Saturday, January 9, 2016

प्रकृति सौन्दर्य में घुली किस्सागोई


यात्राएं  घुम्मकड़ी के सौन्दर्य से ही साक्षात् नहीं कराती, स्थान-विषेष से जुड़ी संवेदना का राग भी हमें सुनाती है, मन को मथते हुए। कथाकार मधु कांकरिया का यात्रा-वृतान्त ‘बादलों में बारूद’ सुदूर आदिवासी इलाकों मे की गई यात्राओं का पत्रकारीय कोलाज है तो भ्रमण से जुड़ी संवेदनाओं में आत्म की खोज सरीखा भी है। इस यात्रा वृतान्त में जनजातीय इलाकों की छान-बीन है तो पहाड़, झरनों के सौन्दर्य का वह पाष्र्व भी है जिसमें सिसकती जिन्दकी का दर्द भी चुपके से बयां हुआ है। मधु कांकरिया के यात्रा लेखे की यह विषेषता है कि वह चिर-परिचित स्थानों में भी बहुतेरा वह अदेखा बंया होता है, जिस पर आमतौर पर नजर जाती नहीं है। मसलन उनके यात्रावृतान्त में रांची से 132 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुमला जिले के विषुनपुर प्रखंड और वहां से भी और अंदर की उनकी यात्रा में प्रकृति में धुले अकूत सौन्दर्य से तो साक्षात्कार होता ही है, आदिवासी जीवन और उनके संघर्ष की व्यथा-कथा से भी हम रू-ब-रू होते हैं। अपनी इस यात्रा में वह लुट रहे जंगल की पीड़ की शब्द व्यंजना करती है तो वहां रहने वाले और सदियो से शोषित आदिवासियों के अनुभवों की आंख को अपनी आंख भी बनाती है। आदिम जनजाति बिरसिया के ‘सुक्का दा’ के साथ की यात्रा में उनके जरिए वह आदिवासी परम्पराओं और जीवन से जुड़े बहुत से प्रसंगों को सभ्य समाज से जोड़ती है। इस दौरान लेखिका की चिंतन से जुड़ी मनकही से भी पाठक साक्षात् होते हैं। इस मनकही में जंगल के हसीन सफर में देषातीत और कालातीत होती मधु कांकरिया प्रकृति के पूर्णतत्व के अपने अहसास को बहुतेरी बार पाठकीय अहसास भी बना देती है। रांची से विषुनपुर के सफर में लेखिका खूबसूरत झारखंड के जंगलो की ओर जाने को प्रेरित भी करती है। लिखती है, ‘नजरों की छोर तक बिखरा हरियाला सौन्दर्य और ऊपर केसरिया होता आकाष!’ 
मधु कांकरिया ने अपनी इस घुम्मकडी में बहुतेरी ऐसी परम्पराओं को भी जीया है, जिनसे शहरी समाज का नाता शायद कभी पडता नही है। मसलन रांची से विशुनपुर, की यात्रा के अंतर्गत प्यास लगने पर चेचू बनाकर पानी पीने की परम्परा। आदिवासी क्षेत्रों में कम पानी की नदी में गंदगी के चलते जब लेखिका पानी पीने में संकोच करती है तो साथ चल रहे आदिम जन जाति बिरसिया के सुक्का दा कहते है, रूकिये आपके लिए चेचू बना देते है। चेचू यानी देशी फिल्टर। नदी किनारें की गीली रेत को खोदकर गढ्ढा बनाना और फिर उसमें जल भर देना। थोडी देर में पानी की गंदगी नीचे बैठ जाती है और स्वच्छ जल ऊपर तैरने लगाता है। यही चेचू है। 
बहरहाल, पुस्तक में ‘जंगलों की ओर’ तथा ‘पहाड़, पलामू और आग’ ऐसे यात्रावृत्त हैं जो रिपोर्ताज सरीखे हैं। इन्हें पढ़ते जनजातियों के बीच कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए वहां पहुंचे और पिछले कोई तीन दषक से वहां काम करने वाले अषोक राय से अषोक भगत बने व्यक्ति के जीवन की मानवीयता से भी पाठक साक्षात् होते हैं तो दूसरी ओर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ के पीपूल्स वार के कमांडर रणधीर भगत से पत्रकार के रूप में भेंट का भी साहसिक दास्तां भी यहां है। चरित्र, स्थानों और वहां के जन जीवन को लेखिका ने अपने इन वृतान्तों में गहरे से जिया है। आदिम जनजातियों के जीवन से जुड़ी प्रथाओं की भी मोहक व्यंजना यहां है। मसलन यात्रा के एक रोचक प्रसंग में यह भी पता चलता है कि पलामू की महिलाओं में कुछ अधेड़ों या वृद्धाओं के चेहरे पर गोदने के तीन निषान होते हैं। दो गालों पर और तीसरा माथे पर। कहते हैं, इनके पूर्वज तीन युद्ध हार गए थे और इसी के प्रायष्चीत इन्होंने अभी तक तीन गोदना गोदवा रखे हैं। इसी यात्रा में डायन प्रथा का वह सभी लेखिका सामने लाती है जिसमे जमीन हड़पने के लिए औरत को डायन घोषित कर मरवा दिया जाता है। आदिवासी जीवन की रूढि़यां, अंधविष्वास और उनके जीवन के संघर्ष के बारे में अपने यात्रावृतान्त में लेखिका सहज बंया करती है।
मधु कांकरिया के पास स्थानों और वहां से जुड़े संदर्भों को लिखे में परोटने की सौंदर्य दीठ है। ‘बादलों में बारूद’ उनकी इस दीठ की ही मोहक व्यंजना है। उनकी इस घुम्मकड़ी में इतिहास से संवाद है पर वह ‘आत्म की खो’ सरीखा है। ‘सपना-साना हाथ जोडि...’ में हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंघा के स्वर्गीय सौन्दर्य को बंया करते लेखिका पहाडि़यों के दर्द को भी चुपके से बंया करती है। पहाड़ों के संकरे रास्तों पर लगी चेतावनियों के निहितार्थ जीव से जुड़ी संवेदनाओं के राग में ही वह प्रकृति की उदात्तता में इस कदर घुलती दिखाई देती है कि शब्द जैसे औचक ही झरे पाठक के पास पहुंचते हैं, ‘मेरे पांव झन-झन करने लगे। पर मन वंृदावन हो रहा था। भीतर जैसे देवता जाग गए थे।’ ऐसे ही काठमांडू में बुद्ध एअरलाइंस की ‘माउन्टेन फ्लाइट’ में वह लिखती है, ‘ऊंचाइयां सारी क्षुद्रताओं को मिटा देती है। विमान में उड़ते हम सभी यात्री भी प्रकृति के अनुपम करिष्मे हिमालय पर सम्माहित थे, न भारत पर, न नेपाल पर। समय और सृष्टि के परे ले जाते हुए गन सौंदर्य से भरपूर उन दुर्लभ लम्हों को देखकर मन मचला कि किसी करिष्मे से विमान के शीषे टूट जाएं और मैं हाथ बढ़ाकर छू लूं बर्फ के इन छोटे-छोटे पर्वतों को।’
मुझे लगता है, यह प्रकृति ही है जो मन कीे इन काल्पनिक अनुभूतियांे के आकाष में उड़ा ले जाता है। नागरकोट से पोखरा की बढ़ते लेखिका रेवा झील के सौंदर्य को तो बंया करती है परन्तु नेपाल की उथल-पुथल भरी अराजकता और प्रतिरोध के साथ काठमांडू की मंहगाई और दहषत में डालने वाली आधुनिकता को भी स्वर देती है। 
‘बादलों मे बारूद’ षिलांग यात्रा की वह रोचक दास्तां है जिसमें लेखिका वहां की दोपहर को ‘महबूब’ की संज्ञा देती है तो परी देष की चकाचक से भी उसे अभिहित करती है। यात्रा मंे षिलांग की संस्कृति, प्राकृतिक सौनदर्य और परम्पराओं का गान तो है परन्तु महत्वपूर्ण पक्ष इस यात्रा का वह है जिसमें लेखिका उसे कष्मीर के बाद सबसे असुरक्षित इलाका पाती है। चेरापूंजी से नेहू पहुंच वहां अपने पुत्र के दोस्त के घर बिताई रात में पूर्वोत्तर के आतंक के उस साए से भी साक्षात् कराती है जिसमें नौजवान बेहतर दुनिया का स्वप्न संजोए आंतकवादी संगठनों मे ंसम्मिलित होते हैं और फिर माटी होकर बाहर निकलते हैं। ‘हाइन्यूट्रेप नेषनल लिबरेषन काउंसिल’ और मिलट्री के मध्य हुई गोलीबारी में ही वह पुत्र के दोस्त के पिता को सांत्वना देती है, ‘धरती बीज नहीं चोरती है, देखिएगा वे फिर लौट आएंगे। धरती को सजाएंगे।’ पर जवाब मिलता है, ‘-और फिर मारे जाएंगे।’ 
‘जाल, जहाज और मछुआरे’ में सुदंरवन की सुदंर सुबह, दिरूबा रात है तो शहर बनते गांवो की दास्तां भी है। जहाज मे की गई इस यात्रा है में स्मृतियों के सिरहाने लेखिका अपने मन की गहराईयो में ले जाती अनंत जिजीविषा से ऊर्जस्वित मछुआरों के जीवन की मार्मिक व्यंजना करती है। ऐसे ही आधुनिकता से आक्रात पर परम्परा के प्रति सम्मोहित चेन्नई और लेह-लद्दाख की उनकी यात्रा मंे लेखिका के ही शब्दों मे कहूं तो ‘विचारों की थपकियां’ सरीखी हैं। ‘देष मंे विदेष’ चेन्नई यात्रा में हिंदी के देषनिकाले की अनुभूतियोें को लेखिका ने संजोया है तो संस्कृत की तासीर में रची-बसी तमिल भाषा और दिखावे से दूर जीवन के मर्म का अनुभव-भव है। ‘बुद्ध, बारूद और पहाड़’ में नौ दिनों की वह यात्रा है जिसमें तिब्बत से आए शरणार्थियों के आजाद तिब्बत के स्वप्न और बुद्ध की नगरी से लोप बुद्धतत्व की मार्मिक व्यंजना है। ऐसा ही कुछ आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली कालड़ी का ‘देखती चली गई’ का पत्रकारीय सरीखा यात्रा वृत्त है। इसमे दक्षिण भारत मंे वेदों और वेद पाठषालाओं के प्रति भक्ति के आकर्षण के साथ ही वेदांत की पकड़ी राह का वह कटू सत्य भी है जिसमें, लेखिका कहती है ‘वेद विद्यार्थी हों, बौद्ध भिक्षुक हों, जैन साधु हों, पादरी हों-बचपन सदैव ही निषाने पर रहा है।’
बहरहाल, मधु कांकारिया के इस यात्रावृतान्त की बड़ी विषेषता है, उनकी किस्सागोई और प्रकृति सौन्दर्य की कूंत। वह लिखती है, ‘...मैं बार-बार इन जंगलों, पर्वतों और प्रकृति के बीच आती हूं? या सिर्फ प्रकृति के प्रति एक नैसर्गिक लगाव के चलत या अपनी आत्मा में लगे महानगरीय कीचड़ को धोने?’ मैं समझता हूं, इस शब्द व्यंजना में ही उनके लिखे को गहरे से समझा जा सकता है। ‘बादलों में बारूद’ यात्रावृतान्त है, पर ऐसा जिसमें स्थान और भौगोलिकता से परे जाकर लेखिका ने प्राकृतिक सौन्दर्य से जुड़ी मन संवेदना के बरक्स जीवन से जुड़ी वेदना और संघर्ष को भी अपने अनुभव का भव दिया है।
-समकालीन भारतीय साहित्य, नवम्बर-दिसंबर 2016