Friday, August 29, 2014

लोक नृत्य के शाश्वत स्वर

लोक-संगीत माने कहन-कथन का माधुर्य। कहां से आया यह संगीत, कहां से फूटे बोल? कोई नहीं जानता। पर संवेदनाओं का अद्भुत राग है इनमंे। परम्पराओं और संस्कृति को जीवंत देखना, सुनना और गुनना आखिर लोकनृत्यों की पाण ही तो संभव है। अभी कल की ही तो बात है। रवीन्द्र रंगमंच स्वर्णजयन्ती समारोह की समापन सांझ की नूंत मिली। विलम्ब से पहुंचा पर पलक पावड़े बिछाए जैसे लोक संगीत की स्वरलहरियां स्वागत कर रही थी। घेरदार घाघरे में हो रहा था, ‘घूमर’। ताल-लय का सुछन्द! मन उसमें रमा ही था कि भवई के साथ रूपसिंह शेखावत प्रकट हुए। पाश्र्व में ध्वनित लोक स्वर ‘कुण रै खुदाया कुंआ, बाग...’, ‘उडियो रै उडियो...’, ‘पल्लो लटके’, ‘जळ भरियौ हबोळा खाय..’ के बोल नृत्य मुद्राओं से जैसे जीवंत हो उठे। 
लोकनृत्य सम्राट रूपसिंह शेखावत
छायांकन : श्याम शर्मा 
तलवार की धार, परात पर सात मटकों को सिर पर साधे वह जब थिरक रहे थे, लगा राजस्थान का नृत्य और संगीत उनमें ही रूपान्तरित हो रहा है। वह जैसे बंचा रहे थे-कर, पाद और मुख-मुद्राओं से राजस्थान की संस्कृति और सभ्यता के पाठ दर पाठ। व्यक्त में संस्कृति का बहुतेरा अव्यक्त भी रच रहे थे। मुझे यूं नृत्य में रमते देख, पास बैठे संस्कृतिकर्मी मित्र ईश्वरदत्त माथुर ने धीरे से कान में कहा, ‘यह तो इनकी कला का चैथाई ही है।’ अचरज! चैथाई ही यह है तो सर्वांग कैसा होगा? 
सोचता हूं, संगीत, नृत्य के घरानों की तरह लोकनृत्यों में वैसा कुछ नहीं है पर जो कुछ वहां संचित है, उसे यदि अपने तई अंवेरते, नया उसमें कुछ जोड़ते लोक को आधुनिकता में भी जिन्दा रखने वाले कलाकार भी क्या वैसे ही सम्मान के हकदार नहीं है! कोई, उनकी पहचान भी तो करे। आखिर तमाम हमारा नृत्य-संगीत लोक से ही तो है। विडम्बना ही है, रूपसिंह शेखावत जैसे लोक कलाकारों की कूंत हम नहीं कर रहे। 
हां, रवीन्द्र मंच लोक रंजन से जुड़ी ऐसी प्रस्तुतियों का आरंभ से ही साक्षी रहा है। सुखद है, स्वर्णजयन्ती पर रवीन्द्रमंच सोसायटी, सांस्कृतिक संस्थाओं और संस्कृतिकर्मियों की सहभागिता से वर्षपर्यन्त संगीत, नृत्य, नाट्य के आयोजन हुए। बहुधा ऐसे आयोजनों में प्रशासकीय भूमिका कत्र्तव्य निर्वहन के दायरे में ही दिखती है पर आयोजनों में प्रबंधक नीतू राजेश्वर ने जिस रूचि से बारम्बार नूंत दी, कलाकारों के संग कलाकार होते जो सहभागिता निभाई वह सांस्कृतिक आयोजनों के लिए सुखद संकेत तो है ही।
घूमर
छायांकन : श्याम शर्मा 
बहरहाल, लोक चिर-पुरातन है, पर चिर नूतन भी। शाश्वत जो हैं इसके स्वर! नृत्य कला में रमते, उसमें बसते मन नृत्य सम्राट उदयशंकर की नृत्य मुद्राओं को याद कर रहा था। लगा, जिस तरह से उन्होंने नृत्य की शास्त्रीयता को अपने तई गुंजरित किया, ठीक वैसे ही तो रूपसिंह शेखावत राजस्थान की लोक संस्कृति को अपनी नृत्य मुद्राओं से ध्वनित और जीवंत करते हैं। राजस्थानी लोकनृत्य सम्राट ही तो हैं वह! उम्र के सत्तर दशक बाद भी जिस चपलता से वह नृत्य करते हैं, लगता है लोक थिरकन ही है, उनका यह जीवन। 


Friday, August 22, 2014

प्रकृति के सौन्दर्य चितराम


कलाकृति : अन्नपूर्णा शुक्ला 

पेड़, पहाड़, पक्षी, नदी और घाटियों  से ही तो है प्रकृति का सुरम्य रूप।  कहें, यह जीवन का वह सुमधुर राग है जिसे देखा, सुना और छुआ भी जा सकता है।
सोचिए!  पक्षी चहचहाते हैं, पेड़ लहलहाते हैं,  उमड़-घुमड़ बादल बरसते हैं तभी ना ओढ़ती है-धरित्री हरियाली का आंचल।  प्रकृति के इन भांत-भांत के रंगों की पाण ही मन पाखी भरता है, सृजन की उड़ान। 
बहरहाल, आधुनिकता में गांव जब तेजी से शहर बन रहे हों। हवा-पानी में प्रदूषण का जहर घुल रहा हो, प्रकृति के सौन्दर्य को अनुभूत करने की संवेदना भी जैसे कहीं गुम हुई जा रही है। पर पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में अन्नपूर्णा शुक्ला सृजित प्रकृति दृश्यावलियों से साक्षात् होते लगा, जीवन के सुमधुर राग को कला ही सांगोपांग ढंग से जीवन्त करती है। उनका कैनवस रंग-रेखाओं की लूंठी लय अंवेरता प्रकृति दृश्यावलियों का न भूलने वाला पाठ जैसे हमें बंचाता है।  हरी घास, काले-भूरे बादल, नीला आकाश, धूप में नहाते पेड़, चांद और उसकी चांदनी के साथ हवा-पानी तक को अन्नपूर्णा ने सौन्दर्य की अर्थ अभिव्यंजना में गुनते गहरे से कैनवस पर बुना है। एक चित्र में पहाड़ों के बीच बहती नदी का सौन्दर्य चितराम है। नदी केन्द्र में है पर पहाड़, पेड़, झााडि़यां और तमाम परिवेश की सूक्ष्म व्यंजना में भावों की अनूठी ओप वहां है। ऐसे ही एक में बादलों के उमड़ने-घुमड़ने को जिया गया है तो एक में पक्षी के कीट भक्षण की गूढ़ व्यंजना है। चित्र और भी है। जिनमें ठौड़-ठौड़ प्रकृति से जुड़ी समय संवेदनाओं को उकेरा गया है। पहाड़, पेड़ और नदी से जुड़े छाया-प्रकाश संबंधों की गतिशील लय वहां है। मुझे लगता है, अन्नपूर्णा रंग-रेखाओं में प्रकृति से जुड़ी सौन्दर्य संवेदना के गूढ संकेत रचती है। उनके चित्र उस रहस्यमय फंतासीलोक की सैर कराते हैं जहां प्रकृति के असीम छोर को पकड़ने का जतन है। इसीलिए कि पेड़ है तो उसका सौन्दर्य से जुड़ा कोई संदर्भ वहां है, चिडि़या है तो उसके गान में गुंजरित भाव है, नदी है तो उसके बहाव का मर्म है, पहाड़ है तो उस पर छाए कोहरे और धूप को भी गुना-बुना गया है और फूल-पत्तियां, घास, वनस्पति भी यदि है तो उनमें निहित लय की सौन्दर्य संवेदना वहां ध्वनित होती है।   
कलाकृति : अन्नपूर्णा शुक्ला 
अन्नपूर्णा शुक्ला के प्रकृति चित्रों का आस्वाद करते औचक सुमित्रानंदन पंत की बांसो के झुरमुट पर लिखी पंक्तियां जेहन में कौंधने लगी है,  ‘बांसो का झरुमुट संध्या का झुटपुट है चहक रही चिडि़या टी-वी-टी-टूट्-टूट्।’ बांस, संध्या, झरुमुट और चिडि़या के चहचहाने की इस व्यंजना में दृश्य का सघन संप्रेषण ही तो है। अन्नपूर्ण शुक्ला के चित्र यही करते हैं। मन करता है, पेड़, पहाड़, नदी और उससे जुड़े संवेदना में रमें। उनमें बसें। प्रकृति की उकेरी दृश्य गंध को अनुभूत करें। आखिर, अन्नपूर्णा शुक्ला के चित्र हमें प्रकृति के रहस्यमयी फंतासी लोक में ही तो ले जाते हैं। अनुभूति के खरेपन में सौन्दर्य संदर्भों की सर्जना कोई कलाकार आखिर ऐसे ही तो करता है!

Friday, August 8, 2014

कार्टून कला के प्राण का जाना


गागर में सागर भरती हास्य-व्यंग्य में सराबोर कोई कला है, तो वह-कार्टून कला है। संस्कृति, साहित्य और तमाम दूसरी कलाओं का स्थान भले समाचार पत्रों में निरंतर कम होता चला गया है परन्तु आज भी मुखपृष्ठ को समृद्ध करती कोई कला नजर आती है तो वह भी कार्टून कला ही है। कहें, इस समय कला ही नहीं पत्रकारिता की भी यह वह विधा हैं जिसमें रेखाएं किसी स्तर पर संपादित  नहीं होती।
बहरहाल, आर.के.लक्ष्मण के कार्टून ‘आम आदमी’ ने देश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। चेक वाला बंद गले का कोट, सिर पर सफेद बालों का एक-आध गुच्छा बचाए और नाक के ऊपर भारी सा चश्मा पहनता हैरान-परेशान ‘आम आदमी’ जीवन में कुछ इस कदर घुला-मिला नजर आता है कि चाहकर भी हम उसे बिसरा नहीं सकते।
ठीक वैसे ही जैसे प्राण कुमार शर्मा सिरजे पगड़ी पहने चाचा चैधरी को हम शायद ही कभी भुला पाएं। भारतीय काॅमिक जगत के उस पुरोधा का काल कवलित होना, जैसे एक युग की विदाई है। प्राण ने उस समय में अपने उस बेहद चतुर कार्टून चरित्र को गढ़ा था जब कम्प्यूटर का बोलबाला नहीं था।



पर यह चरित्र जब चुटकियों में समस्या का हल करता तो, काॅमिक में लिखा आता, ‘चाचा चैधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है।’ काॅमिक का यह कहन भारतीय जीवन में मुहावरे की मानिंद रच-बस गया। और यही क्यों, उनके कार्टून चरित्र ‘चन्नी चाची’, ‘बिल्लू’, ‘पिंकी’, ‘रमन‘, ‘साबू’, ‘राका’, ‘गोबर सिंह’ भी जैसे हममें घुल मिल गए हैं। 

याद पड़ता है, स्कूल के दिनों में छुपाकर प्राण रचित चाचा चैधरी श्रृंखला की काॅमिक्स ले जाते। कक्षा मंे अध्यापक पढ़ा रहे होते और मुंह नीचे किए एक दिन में दस-दस काॅमिक्स पढ़ डालते। मन तब भी भरता कहां था! सोचता हूं कार्टून चरित्रों से लगाव तभी हुआ जो अभी तक बरकरार है।
बहरहाल, कार्टून कला भर ही नहीं है, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों की जिम्मेदार समीक्षक भी हैं। कभी पंडित नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर ने एक कार्टून बनाया था। नेहरूजी माईक पर जनता को संबोधित कर रहे हैं, ‘हमें आगे बढ़ना है।’ लोग इधर-उधर तेजी से भाग रहे हैं। नीचे छोटा सा वाक्य है, ‘व्हेअर?’ कार्टून कला परिवेश के सच को ऐसे ही उघाड़ती है। कभी अबू अब्राहम का कार्टून संकलन ‘द बुक रिव्यू’ खरीदकर लाया था। मुखपृष्ठ ही संकलन के अंदर के पन्नों को जैसे बंया कर देता है। कुछ नहीं, अबू का चिर-परिचित चतुर कौआ वहां है। चश्मे से झांकती पैनी नजर, सभ्रांत कौआ। कार्टूनिस्ट के लिए शब्द जरूरी कहां है! उसकी रेखाएं ही इस कदर बोलती है कि दृश्य जेहन में हमेशा के लिए जैसे बस जाता है।
प्राण की सधी कार्टून रेखाएं ऐसी ही हैं। वह नहीं रहे! इस एक समाचार ने अंदर से हम जैसे बहुतों को शायद हिला दिया है। बंद आंखों में भी जैसे बहुत कुछ दिखने लगा है। चाचा चैधरी, साबू और चन्नी चाची ही नहीं विलेन चरित्र गोबर सिंह और राका भी जार जार रो रहे हैं। आखिर उन्हें जन्म देने वाला वह शख्स जो चला गया है! प्राण जा नहीं सकते। वह हममें विलीन हैं।


Sunday, August 3, 2014

शास्त्रीय रागों का दृश्य कहन

रामकुमार के रेखांकनों की एक महत्ती कला प्रदर्शनी को कोलकता में आकृति आर्ट गैलेरी के लिए प्रयाग शुक्ल क्यूरेट कर रहे हैं। निमंत्रण का उनका मेल आया तो रामकुमार की कलाओं में ही मन जैसे रम गया।...
रामकुमार शब्द कहन में ही नहीं, अपने चित्रों से भी स्मृतियों और अनुभूतियों का आकाश रचते हैं। कैनवस पर दृश्य के वह मोहक पर विरल पाठ जैसे बंचाते हैं। ऐसे दौर में जब यह तय कर पाना मुश्किल है कि कौनसी कलाकृति किस कलाकार ने सिरजी है, यह सुखद है कि रामकुमार के चित्र अभी भी अपनी शैली, रंग-रेखाओं की विशिष्ट व्यंजना में अलग से पहचान में आते हैं। कोई सालेक पहले केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के निमंत्रण पर अगरतला जाना हुआ था। राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में आई प्रविष्टियों का आस्वाद करते एक जगह रामकुमार जी की कलाकृति देख ठिठक गया। यह यहां कैसे?’ पता चला किसी ने रामकुमार जी के कार्य की काॅपी भेज दी, और मजे की बात यह कि उसे राष्ट्रीय प्रविष्टि में चयनकर्ताओं ने शुमार भी कर लिया था। मन खट्टा हो गया। रामकुमार की कलाकृतियां को कोई जूरी सदस्य कैसे भूल किसी और की मान सकता है! 

बहरहाल,  रामकुमार के रेखांकनों की एक महत्ती कला प्रदर्शनी को कोलकता में प्रयाग शुक्ल क्यूरेट कर रहे हैं। निमंत्रण का उनका मेल आया तो रामकुमार की कलाओं में ही मन जैसे रम गया। लगा, दृश्य संवेदना या फिर अंतर्मन अनुभूतियों को रंग-रेखाओं में वह इस सुघड़ता से बरतते हैं कि औचक ही किसी कहानी, घटना या फिर स्थान विशेष से जुड़ी स्मृति का कोई छोर वहां खुलता नजर आने लगता है। उनकी कलाकृतियां दृश्यालेख सरीखी ही हैं। जमीं के किसी टूकड़े में समाया किसी स्थान की विशेषता को रेखांकित करता कोई प्रतीक वहां है तो कहीं रंगो से मन में औचक किसी संवेदना का गान वहां है। चिंतन के आलोक में मन मथती कहन का विरल छन्द लिए ही तो है उनकी कलाकृतिया।

 उनके चित्रों में रंगो की उर्वर भूमि परिवेश के अनगिनत सच बंया करती है। मन करेगा, चित्र देखें और ठहर-ठहर फिर से वहां जाएं। उनके कैनवस में स्थानों की बहुलता पर भी बहुत कुछ कहा गया है पर मुझे लगता है, प्रकृति से जुड़ी संवेदना और रंगो को ही उन्होंने अपने कैनवस पर गहरे से जिया है। प्रकृति के नित नए बदलते रूपों की मानिंद रंग वहां है। कहीं कोई ठहराव नहीं। रंग-रेखाओं में मौन की भी शास्त्रीय राग सरीखी व्यंजना। कुछ दिन पहले ही मुकुन्द लाठ जी ने अपनी सद्य प्रकाशित कृति ‘संगीत और संस्कृति’ भेंट की थी। पुस्तक का आवरण रामकुमार का है। इसे देखते मन में खयाल आ रहे हैं, रेखाओं सिरजी अनुभूतियों में वह रंगो को घोलते दृश्य की अद्भूत निर्मिती ही तो करते हैं! भले उनकी कलाकृतियों में, रेखाकंनो में स्पष्ट रूप नहीं है परन्तु दृश्यों का अपनापा है। कलाकृति देखते औचक मन करेगा, कैनवस में रमें। उसमें बसे। कला का असल सच यही तो है!