्व


आर्ट समिट का  शुभारम्भ अनुप्रिया ने की सामुहिक उत्साह की सुमधुर व्यंजना 
जयपुर पिछले कुछ दिनों लगातार कलाओं के रंगों से सराबोर रहा। इस मंगलवार को ‘जयपुर आर्ट समिट’ का समापन हो गया पर उसके रंग अभी भी फीजा में जैसे बिखरे पड़े हैं।  उत्सवधर्मिता की दीठ से कला का यह आयोजन किसी मेले और पर्व सरीखा ही था।

 पिछले वर्ष इसकी शुरूआत चंद कलाकारों की पहल से हुई थी और इस वर्ष यह सच में परवान चढ़ा। कोई काॅरपोट घराना नहीं, मुनाफे के बाजार का प्रयोजन नहीं, सरकार का बड़ा साथ नहीं फिर भी अच्छे उद्देश्य के लिए स्थानीय कलाकारों का मेल कैसे किसी दुरूह आयोजन को अंजाम दे सकता है-‘आर्ट समिट’ इसका उदाहरण है।  

बहुत से स्तरों पर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से यह कहीं अधिक सफल, सहज और आम जन की कला संवेदनाओं में रंग भरने वाला था। इस मायने में भी कि बाजार के रंगों से परे यहां संवेदना के सुर ध्वनित हो रहे थे। बाहर से आए कलाकार अंदर से प्रफुल्लित थे, कलाओं का आस्वाद करने वाली भीड़ के अंदर कहीं कोई बोझ नहीं था। फुर्सत थी और उत्सवधर्मिता का गान भी हर ओर, हर छोर था। हां, सस्ते प्रचार हथकंडे के लिए कला के नाम पर आस्था पर प्रहार करते अनर्गल प्रयोग के कलाकार की विकृत मानसिकता को छोड़ आयोजन काबिले तारीफ था।
जवाहर कला केंद्र में एक संस्थापन यह भी 
बहरहाल, एक निजी होटल में ‘आर्ट समिट’ के शुभारंभ की वह सुबह सुहानी जिसमें वायलिन पर राग बसंत की स्वरलहरियां छिड़ी। पता नहीं क्यों, वायलिन के सुर सदा ही एकाकीपन को व्यंजित करते मन के भीतर की व्यथा को बाहर निकालते ही प्रतीत होते रहे हैं। पर जैसे-जैसे वायलिन के सुरों का कारवां आगे बढ़ा, लगा वातावरण में बासंती रंगों को ध्वनित करते अनुप्रिया ने सामुहिक उत्साह की सुमधुर व्यंजना की है। 

देश-विदेश के एक दर्जन कलाकारों ने कला के इस पर्व में मूर्त-अमूर्त में कैनवस पर रंग-रेखाएं उकेरी तो कलादीर्घाओं में प्रदर्शित कलाकृतियां से कला के अतीत, वर्तमान और भविष्य की आहटें जैसे ध्वनित हो रही थी।  लगा, स्थानीय विषयों के साथ वैश्विक सरोकार तेजी से कला में बढ़े हैं। हां, संस्थापन में गंभीरता के साथ अनर्गल की भी भरमार कम नहीं देखने को मिली। कला फिल्मों की दीठ से आयोजन विश्व के बेहतरीन आयोजनों में शुमार किया जा सकता है। श्वेत-श्याम छायाचित्रों की प्रक्रिया के बहाने छायांकन के सौन्दर्य में रमे जीवन के स्पन्दन की हिमांशु व्यास की वृत्तचित्र व्यंजना अद्भुत थी। मन को मथने वाली। विनय शर्मा ने संस्थापन को नाटकीय रूप में रखा। पन्नों निर्मित पोषाक का उनका विचरण दर्शकांे के लिए कौतुक जगाने वाला था। हां, कला संवाद के अंतर्गत वक्ताओं ने क्या कुछ कहा, उनके सरोकारों पर उदासीनता ही अंत तक पसरी रही। 
कला संस्कृति विभाग के प्रमुख शासन सचिव शैलेन्द्र अग्रवाल ने आयोजन के शुभारंभ के दिन कला प्रोत्साहन के लिए सभी को मिलकर प्रयास की बात कही थी। सच भी है! सरकार, उद्यमी, कलाकार और आम जन यदि स्वयं पहल करे तो क्या नहीं हो सकता। ‘आर्ट समिट’ से बेहतर इसका और उदाहरण क्या होगा! 

Saturday, November 15, 2014

छायांकन कला की सौन्दर्य लय


सौन्दर्य की सुरम्य संवेदना 
सभी छाया चित्र : अजय राठौड़ 
दृष्य से बड़ी अदृष्य की सत्ता होती है। मन मस्तिष्क पर प्रायः उस अदीठे का ही तो प्रभाव पड़ता है जिसमें दिखे का अर्थ छुपा होता है। कलाएं इसीलिए तो मौन की अभिव्यक्ति कही जाती है। छायांकन कला है, बषर्ते उसमें मौन मुखरित हो। अदृष्य की लय छायाकार संजोए। दृष्य की संवेदना के मर्म में वह जाए। कुछ समय पहले जब अजय सिंह राठौड़ के छायाचित्रों का आस्वाद किया तो लगा, वह दृष्य में निहित अदृष्य के मर्म को अपने तई रचते हैं। औचक! बारम्बार।
बहरहाल, अजय के छायाचित्रांे की बड़ी विषेषता है प्रकृति में निहित सौन्दर्य की छायांकन सूझ से की गई व्यंजना। उनके छायाचित्रों में राजस्थान सर्वथा भिन्न रूप में दिखाई देता है। पहाड़, नदी और हरितिमा से आच्छादित धरित्री का राजस्थान! इसलिए कि उंघता पहाड़, बल खाती नदी, सरोवर और उसमें तैरते कमल, किले-महल और झरोखों से झांकती सुरम्य दीठ को उन्होंने कैमरे से संजोया है। अजय के छायांकन किले-महलों में पसरे मौन की मुखर अभिव्यक्ति है। छायाचित्रों का आस्वाद करते औचक रूसी चित्रकार रोरिक के हिमालय चित्रों की याद आती है। रोरिक ने हिमालय के प्रकृति रंगों को अवंेरा है तो अजय ने राजस्थान के किले-महलों के पाषाणों पर पड़ती धूप, छांव और अस्त होते सूर्य की की संवेदना का जैसे छायाचित्रों में गान किया हैं।
सुरम्य दीठ- भैसंरोडगढ़
यह है तभी तो बूंदी के सुख महल के एक छायाचित्र में आसमान की परछाई के साथ जैत सागर झील के सौन्दर्य की सुरम्य संवेदना का उनका छायाचित्र देखने के बाद भी मन में बसा रह जाता है। कभी रूडयार्ड किपलिंग ने सुख महल में दो दिन बिताए थे। अजय ने भी यही किया। जैतसागर झील और सुख महल पर प्रकृति की पड़ती रोषनी के निहित में गए और ठौड़-ठौड़ अपने कैमरे से उसे अंवेरा। ऐसा ही उनका लिया केषवराय पाटन मंदिर का वह विरल छायाचित्र भी है जिसमें मंदिर, उसका षिल्प सौन्दर्य पानी में रखी किसी चट्टान में मढ़ा हुआ जैसे हमसे बतियाता है। बाड़ौली के मंदिर समूहों के उनके छायाचित्रों में पत्थर पर उत्कीर्ण कला का सांगोपांग चितराम है। चंबल नदी किनारे स्थित भैसंरोडगढ़ के एक छायाचित्र में झरोखे से झांकते दृष्य में दूर बनी दीवार और बुर्ज के साथ पसरी हरियाली का सांगोपांग दृष्य आंखों में जैसे सदा के लिए बस जाता है।

जैसे किसी खोई हुई सभ्यता को हमने फिर से पा लिया है

बूंदी का किला यूं हम सभी ने देखा है पर राह से किले के दृष्य का अद्भुत छायाचित्र अजय ने छायांकन की अपनी कला से साकार किया है। यह ऐसा है जिसमें गढ़ में निहित दृष्य कोलाज प्राचीन किसी सभ्यता से जैसे हमारा साक्षात् कराता है। बारादरियां, छोटे-छोटे दरवाजे, सीढि़यां, रास्ते और चट्टानों में बिखरी पुरातनता को छायाचित्रों में एक साथ निहारते लगता है, जैसे किसी खोई हुई सभ्यता को हमने फिर से पा लिया है। आभानेरी की बावड़ी हो या फिर परवन नदी के किनारे स्थित शेरगढ़ के इतिहास को संजोती उनकी छायांकन दीठ-सभी को देखते लगता है अजय धीरे-धीरे गुम हो रही हमारी षिल्प संस्कृति और दृष्य में निहित मौन की सौन्दर्य संवेदना को अपने तई छायाचित्रों में व्याख्यायित ही तो करते हैं!


Sunday, November 9, 2014

काश! सीख पाता उनसे वह जीवन कला


बहुतेरी बार कुहासे बाहर ही नहीं होते, मन के भीतर भी गहरे से छाए होते हैं। न छंटने की जिद लिए। पूर्वाग्रह, अपने को स्थापित करने से जुड़े छल, प्रपंच, बनावटीपन के आवरण में यह मानव मन भीतर के कुहासों से ही तो लिपटा होता है। जो इन कुहासों की गर्द में नहीं जकड़ा, समझें वही जीवन जीने की असल कला जानता है। पिता श्री प्रेमस्वरूप व्यास ऐसे ही थे। अंदर-बाहर से खुली किताब। कहीं कोई छुपाव नहीं,  कहीं कोई बनावटीपन या छल-कपट नहीं। जो पसंद आया, खुलकर उसे सराहा, जो नहीं जंचा वहीं उसके खिलाफ मोर्चा खोल जमकर बोल दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि परिणाम क्या होगा!
मित्र लोग मुझे कलाओं से सरोकार रखने वाला लेखक कहते हैं पर पापा को याद करता हूं तो लगता है, कलाओं में रमते, उन्हें अनुभूत करते कागज-कलम से कुछ लिखना ही कला नहीं है। हां, यह प्रक्रिया कलात्मक जरूर हो सकती है पर कला नहीं हो सकती। सच्ची और अर्थपूर्ण कला संगीत नहीं, नृत्य नहीं, चित्र नहीं मनुष्य होने का बोध  है। इसीलिए उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना ही कला है। मुझे लगता है, जीवन इसलिए भी कला है कि इससे ही मनुष्य सौन्दर्य को रच सकता है। बाहरी ही नहीं आंतरिक सौन्दर्य भी। अंतर के सौन्दर्य की रचना दुरूह है, बाहर के सौन्दर्य की रचना आसान। 
देना-पावना चुकाकार  आज ही के दिन एक बरस पहले पिताजी लोकातंरित हो गए। वह सब काम बहुत तेजी से किया करते थे। फूर्ती से। यही फूर्ती उन्होंने जाने में भी दिखाई। जीवन जीने की सच्ची कला उनके पास थी। हम उनके लिए कभी बड़े हुए ही नहीं। घर में वह रहते तो सभी को उनके होने का अहसास बना रहता। सीधे तौर पर वह हमसे बातचीत नहीं करते थे। एक डर सा उनका रहता था पर वह बेवजह कभी डांटते भी नहीं थे। न जाने क्या उनके व्यक्तित्व में था कि उनके सामने कुछ भी कहने की हिम्मत कभी होती ही नहीं थी। हम लोग अपनी बात मां के जरिए उन तक पहुंचाते। तब भी जब स्कूल में पढ़ते थे और तब भी जब स्वयं के बच्चे हो गए। यह उनके व्यक्तित्व का जादू था कि उनके सामने सदा ही बच्चे ही बने रहने का मन करता। काल कवलित वह जब हुए तो इसका अहसास किसे था! याद है, दीपावली उनके साथ ही मनाई थी। और उसके चन्द दिनों बाद ही वह बगैर कोई आहट, हम सब से सदा के लिए दूर चले गए। याद है, वह जयपुर से हमारे आने की बाट जोहते। कहते कुछ नहीं पर पूरी तैयारी करके रखते। मम्मी से पूछते, ‘कब आ रहा है तुम्हारा बेटा? फोन कर दो, बच्चों के साथ अब आ जाए।’ खुद जयपुर कभी कभार ही आते। मम्मी जयपुर होती तो कहते, अपनी मां को वहीं रख लो पर हम जानते थे, मम्मी के बगैर उनका भी मन नहीं लगता था। मम्मी को भी उनकी चिंता लगी रहती सो वह भी कुछ दिन रूककर ही उनके कारण वापस लौट जाती। कहते, ‘घूर सूनो कोनी छोड़ सकूं।’ हम जानते हैं, घर में क्या था पर शायद उनका मन जयपुर में लगता नही ंथा। अपने घर में ही वह रहना चाहते थे। अपने भाईयों से उनका गहरा लगाव था। बड़े भईया मनोज को साथ रखते। रोज सुबह भतीजी मुक्ता को बस छोड़ने की जिम्मेदारी भी उन्होंने औचक अपने आप ही ओढ़ ली और चिरनिद्रा में जाने वाले दिन तक उसे निभाया। वह काम ऐसे ही ओढ़ लेते थे। ठाले बैठे उन्हें कभी नहीं देखा। हरदम कुछ न कुछ करते रहना। गुनगुनाते रहना। कुछ बरसो से वह धार्मिक गं्रथो के प्रति गहरे से आसक्त हो गए थे। बल्कि वेद-पुराणों के नोट्स बनाने लगे थे। 
हम उनसे सहमते पर नीहार, यशस्वी (पुत्र-पुत्री) से उनकी खूब घूटती थी। जयपुर से बीकानेर आने का कार्यक्रम के बारे में पता चलते ही स्कूटर को साफ-सुथरा कराने के साथ मिस्त्री से उसे चैक करवाकर रखते, पैट्रोल की टंकी फूल। खुद भले साईकिल का इस्तेमाल करते पर चाहते मैं उनके स्कूटर का ही उपयोग करूं। कभी हमसे कुछ लिया नहीं, बल्कि कभी उपहार स्वरूप ही कुछ लेकर आए तो सख्ती से उसे लेने से इन्कार कर दिया। अपनी तरफ से बस सबका करना, चाहत कुछ भी नहीं। अपेक्षा रहित था उनका जीवन।
बहरहाल, इस लोक में मनुष्य जीवन यात्रा के जो तीन अंष कहे जाते हैं, उनमें से एक अंष कला का है। हर व्यक्ति कलाकार है। बषर्ते वह जीवन जीने की कला में रमे। उसमें बसे। पिताजी इस मायने में निष्छल जीवन से जुड़ी इस समय की दुर्लभप्रायः कला से ही तो जुड़े थे। सोचता हूं, उन्होंने ही तो बहुत से अर्थों में जीवन में पसरे कुहासे को हटाने की कला से साक्षात् कराया। उपदेष देकर नहीं-अपने जिए से। अपेक्षा के अंधकार से वह सदा दूर रहे। उनकी सीख स्वाभिमान से जीने की थी। उसूलों पर कायम रहने की है। पेड़ की जड़ पेड़ का जीवन है। फूल-फल के लिए जड़ को मजबूत करना होता है। वह सदा हरी रखनी होती है। जड़ को खोदकर उपर ले आए तो उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। जीवन भी सूख जाता है। मुझे लगता है, जीवन जड़ को बचाते, उसके सौन्दर्य को अंवेरते वह जूझते रहे। संघर्ष करते रहे, कभी उसे बाहर नहीं आने दिया। याद है, उनका नश्वर शरीर पंचभूत में विलीन हो रहा था,  मन में उनके खरेपन, सच्चाई के जीवन और किसी के प्रति दुराग्रह नहीं रखने के उनके सैकड़ों किस्से ही तैर रहे थे। बहुधा वह लोगों को डांट देते पर क्षण बीतता और वह खुद ही भुल जाते कि उन्होंने कुछ कहा है क्या! 
अब जब वह नहीं है, सौन्दर्य की उनकी जीवन दीठ गहरे से समझ आ रही है। मनोभाव छुपाना आसान है, व्यक्त करना कष्टप्रद। कष्ट उठाना हर किसी के बस का कहां! पिताजी ने ताउम्र यह कष्ट उठाए। इसलिए कि उन्हें अपने को छुपाना नहीं आता था। अंदर से किसी का बुरा न चाहने वाले, सबके लिए कुछ न कुछ अच्छा करने की चाह के बावजूद कटुक्ति के वाक्यबाणों से वह सदा दूसरों को अपना दुष्मन बनाते रहे। शायद इसलिए भी कि भाषा का कारू कार्य उनके पास नहीं था। मन के अच्छे भावों को प्रचलित मीठे शब्दों में व्यक्त करना उन्हें नहीं आता था। वाक्यबाणों से अपने अच्छेपन को सदा वह खुद ही धोते रहे। अच्छेपन को कभी साबित नहीं होने दिया। दावपेच, छलकपट से वह कोसों दूर जो थे! कथित बुद्धि के चातुर्य का सौन्दर्य नहीं। चमक दमक की व्यावहारिकता को परे धकेलते वह जिए।  जिसे जब चाहे कुछ भी सुना दिया। जब चाहे डांट दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि इसका परिणाम क्या होगा। मन में किसी के प्रति कोई बैर-भाव नहीं पर सीधे सट सुना देने से उपजी गांठों को सहते विरोध उत्पन्न करते रहे। भले को भला, बुरे को बुरा कहने में कभी कोई हिचक नहीं की।
सोचता हूं, दान हाथ फैलाकर लिया जाता है। त्याग आंखो से दिखाई पड़ता है लेकिन आडम्बरहीन निष्छलता, भीतर की उदात्तता का वैराग्य किसे कहां दिखता है! पिताजी प्रेमस्वरूपजी ‘भूरजी’ इस मायने में वैरागी थे। छल वह जानते नहीं थे। झूठ चाहकर भी बोल नहीं सकते थे। अपने लिए कभी कोई चाह नहीं थी। दाव-पेच वह जानते नहीं थे।निर्भर वह किसी के रहना नहीं चाहते थे। नपा-तुला सुचिन्तित रहन-सहन। कहीं किसी से कोई अपेक्षा नहीं। दीनता कभी दिखाई नहीं। बल्कि सहानुभूति कोई जताए, यह भी उन्हें सहन नहीं था। पराभव कभी स्वीकार नहीं किया। 
किसी का दिल दुखाने की इच्छा कभी रही नहीं पर खारे बोल रोक पाना भी तो उकने बस में कहां था! अंदर से कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हुए भी बहुतेरी बार बल्कि प्रायः ही बुरे व्यक्ति होने की छवि को वह भोगते रहे। सोचता हूं, खारे बोल अच्छी बात नहीं है पर उसके लिए अंदर के अच्छेपन के द्वार बंद कर देना भी तो कल्याणकारी नहीं है। पिताजी अंदर के अच्छेपन का द्वार खोले खारेपन की छवि से सदा ही बेपरवाह ही रहे। शायद इसलिए कि क्रोध से उनका गहरा नाता था। कोई बात मन माफिक नहीं हुई। कहीं कुछ अनैतिक दिखा, त्वरित क्रोध। दुर्वासा सा। 
यह उनके संस्कार थे। और संस्कारों के विरूद्ध बनावटीपन के सौन्दर्य को वह रच नहीं सकते थे। अब जबकि वह नहंी है, लगता है बहुतेरे उन्हें समझ ही नहीं पाए। पर वह जब नहीं रहे, तब यह भी देखा है कि जो उन्हें समझ गए थे, उनकी स्मृतियों को सहेजे उन्हें भूलना ही नहीं चाहते। जो व्यक्त नहीं कर पाए, वह अब व्यक्त कर रहे हैं। मुझे गर्व है कि मैं उनका पुत्र हूं। वह चले गए। सुख-दुख से परे। देना-पावना चुकाकर लोकातंरित हो गए हैं। अफसोस उनकी मृत्यु का नहीं है। यह तो स्वयं उनका वरण थी। आखिर वह यह कैसे सहन करते कि कोई उनकी तिमारदारी करे। कैसे वह यह सहन करते कि कोई उनसे सहानुभूति जताए। इसीलिए कुछ क्षण पहले जिन्होंने उनसे संवाद किया, उन्होंने उन्हें उनके फक्कड़पन के अलमस्त अंदाज में ही देखा। अफसोस इस बात का है कि जीते जी उनके जीवन जीने की उस कला को नहीं सीख पाया जो पास रहकर भरपूर सीख सकता था। पर इसके लिए उनके जैसा बनना पडता। भला यह बनावटीपन से भरे इस जीवन में क्या संभव था!

पिता की याद में पांच कविताएं 
मोक्ष पर्व
पहाड से बिछुड़
रो रहा जल,
अजस्त्र स्त्रोतों से
बहाती नीर
नदी मिल रही
सागर में।
समुद्र ही तो है
बहते पानी के
बंधन का-
मोक्ष पर्व!

ममेतर
तुम थे,
तो था
मैं,
और-
मेरा यह ममेतर!


साथ कब चली काया!
छत है-
तो छाया ;
पर-
साथ कब चली
काया!
लिखता हूं शब्द

शब्द
लिखता हूं शब्द
‘भोर’
घिर जाता है प्रकाश
जीवन सा लगता
मैं करता हूं जतन
बटोर लूं
सारा का सारा।
समा लूं शब्दों में
सदा के लिए।
कि-
क्षितिज से विदा लेता है सूर्य
काल गति गढ़ जाती है शब्द-
‘सांझ।’

भोर की नींद
उंघता सन्नाटा
बुन रहा-
उनके होने की ठौड़।
चुपचाप
बर्तन में उड़ेलकर दूध
चला गया दूधिया
कराते हुए
उनके न होने का अहसास।
पिता होते तो
रोबदार आवाज
करती नींद में खलल।
भले सामने कुछ नहीं कह पाते
पर
मन में पलता जल्दी उठा देने का रोश।
अब जबकि-
नहीं है पिता
लापता है,
भोर की वह नींद।




Friday, November 7, 2014

अनंत व्योम से जुड़ा शाश्वत नृत्य


प्रख्यात कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी (छाया सौजन्य : वेब)
 नृत्य जीवन है। उमंग, उल्लास के साथ भावों का प्रगटन! नृत्य में यही तो होता है। कथक को ही लें। कलाकार नृत्य करता है पर अनंत व्योम से भी अनायास ही साक्षात् होता है। रायगढ़ घराने की कथक नृत्यांगना और लेखिका डाॅ. चित्रा शर्मा ने इधर आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण के लिए कथक पर बेहतरीन रेडियो रूपक तैयार किया है। रेडियो रूपक के अंतर्गत उन्होंने बिरजू महाराज से लेकर कथक के तमाम आधुनिक कलाकारों हुए संवाद और कथक की कथा को गहरे से संजोया है। इन पंक्तियों के लेखक से भी चित्रा ने रेडियो संवाद किया। तभी कथक की नृत्य प्रस्तुतियों के आस्वाद को याद करते बहुत कुछ औचक ही जैसे फिर से जिया। 
बहरहाल, मुझे लगता है, कलाओं में फ्यूजन की बहुत सी रूढि़यांे ने नृत्य की हमारी शास्त्रीयता को नुकसान पहुंचाते संवेदना को निरंतर लीर लीर भी किया है। लोक गायन भी इससे कहां अछूता रहा है! लंगाओं को जब राजस्थानी लोकगीत गाते सुनता हूं तो लगता है, वह उसका सूफीकरण कर लोक संवेदनाओं की हत्या कर रहे हैं। लोक नृत्यों और शास्त्रीय नृत्यों के साथ भी यही हो रहा है पर कथक आज भी शास्त्रीय, शास्वत है। इसलिए कि उसमें जीवन से जुड़ी संवेदनाओं के मूल को नहीं बिसराया। शायद इसलिए भी कि घरानों में आबद्ध होते हुए भी उसमें स्वतंत्रता की गुंजाईश है। मंदिरों से यह निकल राज  दरबारों में पहुंचा। वहीं से इसके घराने निकले और पहचान भी बनी। बहुतों को हैरत हो सकती है, कथक घरानों के इतिहास के जिन प्रथम पुरूष सांवलदास का नाम लिया जाता है, वह राजस्थान के बीकानेर महाराजा अनूपसिंह के शासनकाल में हुए। बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज (पीथल) कभी अकबर के नौ रत्नों में से एक गिने जाते थे। कथक नृत्य की प्राप्त रचनाओं में इनकी रचित ‘योगमाया’ और ‘कन्हैयाष्टक’ (अमृत ध्वनि) का विशेष महत्व है। स्वतंत्रतापूर्व के राजस्थान के चूरू के 199 गांव कथकों के केन्द्र रहे। बाद में वहां के ठिकानेदारों ने इन्हें आश्रय दिया। है ना यह सब रोचक!
कथक की परिवर्तन कथाओं पर आएं। जब तक यह मंदिरों में होता था, भगवान के चरणों में वंदन, नमस्कार होता था। दरबारों में  आया तो नृत्य की लय ठाह, दुगुन, तिगुन, चैगुन को एक ही टूकड़े में नाच कर सम पर आने को सलामी कहा जाने लगा। रंगमंच का तोड़ा सलामी हो गई। मंदिरों से कथक के दरबारों में प्रवेष के बाद ‘प्रवेष का तोड़ा’ आमद हो गया। कहते हैं, नवाब वाजिद अली शाह ने कथक में ‘नाज’ नाम से पृथक से एक गत का ही चलन कर दिया। धु्रवपद से तराना, ठुमरी और गजल और अब तो सम-सामयिक विषयों को भी इसमें गुना और बुना जाने लगा है। पर इस समय यह जब लिख रहा हूं, एक बुरी खबर सुनने को और मिली है कि कथक की प्रख्यात नृत्यांगना सितारा देवी आईसीयू में है। आईए, मेरे साथ आप भी दुआ करें उनकी सलामती की। 

Saturday, November 1, 2014

छायांकन की सौन्दर्य संवेदना


छायांकन दृश्य  संवेदना की अनुभूतिपूरक व्यंजना है। क्षण जो घट रहा है, उसे कालातीत करने की कला। एक समय था जब गति, एंगल, कंपोजिशन के जरिए ही इस कला को पहचाना जाता था पर डिजिटल कैमरे आने के बाद स्थितियां बदल गई है।  आप किसी विषय, समय, कार्यक्रम को हजार तरह से क्लिक करें, एकाध तो कला की दीठ से बेहतरी लिए आएगा ही।
बहरहाल, छायांकन आंख की संवेदना से जुड़ी विरल कला है। छायाकार केे सौंदर्यबोध, दृश्य को अपने तई कैमरे से जीने, विषय में रमने और जो कुछ दिख रहा है-उससे अनुभूति में क्या कुछ हासिल हुआ है-यही सब तो है, जो छायांकन को तकनीक से कला में रूपान्तरित करता है। डिजिटल कैमरे आने के बाद छायांकन कला की कूंत क्या इसी सबसे नहीं होनी चाहिए!  इसलिए कि अब हर किसी के पास उच्च तकनीक के कैमरे हैं-मोबाई, आईपैड के जरिए। स्वाभाविक ही है, हर कोई छायाकार है। पर हजारों-लाखों के बीच अब  इस कला में बेहतरी की चुनौतियां भी कम कहां है!
कुछ दिन पहले अपने बेटे नीहार के साथ उसकी स्कूल सेंट जेवियर जाना हुआ। वहीं कक्षा 9 से 12 वीं तक के विद्यार्थियों की वार्षिक छायाचित्र प्रदर्शनी का आस्वाद भी किया। कला की दीठ से एक से बढकर एक छायाचित्र! लगा, नई पीढ़ी के पास छायांकन की संवेदना में जीवन का राग भी है, अनुराग भी। छायाचित्रों में तकनीक का जलवा ही नहीं था। स्थिर और चलायमान दृष्यों में भी कला की भावाभिव्यंजना गहरे से दिख रही थी। एक छायाचित्र था, छात्र राहुल शारदा का। हरियाली में उभरते इंद्रधनुष का सुनहरा दृष्य। एक और छायाचित्र। दोनों और पेड़ और घास। बीच से निकलती छोटी सी पगडंडी-टेढी मेढ़ी। ऐसे रास्तों से गुजरते हम भी है पर ठहरकर कभी देखें-कोई अद्भुत दृष्य कैमरा रच ही देगा! सिद्धार्थ सहाय के इस छायाचित्र में कुछ ऐसा ही था। इसीता गोधा ने आमेर किले पर पड़ती धूप की सुनहरी आभा को सदा के लिए जीवंत किया। मानसी पारीक ने परकोटा देखा और उससे उपजी संकरी पगडंडी सरीखी को दृष्य में अंवेर दिया। अर्णव गोदारा ने बंदर की उछाल के दृष्य को पकड़ा तो खुषी ने पेड़ों के झुरमुट मंे उगती धूप को कालजयी किया। अंष बिरमानी, शुभम जैन, आषीष फोफलिया ने भी छायांकन में निहित कला को गहरे से अपने चित्रों में जिया। यही तो है सौंदर्यबोध। तकनीक से अद्भुत, तो किया जा सकता है पर सौन्दर्य की संवेदना को तो वह आंख ही पकड़ती है जिसमें दृष्य से उपजे भाव कुछ रचने के लिए प्रेरित करते हैं। क्या ही अच्छा हो, षिक्षण संस्थाओं में छायांकन कला प्रदर्षनी के साथ ही इस कला पर विमर्ष से जुड़े संवाद की राह भी खुले।

Friday, October 17, 2014

राग का कला अनुराग

कलाकार खेतांची की बारहमासा श्रृखंला की कलाकृति 
हमारे यहां काल के गाल पर लिखे गए हैं, ऋतुओं के गीत। खंड-खंड अखंड! हिन्दू महिनों पर जाएंगे तो पाएंगे उदय और उत्कर्ष की गहरी सोच वहां है। वहां है, जीवन की लय, अंवेरती दीठ! तमाम हमारे संगीत, नृत्य और चित्रकला में यही तो व्यंजित है। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में कुछ दिन पहले कलाकार खेताणची की ‘बारहमासा’ चित्र प्रदर्शनी का आस्वाद करते यही सब सोच रहा था। लगा, चित्र नहीं, राग-रागिनी में झंकृत काल के प्रवाह को अनुभूत कर रहा हूं। सादृश्य में महिनों की रंगत! रंग और रेखाओं में मन में घट रहे भावों की व्यंजना। हमारे यहां राग उद्धत भाव माना गया है माने पुरूष, रागिनी सुकुमार भाव लिए है, यानी स्त्री। इस दीठ से खेताणची के चित्र राग-रागिनी में व्यंजित हिन्दू महिनों के वर्ष चक्र में गूंथा संगीत सरीखा है। रंग-रेखाओं की सांगीतिक तान में भाव-भंगिमाओं से जुड़ा परिवेश वहां है। ऋतुओं के असर से जुड़ी संवेदना भी वहां हैं। भले वह सीधी-सपाट आकृतियां ही रचते हैं परन्तु उनमें सांगीतिक लय है। इसीलिए भी कि प्रकृति को वहां मन से जोड़ा गया है। इसीलिए भी कि राग-रागिनी के साथ वहां धरित्रि का गान है। संस्कृति की हमारी सोच है। कला का हेतु यही तो है। रचें तो उसमें बसें भी। कला कहां मूर्त या अमूर्त होती है, वह तो बस कला ही होती है। 
बहरहाल, चित्रों का जब आस्वाद कर रहा था तो मन में जैसे कौंधा, हममें से बहुतों को हिन्दू महिनों के नाम शायद ही ठीक से पता हों। हां, अंग्रेजी महिनों के नाम छोटे बच्चे को भी कहेंगे तो त्वरित सुना देगा। यही इस समय की विडम्बना है। विश्वभर में बारह मास का एक वर्ष और सात दिवस का सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। पूरा वर्ष चक्र हमारे यहां जीवन चक्र से अभिहित है। महिनों का हिसाब हमारे यहां सूर्य व चंद्र की गति से है। हर माह में चन्द्रमा की कला घटती और बढ़ती है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है, कृष्ण पक्ष में घटती है। संस्कृति का हमारा इतिहास इसी में गूंथा है। प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष। विचार के जरिए ही उसे जाना जो जा सकता है! इस दीठ से पाता हूं, खेताणची के चित्रों मे महिनों का वैज्ञानिक कला आधार है। मसलन कार्तिक माह के चित्र को ही लें। अमृत बरसाती चन्द्र किरणें और पूर्णिमा के चांद को निहारते नायक-नायिका की विरल व्यंजना वहां है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विनी, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन माह के चित्रों में भी ऋतुओं का धरित्रि क्रोड है।...और है मन में उमड़ने वाले भावों का संचार। सच! यह हिन्दू संस्कृति के महिने ही तो हैं जिनमें राग का इस तरह से अनुराग भाव हैं। कला की दीठ से है कहीं और ऐसा आकाश!


Friday, October 10, 2014

स्वरों का सौन्दर्य प्रवाह


संगीत माने स्वर-पद और ताल का समवाय। स्वरों का सौन्दर्य प्रवाह। ध्रुवपद  तो नाद ब्रह्म है। भारतीय संगीत का मूलाधार। संगीत की तमाम शैलियां इसी से तो उपजी है। 

रवीन्द्र मंच पर पिछले दिनों एक सांझ डागर घराने के उस्ताद वसिफुद्दीन डागर को सुनते लगा वह इस समय के बिरले  ध्रुवपदीये  हैं। मुझे लगा, रागों को वह कंठ से गाते नहीं बजाते हैं। शब्द की अर्थव्याप्ति में वह संगीत का अद्भुत, अपूर्व महल ही जैसे खड़ा करते हैं। आलाप, स्थायी और अंतरा में उनका गान सुरों की नहीं स्वरों की यात्रा कराता है। सुर और स्वर का भेद या कहें मर्म कहीं है तो वह उनके गान में है। ...और गमक के तो कहने ही क्या! एक स्वर पर ठीक उसके बाद दूसरा, तीसरा और चैथा।...स्वर दर स्वर। नाद ब्रह्म से साक्षात्। नाभी से उठता नाद! अंतरालों का भावपूर्ण विन्यास और होले-होले आलाप की उनकी साधना मन को गहरे से मथती है। पूरिया राग औरशिव-पार्वती के बोलों का उनका निभाव मन में अभी भी गहरे से बसा है। और हां, स्वरों की जादूगरी में दुर्गा की उनकी रचना भी तो कहां कोई भूला सकता है! मां भवानी, दुर्गा को वह जब गा रहे थे तो महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की कथा आंखो के समक्ष जैसे जीवंत हो रही थी। बाद में ‘निजामुद्दीन औलिया, मदीने बलिहारी...’ के गान का उनका निभाव भी निराला था। वह शायद राग सोनी था। स्वरों की निरंतरता, उतार-चढाव की उनकी यात्रा में ही तो बसा है अभी भी यह मन।

बहरहाल, संगीत की उस  ध्रुवपद  सांझ का दूसरा पड़ाव फतेह अली खां का शहनाई वादन था। शहनाई के लगाए उनके सुरों से औचक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की याद ताजा हो उठी। फतेह अली खां उनके पोते हैं। मींड, गमक, लयकारी, तान, पलटा और मूर्की में शहनाई की उनकी फूंक माषाअल्लाह! किसी एक राग के बाद दूसरी का उसमें घोल मिलाते सुरों पर उनका नियंत्रण भी गजब का है। पक्के सुर! राग का सुनहरा घेरा। लंबी तान और फिर सुरों की छोटी-छोटी फूंक! मींड लेते वह सुरों का मोड़ और घुमाव करते अपूर्व की अनुभूति कराते हैं। 

कजरी, ठुमरी, चैती के शहनाई बोलों में रागों में वह बसते हैं और फिर जब सुर चरम पर पहुंचता तो फिर से उसे सम पर ले आते। शहनाई का यही तो है मंगल गान! जीवन की धूप-छांव के साथ उसके उजास की लौकिकता जो वहां है।

बहरहाल, मन आर्ट कंजर्वेशन  एंड रीस्टोरेस्टेशन  संस्थान की मईमुना नर्गीस की दाद दे रहा है। संगीत की दूर होती जा रही हमारी परम्पराओं के यूं वह पास जो ले जा रही है! उस अपूर्व संगीत सांझ से पहले उस्ताद वसिफुद्दीन डागर और फतेहअली खां से  ध्रुवपद की परम्परा और समकालीनता के साथ शहनाई के सौन्दर्य पर संवाद में भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण मिला था। सच! यह संगीत ही तो है जिसमें आनन्दानुभूति की सौन्दर्य चेतना को यूं अनूभूत किया जा सकता है।


Friday, October 3, 2014

रंग और रेखाओं की लयकारी

अवधेश मिश्र की कलाकृति 
शुद्ध रूप से कला जीवन है।  एक तरह से अलंकार का दर्शन। वहां जो कुछ प्रत्यक्ष दीखता है, वही पूर्ण नहीं है, उससे परे भी बहुत कुछ है-चिंतन से जुड़ा । लय अंवेरता!  प्रकृति को ही लें। ध्वनियां वहां कम थोड़े ना है, पर उनमें यदि कोई संगत नहीं है, लय नहीं है तो फिर वह संगीत नहीं होगा। चित्रकला में भी यही है। रेखाएं तभी सधेगी जब उनमें लय होगी। 
अभी बहुत दिन नहीं हुए, अवधेश मिश्र के कैनवस पर उकेरे चित्रों का आस्वाद किया था। अपनी नई चित्र श्रृंखला को उन्होंने नाम दिया है ‘रिद्म’। रंग और रेखाओं की लय में जीवन के बिम्ब। खंड-खंड, अखंड। टूटे हुए, अधुरेपन और दरारों को जोड़ते, एकाकार करने की रेखाओं की संगत ही दरअसल उनके इन चित्रों का आधार है। चित्र है, भांत-भांत के दृश्य है पर रेखाओं की गांठ से जैसे उन्हें जोड़ा गया है। ध्वनित रंगों की लय में व्यक्ति है, उसका परिवेश है, बंधनों की जकड़न है, मुक्ति की छटपटाहट भी पर सबके सब लय के जैसे अधीन हैं। एक चित्र तो अद्भुत है। दृश्य कोलाज पर कोने से लहराती धवल चुनर। लय का निखार! 

डॉ अवधेश मिश्र 
बहरहाल, ‘रिद्म’ में चित्रों की विविधता है। मसलन एक में चांद है, धरती है और सीढि़यों के साथ तमाम विषय-वस्तु का रेखाओं से जैसे गठजोड़ किया गया है। उनके इस चित्र को देख औचक सुप्रसिद्ध कवि नंदकिशोर आचार्य का कविता संग्रह ‘चांद आकाश गाता है’ भी कौंधा। ‘रिद्म’ श्रृंखला के चित्रों में चट्टानें, दरारें, गांठे, वृक्ष की टहनियां, कोटरी, सीढि़यां, हरितिमा से आच्छादित धरा है तो अनंत का द्योतक आसमान भी है। पर यहां सब कुछ अपने आप में पूर्ण नहीं है। कोई एक है तो दूसरा उसमें जैसे समाया हुआ है।घुला-मिला। माने एक-दूसरे से बंधी हुई पूर्णता वहां है। ऐसे लगेगा जैसे जुड़ाव के लिए वस्त्र की गांठे लगाई गई है-कभी न खुलने वाली। पर जो कुछ भी गांठो से जुड़ा है, उसमें अद्भुत लय है। शहद घुली मिठास सरीखी। पीले, हरे, नीले, गहरे लाल और तमाम दूसरे रंगों का अद्भुत मिश्रण अवधेश ने अपनी इस श्रृंखला में कैनवस पर किया है। रंग और रेखाओं के साथ संवेदनाओं का घोल ‘रिद्म’ श्रृंखला के चित्रों में है। लय का अर्थ ही है लीन होना। रम जाना। 

कलाकृति : अवधेश मिश्र 
संगीत का मूल इसीलिए तो लयकारी है। प्रकृति में घुली ध्वनियां मिलकर ही करती है, लय का अनुसरण। इस दीठ से अवधेश मिश्र के रंग और रेखाएं अद्भुत लय अवंेरती है। चिंतन-मनन और ध्यान का आह्वान करती। रूप विन्यास और कथ्य में संगीत की अनुभूति कराती। संगीत अदृश्य होता है पर सुनने की अनुभूति जीवंत! ऐसे ही उनके इन एब्सट्रेक्ट चित्रों के साथ हैं। भले वहां सब कुछ स्पष्ट नहीं है पर व्यक्त की लय है। कहूं, ‘रिद्म’ श्रृंखला सांगीतिक आस्वाद में इसीलिए न भुलाने वाला है।  

Saturday, September 27, 2014

घुम्मकड़ी है जीवन कला

संस्कृति माने संस्कार। ऐसे जिनसे जीवन जीने की कला सीखी जाती है। तमाम हमारी कलाएं साहित्य, धर्म, दर्शन, शिल्प की व्यंजना ही तो है। इसीलिए जितना हम अपने आप से बाहर निकलेंगे, घुमेंगे-उतना ही जीवन निखरेगा। जीवन का अर्थ ही है, गति। ऐतरेय ब्राह्मण का मंत्र है, ‘चरैवेति...चरैवेति।’ मंत्र कहता है, पथ पर जो निरंतर चलता रहता है, ईश्वर उसीका सखा और सहयात्री होता है। इसीलिए हे यात्री! चलता चल! चलता चल! जल कहीं ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है। बहना ही उसका जीवन है। इसीलिए तो कहा है, जो सभ्यताएं चलती रहीं, फली-फूली। जो ठहर गई, बस सदा के ठहर ही गई। बुद्ध ने भी कहा, ‘चरत भिक्खवै चरत।’ भिक्षुओं चलते रहो। राजस्थानी की तो कहावत ही है, ‘फिरै जका चरै।’ माने जो चलता है, उसे ही कुछ प्राप्त होता है। गति मति है।
राहुल सांकृत्यायन 
बहरहाल, भारतीय संस्कृति में चार पुरूषार्थ बताए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कहते हैं, इनमें संतुलन स्थापित कर जीवन जीने की कला कहीं है तो वह भी चलने में ही है। किसी एक पुरूषार्थ में ही ठहर गए तो फिर जीवन व्यर्थ है। अथर्ववेद का ऋषि इसीलिए तो पूछता है, ‘कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः। किमापः सत्यं प्रेप्सन्तीर्नेलयन्ति कदाचन।।’ माने वायु क्यों स्थिर नहीं रहती? मानव-मस्तिष्क विश्राम क्यों नहीं करता? क्यों और किसी की तलाश में सरिता दौड़ती रहती है और अपनी धारा को एक क्षण के लिए भी नहीं रोकती? सृष्टि के हृदय में अनंत की सर्वव्यापी पुकार है। जो एक बार भी इस महान पुकार को सुनता है, वह सुगमता से समाज के आचार-विचार और बंधनों की जंजीरे तोड़ देता है। 
इसीलिए कहें, घुम्मकड़ी कला है। अपने आप को जानने की। सभी हमारे तीर्थ यही कराते है। व्यक्ति को मथते हैं। इसीलिए तीर्थ धर्म के मर्म माने गए हैं। आदि शंकराचार्य ने क्या किया? व्यक्ति को स्वयं को पहचानने की कला से साक्षात् कराया। चहुंदिशा भ्रमण की उनकी सोच की ही तो परिणति है, चार धाम स्थापना। दक्षिण में रामेश्वर, पूर्व में जगन्नाथ पूरी, पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ मठ के जरिए उन्होंने सनातन की स्थापना की। मूल उद्देश्य था लोग घर से बाहर निकलें। अपने आपको पहचानें। उस दुनिया को जानें जिसमें भरा पड़ा है, अथाह ज्ञान। यह तीर्थाटन ही तो है, आज का पर्यटन। अमृतलाल वेगड़ की नर्मदा पद परिकमा को ही लें। तीरे-तीरे नर्मदा! हजारों-हजार किलोमीटर की पदयात्रा। उनकी इस यात्रा को पढेंगे तो मन में आएगा, काश! हम भी उनके साथ होते। पर साथ की जरूरत भी क्यों? कोई साथ नहीं हो तो, अकेले ही चलें। कविन्द्र रवीन्द्र ने कहा है, ‘यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे, तबे एकला चलो रे।’ अनथक यायावर राहुल सांकृत्यायन ने आखिर ऐसे ही तो नहीं न रचा होगा, घुम्मकड़ शास्त्र! ...तो जीवन जीने की कला सीखनी है तो घुम्मकड़ी करें। पर्यटक बनें। कल नहीं आज! आज नही ंअभी। चरैवेति...चरैवेति।


Friday, September 19, 2014

कलाओं की सिनेमाई व्याख्या

गौतम घोष सिनेमा में कला की सूझ रखने वाले कैमरामैन-निर्देशक हैं। उनकी फिल्में और खासकर बनाए गए वृत्तचित्रों का आस्वाद करते लगता है, कला की विविधता में अनुभवों की आंख से वह संवेदना के दृश्य लिखते हैं। कभी सत्यजीत राय पर बनाया 100 मिनट का वृत्तचित्र ‘रे’ देखा था। छोटी-छोटी घटनाओं से कैसे जीवन का बड़ा वृत्त बनता है, वृत्तचित्र जैसे यह गहरे से देखने वालों को समझाता है। और वही क्यों, उस्ताद बिस्मिलाह खां, दलाईलामा और ऐसे ही घोष के दूसरे वृत्तचित्रों में भी है। उनका सिनेमा दृश्य संवेदना के अनूठे बिम्बों से साक्षात् कराने वाला है। 
बहरहाल, गौतम घोष कुछ दिन पहले जयपुर में थे। मुलाकात हुई तो वृत्तचित्र निर्मिति के उनके सरोकारों पर ही संवाद हुआ। कहने लगे, ‘वृत्तचित्र हमें सहायता करते हैं, भीतर के हमारे ज्ञान को तीक्ष्ण करने के लिए। जिस विषय को आप उनमें उठाते हैं, उसके लिए गहन कठिन शोध से गुजरना पड़ता है।’ वह जब यह कह रहे थे तो ‘स्टूडियो आॅफ डिवोशन’ के जरिए जयपुर की उनकी यात्रा को ही याद कर रहा था जिसमें दिन-रात एक करते उन्होंने अपनी इस फिल्म के लिए दृश्य दर दृश्य शूट किए थे। फिल्म के स्क्रिप्ट लेखक डेसमाॅन्ड लजारो के साथ उन्होंने ठौड़-ठौड़ जयपुर की ऐतिहासिक विरासत को कैमरे से अंवेरा। बातचीत में उन्होंने कहा भी, ‘कलाकार की कला को दिखाना है तो उससे जुड़ी संवेदना, अतीत और विरासत से जुड़े हमारे सराकारों को भी दृश्यमय करना होगा।’  और यह केवल वह कह ही नहीं रहे थे बल्कि कलाकार मित्र विनय शर्मा के स्टूडियों में जब वह दृश्य शूट कर रहे थे तो इसे जैसे अच्छे से समझा भी रहे थे। कोई तीन घंटे से अधिक समय उन्होंने स्टूडियो में विनय की कला के दृश्य शूट करने में लगाए। बेल्जियम में बनने वाले ‘म्यूजियम आॅफ सेक्रिड आर्ट’ के लिए बनाई जा रही ‘आर्ट आॅफ डिवोशन’ रजा, महावीर स्वामी, सतीश गुजराल, सुवा प्रसन्ना, सतीश गुप्ता, रेवा शंकर और विनय शर्मा के कलाकर्म पर आधारित है। पर जिस तरह से गौतम घोष इसे फिल्मा रहे थे, लगा इसमें कला के लिए कलाकार की तैयारी और उसकी उपज से जुड़े दृश्यों की रवानी भी होगी। 
पिछले दिनों जापान के महान फिल्मकार कुरासोवा की आत्मकथा ‘समथिंग लाइक एन आॅटोग्राफी’ पढ़ रहा था। इसमें वह स्थापित करते हैं कि तमाम कलाओ की आवाजाही के बावजूद सिनेमा अद्वितीय विधा है। वह लिखते हैं, ‘वहां नाट्य, दार्शनिकता, चित्रकला, मूर्तिशिल्प और संगीत है पर अंत में, सिनेमा, सिनेमा है।’ सच भी है। घोष जब कैमरा लिए स्थान, वस्तुओं के एंगल, लाइटिंग, कंपोजिशन और मूवमंेट के लिए रमे हुए थे, देर तक एकटक उन्हें ही देख रहा था। लगा, चाक्षुस प्रभाव में वह जैसे अपने तई दृश्य लिखने में लगे हुए थे। यह निरा संयोग तो नहीं ही था कि तभी सिनेमाई भाषा को नई प्रतिष्ठा देने वाले स्वीडन के फिल्मकार बर्गमैन और उनके कैमरामैन स्वेन निकविस्ट की याद भी ज़हन में कौंधी। 


Friday, September 12, 2014

पारम्परिकता का मोहक छंद

 एन. के. मिश्रा की कलाकृति अर्धनारीश्वर 
कला में यह वह दौर है जब कैनवस बहुत से स्तरों पर हासिए पर है। न्यू मीडिया के अंतर्गत श्रव्य-दृश्य कहन के साथ संस्थापन का जोर है। यह सही है, हर दौर में प्रयोग और आधुनिकता का आग्रह कला में जरूरी है परन्तु इतना ही सच क्या यह नहीं है कि हम अपनी जड़ों को बिसराकर जो नई जमीन बनाएंगे उसका कोई आधार नहीं होगा! 
पारम्परिक भारतीय कला और योरोपीय कला में यही तो भेद है। वहां माइकल एन्जेलो है तो उसकी मांशपेशियां पर ही जोर है। यहां कृष्ण है तो उसकी बांसूरी भी है, गाय भी है और तमाम दूसरा परिवेश है। कहें भारतीय कला समग्रता का अनुष्ठान है। हमारे यहां के कैनवस का सच यही है। अभी कुछ दिन पहले ही देश के ख्यात चित्रकार एन.के. मिश्रा के चित्रों का आस्वाद कर रहा था। लगा, चित्र ही नहीं दूसरी कलाएं भी वहां है। कलाओं के अन्र्तसंबंधों को भी वहां अनुभूत किया जा सकता है। चित्र आकारों की व्यंजना भर ही नहीं है, वहां संगीत की स्वर लहरियां हैं, नृत्य के भंगिमाएं हैं और नाट्य से जुड़ा कहन का अदीठा मुहावरा भी। सोचता हूं, पारम्परिक चित्रों की बड़ी विशेषता यह भी है कि वहां रंग और रेखाओं का एक तरह से छंद है।  
राजा रवि वर्मा की कलाकृति शिव परिवार 
राजा रवि वर्मा की कला में पौराणिक आख्यानों का आधिक्य है परन्तु यह भी सच है कि रंग-रेखाओं की लय में वह दृश्य संवेदना के मर्म में ले जाते हैं। चित्र किसी पौराणिक चरित्र का भले है परन्तु उस चरित्र से जुड़ी पूरी की कथा वहां ध्वनित होती हममें जैसे बसती है। 
उनके बरते रंग और रेखाओं में पूर्व शैलियों का मिश्रण तो है पर परम्परा की परिधि से परे बहुत से स्तरों पर नवीनता भी है। चित्रों में परिवेश एक नजर में साधारण दिखाई देता है परन्तु गौर करेंगे तो यह भी पाएंगे कि उन्होंने अपने तई इनमें संवेदना के बिम्ब भी गढ़े हैं। 
राजा रवि वर्मा की कलाकृति आदि शंकराचार्य 
राजा रवि वर्मा की भांत ही लखनऊ वाॅश पेंटिंग के कलाकार एन.के. मिश्रा के अर्द्धनारीश्वर चित्र पर जाता हूं तो पाता हूं, शिव के रूप को उन्होंने परम्परागत स्वरूपों से भिन्न रेखाओं की लय में अंवेरा है। रंग भी उन्होंने सर्वथा भिन्न रूप में बरते हैं। नृत्यरत अर्द्धनारीश्वर! नृत्य के अलंकार को उन्होंने रंगो की ओप से जीवंत करते रेखाओं के लालित्य को ही जैसे इसमें रचा है। चित्र देखते औचक नृत्य से जुड़ी संवेदना से हम जुड़ जाते हैं, स्त्री है तो पुरूष है और पुरूष है तो स्त्री है। चित्र जैसे शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की अपने तई व्याख्या भी करता है। मुझे लगता है, पौराणिक चित्रों का विषय निरूपण लगता सरल है परन्तु जो कुछ वहां दृश्य में अभी भी हम पाते हैं, वह कालजीय है। इसलिए कि चरित्र की व्याख्या भी वहां हो राजा रवि वर्मा, एन.के मिश्रा सरीखे कलाकारों ने की है। 


Saturday, September 6, 2014

दिमाग नहीं दिल की गायकी ठुमरी

ठुमरी सुरों की सुरम्य दीठ है। छोटी-छोटी सपाट तानें, पर कहन के अंदाज में मौलिकता। कहें यह ठुमरी ही है जिसमें स्वरों की अनूठी सूझ से ही कलाकार सुनने वालों को चमत्कृत करता है। मौलिकता रचते। कोई कह रहा था, ठुमरी का क्या? विशेष बोलों का बारम्बार दोहराव ती तो है यह। सही है। वहां, शब्दांे की आवृति होती है पर उसे बरतते कलाकार जीवनानुभूतियों से औचक ही साक्षात् भी कराता है। दिमाग नहीं, दिल की गायकी जो है यह! मुझे लगता है, जीवन के तमाम रसों की व्यंजना किसी गान में है तो वह ठुमरी में ही है। 
बहरहाल, अभी बहुत दिन नहीं हुए। ठुमरी की प्रख्यात गायिका, बल्कि बहुत से स्तरों पर ठुमरी को गरिमायम लोकप्रियता दिलाने वाली गिरिजा देवी जयपुर में एक कार्यक्रम मंे आयी थी। बचपन से ही उनकी ठुमरी सुनता आ रहा हूं। सरस रागों में छोटी-छोटी बंदिशों की उनकी लयदार अदायगी मन को सदा ही भाती रही है। याद है, गिरिजादेवी की स्वरचित ‘घिर आई है कारी बदरिया...’ और ‘बैरिन रे कोयलिया तोरी बोली न सुहाय...’, सुनते मन अवर्णनीय आंनद में डूब-डूब जाता। उनकी शब्द व्यंजना ऐसी है कि मन विभोर हो जाता है। बोल-बनाव और आवृत्ति में अद्भुत समय प्रवाह! लोकमानस को छूती उनकी आवाज इस कदर साफ सूथरी और स्वर-सधी, सहज कि मन सुनते औचक गुनता-गुनगुनाता भी है। पर इधर जब मंच पर उन्हें सुना तो आयोजक संस्थाओं पर तरश आया, कुछ गुस्सा भी। लगा, मूर्धन्य कलाकारों के गान को लज्जित करने के ऐसे आयोजकीय उपक्रम नहीं ही होने चाहिए। जिन गिरिजादेवी के रिकाॅर्ड देशभर के रसिक श्रोता सुनते रहे हैं, वह उन्हें इस उम्र में जब गाते सुनते हांेगे तो क्या सोचते होंगे? उम्र के 90 वें दशक में चल रही गिरिजादेवी के गान पर क्या वय का असर न दिखेगा!
यह सही है, गिरिजादेवी या ऐसे ही देश के लब्धप्रतिष्ठि गायक-गायिकाओं के प्रति आज भी श्रोताओं में अथाह उत्साह है। यह भी सही है, कलाकार की कला कालजयी होती है। पर यह भी सही है, समय का प्रवाह स्वर, नृत्य को बाधित करते उम्र की अनुभूति कराता ही है। क्या ही अच्छा हो, हम गिरिजादेवी जैसे कलाकारों को बुलाएं और मंच पर उनके पूर्ववर्ती गाए बेहतरीन के रिकाॅर्ड के साथ उनके अनुभवों को सुनें। उनकी तान के नजारों का आस्वाद करें, उन्हें आलाप करते देखें और हां, वह अपनी पंसद के अपने गाए बेहतरीन रिकाॅर्ड मंच पर हमें सुनाए और फिर अपने गान से जुड़ी विलक्षणता की हमारी शंकाओं का समाधान करें। इससे बड़ी बात और क्या होगी कि जिनने हमें सुनने के संस्कार दिए, स्वरों का माधुर्य दिया-आयोजक संस्थाएं उन्हें आम श्रोताओं से साक्षात् कराएं। 
शंकित मन कह रहा है, क्या यह अच्छा लगेगा कि गिरिजादेवी जैसे किसी मूर्धन्य कलाकार को युवा पीढ़ी सुनने आए और उम्र के असर को उनकी गायकी से जोड़ते उनके संपूर्ण गायन को खारिज करते शास्त्रीय संगीत से ही तौबा करने की सोच ले! 


Friday, August 29, 2014

लोक नृत्य के शाश्वत स्वर

लोक-संगीत माने कहन-कथन का माधुर्य। कहां से आया यह संगीत, कहां से फूटे बोल? कोई नहीं जानता। पर संवेदनाओं का अद्भुत राग है इनमंे। परम्पराओं और संस्कृति को जीवंत देखना, सुनना और गुनना आखिर लोकनृत्यों की पाण ही तो संभव है। अभी कल की ही तो बात है। रवीन्द्र रंगमंच स्वर्णजयन्ती समारोह की समापन सांझ की नूंत मिली। विलम्ब से पहुंचा पर पलक पावड़े बिछाए जैसे लोक संगीत की स्वरलहरियां स्वागत कर रही थी। घेरदार घाघरे में हो रहा था, ‘घूमर’। ताल-लय का सुछन्द! मन उसमें रमा ही था कि भवई के साथ रूपसिंह शेखावत प्रकट हुए। पाश्र्व में ध्वनित लोक स्वर ‘कुण रै खुदाया कुंआ, बाग...’, ‘उडियो रै उडियो...’, ‘पल्लो लटके’, ‘जळ भरियौ हबोळा खाय..’ के बोल नृत्य मुद्राओं से जैसे जीवंत हो उठे। 
लोकनृत्य सम्राट रूपसिंह शेखावत
छायांकन : श्याम शर्मा 
तलवार की धार, परात पर सात मटकों को सिर पर साधे वह जब थिरक रहे थे, लगा राजस्थान का नृत्य और संगीत उनमें ही रूपान्तरित हो रहा है। वह जैसे बंचा रहे थे-कर, पाद और मुख-मुद्राओं से राजस्थान की संस्कृति और सभ्यता के पाठ दर पाठ। व्यक्त में संस्कृति का बहुतेरा अव्यक्त भी रच रहे थे। मुझे यूं नृत्य में रमते देख, पास बैठे संस्कृतिकर्मी मित्र ईश्वरदत्त माथुर ने धीरे से कान में कहा, ‘यह तो इनकी कला का चैथाई ही है।’ अचरज! चैथाई ही यह है तो सर्वांग कैसा होगा? 
सोचता हूं, संगीत, नृत्य के घरानों की तरह लोकनृत्यों में वैसा कुछ नहीं है पर जो कुछ वहां संचित है, उसे यदि अपने तई अंवेरते, नया उसमें कुछ जोड़ते लोक को आधुनिकता में भी जिन्दा रखने वाले कलाकार भी क्या वैसे ही सम्मान के हकदार नहीं है! कोई, उनकी पहचान भी तो करे। आखिर तमाम हमारा नृत्य-संगीत लोक से ही तो है। विडम्बना ही है, रूपसिंह शेखावत जैसे लोक कलाकारों की कूंत हम नहीं कर रहे। 
हां, रवीन्द्र मंच लोक रंजन से जुड़ी ऐसी प्रस्तुतियों का आरंभ से ही साक्षी रहा है। सुखद है, स्वर्णजयन्ती पर रवीन्द्रमंच सोसायटी, सांस्कृतिक संस्थाओं और संस्कृतिकर्मियों की सहभागिता से वर्षपर्यन्त संगीत, नृत्य, नाट्य के आयोजन हुए। बहुधा ऐसे आयोजनों में प्रशासकीय भूमिका कत्र्तव्य निर्वहन के दायरे में ही दिखती है पर आयोजनों में प्रबंधक नीतू राजेश्वर ने जिस रूचि से बारम्बार नूंत दी, कलाकारों के संग कलाकार होते जो सहभागिता निभाई वह सांस्कृतिक आयोजनों के लिए सुखद संकेत तो है ही।
घूमर
छायांकन : श्याम शर्मा 
बहरहाल, लोक चिर-पुरातन है, पर चिर नूतन भी। शाश्वत जो हैं इसके स्वर! नृत्य कला में रमते, उसमें बसते मन नृत्य सम्राट उदयशंकर की नृत्य मुद्राओं को याद कर रहा था। लगा, जिस तरह से उन्होंने नृत्य की शास्त्रीयता को अपने तई गुंजरित किया, ठीक वैसे ही तो रूपसिंह शेखावत राजस्थान की लोक संस्कृति को अपनी नृत्य मुद्राओं से ध्वनित और जीवंत करते हैं। राजस्थानी लोकनृत्य सम्राट ही तो हैं वह! उम्र के सत्तर दशक बाद भी जिस चपलता से वह नृत्य करते हैं, लगता है लोक थिरकन ही है, उनका यह जीवन। 


Friday, August 22, 2014

प्रकृति के सौन्दर्य चितराम


कलाकृति : अन्नपूर्णा शुक्ला 

पेड़, पहाड़, पक्षी, नदी और घाटियों  से ही तो है प्रकृति का सुरम्य रूप।  कहें, यह जीवन का वह सुमधुर राग है जिसे देखा, सुना और छुआ भी जा सकता है।
सोचिए!  पक्षी चहचहाते हैं, पेड़ लहलहाते हैं,  उमड़-घुमड़ बादल बरसते हैं तभी ना ओढ़ती है-धरित्री हरियाली का आंचल।  प्रकृति के इन भांत-भांत के रंगों की पाण ही मन पाखी भरता है, सृजन की उड़ान। 
बहरहाल, आधुनिकता में गांव जब तेजी से शहर बन रहे हों। हवा-पानी में प्रदूषण का जहर घुल रहा हो, प्रकृति के सौन्दर्य को अनुभूत करने की संवेदना भी जैसे कहीं गुम हुई जा रही है। पर पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में अन्नपूर्णा शुक्ला सृजित प्रकृति दृश्यावलियों से साक्षात् होते लगा, जीवन के सुमधुर राग को कला ही सांगोपांग ढंग से जीवन्त करती है। उनका कैनवस रंग-रेखाओं की लूंठी लय अंवेरता प्रकृति दृश्यावलियों का न भूलने वाला पाठ जैसे हमें बंचाता है।  हरी घास, काले-भूरे बादल, नीला आकाश, धूप में नहाते पेड़, चांद और उसकी चांदनी के साथ हवा-पानी तक को अन्नपूर्णा ने सौन्दर्य की अर्थ अभिव्यंजना में गुनते गहरे से कैनवस पर बुना है। एक चित्र में पहाड़ों के बीच बहती नदी का सौन्दर्य चितराम है। नदी केन्द्र में है पर पहाड़, पेड़, झााडि़यां और तमाम परिवेश की सूक्ष्म व्यंजना में भावों की अनूठी ओप वहां है। ऐसे ही एक में बादलों के उमड़ने-घुमड़ने को जिया गया है तो एक में पक्षी के कीट भक्षण की गूढ़ व्यंजना है। चित्र और भी है। जिनमें ठौड़-ठौड़ प्रकृति से जुड़ी समय संवेदनाओं को उकेरा गया है। पहाड़, पेड़ और नदी से जुड़े छाया-प्रकाश संबंधों की गतिशील लय वहां है। मुझे लगता है, अन्नपूर्णा रंग-रेखाओं में प्रकृति से जुड़ी सौन्दर्य संवेदना के गूढ संकेत रचती है। उनके चित्र उस रहस्यमय फंतासीलोक की सैर कराते हैं जहां प्रकृति के असीम छोर को पकड़ने का जतन है। इसीलिए कि पेड़ है तो उसका सौन्दर्य से जुड़ा कोई संदर्भ वहां है, चिडि़या है तो उसके गान में गुंजरित भाव है, नदी है तो उसके बहाव का मर्म है, पहाड़ है तो उस पर छाए कोहरे और धूप को भी गुना-बुना गया है और फूल-पत्तियां, घास, वनस्पति भी यदि है तो उनमें निहित लय की सौन्दर्य संवेदना वहां ध्वनित होती है।   
कलाकृति : अन्नपूर्णा शुक्ला 
अन्नपूर्णा शुक्ला के प्रकृति चित्रों का आस्वाद करते औचक सुमित्रानंदन पंत की बांसो के झुरमुट पर लिखी पंक्तियां जेहन में कौंधने लगी है,  ‘बांसो का झरुमुट संध्या का झुटपुट है चहक रही चिडि़या टी-वी-टी-टूट्-टूट्।’ बांस, संध्या, झरुमुट और चिडि़या के चहचहाने की इस व्यंजना में दृश्य का सघन संप्रेषण ही तो है। अन्नपूर्ण शुक्ला के चित्र यही करते हैं। मन करता है, पेड़, पहाड़, नदी और उससे जुड़े संवेदना में रमें। उनमें बसें। प्रकृति की उकेरी दृश्य गंध को अनुभूत करें। आखिर, अन्नपूर्णा शुक्ला के चित्र हमें प्रकृति के रहस्यमयी फंतासी लोक में ही तो ले जाते हैं। अनुभूति के खरेपन में सौन्दर्य संदर्भों की सर्जना कोई कलाकार आखिर ऐसे ही तो करता है!

Friday, August 8, 2014

कार्टून कला के प्राण का जाना


गागर में सागर भरती हास्य-व्यंग्य में सराबोर कोई कला है, तो वह-कार्टून कला है। संस्कृति, साहित्य और तमाम दूसरी कलाओं का स्थान भले समाचार पत्रों में निरंतर कम होता चला गया है परन्तु आज भी मुखपृष्ठ को समृद्ध करती कोई कला नजर आती है तो वह भी कार्टून कला ही है। कहें, इस समय कला ही नहीं पत्रकारिता की भी यह वह विधा हैं जिसमें रेखाएं किसी स्तर पर संपादित  नहीं होती।
बहरहाल, आर.के.लक्ष्मण के कार्टून ‘आम आदमी’ ने देश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। चेक वाला बंद गले का कोट, सिर पर सफेद बालों का एक-आध गुच्छा बचाए और नाक के ऊपर भारी सा चश्मा पहनता हैरान-परेशान ‘आम आदमी’ जीवन में कुछ इस कदर घुला-मिला नजर आता है कि चाहकर भी हम उसे बिसरा नहीं सकते।
ठीक वैसे ही जैसे प्राण कुमार शर्मा सिरजे पगड़ी पहने चाचा चैधरी को हम शायद ही कभी भुला पाएं। भारतीय काॅमिक जगत के उस पुरोधा का काल कवलित होना, जैसे एक युग की विदाई है। प्राण ने उस समय में अपने उस बेहद चतुर कार्टून चरित्र को गढ़ा था जब कम्प्यूटर का बोलबाला नहीं था।



पर यह चरित्र जब चुटकियों में समस्या का हल करता तो, काॅमिक में लिखा आता, ‘चाचा चैधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है।’ काॅमिक का यह कहन भारतीय जीवन में मुहावरे की मानिंद रच-बस गया। और यही क्यों, उनके कार्टून चरित्र ‘चन्नी चाची’, ‘बिल्लू’, ‘पिंकी’, ‘रमन‘, ‘साबू’, ‘राका’, ‘गोबर सिंह’ भी जैसे हममें घुल मिल गए हैं। 

याद पड़ता है, स्कूल के दिनों में छुपाकर प्राण रचित चाचा चैधरी श्रृंखला की काॅमिक्स ले जाते। कक्षा मंे अध्यापक पढ़ा रहे होते और मुंह नीचे किए एक दिन में दस-दस काॅमिक्स पढ़ डालते। मन तब भी भरता कहां था! सोचता हूं कार्टून चरित्रों से लगाव तभी हुआ जो अभी तक बरकरार है।
बहरहाल, कार्टून कला भर ही नहीं है, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों की जिम्मेदार समीक्षक भी हैं। कभी पंडित नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर ने एक कार्टून बनाया था। नेहरूजी माईक पर जनता को संबोधित कर रहे हैं, ‘हमें आगे बढ़ना है।’ लोग इधर-उधर तेजी से भाग रहे हैं। नीचे छोटा सा वाक्य है, ‘व्हेअर?’ कार्टून कला परिवेश के सच को ऐसे ही उघाड़ती है। कभी अबू अब्राहम का कार्टून संकलन ‘द बुक रिव्यू’ खरीदकर लाया था। मुखपृष्ठ ही संकलन के अंदर के पन्नों को जैसे बंया कर देता है। कुछ नहीं, अबू का चिर-परिचित चतुर कौआ वहां है। चश्मे से झांकती पैनी नजर, सभ्रांत कौआ। कार्टूनिस्ट के लिए शब्द जरूरी कहां है! उसकी रेखाएं ही इस कदर बोलती है कि दृश्य जेहन में हमेशा के लिए जैसे बस जाता है।
प्राण की सधी कार्टून रेखाएं ऐसी ही हैं। वह नहीं रहे! इस एक समाचार ने अंदर से हम जैसे बहुतों को शायद हिला दिया है। बंद आंखों में भी जैसे बहुत कुछ दिखने लगा है। चाचा चैधरी, साबू और चन्नी चाची ही नहीं विलेन चरित्र गोबर सिंह और राका भी जार जार रो रहे हैं। आखिर उन्हें जन्म देने वाला वह शख्स जो चला गया है! प्राण जा नहीं सकते। वह हममें विलीन हैं।


Sunday, August 3, 2014

शास्त्रीय रागों का दृश्य कहन

रामकुमार के रेखांकनों की एक महत्ती कला प्रदर्शनी को कोलकता में आकृति आर्ट गैलेरी के लिए प्रयाग शुक्ल क्यूरेट कर रहे हैं। निमंत्रण का उनका मेल आया तो रामकुमार की कलाओं में ही मन जैसे रम गया।...
रामकुमार शब्द कहन में ही नहीं, अपने चित्रों से भी स्मृतियों और अनुभूतियों का आकाश रचते हैं। कैनवस पर दृश्य के वह मोहक पर विरल पाठ जैसे बंचाते हैं। ऐसे दौर में जब यह तय कर पाना मुश्किल है कि कौनसी कलाकृति किस कलाकार ने सिरजी है, यह सुखद है कि रामकुमार के चित्र अभी भी अपनी शैली, रंग-रेखाओं की विशिष्ट व्यंजना में अलग से पहचान में आते हैं। कोई सालेक पहले केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के निमंत्रण पर अगरतला जाना हुआ था। राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में आई प्रविष्टियों का आस्वाद करते एक जगह रामकुमार जी की कलाकृति देख ठिठक गया। यह यहां कैसे?’ पता चला किसी ने रामकुमार जी के कार्य की काॅपी भेज दी, और मजे की बात यह कि उसे राष्ट्रीय प्रविष्टि में चयनकर्ताओं ने शुमार भी कर लिया था। मन खट्टा हो गया। रामकुमार की कलाकृतियां को कोई जूरी सदस्य कैसे भूल किसी और की मान सकता है! 

बहरहाल,  रामकुमार के रेखांकनों की एक महत्ती कला प्रदर्शनी को कोलकता में प्रयाग शुक्ल क्यूरेट कर रहे हैं। निमंत्रण का उनका मेल आया तो रामकुमार की कलाओं में ही मन जैसे रम गया। लगा, दृश्य संवेदना या फिर अंतर्मन अनुभूतियों को रंग-रेखाओं में वह इस सुघड़ता से बरतते हैं कि औचक ही किसी कहानी, घटना या फिर स्थान विशेष से जुड़ी स्मृति का कोई छोर वहां खुलता नजर आने लगता है। उनकी कलाकृतियां दृश्यालेख सरीखी ही हैं। जमीं के किसी टूकड़े में समाया किसी स्थान की विशेषता को रेखांकित करता कोई प्रतीक वहां है तो कहीं रंगो से मन में औचक किसी संवेदना का गान वहां है। चिंतन के आलोक में मन मथती कहन का विरल छन्द लिए ही तो है उनकी कलाकृतिया।

 उनके चित्रों में रंगो की उर्वर भूमि परिवेश के अनगिनत सच बंया करती है। मन करेगा, चित्र देखें और ठहर-ठहर फिर से वहां जाएं। उनके कैनवस में स्थानों की बहुलता पर भी बहुत कुछ कहा गया है पर मुझे लगता है, प्रकृति से जुड़ी संवेदना और रंगो को ही उन्होंने अपने कैनवस पर गहरे से जिया है। प्रकृति के नित नए बदलते रूपों की मानिंद रंग वहां है। कहीं कोई ठहराव नहीं। रंग-रेखाओं में मौन की भी शास्त्रीय राग सरीखी व्यंजना। कुछ दिन पहले ही मुकुन्द लाठ जी ने अपनी सद्य प्रकाशित कृति ‘संगीत और संस्कृति’ भेंट की थी। पुस्तक का आवरण रामकुमार का है। इसे देखते मन में खयाल आ रहे हैं, रेखाओं सिरजी अनुभूतियों में वह रंगो को घोलते दृश्य की अद्भूत निर्मिती ही तो करते हैं! भले उनकी कलाकृतियों में, रेखाकंनो में स्पष्ट रूप नहीं है परन्तु दृश्यों का अपनापा है। कलाकृति देखते औचक मन करेगा, कैनवस में रमें। उसमें बसे। कला का असल सच यही तो है!


Friday, July 25, 2014

छायांकन के कला रूप

छाया : महेश स्वामी 
पेड़ जीवन है। पत्तों की सरसराहट, कोयल की कूक से जुड़ी संवेदनाओं का गान पेड़ों से ही तो है। और फिर यह तो श्रावण मास है। बरखा बूंदों से नहाई धरा की गंध का आस्वाद करते मन करता है, इसे गुने। कला के किसी रूप में इसे बुनें। मेघाच्छादित आकाश मेें श्रावण में ही तो मन पेड़ों का गान करता उनमें बसता है। 
यह लिख रहा हूं और मन पेड़ों की सिरजी छाया-छवियों में जा रहा है। पेड़ों के भांत भांत के रूप मन को स्पन्दित करने लगे हैं। छायाकार महेश स्वामी ने इस दीठ से अनुपम छायाछवियां सिरजी हैं। पेड़ों की छवियों में दृष्य संवेदनाओं के मर्म को उसने इधर अपने छायांकन में गहरे से जिया है। भिन्न आयामों में छायांकन में पेड़ और उससे जुड़ी दृष्य संवेदना के एकाधिक छायाचित्र पहली बार जब महेष ने दिखाए तो, मन हुआ एक साथ इस श्रृंखला के चित्रों का आस्वाद करूं। महेश ने इसे सहज शुलभ कर दिया। छवियों का आस्वाद करते, औचक ही श्रृंखला का नाम ‘रूंख’ सूझ गया। छायाचित्रों में वृक्ष केन्द्र में है परन्तु वहां सूर्य है, उसका उजास है और परछाई में घूले पेड़ों के झिलमिलाते रंगों की आभा भी है। पेड़ और उसकी टहनियांे, झाडि़यों से झांकती प्रकाश  किरणें और हरियाली में घूली दूसरे रंगों की अनंत छवियां! छाया-प्रकाश  की सौन्दर्य दीठ है रूंख श्रृंखला के छायाचित्र। 
छाया : महेश स्वामी 
बहरहाल, एक छायाचित्र है जिसमें कोहरे घूले दिन में पेड़ का बचा हरापन अंधेरे, धूंध को परे करता जीवन का जैसे संदेश  दे रहा है। सघन टैक्सचर में अगेन्स्ट लाईट के साथ धीरे से उदित होते सूर्य की सुनहरी धूप! कींकर की छांव से सिरजा सघन परिवेश!  ऐसे ही एक छायाचित्र में उगते सूर्य की सुनहरी धूप के अंश  से दीप्त टहनी और पत्तियां मोहक दृश्य  रच रही है।...और वह दृश्य  तो विरल है जिसमें पानी में (मिट्टी के पालषिए में) आसमान, पेड़ और बादल झांक रहे हैं। यह अक्श  का सौन्दर्य है। बिम्ब में प्रतिबिम्ब! छायाचित्रों में रूंख का यही तो है श्रावण में लुभाता दृश्य  लोक। दृश्य   में रूंख के रूपायित बिम्ब दर बिम्ब ऐसे ही हैं। टैक्सचर बना रूंख और प्रकाश  के विपरीत से उपजा अंधेरा पेड़ की झाड़ को और मथता सौन्दर्य के अविराम पाठ जैसे हमसे बंचाता है। छायाकला देखने की कला सूझ को व्यंजित करती है।
श्रावण भी तो मन की व्यंजना ही है।  दूसरी ऋतुओं में पानी बरसे तो मन न हर्षे पर श्रावण न बरसे तो मन तरसे। लहराते पेड़ों की हरियाली इसी मास में भाती है। आनन्द कुमार स्वामी ने कला को रूपान्तरण की संज्ञा दी है। क्यों? क्योंकि वहां नकल नहीं होती। पुर्नसर्जन होता है।  महेश  ने रूंख श्रृंखला के अपने छायाचित्रांे में यही किया है। यही है छायांकन का कला रूपान्तरण

Friday, July 18, 2014

रेखाओं में सौंदर्य सर्जना

चित्रकला का आधार रेखांकन है। रेखाओं के जरिए दृश्य का सहज, सरल कहन। इस दीठ से हेब्बार की रेखाओं पर जब भी जाता हूं, पाता हूं चंद रेखाओं, गति का सुरमय व्यंजन वहां है। इधर नाथूलाल वर्मा के रेखांकनों में भी सांगीतिक आस्वाद में रेखाओं की गति को विरल रूप मंे अनुभूत किया है। उनके रेखांकनों से साक्षात् होते लगेगा, रेखाओं में वह अनूठी सौंदर्य सर्जना करते हैं। मूर्तिशिल्प, स्थापत्य, जगहों और वहां के परिवेश, लोकाख्यानों और प्रकृति के अनगिनत रेखांकनों में वर्मा ने स्मृतियों को बुनते उन्हें अपने तईं गहरी सूझ से अंवेरा है। माने एलोरा की गुहा मूर्तियों का अंकन भी है तो उसमें मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं करते हुए भी रेखाओं से उन्हें जैसे फिर से जिया गया है। एक रेखांकन में नायिका, चिडि़या और आंख की विरल व्यंजना है। रेखांकन नहीं रूपक। आप चंदेक रेखाओं में पूरी की पूरी कहानी जैसे बांच सकते हैं। और यही क्यों, शिव मूर्तियों का अंकन भी अनूठा है। रेखांकन में शिव के नृत्य को निहारते आप गति का हिस्सा बन जाते हैं। ऐसे ही लोक परिवेश, शांति निकेतन के संथाल जीवन और तमाम दूसरी प्रकृति अनुभूतियों की जो लय रेखाओं में उन्हेांने रची है, वह अंतर्मन संवेदनाओं को जैसे आलोकित करती है।
रेखांकन : नाथुलाल वर्मा 
मुझे लगता है, नाथूलाल वर्मा के रेखांकन परिवेश का  रेखीय संतुलन लिए है। वह अपने रेखांकनों में रूप के प्रत्येक अवयव को घोलते गति का अनूठा संतुलन रचते हैं। इस संतुलन से ही असल में रूप का वह पोषण करते हैं। उनकी स्केच बुक के रेखांकनों के विविध आयाामें में से एक एलोरा के शिव तांडव का है। रेखाओं की विरल दीठ। मगन हो शिव नृत्य कर रहे हैं। हल्की पर गत्यात्मक रेखाओं में ताण्डव का समग्र परिवेश। वह रेखाओं से नृत्य का तेजोमय रूप प्रकट करते हैं। पार्श्व से आते प्रकाश को रेखा दर रेखा से जीवंत करते उन्होंने तिमिर हरती रोशनी का अद्भुत रूप रचा है। छाया-प्रकाश की सर्जना। यह है तभी तो तांडव का उनका उकेरा रेखीय परिवेश मन में घर करता है। ऐसे ही त्रिपुरातंक, बिजोलिया, भोजपुर की शिव प्रतिमा के रेखांकन है। मुझे लगता है, प्रतिमा का रेखीय अंकन उन्होंने  किया है तो मूर्ति की स्थिति के साथ भावों की गति को भी वहां गहरे से छूआ गया है।  नाथूलाल वर्मा के रेखांकनो में गत्यात्मक प्रवाह है। सांगीतिक आस्वाद देता। हिमाचल के प्रकृति दृश्य, शांति निकेतन में संथालों के जीवन से जुड़े चितराम और स्थानों, पशु-पक्षियों के अंकन की उनकी बड़ी विशेषता यही तो है कि उनमें रेखाओं का लयात्मक संयोजन है। लय का मतलब ही है, समाना। एक का दूसरे में। लय गति है, स्थिति नहीं। इसीलिए कहूं, नाथूलालजी की रेखाएं एक दूसरे में समाती गति की संवाहक ही तो है!