Friday, March 28, 2014

चाक्षुष यज्ञ में वैचारिक भाष्य



कल विश्व रंगमंच दिवस था। संचार माध्यमों में सामयिक रंगचर्या पर बहुत कुछ था पर रंगमंच की वैचारिकी कहीं नहीं थी। माने चर्चाओ में मंचीय प्रस्तुतियों तो रहती है परन्तु विचार संप्रेषण गौण होता है। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि जो कला कभी वैचारिक उन्मेष का सशक्त माध्यम रही है, उसी में विचार को दरकिनार कर दिया गया है।
बहरहाल, रंगकर्म चाक्षुषयज्ञ है। माने आंखो का अनुष्ठान। आंखे जो दिखाती है, वहां दृश्य के साथ विचार भी दीपदीपाता है। पर विचारें, इधर मंच प्रस्तुति के ताम-झाम से आगे क्या हिन्दी नाटक आगे बढ़ पाया है? बाकी की तो पता नहीं पर हिन्दी रंगकर्म की तो असल विडम्बना यही है। प्रस्तुति की कलात्मकता पर तो फिर भी बहुत से स्तरों पर यहां जोर है परन्तु वैचारिकता गौण है। नाट्य प्रशिक्षण का भी तो मूल संकट यही है। वहां प्रस्तुति विधान की ही सैद्धान्तिकी अधिक है। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है पर उसकी व्यावहारिकी नदारद है। माने वैचारिक लोक संकेतों को हमने वहां से भी बिसरा दिया। और भारतेन्दु का ‘अंधेर नगरी’ हिन्दी का आरंभिक नाटक है पर वहां लोक की व्यावहारिकी है। याद करें, नाटक में इंदर सभा बंदर सभा में बदलती है तो शब्द में अक्षरों का उलट-पुलट करते मनोरंजन का जबरदस्त तड़का है। इसलिए कि भारतेन्दु का लेखन रंगकर्म से जुड़ा रहा है। प्रसाद का नहीं जुड़ा रहा, इसलिए उनके नाटक जन से नहीं जुड़ पाए। 
डेली न्यूज़ में प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" 
रंगकर्म में आनंद के साथ विचार जरूरी है। निर्देशन और अभिनय में भी। ब्रेख्त ने रंगकर्म में अलग-अलग समय में आनंद का स्वरूप उस समय की समाज व्यवस्था के अनुरूप होने पर जोर दिया था। अब उलट हो रहा है। नाटक हो रहे हैं पर सभी कथ्य के जीवंत प्रदर्शन में अपनी ताकत झोंके हुए हैं। इसीलिए नाटक देखने के बाद कथा तो याद रहती है परन्तु उसमें निहित विचार कहीं नहीं ठहरता। मंचन के लिए भी वही नाटक चुने जाते हैं जिनमें विचार की अधिक माथापच्ची नहीं हो। नंदकिशोर आचार्य का ‘देहांतर’ इस दृष्टि से विरल है। पुत्र से प्राप्त यौवन ले उसका भोग जब शर्मिष्ठा के साथ होता है तो वह जिस मनःस्थिति से गुजरती है, उस नाट्य विचार को क्या कोई भुला सकता है! नाटक उपन्यास या कहानी नहीं हैं। स्वाभाविक ही है कि नाट्य लेखक का रंगमंच चिन्तन जरूरी है। ऐसे ही नाटक से जुड़े लोगों का साहित्य की संवेदना से जुड़ाव जरूरी है। आखिर नाट्य केवल अभिनय भर ही तो नहीं है। वहां कथन के साथ वैचारिक उन्मेष जुड़ा होगा तभी दर्शक उससे जुड़ सकंेगें। और यह तभी होगा जब रंगकर्म मजबूरी या शौकिया ही नहीं हो। इसलिए नहीं हो कि वह रोजगार देने वाला है बल्कि इसलिए हो कि उसमें स्वयं रंगकर्मी आनंद लेता हो। कलाकार, लेखक स्वयं आनंद का विचार करेगा तभी ना दूसरों को आनंद के साथ उसकी अनुभूति करा पाएगा!


Friday, March 21, 2014

रंगों की भाषा में उत्सवधर्मिता गान

वैश्वीकरण से कलाओं में आदान-प्रदान की सूझ तो बढ़ी है, पर वैविध्यता का लोप भी हुआ है। चित्रकला को ही लें। निरंतर एक जैसे ही विषय, रूपाकारों में रंगाच्छादन देखते बहुतेरी बार ऊब सी होती है। ऐसे में युवा कलाकार सुरेन्द्र सिंह के कैनवस पर बरते रंग, रेखाओं का उजास और बिम्बों में बसी स्मृतियां मन में औचक ही घर करती है। इसलिए कि एकरसता से परे भिन्न छटाओं में प्रकृति से जुड़े अनुभवों की अनथक यात्रा सरीखे हैं, उसके चित्र। कुछ दिन पहले सद्य बनाए उसके चित्रों और छाया-छवियों का आस्वाद करते यह भी लगा कि आंतरिक सौन्दर्यानुभति में वह स्मृतियों को कैनवस पर जीवंत करता है। लोक राग घोलते। इसलिए भी कि वहां मौलिक दृष्य प्रभाव भी है और रूप तत्वों का सांगीतिक आस्वाद भी।
बहरहाल, सुरेन्द्र के सद्य बनाए चित्रों की कला प्रदर्शनी ‘बियोन्ड टेक्सचर’ कलानेरी कलादीर्घा में प्रारंभ हुई है। कला पेटे इधर कैनवस पर जो कुछ सिरजा जा रहा है, उसमें सुरेन्द्र सिंह के चित्र अपनी मौलिक दीठ से भविष्य की उम्मीद जगाते हैं। हो सकता है, कोई इन्हें एब्सट्रेक्ट कहेे पर वहां रूप का सौन्दर्य है। यथार्थ के गहरे सौन्दर्य संकेत जो वहां है! वास्तविक रूप भले न हो पर चित्रित क्षेत्र के आकार व रंग में जीवन से जुड़े अनवरत संदर्भों की कहानियां दृष्य कहन सरीखी ही हैं। चित्रों में उभरे रंगालेपों में कहीं मंदिर में हो रही प्रार्थना की ध्वनियां हैं, मांडणा सज्जित घर और उससे जुड़ी यादों के संदर्भ हैं तो ठौड़-ठौड़ अंवेरा रेत का हेत भी है। कैनवस पर समतल पर विभाजित रंग आकारों और उनके आभास में आधुनिकता की लय के बावजूद सुरेन्द्र के चित्रों में पारम्परिक भारतीय चित्र शैलियों की दीठ है। और हां, लोक कलाओं के जो अलंकरण वहां है, उनमें मिट्टी की सौंधी महक भी है। कुछेक चित्रों में फूल और पंखुडि़यों के साथ लहराती पत्तियों में प्रकृति के अपनापे को जैसे बुना गया है तो कुछेक में लहरों की वक्रता के साथ गतित्व की सुनहरी आभा मन को सुकून देती है। पर कुछेक चित्रों में आकृतियों  के साथ उभरे आधुनिक जीवन बिम्ब अखरते भी हैं। सहज सौन्दर्य की लय तोड़ते।
बहरहाल, इधर बनाए सुरेन्द्र के चित्रों की बड़ी विशेषता  यह तो है ही कि उनमें किसी शैली विशेष या कलाकार का कहीं कोई अनुकरण नहीं है। अंतर की प्रेरणा में भारतीय जीवन दर्शन के साथ वह लोक कला की सहजता में अपने तई बढ़त करता है। चित्र देखते वान गो के चित्रों की भी याद हो आती है।...शायद इसलिए कि रंगों का वहां प्रतिकात्मक महत्व है। माने बचपन की यादों के साथ वर्तमान जीवन से जुड़ी आपा-धापी भी रंगों से ध्वनित होती है। तमाम उसके चित्र रंग भाषा में स्मृतियों और अनुभूतियों की एक तरह से व्यंजना है। सोचता हूं, वान गो ने ही तो कभी चित्रकला में रंगों की भाषा समझाई थी। इस दीठ से सुरेन्द्र के चित्र अंतर्मन संवेदनाओं की अनुकूल रंग संगति तो है ही, हमारी सांस्कृतिक कला विरासत में स्मृतियों के जीवंत दस्तावेज सरीखे भी हैं।सेजान की मानींद सुरेन्द्र के चित्रों में प्रचलित का अध्ययन तो है पर रूप परिवर्तन की मौलिक दीठ भी है। माने जो कुछ कला में दिख रहा है, उसकी एकरसता तोड़ते वह बाह्य प्रभावों से परे कैनवस पर सौन्दर्य को एक तरह से सिरजता हैं। 
‘बियोन्ड टेक्सचर’ श्रृंखला के सुरेन्द्र सिंह के चित्र लोक राग लिए प्रकृति घुले रंगों से अपनापा कराते हैं। इसीलिए मन को मोहते हैं।  कैनवस पर सधे-संयोजित रंग देख मन में काव्य की पंक्तियां हिलोरे ले रही है। स्मृतियों और अनुभूतियों के दृष्यालेखों में ऐसे ही होता होगा-उत्सवधर्मिता का गान। 

Friday, March 14, 2014

गळियां में आवै गौरा झूमती

जब-जब होली का त्योंहार नजदीक आता है, मन अवर्णनीय उमंग, उल्लास से भर उठता है। यह उमंग होली के रंग खेलने से कहीं अधिक उन 15 दिनों को जीने की होती है, जिसमें आस-पड़ौस कभी गवर पूजे जाने के दिनों की याद जुड़ी हुई है। इधर होलीका दहन हुआ, उधर गवर पूजन शुरू। सामुहिक स्वर माधुर्य, ‘पातळिया ईसर, गळियां में आवै गौरा झूमती’ और ऐसे ही दूसरे गवर गीतों से ही भोर की आंख खुलती। संगीत स्वरों की वह सुबह इस कदर सुहानी होती कि मन चाहकर भी उसे कहां बिसरा पाया है! पर उत्सवधर्मिता के दिन पंख लगाकर उड़ जाते। पखवाड़े बाद गणगौर मेले में गवर विसर्जन के साथ ही जैसे उमंग-उत्साह के दिन बीत जाते। 
गणगौर ऐसा ही लोक पर्व है। संस्कृति की लय अंवेरता। मां से पूछता हूं, अभी भी बीकानेर में गवर पूजते लड़कियां 15 दिन सुबह उठकर वैसे ही सामुहिक गीत गाती है? मां का जवाब हां भी होता है और ना भी। भाव यह है कि गणगौर पर्व पखवाड़ा होता तो अभी भी है परन्तु उसमें वह उमंग, उत्साह और लड़कियों के गान के दिन अब नहीं रहे। 
बहरहाल, गणगौर में दो शब्द है। गण और गौर। ‘गण’ माने शिव और ‘गौर’ यानी पार्वती। कन्याएं शिव समान अच्छे वर के लिए गवर पूजती है। पर इस पूजन भाव में भक्ति वाला गांभीर्य नहीं है, यहां सखी-भाव प्रधान हैै और पूजने की बजाय ‘खेलने’ पर अधिक जोर है। मौहल्ले-गली की लड़कियांे एकत्र होकर सामुहिक रूप में गवर पूजने के बहाने जैसे आपस में घुल-मिल खेलती है। याद पड़ता है, होली के बाद जब सोते तो आंख घर के पास से आते सामुहिक गीतों के मधुर स्वरों से ही खुलती थी। पता चल जाता, बहन पहले ही उठ गणगौर पूजने चली गई है। पूरे पखवाड़े तक सुबह गवर गीतों से ही सुहानी होती। सामुहिक सोल्लास भोर भर ही नहीं बल्कि पूरे 15 दिन तक अनुभूत होता। महिलाएं-कन्याएं गीत गाती हुई दूब लाने जाती और गणगौर का श्रृंगार करती। होली की राख के पींडे बनाए जाते और उन्हें पूजन के बहाने सजाय संवारा जाता। लड़कियां गीत गाती जाती और गान के साथ-साथ ही गुलाल के विभिन्न रंगों के मांडणे धरा पर मांडती। 
बीकानेर पाटों का शहर है सो गली-मौहल्ले में पाटों पर ‘ईसर-गणगौर’ की लकड़ी की गहनों, कपड़ों से सजी सुन्दर प्रतिमाएं सजती। रंग-बिरंगे वस्त्र, गहने, साज-श्रृंगार से सजी एक से बढकर एक सुन्दर गवरें। पूरे 15 दिन बहने गवर पूजती और उनके साथ हम भी जैसे उनके उमंग और उत्साह के साथी होते। कहें तब मन में अवर्णनीय उत्साह, उमंग गवर को लेकर रहता और गणगौर मेले में यह उत्साह चरम पर पहुंच जाता परन्तु यह गवर विदा का समय होता। अलसुबह ही कुआंरी कन्याएं, महिलाएं, बूढी दादियां एकत्र हो जाती। मिट्टी के पालसिए में उगाए ज्वारे और गुलाल लिए गवर का विसर्जन करने पास के कुओं, तालाबों में मेला सा भरता।
डेली न्यूज़, 14 मार्च, 2014 
मुझे लगता है, गणगौर समुह भावना को जीवंत करता पर्व है। एक दिन नहीं पूरे 15 दिन तक के लिए। इसमें संगीत है, नृत्य है और है लोकानुरंजन। और हां, जीवन से जुड़ा अनुराग भी। जयपुर में आए एक दशक से अधिक का समय हो गया है। मित्र कहते हैं, अब तो मूल निवास प्रमाण पत्र भी चाहो तो यहां का बन सकता है। पर कोई बताये, महानगर होते जयपुर में परम्परा की वह सोंधी महक कहाँ से मिले!  सोचता हूँ, अब जबकि होली नजदीक है, गणगौर गान के सामंुहिक स्वरों से जुड़ी उन यादों का क्या करूं। कोई बताए कहां से पाऊ माधुर्य का वह राग और उससे जुड़ा अनुराग! आप ही बताईए, भौतिकता की अंधी दौड़ में क्या हम अपने से ही लगातार ऐसे ही दूर नहीं हुए जा रहे हैं! 

Friday, March 7, 2014

नीरवता में रोशनी की आहट


Photo : Anurag Sharma
छायांकन में छवि का अंकन भर ही यदि होता है तो इसमें सृजनात्मक कुछ भी नहीं है। छायांकन कला का मूलाधार छवि अंकन में निहित वह दृष्टि है जिसमें दिख  रहे दृश्य को कला की दीठ से जिया जाता है। कैमरा छाया प्रकाश संतुलन के साथ छवि का सौन्दर्यांकन कर सकता है। यथार्थ-प्रकृति रंगों को मनोनुकूल भी उसमें किया ही जा सकता है पर उससे कलाकृति नहीं सिरजी जा सकती। कैमरा यदि कलाकृति निर्मित करता है तो यह वह आंख और उससे देखना, अनुभूत करना है जिसमें दृश्य के समानान्तर संवेदनाओं का सृजन किया जाता है। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में कुछ दिनों पहले अनुराग शर्मा के जयपुर केन्द्रित छाया-चित्रों का आस्वाद करते लगा, छायाचित्र वैसे नहीं थे, जैसे आमतौर पर कैमरे से लिए जाते हैं। धरती नहीं, आसमान से निहारी छवियां। साफ-सुथरी। पुराना जयपुर, नया जयपुर और तेजी से पैर पसारती महानगरीय संस्कृति। महत्वपूर्ण यह कि जो कुछ उन्होंने कैमरे से सिरजा उसमें दूरलघुदृश्यता में सौन्दर्य को ठौड़-ठौड़ जैसे अंवेरा गया है। 
छायाचित्र प्रदर्शनी में तमाम चित्रों के कोण, प्रकाश-छाया अंकन, संयोजन के साथ ही स्थापत्य में निहित बारीकी को अनुराग ने गहरे से जिया है। माने हवामहल, जलमहल, बिड़ला मंदिर, मोतीडूंगरी ही नहीं वल्र्ड ट्रेड पार्क और फ्लाईओवरों की निर्मिती के मर्म को उनके कैमरे ने गहरे से छूआ है। यह सब छायाचित्र तो खैर सौन्दर्य की सीर लिए है ही परन्तु मोतीडूंगरी के परकोटे की दिवारों, बुर्ज का जो अंकन अनुराग ने किया है, वह तो अद्भुत है। छायाचित्र आस्वाद करते लगता है, कैमरे ने पाषाण रेखाओं की लय को पकड़ते अतीत के मौन को सुनते उसे अपनी कला दृष्टि से कैमरे में से बुना है। यह है तभी तो परकोटे का लाईन वर्क और बारिश से भीग-भीग कर पत्थरों में भरी काई का भूरभूरापन मन को जैसे आंदोलित करने लगा। लगा, स्थापत्य में जो कुछ दिखता है उससे परे सधी रेखाएं भी मंडती है और प्रकृति इन रेखाओं में जो रंग घोलती है, उसे कोई कला ही संजो सकती है। सच!  कैमरे से जुड़ी कला ही यह कर सकती है।  मन में औचक खयाल आता है, छायांकन कला अतीत और उसमें घूले प्रकृति रंगों के मौन को एक तरह से रिकाॅर्ड कर फिर से हमें सुना सकती है। माने अतीत को वहां देखा ही नहीं, सुना भी जा सकता है। क्यों नहीं कला विमर्श में छायांकन कला की इस विशिष्टता पेटे ही कहीं कोई बात आगे बढ़े। 
Photo : Anurag Sharma 
बहरहाल, अनुराग की छाया-कला दृष्टि इस रूप में भी मन को लुभाती है कि वहां रात्रि में पसरे सन्नाटे के साथ ही पेड़ों पर पड़ती रोशनी की हरितिमा और दूर तक जाती काली नागिन सी सड़क का खालीपन भी हमसे संवाद करता है। अंधेरे की नीरवता में रोशनी की आहट और सड़क का दूर तक का खालीपन। चैराहों की धातु मूर्तियों की नृत्य छवियांे का मौन सौन्दर्य भी। मुझे लगता है, अनुराग शहरी स्थापत्य की भागती-दौड़ती जिन्दगी के नहीं, मौन और दूर तक पसरे खालीपन के छायाचित्र सौन्दर्य संवाहक हैं। और हां, अपने छायाचित्रों में वह आसमान से पकड़ी दृश्य की अनूठी सौन्दर्य लय तो अंवेरते  ही है साथ ही जो कुछ दिख रहा है, उसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं से जुड़े भावों को भी जैसे हमसे साझा करते हैं। हवामहल, मोतीडूंगरी के अतीत के साथ ही वर्तमान विकास से जुड़े दृश्य चित्रों के साथ वह बड़ी इमारतों, माॅल्स की निर्माण लय में जैसे भविष्य की आहट बुनते हैं। छायाचित्रों की उनकी सूझ में दिख रही चलचित्र के दृश्यों की मानिंद मन में हलचल करती हममें जैसे बसती है।