Friday, January 24, 2014

चिंतन उपाध्याय की कलाकृति "मार्चिंग टुवर्ड्स नो वेयर"

कलाकृति में सौन्दर्य बढ़त

चिंतन उपाध्याय प्रयोगधर्मी कलाकार हैं। ऐसे जिन्होंने कला में परम्परा में बढत करते हुए बाजार मूल्यों को बहुत से स्तरों पर तय भी किया है। कला दीर्घाओं में उनकी कलाकृतियां लाखों में नहीं करोड़ों में बिकती है। इसलिए कि उन्होंने जड़ होते जा रहे जीवन मूल्यों को अपने तई आधुनिकता का नया कैनवस दिया है। भले उनके कलाकर्म को बहुत से स्तरों पर आधुनिकता से जुड़ी पाश्चात्य संवेदना से अभिहित किया जाता रहा है परन्तु मुझे लगता है एक बड़ा सच उनकी कलाकृतियों का यह भी है कि उनमें भारतीय कला शैलियों की जीवन्तता है। लोक कलाओं का उजास है और हां, बड़ी बात यह है कि किसी एक शैली की बजाय उनमें तमाम भारतीय और योरोपीय शैलियां ध्वनित होती है। सूजा के चित्रों की नग्नता के कुछ अंश भी वहां है, माइकल एंजेलो की मांशपेशियां की याद भी उनके चित्र दिलाते हैं परन्तु मूल बात उनके चित्रों की है, उनमें निहित भारतीयता। पारम्परिक भारतीय चित्रों के सौन्दर्य को वह अपनी कलाकृतियों में ठौड़-ठौड़ अंवेरते हैं।  
कोई एक दशक से निरंतर उनकी कलाकृतियों का आस्वाद करता रहा हूं। याद पड़ता है, जवाहर कला केन्द्र में इंस्टालेशन आर्ट की एक प्रदर्शनी लगी थी। शीर्षक था, ‘टेटूंआ दबा दो’। भू्रण हत्या के केन्द्र में संस्थापन के अंतर्गत इसमें बहुत कुछ भदेस भी था। तब उसके इस संस्थान को देखकर कला में सदा ही सौन्दर्य की तलाश करने वाला मन कुछ विचिलत हुआ। चाहा था, कुछ लिखूं पर लिख कहां पाया! जिस सौन्दर्य को हम अपने तई परिभाषित करते हैं, लेखक मन उसी में जीना चाहता है। कुछ  पूर्वाग्रह चिन्तन की कला को लेकर तभी शायद उपजे और उसके बाद कभी उसके कलाकर्म पर कभी गहरे से गया ही नहीं। 
बहरहाल, मकर सक्रांति पर कलाकार मित्र विनय शर्मा के साथ चिन्तन के घर था। पतंग उड़ाने की उनकी नूंत के साथ। पतंग उड़ाना तो बहाना था, वहां एकत्र होने वाले कलाकारों के सान्निध्य की चाह प्रमुख थी। वहीं चिन्तन के स्टूडियो में उसकी कलाकृतियों से भी रू-ब-रू हुआ। आस्वाद हुआ, आर्ट समिट में भेजे जा रहे एक बड़े से स्कल्पचर का और इस सबसे अलग कुछ समय पहले सृजित उस बड़े कैनवस का भी जिसने चिन्तन के कलाकर्म को लेकर बने पूर्वाग्रहों को मुझसे विलग किया। उस कलाकृति को देख लगा, चिन्तन के कैनवस पर उकेरी मानव आकृतियां तेजी से कहीं बढ़ती जा रही है। किस ओर? कुछ तय नहीं। कसी हुई मांशपेशियांॅं, बल को दर्शाते कदम। दो भागों में विभक्त कैनवस का पाश्र्व लाल से पीलेपन में आगे बढ़ रहा है। गौर किया तो पाया, मार्चिंग के मध्य एक ट्रेन की छाया छवि है। और गौर किया तो अनुभूत हुआ छवियों का सूक्ष्म संसार।  लगा, चिन्तन की कलाकृतियों का नन्हा बालक हस्ट-पुस्ट मांशपेशियों के साथ यंत्रनुमा चलायमान है। गति है, बल है पर यह सब जैसा कि कैनवस का शीर्षक है, ‘कहीं नहीं की दिशा में अग्रसर’ है। 
चिन्तन की यह कलाकृति एक दृश्य के भीतर अनगिनत दृश्यों का लोक है। राजस्थान की मिनिएचर, मांडणे, शेखावटी के कुंओं का स्थापत्य, मुगल शैली के गुम्बद, मिनारें और सभ्यता के इतिहास से जुड़े और भी बहुतेरे अवशेष। कहें, कलाकृति में संस्कृति से जुड़ी संवेदनाओं के मर्म उद्घाटित हुए हैं। हरे पतों, बेलों में प्रकृति भी है पर, यह सब इस कलाकृति का आधा सच है। पूरा सच इसमें निहित वह आधुनिकता है, जिसमें कोरी हुई छाया-छवि में ‘मैकडानल्ड’, ‘टेटूआ दबा दो’ में निहित भ्रूण और कांक्रिट का वह जंगल है जिसमें संवेदना रहित मनुष्य जी रहा है। कलाकृति आधुनिकता की गति को जैसे गहरे से व्यंजित करती है। लगता है, मशीनीकरण में सब कुछ लोप हो रहा है-जीवन मूल्य, मनुष्यता और मनुष्य होने का एकमात्र बोध भी। और इस सबसे साक्षात् कराने वाले कलाकार हैं चिंतन। यह जब लिख रहा हूं, अनुभूत कर रहा हूं-सौन्दर्य हमारी दृष्टि में है। दीठ के विस्तार में! चिन्तन का कलाकर्म दीठ की बढ़त ही तो है!

Friday, January 17, 2014

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल

उपभोक्तावादी संस्कृति का साहित्यिक सच 

जयपुर में एशिया का सबसे बड़ा कहा जाने वाला लिटरेचर फेस्टिवल प्रारंभ हुआ है। कुछ दिनों के लिए अब डिग्गी पैलेस देश-विदेश के साहित्य सर्जकों, कला मर्मज्ञों की उपस्थिति से भरा-भरा रहेगा। देखता आ रहा हूं, वर्ष 2006 से ही यह आयोजन हो रहा है। यह सही है, कला, संस्कृति और साहित्य जीवन मूल्यों का पोषण करते हैं। मनुष्य में संवेदनाआंे का वास, जीवन के प्रति उत्साह और उमंग के भाव इनसे ही जगते हैं। स्वाभाविक ही है कि साहित्य उत्सव जैसे आयोजन इसमें महत्ती भूमिका निभा सकते हैं परन्तु यह भी देखे जाने की जरूरत है कि इस तरह के आयोजनों में कौनसे संस्कार समाज को संप्रेषित किए जा रहे हैं? 
डेली न्यूज़, 17 जनवरी, 2014 
यह सच है, भारतीय भाषाओं और विदेशी लेखकों से संवाद का यह तब बेहतरीन मंच रहा परन्तु शनैः शनैः बहुतेरी स्तर पर यह उपभोक्तावाद की पाश्चात्य संस्कृति के प्रसार का संवाहक भी बनता चला गया। गत वर्ष हुए आयोजन को ही लें। साहित्य उत्सव में सम्मिलित होने आए लोगों को ‘ग्रेप फाॅर वेन’ के अंतर्गत शराब कैसे बनती है, इसके बारे में बताया गया। एक दिन आयोजन स्थल के अंदर लगे मूगल टैन्ट में ‘द ओरिजन आॅफ सेक्स’ माने काम क्रिया की उत्पति पर फारामेर्ज दाभोईवाला और विलियम डेलरिम्पेल का तथा टाटा स्टिल फ्रंट लाॅन में ‘सेक्स एंड सेंसिबलिटी: वूमिन इन सिनेमा’ विषय पर शबाना आजमी और प्रसून जोशी का संजोय राॅय से संवाद होते दिखा। और यही क्यों दूसरे विभिन्न सत्रों में लेखक जैसे पहले कभी नहीं कहा गया, वह कहने की होड़ कर रहे थे। केरल के लेखक जीत थाईल ने अपने उपन्यास ‘नारकोपोलिस’ के बतौर अंश गालियों का वाचन किया। स्कूल-काॅलेज विद्यार्थियों को कांचा इलैया ने बलात्कार की जड़ों को वैदिक संस्कृति से जुड़ा बताया और भी ऐसा बहुत कुछ पिछले साहित्य उत्सव में हुआ था।
बहरहाल, मुझे लगता है, कहने को साहित्य उत्सव के अंतर्गत नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने की कवायद के रूप में प्रचारित किया जाता है परन्तु सोचने की बात यह है कि नई पीढ़ी इस तरह के आयोजनों से क्या सीख लेगी? उन्हें पांच दिनी आयोजन में सपनो ंका इन्द्रधनुष दिखाई देता है। यह ऐसा है जिसमें लेखक बन तमाम तरह के ऐशो आराम की जिन्दगी को जिया जा सकता है। नई पीढ़ी सोचती है, उन्हें भी साहित्य की दुनिया में ही आना चाहिए। प्रेम करें और उसकी कहानी लिख दें। मन में जो आए, चाहे वह वर्जित ही हो-उसको अभिव्यक्त कर दें। यही तो लेखन है। अपरिपक्व युवा मन यही सब कुछ सोचता है और लेखन को ही आजीविका बनाने की भी सोच लेता है। पर सोचने की बात यह है कि भारत में कितने आज भी ऐसे लेखक हैं जो अकेले लेखन के बल पर जी रहे हैं? 
बहरहाल, साहित्य उत्सव वह पहल है जिसके अंतर्गत अभिजात्य, मध्यमवर्ग से लेकर आम जन को भोगवादी चकाचैंध अनुभूत करायी जाती है।  साहित्य शायद इसका माध्यम इसलिए बना है कि उस तक हर कोई बगैर किसी झिझक, संकोच के पहुंच जाए। जो छवि साहित्य उत्सव के जरिए साहित्य की बनती है, वह छवि नहीं है। वह गढ़ी गयी छवि है। दिखाई जाने के लिए कुछ समय के लिए गढ़ी गई। आम आदमी उस छवि में ही उलझ जाता है। वैसा ही अपने आपको समझने लगता है। ऐसे में हिन्दी और दूसरी भाषा के साहित्यकार जिन्हें स्थानीय आयोजक अपनी बुद्धि चातुर्य से बुलाते हैं, उनके समक्ष समस्या यह भी हो जाती है कि औचक ही वह अपने को उन व्यावसायिक लेखको के समक्ष समझने लगते हैं जो दरअसल इस छवि को गढ़ने वालों की भूमिका में वहां होते हैं। 

Friday, January 10, 2014

सौन्दर्य की सांकेतिक भाषा


लयबद्ध थिरकती क्रिया है नृत्य। नाट्य और नृत्त का संयोग।... और इधर जब टीवी चैनलों पर नृत्य के जो प्रतिस्पद्र्धी कार्यक्रम देखता हूं, लगता है जैसे शरीर को हिलाने, गिराने, उठाने, पटकने को ही नृत्य मान लिया गया है। शारीरिक अंगो का दृष्यमय यह प्रदर्षन व्यायाम हो सकता है, मनोरंजन का अनर्गल हो सकता है पर नृत्य कैसे हो सकता है! नृत्य सौन्दर्य की सांकेतिक भाषा है। ऐसी जिसमें चित्रकला है, षिल्प है और अनुभूति से जुड़ी संवेदनाओं का संवेग संयोग भी। 
बहरहाल, नृत्य की बात करें तो अकेले कथक को ही लें। तकनीक के हिसाब से समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार इसमें बहुत से परिवर्तन भी हुए पर संरचना में शारीरिक अंगो का प्रदर्शनभर यह कभी नहीं रहा। इसीलिए इसका सौन्दर्य कभी तिरोहित नहीं हुआ। मंदिरों में यह जन्मा। दरबारों में विकसित हुआ। दरबारी शैलियां ही बाद में घराने बने। जयपुर और लखनऊ घराने से कथक की पहचान विश्वस्तर पर पहुंची। कुछ बनारस घराने की भी बात करते हैं परन्तु लखनऊ और जयपुर घराने का मिश्रण सरीखा ही है यह। हां, कथक से राजा चक्रधर सिंह और रायगढ़ का नाम भी जुड़ा है। राजा चक्रधरसिंह ने अपने तई कथक में बंदिषों, तोडो, परन आदि को शास्त्रबद्ध करते संस्कृत शब्दावली में जो कुछ नया जोड़ा वह कथक के रायगढ़ घराने से जाना जाता है।
जो हो, मंदिरों, दरबारों और फिर घरानों से जुड़ा कथक सौन्दर्य की सर्जना के अपने मूल में आज भी लुभाता है। समय परिवर्तन के अनुसार इसमें बढ़त भी हुई। विषय-वस्तु, वेषभूषा और प्रस्तुति के लिहाज से पर इसकी शास्त्रीयता में कहां कमी आई! मुझे लगता है, वर्षों से जुड़ी आ रही परम्परा सहेजना जरूरी है पर परम्परा रूढ़ नहीं हो, जड़ नहीं हो, इसके प्रयास भी जरूरी है। नृत्य में गुरू क्या करता है? परम्परा से ही तो अवगत कराता है। नर्तक के लिए नृत्य से जुड़ी संभावनाओं को समझने मंे गुरू ही सबसे अधिक मदद भी करता है परन्तु स्वयं कलाकार जब नृत्य करता है तो उसे उसमें अपने आप की भी तलाष करनी होती है। जो हो चुका है, हो रहा है-उसमें नर्तक स्वयं कहां है, इसका अन्वेषण यदि वह करता है तभी परम्परा के जड़त्व को तोड़ वह आगे बढ़ सकता है। प्रेरणा श्रीमाली ने, शोवना नारायण ने, कुमुदिनी लाखिया आदि कलाकारों ने यही तो कथक में किया है। 
"डेली न्यूज़", 10 जनवरी, 2014 
बांग्ला-अंग्रेजी संवादों के साथ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मेल की शोवना नारायण की ‘कादंबरी’ इसी का उदाहरण है। प्रेरणा श्रीमाली ने कबीर को जीवंत करते उनके जुलाहे स्वरूप को भावाभिनय से अमूर्त में भी मूर्त किया है। पद संचालन में हाथकरघे की ध्वनि बुनते वह जैसे कथक के जयपुर घराने की पद भाषा से उसे गहरे से व्यंजित करती है। कुमुदिनी लाखिया ने कथक को पौराणिक कथाओं, आख्यानों, राधा-कृष्ण की परिधि से बाहर निकाल सामयिक परिवेष दिया। आधुनिक परिवेश में नृत्य के यह प्रयोग इसलिए अखरते नहीं है कि इनमें कथक की शास्त्रीयता, उसके सौन्दर्य से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई है। प्रेरणाजी के शब्द उधार लूं तो कहूं, कथक में सूफियाना कुछ हो सकता है पर ‘सूफी कथक’ उसे नहीं कहा जा सकता। कथक कथक है। इधर हो उलट रहा है। अंगों के चाहे जैसे प्रदर्शन के अनर्गल को शास्त्रीय से जोड़ उसे परिभाषित किया जा रहा है। शरीर के अंगो की गति के दुरूह प्रदर्षन को ही नृत्य मान लिया जा रहा है। यह कार्य तो मशीन अधिक बेहतर कर सकती है। इसके लिए देह को क्यों कष्ट दें! कलाएं संवेदनाओं का आकाष है, चमत्कार नहीं। चमत्कारिक ही कुछ करना है तो फिर उसे नृत्य नाम न दिया जाए!

Friday, January 3, 2014

परम्परा, आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता


समूह चित्र प्रदर्शनियों की बड़ी सीमा यह होती है कि उनसे किसी चित्रकार के कलाकर्म की संपूर्णता की दीठ नहीं मिलती। कुछेक श्रेष्ठ से तमाम कला का मूल्यांकन हो भी कैसे सकता है! पर देख रहा हूँ कोई दो दशक पहले अजमेर के पांच चित्रकारों की पहल से स्थापित ‘आकार’ समूह की सामुहिक चित्र प्रदर्शनी इस सीमा को लांघती है। कलाओं के गहन सरोकार लिए। बरस दर बरस समुह प्रदर्शनी में जिन चित्रकारों की कला से निरंतर साक्षात् होता रहा हूं, उनकी कलाकृतियां में आ रही परिपक्वता और समय के जुड़ते संदर्भ संभावनाओ के  नए द्वार खोलते हैं। 
बहरहाल, इस बार प्रदर्शनी में बहुत कुछ नया था। रंगों की ओप दीठ से, रेखाओं की लय से और समय से जुड़े संदर्भों की ओट से भी। मसलन कृष्ण की छवियों को नील रंग की सघनता में कैनवस पर उकेरते डा. अनुपम भटनागर ने कृष्णमय भावों को गहरे से अंवेरा है। भटनागर के चित्रों की बड़ी विशेषता  रंग और रेखाओं का माधुर्य है। ऐसा जिसमें परिवेश कथा, प्रसंग को उद्घाटित करता हममें बसता है। ‘आकार’ ग्रुप  के संस्थापकों में से एक लक्ष्यपालसिंह राठौड़ की कलाकृतियां भीड़ में भी अलग से दिखाई देती है। वजह है, उनमें बसा लोक का आलोक। धुंध से उभरती आकृतियों में राजस्थान का सुरम्य परिवेश  उनके चित्रों में ठौड़-ठौड़ है। मुझे लगता है, वह रेत के  हेत की संस्कृति के चितेरे हैं। प्रहलाद शर्मा की चित्र श्रृंखला की परियां रंगों की दीप्ती लिए जीवंतता की संवाहक बन पड़ी है तो अमित राजवंशी  घोड़ों की ऊर्जा कैनवस पर संजोते प्राचीन गुफा चित्रों की याद दिलाते हैं। धूसरित होते रंगों में उन्होंने महीन रेखाओं में विषय को सांगोपांग जिया है। अशोक  दीक्षित और अनिल मोहनपुरिया के चित्रों का सघन टैक्सचर और रेखाओं में रंगों का बहाव ध्यान खींचता है तो जलरंगों में देवेन्द्र खारोल ने पुष्कर की धरा में प्रकृति के अपनापे और पहाडि़यों के सौन्दर्य को जीवन्तता प्रदान की है। विनय त्रिवेदी परम्पराओं को सहेजते प्रयोगधर्मी कलाकार हैं। उनके चित्रों के केन्द्र में प्रतीक रूप में उभरती मानवीय आकृतियां संवेदनाओं को गढ़ती है। सरल रेखाओं में वह जीवन से जुड़े द्वन्द और स्मृतियों को परम्पराओं में सहेजते हैं-मिनिएचर की दीठ लिए।
"डेली न्यूज़", सम्पादकीय पेज
(साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट") 3 जनवरी, 2013 
राजाराम व्यास चित्र फलक में दृष्टि संपन्नता लिए हमसे जैसे बतियाते हैं। नीता कुमार लोक चित्रो की हमारी समृद्ध परम्पराओं से साक्षात् कराती कैनवस कोलाज हमारे समक्ष रखती है तो उमा शर्मा के पेपर कोलाज अमृत लाल वेगड़ की अनायास ही याद दिलाते  हैं। शैला शर्मा की मोर पंख पार्श्व  लिए आकृतियां एक तरह से रंग कहन ही है। सुरेश  प्रजापति ने ब्रह्मा के जरिए सृष्टि को अंवेरा है तो हितेन्द्र सिंह भाटी के लोक चित्र सरीखे आख्यानों में बढ़त है। अर्चना की सहज सरल आकृतियां और रमेश शर्मा के चित्र कैनवस कथा सुनाते रेखाओं की लय से हममें बसते हैं। दिनेश  मेघवाल और पुष्पकांत मिश्र के चित्रों में उभरते संभावना आकाश  को पढ़ा जा सकता है। कीर्ति चटर्जी के कृष्ण और एम.कुमार का साधू, चित्र साधना के संवाहक है। हां, शिवराज  सिंह कर्दम के स्कल्पचर में टैक्सचर और गढ़न के साथ संवेदनाओं का उद्घाटित होता अर्थ भी मन को स्पन्दित करता है।
बहरहाल, यह महत्वपूर्ण है कि अजमेर का ‘आकार’ समूह निरंतरता के साथ अपनी कला प्रदर्शनियो में परम्परा, आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता के ताने-बाने में कलाओं के हमारे समय से साक्षात् करा रहा है।