Sunday, November 29, 2015

अनुभूतियों का सौन्दर्यान्वेषण

राजस्थान की राजधानी जयपुर में कलाओं पर "जयरंगम" का आयोज़न महत्ती पहल है.  कला प्रदर्शनी, आर्ट कैंप के अलावा आम जन को कलाओं से जोड़ने के लिए "संवाद" जैसे कार्यक्रम भविष्य की उम्मीद जगाते हैं. कलाओं पर अंतः संबंधों पर एक सत्र में संवाद रखा गया. इस नाचीज़ ने उस स्तर का संयोज़न किया। सुखद लगा, इसलिए कि उसमे कत्थक नृत्यांगना रीमा गोयल, प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक रंजीत कपूर, युवा चित्रकार अमित कल्ला, बीससूत्री कार्यक्रम की अध्यक्ष और लेखिका ज्योतिकिरण, दैनिक भास्कर के विकास सिंह, ख्यात कलाकार विद्यासागर उपाध्याय के संग कलाओं के सरोकारों पर महत्ती चर्चा हो सकी. कलाओं के अंतर्संबंधों पर विमर्श की राह खुली।
बहरहाल, जयरंगम में और भी नित्य नए आयोज़न कलाओ पर हुए.

"जयरंगम आर्ट स्ट्रोककैटलॉग 
आयोज़कों के आग्रह पर "जयरंगम आर्ट स्ट्रोक" का कैटलॉग लिखने का फायदा यह भी हुआ कि कला प्रदर्शनी के लिए आयी कलाकृतियों का घूँट-घूँट आस्वाद हुआ. मुझे लगता है सौ से अधिक पृष्ठ का कैटलॉग भी जयपुर के कलाकारों की कला का महत्ती दस्तावेज बन गया है. आवरण कलाकार मित्र विनय शर्मा सृजित है.

"जयरंगम आर्ट स्ट्रोक" के लिए लिखे कैटलॉग की कुछ बानगी मित्रों की आग्रह पर यहाँ -

चित्रकला मन की भाषा है। संवेदनाओं से रचा आकाश! अनुभूतियों के गान में वहां स्मृतियां झिलमिलाती है। वैष्विक स्तर पर सूचना और संचार प्रौद्योगिकी ने कलाकारों के स्थानिक भेद को भले बहुत से स्तरों पर समाप्त कर दिया है परन्तु रंग बरतने की तकनीक, रूप विन्यास और माध्यम से प्रकट होने वाले बोध से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजस्थान की कला के इस दौर में बहुत कुछ महत्वपूर्ण भी निकलकर सामने आ रहा है। स्वाभाविक ही है कि कला का यह दौर मूल्यांकन की मांग भी करता है। तरह-तरह की छवियों में कला का जो नया सौन्दर्यषास्त्र विकसित हो रहा है उसमें पारम्परिक रूपो के साथ प्रयोगधर्मिता का अपनापा है। 
बहरहाल, कलाकृतियों के अपने तई अर्थ ढूंढने लगा तो लगा, नए कलाकार अर्थ के आग्रह से मुक्त होते हुए भी लोक संवेदना से जुड़े हुए हैं। मसलन अदिती अग्रवाल ने चारकोल में सूखे रूंख में जीवन से जुड़ी विसंगतियों को तो उभारा है परन्तु अष्व के बहाने जीवन गति का भी संकेत किया है। अमित हारित ने एक्रेलिक में पीले और हरे पाष्र्व में बारीक रेखांकन में लोक कलाओं से अनुप्रेरित आकृतियों की सुरम्य दीठ दी है तो रंगो के उत्सवधर्मी लोक में स्मृतियों का गान कराती सरीखी है अमित कल्ला की कलाकृतियां। चटख रंगों में पारम्परिकता का छंद रचती भीमसिंह हाडा की दमयन्ती और राजस्थानी परिवेष बयां करती महिला का चित्र और गौरीषंकर सोनी की गाढ़े रंगों के सांचों से उभरती, हवा में लटकी सरीखी मानवाकृतियों में छाया-प्रकाष के जरिए संवेदनाओं का गहरा आकाष बुना गया है। लाखन सिंह जाट, सुरेन्द्र जांगीड़, संजय वर्मा, पवन शर्मा, आषीष श्रृंगी, मुकुल मिश्रा, मनीष शर्मा, मुकेष शर्मा, श्वेत गोयल, मदन मीणा, हंसराज कुमावत, दीपक खंडेलवाल की कलाकृतियां प्रयोगधर्मिता के ताने-बाने में परम्परा की अपने तई सौन्दर्य सर्जना करती है। इन कलाकृतियों में अनुभूतियों का संवेग रेखाओं की नियंत्रित गति और रंगो के सुमधुर संयोजन से गहरे से व्यंजित हुआ है। यह महज संयोग ही नहीं है कि इन कलाकारों की कलाधर्मिता सांस्कृतिक सक्रियता में कला की बंधी-बंधायी अवधारणात्मक सीमाओं से बहुत से स्तरों पर मुक्त है। भवानीषंकर शर्मा की कलाकृतियों में कैनवस पर धूप में छाया सरीखी मानवाकृतियों से औचक उभरते रंग अनुभूतियों का अनुठा भव हमारे समक्ष रखते हैं। हर षिव शर्मा दृष्यानुभूतियों में रंग संवेदना का जैसे ताना-बाना बुनते हैं। स्त्री देह की लोच में घुलते रंगो के जरिए वह बीते किसी क्षण के भाव को गहरे से व्यंजित करते हैं।
लालचंद मारोठिया पेड़-पौधों, जीवाष्म और प्रकृति के नाना रूपों की सर्वथा नयी दीठ हमें देते हैं। किषोर सिंह और जगमोहन माथोडि़या की कला में संवेदनाओं का झीना राग है पर रंग अंवेदते वह परम्परा से जुड़ा छन्द भी अंवेरते हैं। भुवनेष जैमिनी, एल.एन. नागा, अषोक गौड़, अर्जुन प्रजापति के षिल्प में मूर्त-अमूर्त में देह का गान है तो भावों की मिठास भी। आकृतियों के गढ़न की गीतात्मक लय में इन कलाकरों ने सौंदर्य की अनूठी षिल्प सर्जना की है। ऐसे ही लोचन उपाध्याय ‘पावर आॅफ क्लाॅथ’ में भिन्न वस्तुओं से फूलों के गुलदस्ते सरीखी रूपाकृति में मोहक छन्द हमारे समक्ष रखते हैं तो सुरभि सोनी ने ‘तरंग’ और ‘सनफिल्ड’ कलाकृति में बिखरे रंग और रेखाओं की ओप आकृष्ट करती है। मीनाक्षी कासलीवाल शैल चित्रों की मानिंद धुमिल होते रूप में रंग संवेदना के साथ ही घेरे अंदर घेरे की रेखीय लय में अर्थ के नए गवाक्ष हमारे समक्ष जैसे खोलती है। डाॅ. अर्चना जोषी के रंग समृद्ध कैनवस में आकृतियों की ओप अलग से ध्यान खींचती है तो मिक्स मीडिया में मिनू श्रीवास्तव ने काले, लाल, हरे, नीले रंगो के चटखपन के साथ ही छाया-प्रकाषीय के रेखीय आयामों में समय की सांगोपांग व्यंजना की है। आर.बी. गौतम की मानवीय संरचनाएं जीवन में हो रहे बदलावों के साथ आधुनिकता की समय संवेदना सरीखी है तो एस.शाकीर अली ने मिनिएचर में इतिहास और लोक से जुड़ी संवेदना को जैसे अपनी कला में जीवंत किया है। षिखा राजोरिया ने बच्चों की उल्लासधर्मिता में आनंदानुभूति के क्षणों को कैनवस पर सपनों की उड़ान में रूपान्तरित किया है तो सोहन जाखड़ ने मिक्स मीडिया में ‘सैलर’ श्रृंखला में बच्चों के खिलौने और मानवीय आवष्यकता से जुड़ी वस्तुओं की उपयोगिता के रंगो से अनूठे अर्थ उकेरे हैं।
चिंतन उपाध्याय का संस्थापन बुनावट के जरिए जीवनगति को व्यंजित करता आधुनिकता का आकाष रचता कल्पना की मौलिक दीठ लिए है। सुधीर वर्मा ने रेखाओं के गत्यात्मक प्रवाह में नायिका भेद के साथ अष्व से जुड़े संदर्भों में रंगों का माधुर्य रचा है तो सुप्रिय शर्मा ने रेखाओं की बारीक लय में पषु-पक्षियों के साथ जीवन से जुड़ी लय को मैथिली लोक कला से आधुनिकता की संवेदना में जैसे रूपान्तरित किया है।
विद्यासागर उपाध्याय रंगो के अप्रितम चितेरे हैं। उनका अमूर्तन गत्यात्मक प्रवाह लिए है। रंग-रेखाओं के बिम्ब कोलाज में उनका कैनवस दृष्यों का चलयमान भाव लिए हमारे समक्ष जैसे उद्घाटित होता है। वीरबाला भावसार रेत से हेत कराती अपनी कलाकृतियों में स्मृतियों का पाठ बंचाती है। सुनीत घिल्डियाल की एक कलाकृति में रेखाओं का रंग उजास मोहने वाला है। ग्लोब का दिक् यहां है। टेक्स्चर और रेखाओ की सघन संवेदना जीवननुभूतियों को धुसरित रंगो में जैसे खास ढंग से व्यंजित करती है। शबीर हसन काजी रेखीय मानवाकृतियों में प्रतीक और बिम्बों के जरिए कैनवस के आंतरिक दर्षन को जैसे व्यंजित करते हैं। गोपाल
खेतांची ने बारहमासा की अपणायत में नायक-नायिका और मौसम के परिवेष की सुरम्य व्यंजना कैनवस पर की है तो नाथूलाल वर्मा और समन्दर सिंह खंगारोत की कलाकृतियां रंगो की सुघड़ता में परम्परा का सांगीतिक राग सुनाती सरीखी है। विनय शर्मा ने अपने स्टूडियो को केन्द्र में रखते अतीत को कैनवस पर सर्वथा नए ढंग से व्यंजित किया है। उनकी नाट्यमय रूपाकृतियों में मिनिएचर की एप्रोच तो है पर वहां रंगो और रूपाकारों की आधुनिकता भी है। 
बहरहाल, भिन्न माध्यमों में ‘जयरंगम’ के लिए कलाकारों ने दृष्टि का विस्तार किया है। इन कलाकृतियों में हमारा समय और समाज अपनी तमाम स्मृतियों, विस्मृतियों, खामियों और बेशक विशेषताओं के साथ मौजूद है। सौन्दर्य हमारी दृष्टि में है। दीठ के विस्तार में! ‘जयरंगम’ कला प्रदर्षनी की कलाकृतियां कलाकर्म में दीठ की बढ़त ही है।

Tuesday, November 24, 2015

सौन्दर्य का घूंट घूंट आस्वाद


अमृतलाल वेगड़ जी से बतियाना नर्मदा की संस्कृति को जीना सरीखा है. इधर उनकी महत्वपूर्ण कला-पुस्तक प्रकाशित हुई है-"नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’.



"जयपुर आर्ट समिट" में आयोजित पुस्तक लोकार्पण. में उनकी इस कृति पर आलोचकीय बोलने का अवसर सुखद था. 



नर्मदा के सौन्दर्य की ठौड़-ठौड़ व्यंजना इस पुस्तक में है. इसमें थोड़े शब्द हैं, चित्र और रेखांकन अधिक. इसमे उनके वह पेपर कोलाज हैं, जिनमे नर्मदा का सौन्दर्य झिलमिलाता हमें उसके होने का जीवंत अहसास कराता है. 



वेगड़जी के पास वह दृष्टि है जिसमे वह स्थानों को उसके भुगोल में ही नहीं वहां के संस्कार, संस्कृति में देखने वालों को बंचवाते हैं। यह सब लिख दिया है पर मैं फिर से इस कलाकृतिनुमा पुस्तक के पन्ने पलटने लगा हूं। सौन्दर्य का घूंट घूंट आस्वाद कर रहा हूं...

Monday, November 9, 2015

स्मृतियों का वातायन


पिताजी नहीं है! मन इसे अभी भी स्वीकार नहीं कर रहा। उनकी गुनगनाहट कान अभी भी अनुभूत कर रहे हैं। हमने उन्हें कभी ठाले बैठे नहीं देखा। हर वक्त वह किसी न किसी काम में ही लगे रहते। अपने नहीं-अधिकतर दूसरों के काम में। खाली बैठना उन्हें पसंद नहीं था। सोचता हूं, उन्होंने जिस साफगोई, सुफियाना फक्कड़पन को जिया उस पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है। मैं डायरी लिखता हूं। बहुत से पन्ने उन पर ही लिखे हुए हैं। क्यों नहीं वे ही किसी शक्ल में बाहर आ जाएं। कभी लगता है, उनकी स्मृति संजोते कुछ ऐसा करूं जो किसी ने नहीं किया है पर यह भी जानता हूं, पिताजी इस तरह के किसी भी दिखावे, ताम-झाम को पंसद नहीं करते थे। और फिर पिता किन्हीं डायरीनुमा लेखन में या फिर स्मृतियों के दीप में ही क्यों रहें, वह तो सदा मेरे पास है। रहेंगे। हां मुझे लगता है, स्मृतियों को लिखने का यह राग दरअसल उनके तर्पण प्रयास है! ऐसा तर्पण जो शांति प्रदान कर सके। उनकी आत्मा को जिनके लिए किया जाए और आपके उस मन के लिए भी जो यादों के गलियारे से बाहर आना ही नहीं चाहता।
बहरहाल, पिताजी नहीं है तो बीकानेर जाना औचक कुछ अधिक हो गया है। पहले ऐसा नहीं था। पर अब न जाने क्यो ंबीकानेर बारम्बार जाने का जोग बन रहा है। घर पहुंचता हूंू तो भूल जाता हूं, पिताजी नहीं है। इन्तजार करता हंू, वह आएंगे और कहेंगे, ‘यह ले स्कूटर की चाबी। पैट्रोल फूल करवा दिया है। टायर में हवा और सब दुरस्त है। जहां चाहो वहां ले जाना।’ पर देखता हूं, सफेद रंग का स्कूटर पूरी तरह से मिट्टी में भर गंया है। उनके जाने के बाद कौन उसकी सार-संभाल मेरे लिए करता!
अभी एक दस दिन पहले बीकानेर में ही था। सुबह रोज उठता तो अजीब सा खालीपन मन को कचोटता। पिताजी अलसुबह उठ जाते। दूध लाते और इधर कुछ वर्षों में तो हम जब बीकानेर पहुंचते तो सुबह की चाय भी ख्ुाद बना पिलाते। मैं गौर करता बच्चों के साथ मुझे आया देख वह आत्मिक सुकून को जैसे पा लेते। उनका मन करता, घर बहुत दिन तक ऐसे ही भरा-भरा रहे। चाहते बहू अरूणा को भी जयपुर से आने के बाद कोई काम घर में  नहीं करना पड़े। हां, वह घूंघट के हिमायती थे परन्तु बहू को बेटी से भी बढ़कर मानते। यही कारण था कि हम जब पहुंचते तो अपनी तरफ से यह प्रयास करते कि अरूणा को कुछ भी करना नहीं पड़े। सर्दी के मौसम मंे तो वह चाहते अरूणा और बच्चे बिस्तर से बाहर ही नहीं निकले। कहते, ‘अरे! बाहर बहुत सर्दी है। घूसे रहो रजाई में। कोई काम नहीं है, क्यों बाहर आ रहे हो।’
बचपन के दिनों को याद करता हूं। पिताजी में पिछले 15 वर्षों में हदभांत बदलाव आ गया था। विष्वास नहीं होता, रोबदार, कड़क मिजाज के मेरे पिता इतना अधिक बदल गए थे कि कोई उनके पुराने दिनों को याद कर कह नहीं सकता कि यह वही भूरजी हैं जिनसे गली-मोहल्ला तक कभी थर-थर कांपा करता था। जस्सूर गेट के हमारे पुस्तैनी घर में जब हम रहते थे। पिताजी का पूरी गली में इस कदर रोब था कि जब वह गली में प्रवेष करते तो जानबूझकर खंखारा करते। उनके इस खंखारे पर ही तमाम गली के लोग इधर-उधर हो जाया करते थे। उनके आते ही घर में जैसे कर्फ्यू लग जाता। हमसे वह कभी सामान्य सी बातचीत भी नहीं किया करते थे। मम्मी से भी उन्हें बतियाते हमने कभी नहीं देखा। उनके कक्ष में भी जाने की हमारी हिम्मत नहीं होती थी। पर इधर उनमें जबरदस्त बदलाव आ गया था। घर-परिवार की हर जरूरत का ध्यान रखते वह बीते वर्षों में इस बात का अपने तई निरंतर प्रयास करते थे कि उनकी वजह से किसी का जरा भी दिल न दुखे। इससे बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा कि धर्मनगर द्वार वाले हमारे घर का पूरा गली-मोहल्ला उनका फैन हो गया था। पड़ौस मे रहने वाला 26-27 वर्षीय मुकुल श्रीमाली तो उनका खास मित्र बन गया था। और भी गली-मोहल्ले के बच्चों के वह सर्वाधिक प्रिय पात्र थे। याद है, उनका जब अवसान हुआ तो पूरी गली के लोग आंसूओं से भीग रहे थे। उनके प्रति सच्ची श्रद्धा को अनुभूत कर तब मन मे ंअवर्णनीय आनंद की अनुभूति हुई थी।
पिताजी मजबूत कद-काठी के, बड़ी-बड़ी करीने से संवारी मूंछे रखने वाले रोबदार व्यक्तित्व के धनी थे। बचन में जब समझ विकसित नहीं हुई थी, अक्सर मन में एक प्रष्न उमड़ता रहता था कि पिताजी सुबह-सुबह मूंछों पर पट्टी क्यों बांध लेते हैं? स्नान करने के बाद पूजाघर में मूछों पर पट्टी बांध वह भैंरूजी का ध्यान किया करते थे। यह पट्टी तभी खुलती थी जब वे खाना खाने बैठते थे। उनका रोब कुछ ऐसा था कि हम तीनों भाई-बहिन इधर-उधर दुबके रहते। उनके सामने जाने से डरते थे। बहुत बाद में जब समझ विकसित हुई तब जाकर पता चला कि यह पट्टी मूंछो को करीने से रखने के लिए बांधी जाती थी। जब तक पिताजी थे, मूंछो के प्रति उनका लगाव ऐसे ही रहा। उन्होंने कभी बाल काले नहीं किए, सफेद होती जा रही मूंछो को रंगा नहीं। हां, कपड़ों और चाल-ढाल में अपनी स्वाभाविक अकड़ को उन्होंने कभी नहीं बिसरासया। बगैर प्रेस किए, सलवटों के कपड़े पहने उन्हें कभी नहीं देखा। रहते वह टीप-टाॅप थे परन्तु बनावटीपन न उनके स्वभाव में था न ही वह पंसद करते थे। 
इधर कोई दो दषक से वह हम लोगों से अत्यधिक घुल मिल गए थे। मम्मी को ब्रेस्ट कैंसर जब हुआ तो मैंने देखा, वह चुपके-चुपके आंसू बहाते थे। पर जितना ध्यान उन्होंने मम्मी का रखा, हममें से कोई रखने का सोच भी नहीं सकता। अक्सर वह कहते, ‘मेरी चिंता मत कर। तु अपनी मम्मी को जयपुर ले जा। वहीं रख।’ मैं कहता, आप भी चलो। त्वरित वह कहते, ‘मैं इस घर को छोड़ नहीं सकता।’ पर जानता हूं, मम्मी के बगैर वह एक दिन भी नहीं रह सकते थे। मम्मी जब जयपुर होती तो फोन पर रोज उनसे बात करती। वह कभी फोन पर नहीं कहते कि अब बहुत दिन हो गए, बीकानेर आ जाओ। मम्मी को बहुत बुरा लगता परन्तु हम जानते थे, पिताजी मन से चाहते थे कि मम्मी बीकानेर आ जाए परन्तु उनके मन में यह भी रहता कि इसका मन यदि बेटे के पास है तो उसके मन को क्यों मना करूं। मम्मी को भी पिताजी कि चिन्ता लगी रहती। वह जानती थी कि अपने आप वह न तो दूध लेंगे न ठीक से खाना खाएंगे सो वह कुछ समय बिताकर ही पिताजी के पास लौट जाती। अब सुनिए, बीकानेर घर नहीं छोड़ने की दास्तां। असल में पिताजी को बड़े भईया मनोज की चिंता रहती। भतीजी मुक्ता को सुबह रोज वह बस छोड़कर आते। यह दायित्व किसी ने उन्हें दिया नहीं, स्वयं ही ओढ़ लिया था सो अगर जयपुर चले जाए तो उसे छोड़ना नागा हो जाए। कभी इस दायित्व से वह झुंझलाते भी परन्तु जो दायित्व ले लिया सा ले लिया इसलिए वह जयपुर नहीं आते थे। यह उनके स्वभाव में था, वह अपने आप दायित्व ओढ़ लिया करते थे। छोटी बहन अनुराधा और उसके पुत्र माधव से भी उन्हें अतिरिक्त लगाव था। वह इन्तजार करते, अनु आए तो उससे ढ़ेरो मन की बातें करे। अनु भी उनका विषेष ध्यान रखती।
बाद के दिनों में धार्मिक पुस्तकों के प्रति वह अत्यधिक अनुरक्त हो गए थे। उनके कमरे में रखी ढ़ेरां पुस्तकों को जब खंगाला तो पाया, वह पुस्तकें गौर से पढ़ते। उन पर अण्डर लाईन करते और उनको गहरे से गुनते थे। धर्म और दान-पुण्य के प्रति भी उनकी आस्था अत्यधिक हो गई थी। मम्मी को कहते, ‘जिसको जो दान देना है। मनभर कर दे दो। इस जीवन का कोई पता नहीं है। आज हैं, कल नहीं रहेंगे।’ अपने पास रखे सामान को भी वह लोगों को बुला-बुलाकर बांटते रहते। यहां तक कि अपने पास जमा ढेरांे सूट, नए सिलाए कपड़े भी उन्होंने बुला-बुलाकर मित्रों को दे दिए।
बहरहाल, पिताजी अंदर-बाहर एक जैसे थे। ताउम्र वह दूसरों के काम भी बहुत आए। उनके साथ के मित्रों से अब संवाद होता है तो पता चलता है, अपने आपको बाद में शहर में खास मुकाम पर स्थापित करने वाले बहुतेरे उनके घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे। कुछ बाद तक रहे भी परन्तु यह भी देखा कि उनका भोलापन सब जानते थे, इसलिए जब जरूरत हुई-उनसे काम निकलवाया। कुछ बड़े कथित बड़े कद की हस्तियां ऐसी भी थी जिन्होंने उनको जमकर छला पर उन्हें इससे कभी कोई वास्ता नहीं रहा। कोई अच्छा है या बुरा-इसका मापदंड पिताजी के पास स्पष्ट था। वह अच्छा जो उनको सामने मान दे। वह बुरा जो उन्हें देखकर भी नमस्कार नहीं करे। उन्हें कोई दोस्त प्रणाम कर देता, कोई मित्र कह देता यार तुम्हारा रोब अभी भी कायम है तो उनके चेहरे पर अद्भुत चमक आ जाती। उनकी रोबदार मूंछे जैसे शान से खिल-खिला पड़ती। 
यादें इतनी है कि लिखूंगा तो उसका सिरा कहीं पकड़ ही नहीं पाऊंगा। पर यह सच है, उनका जीवन खुली किताब था। हर कोई उसे पढ़ सकता था। यह भी सच है कि उनने जो जिया, वह हम जैसे कथित समझ रखने वाले चाहकर भी जी नहीं सकते। जितना उनके पास था, उसे ईष्वर का दिया बहुत अधिक मानते थे। बहुत अधिक चाहतें उनकी कभी रही ही नहीं। भैंरूजी उनके ईष्ट थे और संजोग देखिए, उनके मंदिर में ही उन्होंने अंतिम सांस ली।
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नहीं सीख पाया जीने की वह कला...  

बहुतेरी बार कुहासे बाहर ही नहीं होते, मन के भीतर भी गहरे से छाए होते हैं। छंटने की जिद लिए। पूर्वाग्रह, अपने को स्थापित करने से जुड़े छल, प्रपंच, बनावटीपन के आवरण में यह मानव मन भीतर के कुहासों से ही तो लिपटा होता है। जो इन कुहासों की गर्द में नहीं जकड़ा, समझें वही जीवन जीने की असल कला जानता है। पिता श्री प्रेमस्वरूप व्यास ऐसे ही थे। अंदर-बाहर से खुली किताब। कहीं कोई छुपाव नहीं,  कहीं कोई बनावटीपन या छल-कपट नहीं। जो पसंद आया, खुलकर उसे सराहा, जो नहीं जंचा वहीं उसके खिलाफ मोर्चा खोल जमकर बोल दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि परिणाम क्या होगा!
मित्र लोग मुझे कलाओं से सरोकार रखने वाला लेखक कहते हैं पर पापा को याद करता हूं तो लगता है, कलाओं में रमते, उन्हें अनुभूत करते कागज-कलम से कुछ लिखना ही कला नहीं है। हां, यह प्रक्रिया कलात्मक जरूर हो सकती है पर कला नहीं हो सकती। सच्ची और अर्थपूर्ण कला संगीत नहीं, नृत्य नहीं, चित्र नहीं मनुष्य होने का बोध  है। इसीलिए उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना ही कला है। मुझे लगता है, जीवन इसलिए भी कला है कि इससे ही मनुष्य सौन्दर्य को रच सकता है। बाहरी ही नहीं आंतरिक सौन्दर्य भी। अंतर के सौन्दर्य की रचना दुरूह है, बाहर के सौन्दर्य की रचना आसान। 
देना-पावना चुकाकार  आज ही के दिन एक बरस पहले पिताजी लोकातंरित हो गए। वह सब काम बहुत तेजी से किया करते थे। फूर्ती से। यही फूर्ती उन्होंने जाने में भी दिखाई। जीवन जीने की सच्ची कला उनके पास थी। हम उनके लिए कभी बड़े हुए ही नहीं। घर में वह रहते तो सभी को उनके होने का अहसास बना रहता। सीधे तौर पर वह हमसे बातचीत नहीं करते थे। एक डर सा उनका रहता था पर वह बेवजह कभी डांटते भी नहीं थे। जाने क्या उनके व्यक्तित्व में था कि उनके सामने कुछ भी कहने की हिम्मत कभी होती ही नहीं थी। हम लोग अपनी बात मां के जरिए उन तक पहुंचाते। तब भी जब स्कूल में पढ़ते थे और तब भी जब स्वयं के बच्चे हो गए। यह उनके व्यक्तित्व का जादू था कि उनके सामने सदा ही बच्चे ही बने रहने का मन करता। काल कवलित वह जब हुए तो इसका अहसास किसे था! याद है, दीपावली उनके साथ ही मनाई थी। और उसके चन्द दिनों बाद ही वह बगैर कोई आहट, हम सब से सदा के लिए दूर चले गए। याद है, वह जयपुर से हमारे आने की बाट जोहते। कहते कुछ नहीं पर पूरी तैयारी करके रखते। मम्मी से पूछते, ‘कब रहा है तुम्हारा बेटा? फोन कर दो, बच्चों के साथ अब जाए।खुद जयपुर कभी कभार ही आते। मम्मी जयपुर होती तो कहते, अपनी मां को वहीं रख लो पर हम जानते थे, मम्मी के बगैर उनका भी मन नहीं लगता था। मम्मी को भी उनकी चिंता लगी रहती सो वह भी कुछ दिन रूककर ही उनके कारण वापस लौट जाती। कहते, ‘घूर सूनो कोनी छोड़ सकूं।हम जानते हैं, घर में क्या था पर शायद उनका मन जयपुर में लगता नही ंथा। अपने घर में ही वह रहना चाहते थे। अपने भाईयों से उनका गहरा लगाव था। बड़े भईया मनोज को साथ रखते। रोज सुबह भतीजी मुक्ता को बस छोड़ने की जिम्मेदारी भी उन्होंने औचक अपने आप ही ओढ़ ली और चिरनिद्रा में जाने वाले दिन तक उसे निभाया। वह काम ऐसे ही ओढ़ लेते थे। ठाले बैठे उन्हें कभी नहीं देखा। हरदम कुछ कुछ करते रहना। गुनगुनाते रहना। कुछ बरसो से वह धार्मिक गं्रथो के प्रति गहरे से आसक्त हो गए थे। बल्कि वेद-पुराणों के नोट्स बनाने लगे थे।
हम उनसे सहमते पर नीहार, यशस्वी (पुत्र-पुत्री) से उनकी खूब घूटती थी। जयपुर से बीकानेर आने का कार्यक्रम के बारे में पता चलते ही स्कूटर को साफ-सुथरा कराने के साथ मिस्त्री से उसे चैक करवाकर रखते, पैट्रोल की टंकी फूल। खुद भले साईकिल का इस्तेमाल करते पर चाहते मैं उनके स्कूटर का ही उपयोग करूं। कभी हमसे कुछ लिया नहीं, बल्कि कभी उपहार स्वरूप ही कुछ लेकर आए तो सख्ती से उसे लेने से इन्कार कर दिया। अपनी तरफ से बस सबका करना, चाहत कुछ भी नहीं। अपेक्षा रहित था उनका जीवन।
बहरहाल, इस लोक में मनुष्य जीवन यात्रा के जो तीन अंष कहे जाते हैं, उनमें से एक अंष कला का है। हर व्यक्ति कलाकार है। बषर्ते वह जीवन जीने की कला में रमे। उसमें बसे। पिताजी इस मायने में निष्छल जीवन से जुड़ी इस समय की दुर्लभप्रायः कला से ही तो जुड़े थे। सोचता हूं, उन्होंने ही तो बहुत से अर्थों में जीवन में पसरे कुहासे को हटाने की कला से साक्षात् कराया। उपदेष देकर नहीं-अपने जिए से। अपेक्षा के अंधकार से वह सदा दूर रहे। उनकी सीख स्वाभिमान से जीने की थी। उसूलों पर कायम रहने की है। पेड़ की जड़ पेड़ का जीवन है। फूल-फल के लिए जड़ को मजबूत करना होता है। वह सदा हरी रखनी होती है। जड़ को खोदकर उपर ले आए तो उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। जीवन भी सूख जाता है। मुझे लगता है, जीवन जड़ को बचाते, उसके सौन्दर्य को अंवेरते वह जूझते रहे। संघर्ष करते रहे, कभी उसे बाहर नहीं आने दिया। याद है, उनका नश्वर शरीर पंचभूत में विलीन हो रहा था,  मन में उनके खरेपन, सच्चाई के जीवन और किसी के प्रति दुराग्रह नहीं रखने के उनके सैकड़ों किस्से ही तैर रहे थे। बहुधा वह लोगों को डांट देते पर क्षण बीतता और वह खुद ही भुल जाते कि उन्होंने कुछ कहा है क्या
अब जब वह नहीं है, सौन्दर्य की उनकी जीवन दीठ गहरे से समझ रही है। मनोभाव छुपाना आसान है, व्यक्त करना कष्टप्रद। कष्ट उठाना हर किसी के बस का कहां! पिताजी ने ताउम्र यह कष्ट उठाए। इसलिए कि उन्हें अपने को छुपाना नहीं आता था। अंदर से किसी का बुरा चाहने वाले, सबके लिए कुछ कुछ अच्छा करने की चाह के बावजूद कटुक्ति के वाक्यबाणों से वह सदा दूसरों को अपना दुष्मन बनाते रहे। शायद इसलिए भी कि भाषा का कारू कार्य उनके पास नहीं था। मन के अच्छे भावों को प्रचलित मीठे शब्दों में व्यक्त करना उन्हें नहीं आता था। वाक्यबाणों से अपने अच्छेपन को सदा वह खुद ही धोते रहे। अच्छेपन को कभी साबित नहीं होने दिया। दावपेच, छलकपट से वह कोसों दूर जो थे! कथित बुद्धि के चातुर्य का सौन्दर्य नहीं। चमक दमक की व्यावहारिकता को परे धकेलते वह जिए।  जिसे जब चाहे कुछ भी सुना दिया। जब चाहे डांट दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि इसका परिणाम क्या होगा। मन में किसी के प्रति कोई बैर-भाव नहीं पर सीधे सट सुना देने से उपजी गांठों को सहते विरोध उत्पन्न करते रहे। भले को भला, बुरे को बुरा कहने में कभी कोई हिचक नहीं की।
सोचता हूं, दान हाथ फैलाकर लिया जाता है। त्याग आंखो से दिखाई पड़ता है लेकिन आडम्बरहीन निष्छलता, भीतर की उदात्तता का वैराग्य किसे कहां दिखता है! पिताजी प्रेमस्वरूपजीभूरजीइस मायने में वैरागी थे। छल वह जानते नहीं थे। झूठ चाहकर भी बोल नहीं सकते थे। अपने लिए कभी कोई चाह नहीं थी। दाव-पेच वह जानते नहीं थे।निर्भर वह किसी के रहना नहीं चाहते थे। नपा-तुला सुचिन्तित रहन-सहन। कहीं किसी से कोई अपेक्षा नहीं। दीनता कभी दिखाई नहीं। बल्कि सहानुभूति कोई जताए, यह भी उन्हें सहन नहीं था। पराभव कभी स्वीकार नहीं किया। 
किसी का दिल दुखाने की इच्छा कभी रही नहीं पर खारे बोल रोक पाना भी तो उकने बस में कहां था! अंदर से कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हुए भी बहुतेरी बार बल्कि प्रायः ही बुरे व्यक्ति होने की छवि को वह भोगते रहे। सोचता हूं, खारे बोल अच्छी बात नहीं है पर उसके लिए अंदर के अच्छेपन के द्वार बंद कर देना भी तो कल्याणकारी नहीं है। पिताजी अंदर के अच्छेपन का द्वार खोले खारेपन की छवि से सदा ही बेपरवाह ही रहे। शायद इसलिए कि क्रोध से उनका गहरा नाता था। कोई बात मन माफिक नहीं हुई। कहीं कुछ अनैतिक दिखा, त्वरित क्रोध। दुर्वासा सा। 

यह उनके संस्कार थे। और संस्कारों के विरूद्ध बनावटीपन के सौन्दर्य को वह रच नहीं सकते थे। अब जबकि वह नहंी है, लगता है बहुतेरे उन्हें समझ ही नहीं पाए। पर वह जब नहीं रहे, तब यह भी देखा है कि जो उन्हें समझ गए थे, उनकी स्मृतियों को सहेजे उन्हें भूलना ही नहीं चाहते। जो व्यक्त नहीं कर पाए, वह अब व्यक्त कर रहे हैं। मुझे गर्व है कि मैं उनका पुत्र हूं। वह चले गए। सुख-दुख से परे। देना-पावना चुकाकर लोकातंरित हो गए हैं। अफसोस उनकी मृत्यु का नहीं है। यह तो स्वयं उनका वरण थी। आखिर वह यह कैसे सहन करते कि कोई उनकी तिमारदारी करे। कैसे वह यह सहन करते कि कोई उनसे सहानुभूति जताए। इसीलिए कुछ क्षण पहले जिन्होंने उनसे संवाद किया, उन्होंने उन्हें उनके फक्कड़पन के अलमस्त अंदाज में ही देखा। अफसोस इस बात का है कि जीते जी उनके जीवन जीने की उस कला को नहीं सीख पाया जो पास रहकर भरपूर सीख सकता था। पर इसके लिए उनके जैसा बनना पडता। भला यह बनावटीपन से भरे इस जीवन में क्या संभव था!