Thursday, May 7, 2015

दादू पाती प्रेम की, विरला बांचै कोई


उत्सुकता व्यक्ति को अन्वेषक बनाती है। अभी कुछ ऐसा हुआ कि दादू दयाल की वाणियां कहीं से हाथ लग गई। फिर तो ढूंढ-ढूंढकर उनके बारे में पढ़ा। लगा, कबीर की वाणियां फक्कड़पन लिए है और दादू वाणी दया-करूणा से ओत-प्रोत। दादू की निकटता का भान कहां था! कभी-कभी ऐसा ही होता है, जो आपके पास होता है-वही नजरों से न जाने क्यों दूर होता है। देशभर में घुम्मकड़ी की पर जयपुर के निकट दादू पालका भैराणा कभी नहीं जाना हुआ। कुछ दिन पहले जाना हुआ तो लगा, तीर्थ को गहरे से जिया है। जयपुर से कोई 60-70 किलोमीटर दूर। अजमेर के रास्ते आध घंटे और फिर दाहिने की सड़क पर मुड़कर एक घंटे से कुछ अधिक की यात्रा के बाद भैराणा पहुंच जाते हैं। विवेकानंद केन्द्र में बच्चों से बतियाना सुखद था। औचक भैराणा का बड़ा सा पहाड़ देखता हूं। आसमान झांकता हूं तो चांद दिखता है, दूसरी और सूरज भी! उत्सुक मन अपने को रोक नहीं पाता। वहीं षिविर में आए छात्र रामकिषोर को साथ ले पहाड़ पर बने मंदिर की ओर चल देता हूं। ठौड़-ठौड़ दादू वाणी मंडी है। कुछ देर मंदिर में हारमोनियम-ढोलक संग दादू वाणी सुनता हूं, ‘दादू पाती प्रेम की, विरला बांचै कोई/वेद पुरान पुस्तक पढ़े, प्रेम बिना क्या होई।’ कानों में रस घोलती वाणी। 
मन जिज्ञासु दादू के और करीब जाना चाहता है सो पहाड़ चढता हूं। देखता हूं, रास्तेभर पीठाचार्यों की चरण पादूकाएं स्थापित हैं। लगभग चोटी पर दादू के पद दर्षन हुए। ऊपर एक संकरी सी गुफा। अंधेरी, पर दूर कहीं किसी छोर से रोषनी आ रही थी-प्रकाष पुंज सरीखी। मोर पांख का झाड़ू भी पड़ा है। बाहर पहाड़ पर बनी इमारत का बड़ा हाॅल-गुफा का परिवेष ढकता हुआ-बारादरी सरीखा। एक रास्ता और दिखता है, पहाड़ पर और ऊंचाई पर जाने को आमंत्रित करता। पहाड़ चढ़ते एक चट्टान देख वहीं ठहर गया। हवा में झुलती सी चट्टान। पास गए तो पादूकाओं को भी पाया। पता चला, कुछेक पत्थरों पर टिकी है चट्टान, जैसे पादूकाओं की छत बन गई है। कुछ सीढि़यां पर आगे पहाड़ ही पहाड़।...चढ़ा तो बढ़ा। पहाड़ से नीचे झांका। दूर तक उजाड़। मन बोला, ‘अरे दादू, आप यहां!’ धरती पर मंदिर। आसमान यानी पहाड़ पर समाधी।...और फिर पाताल यानी नीचे तलहटी में छतरी। सच! भैराणा अद्भुत धाम है।
तुलसीदासजी ने संतो को चंदन-तरू सदृष कहा है। वह जो पात्र-अपात्र का विचार न करके अपनी सुगन्ध सबको बांटते रहते हैं। दादू ऐसे ही थे। अनुभूतियों से उपजे ज्ञान की सुगन्ध को उन्होंने बगैर किसी भेद सबको बांटा। और हां, विष्व के ऐसे संत जो मृत देह को भी किसी के काम आने के निमित्त कर गए। दादू वाणी है, ‘दादू मरणा तहां भला, जहां पषु पक्षी खाय।’ दादू ने अंतिम समय अपने षिष्यों से कहा ‘न मुझे जलाना, न गाड़ना और न ही जल में प्रवाहित करना।’ उनके शरीर को भैराणा में प्रतीक स्वरूप अग्नि दिखा छोड़ दिया गया। भूखे पषु पक्षियों के लिए। सोचता हूं, देह दान की सोच का आधार दादू ने ही हमें दिया। मित्र कौषलेन्द्रदास के पिता श्री उमाषंकरजी से बाद में भेंट हुई तो उनने भी बताया ‘दादू जीवा भक्षता, सहज मोक्ष हो जाय।’ माने जीवों के भक्षण के लिए जो देह काम आए वही सहज मोक्ष को पाती है।
दादू ने कोई 20 हजार के करीब पद लिखे पर  बताते हैं, उपलब्ध 3 हजार के करीब ही हैं। भैराणा पहाड़ की सीढि़यां उतरते दादू पंथ पर विचारता हूं। दादू ने कभी नहीं चाहा कि उनको लेकर कोई पंथ बने। उनका मानना था, पृथ्वी आकाश सूर्य चन्द्रमा तथा देवता आदि एक पंथ में नहीं रहते तो किसी पंथ का अनुयायी बनकर क्यों रहा जाय? पर लोग कहां मानने वाले। उनके अनुयायियों ने दादू पंथ प्रारंभ कर दिया। पंथ ऐसे ही बनते हैं। 
भैराणा से लौट रहा था पर लगा, निर्जन पथ पर दादू साथ थे। दादू के अंतिम वास पहाड़ चढ़ा और उतरा तो उनकी वाणी की गहराई में उतरता चला गया। उतरना-चढ़ना ही तो है! उतरे वह जो चढ़े। ऐसे ही शायद मौन के गर्भ में सृजन का उत्स होता है। भैराणा से लौटना आसान नहीं है। मन अभी भी वहीं है। दृष्टि बोलती है तो शब्द झरते हैं। शब्द भी तो वही सार्थक है जो निःषब्द को इंगित हो। दादू की वाणी ऐसी ही है। निःषब्द को इंगित। मन विचार रहा है, ‘दादू पाती प्रेम की, विरला बांचै कोइ, वेद-पुरान पुस्तक पढे, प्रेम बिना क्या होई।’
-लोकप्रिय दैनिक "न्यूज़ टुडे" में प्रकाशित, 7 मई 2015