Sunday, September 27, 2015

नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो



नर्मदा के अनथक यात्री हैं-अमृतलाल वेगड़। नर्मदा उनके लिए नदी नहीं संस्कृति है। याद है, बचपन में उनकी नर्मदा नदी के यात्रावृतान्त को पढ़ा था। जे़हन में बरसों वह बसा रहा। बाद में तो वेगड़जी की नर्मदा परिक्रमा की त्रयी ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’, ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ और ‘अमृतस्य नर्मदा’ को पढ़ा तो लगा नर्मदा उनके भीतर निरंतर घटती रही है। पर इधर उनकी एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाषित हुई है, ‘नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो’। सच! यह वेगड़जी द्वारा नर्मदा सौन्दर्य की भरी गागर है। ऐसी जिसमें नर्मदा के सौन्दर्य का सागर पूरी तरह से समाया हुआ है। 
अमृतलाल वेगड़ इस समय के अद्भुत कलाकार हैं। देष की नदियों में पांचवी सबसे बड़ी नर्मदा 1312 किलोमीटर लंबी है। देष की दूसरी तमाम नदियां पष्चिम से पूर्व की ओर बहती बंगाल की खाड़ी में मिलती है, पर नर्मदा पूर्व से पष्चिम की ओर बहती खंभात की खाड़ी में मिलती है। वर्ष 1977 से इस पवित्र नदी की पदयात्रा का सिलसिला वेगड़जी ने प्रारंभ किया था और तभी से उनके भीतर के कलाकार ने रेखाओं और रंगों में यात्रा अनुभूतियों, स्मृतियां, अंतर्मन संवेदनाओं के साथ ही  विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों के नर्मदा के कोलाज भी बनाने प्रारंभ कर दिए थे। नर्मदा के सौन्दर्य की ठौड़-ठौड़ व्यंजना करते वेगड़जी ने इस नदी की संस्कृति को गहरे से जिया है। पर मन की प्यास देखिए, 4 हजार किलोमीटर की नर्मदा पद परिकमा के बाद भी वह ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में लिखते हैं, ‘कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे।’
नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ ने इस नदी से विष्वभर के लोगों को अपने लिखे और कलाकर्म से साक्षात् कराया है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में वेगड़जी लिखते हैं, ‘यात्रा पर निकलते समय हर बार कहता-नर्मदा! तुम संुदर हो, अत्यन्त सुन्दर। अपने सौन्दर्य का थोड़ा-सा प्रसाद मुझे दो ताकि मैं उसे दूसरों तक पहुंचा सकूं। और नर्मदा ने मुझे कभी निराष नहीं किया। हर बार मेरी झोली छलका दी। मैंने अपने जीवन के उत्कृष्ट क्षण नर्मदा-तट पर बिताए हैं। परिक्रमा के दौरान मैंने कितने पहाड़ देखे, कितनी नदियां पार कीं, टूटी-फूटी धर्मषालाओं में रात रहा, ठंड में ठिठुरा, गरमी में झुलसा। खूबसूरत लेकिन कठिन पगडंडियों पर चला। खुला आकाष, हरियाली से लहलहाते खेत, सुरम्य प्रभात, जाने क्या-क्या देखा। कितने सुहाने थे वे दिन-एक से बढ़कर एक!’
वेगड़जी की सद्य प्रकाषित कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते उनके इस कहे साक्षात् भी होता है। इसमें थोड़े शब्द हैं, चित्र और रेखांकन अधिक। नर्मदा तट पर तपस्या करके उसे तपोभूमि बनाने वाले ऋषियों के साथ सुदूर केरल से आकर नर्मदातट पर विद्याध्ययन करने और अत्यन्त मधुर नर्मदाष्टक लिखने वाले आदि शंकाराचार्य को निवेदित इस कृति में ‘एक नदी की सौंदर्ययात्रा’ में वेगड़जी ने शांतिनिकेतन में हुई अपनी षिक्षा-दिक्षा के साथ ही प्रकृति के सौन्दर्य को देखने की दृष्टि देने वाले आचार्य नन्दलाल वसु को षिद्दत से याद किया है। वह लिखते हैं, ‘जब पढ़ाई पूरी करके घर आने लगा तो गुरू के आषीर्वाद लेने गया। चरणस्पर्ष करके बैठा तो उन्होंने कहा, ‘बेटा, जीवन में सफल मत होना, अपना जीवन सार्थक करना।’ वेगड़जी ने यही किया। नर्मदा की परिक्रमा में अपने जीवन की सार्थकता देखते उन्होंने एक साथ नहीं, रूक-रूक कर, खंडो में नर्मदा की यात्रा की। उनके समस्त सृजन का आधार बाद में यही नर्मदा बनी। वह लिखते हैं, ‘नर्मदा ने मेरी कला को नया आयाम दिया। मेरी प्रथम परिक्रमा के समय नर्मदा तट का एक भी गांव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत कुछ वैसी ही थी जैसी सैंकड़ो वर्ष पर्वे थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौंदर्य को मैंने सदा के लिए इन पृष्ठों पर संजोकर रख दिया।’
यह सच है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ इस दीठ से अपूर्व है। नर्मदा के सौन्दर्य चितराम ही इसमें पन्ने दर पन्ने मंडे हैं। रेखाओं के उजास में इसमें वेगड़जी के नदी मे ंस्नान करती, घाट पर कपड़े बदलती स्त्रियों के मनोरम स्केच हैं। गांव की संस्कृति, वहां के लोगों की बतकही, आस्था के सींचन को ठौड़-ठौड़ उद्घाटित करते नर्मदा से जुड़े जीवन को उन्होंने इसमें अपने कलाकर्म से जैसे जीवंत किया है। और सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि इसमे उनके वह पेपर कोलाज हैं, जिनमे नर्मदा का सौन्दर्य झिलमिलाता हमें उसके होने का जीवंत अहसास कराता है।
वेगड़जी विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों से कोलाज बनाते हैं। आरंभ में सपाट पोस्टर पेपर से उन्होंने कोलाज बनाए परन्तु बाद में ‘नेषनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका के रंगीन पृष्ठ ही उनके रंग और रेखाएं होते चले गए। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ के पन्ने उनके इन्हीं पेपर कोलाज की सुरम्यता से लबरेज हैं। अचरज होता है! कैसे छाया-प्रकाष, जल के सूर्य से बदलते रंगों और जीवन से जुड़े सरोकारों की रंग धर्मिता को कैसे वेगड़जी ने कागजों से निर्मित अपनी कला में जीवंत किया है। लगता है, नर्मदा ने उनका इसमें निरंतर साथ दिया है। यह है तभी तो उनके रंगीन पेपर कोलाज में नर्मदा से जुड़ा जीवन गहरे से उद्घाटित होता देखने वाले के मन में जैसे हमेषा के लिए बस जाता है। एक पेपर कोलाज है, पेड़ की छांव उकेरता। मिट्टी और झांकते पेड़ के पत्तों और जमीन पर सूखे बिखरे पत्तों का परिवेष जैसे पूरी तरह से उद्घाटित हो गया है। छांव को पार कर वहां से गुजरते लोगों का पुस्तक का यह अद्भुत चितराम है। ऐसे ही ‘अमरकंटक से यात्रा शुरू’ पेपर कोलाज भी अद्भुत है। इसमें यात्रा की तैयारी की अनुभूति भर नहीं है बल्कि नर्मदा से जुड़ा वह परिवेष भी है जिसमें अभी भी कलाकार का मन बसा है। ‘नमामि देवी नर्मदे’ का स्त्री रेखांकन और बाद में नर्मदा पर दीप दान करती स्त्रियों के चित्र भी रंग-रेखाओं का अद्भुत लोक रचते हैं। ‘अमरकंटक के तीर्थयात्री’ पेपर कोलाज में यात्रा से जुड़े मन की सुमधुर व्यंजना है। और ‘कपिलधारा अमरकंटक’ कोलाज तो अद्भुत है। तेजी से बहते झरने के पानी का श्वेतपन और आस-पास का रंगाकन माधुर्य की सीमा को भी पार करता है। वेगड़जी के पेपर कोलाज की यही विषेषता है। वह अपने इस कलाकर्म में समय को जैसे व्यंजित करते संस्कृति का उसमें छांेक लगाते हैं। ‘नगारावादक’, ‘एक कन्या’, ‘बैगा महिला’, ‘रात में घाट’, एकांत स्नान, ‘विश्राम’, ‘दही मथती नारी’, ‘वानरलीला’, ‘एक शांत पहाड़ी गांव’, आदि बहुतेरे कोलाज ऐसे ही पुस्तक में हैं जो नर्मदा नदी की उनकी यात्रा की जीवंत गवाही सरीखे है। और वह चित्र तो अद्भुत है जिसमें नर्मदा को पैदल पार करते दंपति को उकेरा गया है। पेपर में अपना झोला उठाए दंपति की इस नर्मदा यात्रा के बारे में जितना कहा जाए उतना ही कम है। वेगड़जी के पास वह दृष्टि है जिसमे ंवह स्थानों को उसके भुगोल में ही नहीं वहां के संस्कार, संस्कृति में देखने वालों को बंचवाते हैं। पुस्तक में उनके रेखांकन की लय और निहित बारीकी में भी मन अटक अटक जाता है। ‘ओंकारेष्वर’ का रेखा चित्र ऐसा ही है। टापू पर स्थित ओंकारेष्वर को उसकी पूर्णता में उकेरते वह उससे जुड़े परिवेष को इसमें गहरे से व्यंजित करते हैं। यह सच है! प्रकृति को देखने की उनकी कला दृष्टि अपूर्व है। इस कला दृष्टि से उपजे उनके पेपर कोलाज, रेखांकनों पर पन्ने दर पन्ने लिखे जा सकते हैं फिर भी जो कुछ लिखा जाएगा, वह कम ही लगेगा।
बहरहाल, नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ की कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते मन नहीं भरता। मुझे लगता है, हिन्दी में अपने तरह की यह विरल कृति है। यहां यात्रा के सौन्दर्य का शब्द गान है, रेखाओं का आकाष भर उजास है और है, वह रंगीन चित्रकृतियां जिससे नर्मदा के सौन्दर्य का घूंट घूंट पान किया जा सकता है। नर्मदा को उसकी समग्रता में, दिखाती-बंचाती ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ कला जगत को अमृतलाल वेगड़ का अप्रतीम उपहार है। नर्मदा के सौन्दर्य का वेगड़जी का शब्द कहन देखें, ‘नर्मदा सौन्दर्य की नदी है। वह चलती है उछलती कूदती, बलखाती, चट्टानों को तराषती, पहाड़ों में मार्ग तलाषती, डग-डग पर सौन्दर्य की सृष्टि करती, पग-पग पर सुषमा बिखेरती।’ मुझे लगता है, उनकी कृति में इस शब्द कहन का चित्र सच है। 
अमृतलाल वेगड़ इस समय 87 वर्ष के हैं। नर्मदा की 400 किलोमीटर की पद परिक्रमा उन्होंने की। सहधर्मिणी कान्ता भी 2002 में उनके 75 वें वर्ष में प्रवेष के समय 1250 मिलोमीटर साथ चली। नर्मदा को अपनी पदयात्राओं और कलाकर्म में उन्होंने गहरे से जिया है। ‘नर्मदा तुम कितनी  सुन्दर हो’ कृति में नर्मदा, उसके मोड़, घाट, नदी को पार करते ग्रामीणों, बैगा, गोंड, भील, आग तापते ग्रामीण, ग्रामीण गायक, पडे-पुरोहित, नाई, चक्की पीसती या मूसल चलाती महिलाएं और तमाम नर्मदा यात्रा का परिवेष रेखांकनों और पेपर कोलाज में जैसे हमसे बतियाता है। सौन्दर्य के अविराम चितराम है उनकी यह कृति। बावजूद इसके वेगड़जी इसमें लिखते हैं, ‘नर्मदा के राषि-राषि सौन्दर्य में से अंजुरी भर सौंदर्य ही लरा सका हूं। कोई असीम को कैसे समेट सकता है? इसलिए जो लाया हूंू वह ‘चिड़ी का चोंच भर पानी’ ही है।...‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ की यह व्यंजना गुदगुदा रही है। यह सब लिख दिया है पर मैं फिर से इस कलाकृतिनुमा पुस्तक के पन्ने पलटने लगा हूं। सौन्दर्य का घूंट घूंट आस्वाद कर रहा हूं, करता रहंूगा। अवसर मिले तो आप भी करियेगा।


Sunday, September 20, 2015

प्रीत घुली आंचलिकता


सत्यनारायण जी अपने लिखे में धोरों की धरा का माधुर्य बंचाते हैं। उनके लिखे अनूठे गद्य और पद्य में ठौड़-ठौड़ आंचलिकता की सौंधी महक है। सद्य प्रकाशित  कविता संग्रह ‘जैसे बचा है जीवन’ को ही लें। प्रीत रंग घुली कविताओं का यह अनूठा कैनवस है। स्मृतियां के वातायन में ले जाता। धोरों का सांगीतिक आस्वाद यहां है। मन करता हैं, लिखे को गुनें। सहेज लें सदा के लिए। 
बिम्ब, प्रतीक और मुहावरों में हृदय का अंतरतम जैसे उद्घाटित होता कवि का सच बहुतसे स्तरो पर आपका-हमारा सच बन जाता है। शब्द संवेदनाओं के मर्म में वह राजस्थान की रेत से हेत कराते हैं। इसीलिए तो तपती रेत, पगथलियों, भोलावण, रोहिड़ा, मोरचंग, फोग, लाय, हेला, कांसे के थाल जैसे बहुतेरे बरते कविता संग्रह के उनके शब्दों में छलकता प्रीत का माधुर्य हममें बस-बस जाता है।
सत्यनारायण जी की कविताएं एक तरह से स्मृतियों का किवाड़ खोलती है। कहन के किसी संदर्भ का द्र्श्यालेख बंचाती हुई। आस्वाद करें कविता की इन पंक्तियां का, 
‘तपती रेत पर
तुम्हारी पगथलियों की छाप
तमाम आंधियों के बावजूद
यों की यों मंडी हुई है
...कभी आओ तो
समन्दर से पूछेंगे इसकी कथा।’ 
और यही क्यों, उनकी कविताएं शब्द के भीतर बसे शब्द से भी अनायास ही साक्ष्यात कराती है. अर्थ गर्भित संवेदनाओं के अनूठे बिम्ब इनमे हैं-
‘मैं धीरे से
उसके कान में फुसफुसाया
वह बोली
और धीरे से
नहीं तो देवता सुन लेंगे..’ 
यहां  लिखने भर के लिए ही नहीं हैं, शब्द। इनमें मौन का वह विराट भी अर्न्तनिहित है जिसमें कुछ नहीं कहते हुए भी सबकुछ खोल के रख दिया जाता है। इसीलिये कहूँ, सत्यनारायण जी की कविताएं अल्प शब्दों में संवेदनाओं का गहरा आकाश रचती है। ‘मैं भेजूंगा/कुरजां के संग/सन्देश, ’‘‘कभी बताओगे/फोग’, ‘धोरों में बहती है/एक नदी/मेरे भीतर हिलोरें लेता है/एक समन्दर’, ‘धोरों पार से सुनायी देता है/एक हेला’ जैसी लूंठी-अलूंठी व्यंजनाओं में सत्यनारायण जी ने अपने इस संग्रह में प्रीत से जुड़े संदर्भों को सर्वथा नया मुहावरा दिया है। 
प्रीत से जुड़ी संवेदनाओं का मार्मिक कहन है, संग्रह की उनकी कविताएं। हां, इनमें गुम हुई प्रीत की तलाश  की आहटें भले शब्द दर शब्द है पर सच यह भी है कि प्रीत के बिछोह में उदासी पसराता सन्नाटा नहीं बुनती उनकी यह कविताएं। प्रीत की सुगंध घुली स्मृतियों में मिट्टी की सौंधी महक इनमें है। यह है तभी तो ‘तपते धोरों के बीच/रोहिड़े के/फूलों की तरह/बचाया है मैंने तुम्हें/अपने भीतर’ और ‘आंख बस/जरा सी झपकी/तुम कब/चली आयी भीतर/चुपचाप’ सरीखे शब्द कहन में वह अपने संप्रेषण का आग्रह नहीं रखते हुए भी चुपके से पाठक के मन में सदा के लिए बस जाते हैं। 


Tuesday, September 15, 2015

नमन हिन्दी। नमन!


एक मोटे अनुमान के अनुसार देष में 42 प्रतिषत आबादी हिन्दी भाषी है। देष में सर्वाधिक अखबार हिन्दी के निकलते हैं। सर्वाधिक फिल्में हिन्दी की बनती है और विज्ञापन और मीडिया में बरती जाने वाली भाषा का मूल आधार भी हिन्दी ही है। इस सबके बावजूद जब हिन्दी भाषा के संरक्षण और विकास पर चिंता जाहिर की जाती है तो लगता है, कुछ है-जिससे हिन्दी के गौरव को ठेस पहुंच रही है। यह कुछ क्या है? जब भी इस पर विचार करता हूं, जेहन में बहुत सी यादें कौंध-कौंध जाती है।
देशभर में कला-संस्कृति, पर्यटन और मीडिया विषयक व्याख्यान के लिए जाना होता रहता है। हिन्दी में लिखता हूं, हिन्दी में सोचता हूं सो स्वाभाविक ही है कि जहां कहीं जाता हूं, हिन्दी में ही संवाद करता हूूं परन्तु अपने गौरव के परिवेष से बाहर झांकता हूं तो ताम-झाम और अनर्गल चकाचैंध में अपने को दोयम दर्जे में घिरा भी बहुतेरी बार पाता हूं। शायद इसलिए कि हमने खुद ही संपन्नता का पूरा का पूरा बोध अंग्रेजी भाषा को अपने तई सौंप दिया है। तमाम बड़े आयोजनों, संगोष्ठियों का मूल भले भारतीय संगीत, नृत्य, नाट्य हो परन्तु वहां संवाद की भाषा जानबूझकर अंग्रेजी चुनी जाती है। बड़ा कारण यह भी है कि जो कुछ बड़े स्तर पर क्रियान्वित होता है-उसका आधार अंग्रेजी भाषा ही है। 
अभी बहुत समय नहीं हुआ, उदयपुर में पर्यटन पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक सत्र की अध्यक्षता का निमंत्रण मिला था। सुखद लगा। देषभर से पर्यटन विषेषज्ञ एक मंच पर उपस्थित थे। आयोजन से कुछ समय पहले तमाम लोगों से वार्तालाप हिन्दी में ही हुआ पर जब कार्यक्रम की शुरूआत हुई तो संयोजक ने अंग्रेजी का दामन थाम लिया। यह तो अच्छा था कि आयोजन के मुख्य अतिथि संसदीय सलाहकार बोर्ड के सदस्य श्री रघुनंदन शर्मा थे-जिन्होंने अपने उद्बोधन हिन्दी में प्रारंभ किया और बाकायदा उनने हिन्दी में अपने को बखूबी संप्रेषित भी किया। चूंकि ऊपर से हिन्दी मे संवाद की पहल हुई सो बाद में तमाम मंच हिन्दी की लय में अपनापे की तलाष का आकाष बनता चला गया। बल्कि तमाम वह जो अंग्रेजी में बोल रहे थे उन्होंने न केवल हिन्दी में बोला बल्कि यह बताने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी कि उनकी हिन्दी बेहतरीन है। पर विडम्बना यह भी है कि यह वह लोग थे जो आमतौर पर हिन्दीभाषी हैं और सामान्य संवाद की उनकी भाषा हिन्दी ही है परन्तु सभा-सम्मेलन में अंग्रेजी में अपने को संप्रेषित कर ही वह अपने को धन्य समझते रहे हैं।
बहरहाल, अंग्रेजी में संवाद बुरा नहीं है। भाषा कोई भी हो, कहां बुरी होती है परन्तु जब उसके जरिए आप अपने को स्थापित करने के प्रयास में हो तो जरूर स्थिति सोचनीय हो सकती है। इस समय यही हो रहा है। देषभर में उच्च स्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला है। व्यक्तिगत मैं यह भी पाता हूूं कि इस बोलबाले में ही हिन्दी की बेचारगी की बात की जाती है। पर यह पूरा सच नहीं हे। यह सच है, अंग्रेजी में भाषिक व्यंजना तो बहुतेरे बेहतरीन करते हैं परन्तु वहां विचार अमूमलन गौण होता है। अंग्रेजी के बोलबाले की एक और भी वजह है, तमाम जो कुछ आपका नही ंहै, वह सूचना और संचार प्रौद्योगिकी से आपका हो गया है। गूगल और दूसरे सर्च इंजन पर जानेभर की जरूरत है, अंग्रेजी में सब कुछ तैयार मिल जाएगा और फिर उसके लिए अलग से कुछ तैयारी की जरूरत नहीं है। पर्यटन संगोष्ठी के एक सत्र की अध्यक्षता जब कर रहा था तो इसे षिद्दत से महसूस किया। पर्यटन षिक्षा से जुड़े विद्वतजन और शोधार्थी जो प्रस्तुत कर रहे थे वह आकर्षक, ताम-झाम भरा था परन्तु वहां पर नया कुछ  नहीं था। केरल के पर्यटन विकास को आदर्ष रूप में प्रस्तुत करने की घिसी-पीटी सोच से जुड़ा एक शोध पत्र था, एक शोध पत्र होटल उद्योग में कार्मिकों के प्रबंधन से जुड़ा था, एक में पर्यटन और अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़ों का मायाजाल था और ऐसे ही कुछ और भी थे जिनमें शोध निष्कर्ष कुछ निकाला नहीं जा सकता था। स्पष्ट था, जो कुछ प्रस्तुत किया गया वह इन्टरनेट की मदद से तैयार कर ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ सरीखा ही था। अंग्रेजी इसीलिए धड़ल्ले से चल रही है। पर अब तो यूनिकोड में भी आप सर्च इंजनों पर कुछ तलाषेंगे तो बहुत कुछ पा जाएंगे पर इसका अभ्यास अभी बहुत से स्तरों पर है नहीं।
बहरहाल, लौटता हूं फिर से संगोष्ठह की चर्चा पर। वहां जो अनुभूत किया वह  किसी एक संगोष्ठी का सच नहीं है। तमाम बड़ी संगोष्ठियों का आज का सच यही है। वहां जो कुछ प्रस्तुत होता है, अंग्रेजी में होता है। यहां तक कि जो हिन्दी माध्यम से पढ़कर आए हैं-वह अपने आपको अंग्रेजी में प्रस्तुत कर गौरवान्वित करते हैं। बल्कि अंग्रेजी में अपने को संप्रेषित कर वह अपने को लगातार धन्य करते हैं। यह बात इसलिए कि मेरे एक मित्र है जो राजस्थान से ही है परन्तु इन दिनों भारत सरकार के एक बडे संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर जुड़े हैं। एक संगोष्ठी में उनके साथ था। संयोग देखिए, मैंने अपने को हिन्दी में संप्रेषित किया- उपस्थितजनों को बहुत अच्छा लगा। और सबके सब जो अंग्रेजी बोल रहे थे, हिन्दी में लौट आए। बल्कि कहूं उन्हें सहज लगा, अपनी भाषा में बतियाना। जब सारा माहौल हिन्दी का हो गया, उन्होंने भी बोलना प्रारंभ किया। कहा, ‘मैं प्रयास करता हूं, हिन्दी में बोलने का।’ घोर अचरज हुआ। जो हिन्दी भाषी है, घर की भाषा जिनकी हिन्दी है, वह यह कहे कि प्रयास करता हूं हिन्दी में बोलने का। ऐसा ही हो रहा है। इसलिए कि हिन्दी भाषी ऐसे अंग्रेजीदां लेागों ने जो कुछ पाया, उसका बड़ा आधार वह अंग्रेजी भाषा शायद रही जिसमें मौलिक सोच और चिंतन नहीं होते हुए भी बहुत कुछ पाया जा सकता है।
देषभर में घुम्मकड़ी करते, विषेष रूप से कला-संस्कृति और पर्यटन पर व्याख्यान के लिए जाना निंरतर होता है। स्वीकार करता हूं, पहले-पहले अपने को संप्रेषित करने के लिए अंग्रेजी मे ही ंतैयार किया। बहुत से स्थानों पर बोलकर धन्य भी हुआ पर धीरे-धीरे लगा, अपनी भाषा में जितना सहज रहता हूं, मौलिक चिंतन को व्यक्त कर पाता हूं उतना अंग्रेजी में नहीं सो तय कर लिया-अपने आपको सदा हिन्दी में ही व्यंजित करूंगा। यही करता रहा हूं और सदा अपने को गौरवान्वित भी महसूस किया। इसलिए कि जब कभी हिन्दी में प्रारंभ किया, तमाम माहौल अपने आप ही हिन्दी का होता चला गया। 
याद है, दिल्ली से ललित कला अकादमी की ओर से ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर चंडीगढ में आयोजित राष्ट्रीय कला सप्ताह में भाग लेने और संवाद करने का निमंत्रण मिला था। संशय मंे पड़ गया। संशय इस बात को लेकर था कि संवाद हिन्दी में करना है या अंग्रेजी में। चंडीगढ़ ललित कला अकादमी की मेजबानी में आयोजित समारोह के निमंत्रण पत्र से लेकर तमाम संवाद, औपचारिकताएं अंग्रेजी में ही हो रही थीं। यूं भी केन्द्रित विषय में हिन्दी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। सो मेरा संशय भी वाजिब ही कहूंगा। पहुंचने पर चंडीगढ़ ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और देश के जाने माने छायाकार दिवान मन्ना ने गर्मजोशी से अंग्रेजी में ही स्वागत किया। होटल में कुछ और भी प्रतिभागी थे, सबके सब अंग्रेजीदां। हिन्दी वहां भी कहीं नजर नही आ रही थी। दूसरे दिन एक कला की एक प्रतिष्ठित पत्रिका के तब के संपादक राहुल भट्टाचार्य ने अंग्रेजी में संयोजन की अपनी शुरूआत में ही जता दिया कि हिन्दी का वहां कोई स्थान नहीं है। कलाकार  विभा गहरोत्रा ने भी उनकी इस मंशा पर पूरी तरह से मोहर लगायी। अब बारी मेरी थी। जानबूझकर हिन्दी में बोला। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। हाॅल खचाखच भरा था और तमाम लोग मुझे समझ रहे थे। यह बात इसलिए लगी कि बाद में प्रष्नों का जो दौर प्रारंभ हुआ, उसमें सब के सब बजाय मेरे अंग्रेजी बोलने वाले मित्रों से आधुनिक तकनीक और कला पर सवाल पूछने के मुझसे ही बहुत कुछ जानने को उत्सुक थे। ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर हिन्दी में दिए तर्क और कला संवेदना की व्याख्या को समझते हुए भी विडम्बना यह थी कि राहुल और विभा मंच पर अंत तक अंग्रेजी पर ही अडे रहे, मैं हिन्दी पर। प्रष्नो ंकी बोछार अंग्रेजी में ही हुई, निरंतर होती रही परन्तु मैं हिन्दी में जवाब दर जवाब देता रहा। सुकुन भी हुआ कि मुझे सुनने को अंत तक वहां आए लोग उत्सुक रहे और उन्होंने मेरे तर्क और दिए जवाबों से संतुष्टि भी जताई। बाद में उनकी सराहना और मीडिया के रूख से यह भी लगा कि मेरी हिन्दी वहां चल गई थी-अच्छे से।
इस परिप्रेक्ष्य में मुझे यह भी लगता है कि भारत में अभी भी पर्यटन, कलाएं और संस्कृति जनरुचि का विषय शायद इसीलिए नहीं बन पायी है कि यहां पर अव्वल तो कला के सार्वजनिक आयोजन ही नहीं होते और जो होते हैं, उनमें हिन्दी कहीं नही होती जबकि इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आज भी आम जन की भाषा हिन्दी ही है। हिन्दी में कला आलोचना और संगीत, नृत्य, नाट्य पर बेहतरीन सामग्री के नहीं होने का जो रोना रोया जाता है, उसका एक बड़ा कारण क्या यही नहीं है कि हमारे यहां जो कुछ नवीन होता है, उसमें हिन्दी का कहीं कोई स्थान ही नहीं रखा जाता। जो कुछ छपता है, अंग्रेजी में। जो कुछ प्रस्तुत किया जाता है अंग्रेजी में। हिन्दी की शायद वहां जरूरत ही नहीं महसूस की जाती। हिन्दी को फिर क्यों दोष दिया जाए! 
बहुतेरे हिन्दी की बेचारगी पर अफसोस जताते हैं परन्तु मुझे अपनी हिन्दी कभी बेचारी नहीं लगती। इसलिए कि मेरे चिंतन का आधार यही भाषा है। इसलिए भी कि मुझे विचार का आलोक इसी से मिलता है और इसलिए भी कि हिन्दी ने ही मुझे सब कुछ दिया है। मुझे पता है, मेरे हिन्दीभाषी बहुतेरे मित्र अंग्रेजी का सहारा इसलिए लेते हैं कि उनके पास उस भाषा के अलावा अपने को व्यंजित करने का खास कोई विचार नहीं है। अंग्रेजी का महत्व बहुत से स्तरों पर इसीलिए शायद है कि इसके जरिए आप अपने को स्थापित करने की जुगत बिठा सकते हैं। पर हिन्दी हमारी संस्कृति है और इसी से हम अपने आपको जड़ों से जोड़े रख सकते हैं। जड़ो से विलग होकर दीर्घ समय तक कोई अपने को खड़ा नहीं रख सकता है। इसीलिए मुझे गर्व है, मैं हिन्दी में बतियाता हूं, हिन्दी पढ़ता हूं और अपने को बेहतरीन ढंग से संप्रेषित करने के लिए इस भाषा को चुनता रहा हूं। अपनी भाषा हिन्दी का मैं आभारी हूं। नमन हिन्दी। नमन!