Tuesday, March 8, 2016

सांस्कृतिक नीति के लिए हो चिंतन


लोकतंत्र की परम्परा और उसकी विशिष्टता जनभागीदारी की सतत तलाश है और यह किसी भी समाज में कला, संस्कृति और साहित्य के स्वस्थ मूल्यों से ही हो सकती है। सोचता हूं, कलाओं का मूल आधार संस्कृति ही तो है। जीवन से जुड़े संस्कारों की नींव भी संस्कृति ही तैयार करती है। 
ऐसे दौर मे जब जीवन मूल्यों का ह्ास हो रहा है, यह जरूरी है कि संस्कृति से जुड़े सरोकारों पर हम विचारें। संस्कृति को जीवन के व्यापक संदर्भों से जोडने की पहल हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता हो। स्वाभाविक ही है कि दूसरे कार्यों में इससे अपने आप ही शुरूआत हो जाएगी। सरकारी अकादमियां और संस्थाएं सांस्कृतिक, साहित्यिक उन्नयन का कार्य कथित रूप में करती भी है परन्तु उनकी प्राथमिकताओं में संस्कृति से जुड़े पहलुओं का स्थूल रूप भर है। यानी साहित्य अकादेमी साहित्य के लिए, संगीत नाटक अकादेमी संगीत, नृत्य और नाट्य के लिए, ललित कला अकादेमी प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए कार्य करती है परन्तु संस्कृति इनसे ही नहीं है। संस्कृति समुदाय के आचरण से है। संस्कृति मनुष्य का व्यवहार और जीवन जीने का ढंग है। जैसे बीज हम बोएंगे-फल वैसा ही मिलेगा। सांस्कृतिक आयोजन श्रव्य, दृश्य से जुड़े होते हैं परन्तु सांस्कृतिक चेतना के अंतर्गत संस्कृति व्यापक संदर्भों के साथ जीवन को पोषित करती है। स्वाभाविक ही है कि इसके लिए सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति से ही कार्य हो सकता है। 
संस्कृति और सत्ता को अलग नहीं किया जा सकता। राज्य सरकार प्राथमिकता रखते हुए इस ओर पहल करे तो बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। संस्कृति मूल्यों की सृष्टा और संपोषक है। साहित्य और कला अकादमियों के गठन और वहां पर अध्यक्ष, सदस्यों के मनोनयन या फिर किसी तरह के साहित्य, कला उत्सव करने से संस्कृति पोषित नहीं होती। साहित्य और कला के साधनों और सुविधाओं का विकास तो एक बात है परन्तु इससे भी बडी जरूरत यह है कि कलाएं अभिजात या फिर सीमित वर्ग तक की पहुंच के साथ तमाम जनता तक पहुंचे। स्वस्थ और दीर्घकालीन नीति यदि संस्कृति की बनती है तो उसमें साहित्य और कलाओं का ही नहीं व्यक्ति की सोच बदलने तक की ताकत है। यह बड़ी बात है पर पहली आवश्यकता तो अभी यही है कि प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक नीति हो, ऐसी जिसमें साहित्य और कलाएं व्यापक संदर्भों से जुडे। 
साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं में जो मठाधीश लोग हैं, उनकी बजाय सर्जन के सरोकारों से जुडे मूल लोगों को जोडते हुए, उनसे परामर्श करते हुए राज्य की सांस्कृतिक नीति बनायी जाए। ऐसी सांस्कृतिक नीति जिसमें मायड भाषा राजस्थानी के लिए कार्य हो, जिसमें संगीत, नृत्य चित्रकला और खासतौर से लोक कलाओं का जमीनी स्तर पर संरक्षण हो। संस्कृति की जीवंतता किससे  है? अंतर्विरोधों की पहचान से ही तो! अच्छे-बुरे की समझ से। इसलिए जरूरी यही है कि पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हुए हम एक सुनियोजित सांस्कृतिक नीति के तहत सांस्कृतिक हों। संस्कृति जिससे जीवंत हो जीवाश्म न बने। आखिरकार तमाम हमारी कलाओं और दर्शन पर संस्कृति का ही तो प्रभाव रहता है। वह समृद्ध होगी तो हम भी समृद्ध-जीवंत रहेंगे। 
यह बात याद रखे जाने की है कि सभ्यताएं बदलती है पर संस्कृति चिरंतन है। साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला, नाट्य आदि का नैतिकता से संबंध हो या न हो परन्तु विचार से निष्चय ही है। विचार के लिए हमें सांस्कृतिक होना पड़ेगा। पाठ्यपुस्तकों से संस्कारित करने का राग भले हम कितना ही अलापें परन्तु कोई भी विचार संस्कृति से जुड़कर ही संस्कारों का वाहक हो सकता है। इसीलिए जरूरी है, संस्कारों के लिए सांस्कृतिक नीति बने। 
हमारी संस्कृति ‘मनुर्भव’ में है। यानी मनुष्य बनें, में। मनुष्य बनने का संस्कार, ऊर्जा का स्त्रोत संस्कृति ही है। संस्कृति अपने व्यापक रूप में समाज की तमाम कलाओं, साहितय, ज्ञान, विचारधारा, सामाजिक, धार्मिक-प्रथाओं, कानून एवं क्षमताओं के साथ आदतों का मिला-जुला रूप ही तो है। इसी से व्यक्ति वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के आदर्ष निर्मित करता है। संस्कृति व्यक्ति नहीं, समाज की संपति है। हां, उसके स्वरूप-निर्माण और विकास में प्रत्येक व्यक्ति का कम या अधिक योगदान अवष्य रहता है। इसी कारण वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है या कहें हरेक की भागीदारी इसमें जरूरी है। इसीलिए कहें वही सत्ता सार्थक है जिसमें संस्कृति की सोच हो। संस्कृति में निवेष भविष्य का संचय है। मानवीयता के लिए निवेष है। समाजगत अपेक्षाओं की पूर्ति संस्कृति में निवेष के जरिए ही संभव है। कोई भी लोकतंत्र परिष्कृत तभी माना जाता है जब वहां प्रष्नवाचक संवाद हो। भौतिक जरूरतों के लिए ही नहीं, संस्कृति के लिए भी संवाद वहां हो। विडम्बना यह है कि संस्कृति के प्रष्न पर हम सभी मौन हैं। जबकि लोकतंत्र की मजबूती स्वतंत्र विचारों से हैं, बासी विचारों से नहीं। नवीन स्थापनाएं संस्कृति की समझ से ही हो सकती है।
अमेरिका में राज्य सीधे भले ही संस्कृति में निवेष नहीं करता पर काॅरपोरेट क्षेत्र को कर में छूट देकर संस्कृति में निवेष के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा हमारे यहां भी हो सकता है। सांस्कृतिक नीति बनाई जाए, उसमें ऐसे प्रावधान किए जाएं कि आम आदमी की भागीदारी से हमारी संस्कृति पल्लवित-पुष्पित हों। यह भी ध्यान रखा जाए कि संस्कृति के लिए कार्य हो पर उसमें सरकारीकरण या किसी विषेष विचारधारा की दखल नहीं हो। केवल और केवल संस्कृति से जुड़ा विचार हो। शास्त्रीयता हो परन्तु उसमें लोक के बीज भी हों। सभी जन उसमें अपने लिए ‘स्पेस’ देखते अपनी भागीदारी स्वयं तय करें। सरकार का काम प्रोत्साहन देना भर हो। इसी से व्यापक रूप में हम संस्कृति से जुड़े सरोकारों से सराबोर हो सकेंगे। यह बात याद रखने की है कि संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं है। यहां कोई है, रह रहा है या भविष्य में भी रहेगा तो केवल और केवल अपने बूते। कोई यहां अपनी पीठ आप ठोकता भी है तो उसे स्वयं के अधिकारों की लड़ाई चाहकर भी बना नहीं सकता। आखिर, यही तो है सच्चा लोकतंत्र! इस लोकतंत्र को मजबूत करते राज्य की सांस्कृतिक नीति तैयार किए जाने पर क्या विचार होगा?

Tuesday, March 1, 2016

अदेखे की दृष्य सर्जना

दृष्टिहीन बच्चों के छायांकन की चित्र प्रदर्शनी ‘ध्वनियां’

कलाएं कल्पना और अनुभूति का संयोजन है। आंतरिक चक्षु के समक्ष उद्घाटित होते भले कलाओं को शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सके, पर वस्तुगत दृष्टि से जाना जा सकता है। छायांकन को ही लें। प्रकाश-छाया प्रभाव से सृजित इस कला में जो कुछ दृष्टि का सच है, वहीं नहीं संवेदना का मर्म भी उद्घाटित होता है। 
बहरहाल, अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र में दृष्टिहीन बच्चों के छायाचित्रों की प्रदर्शनी के बारे में पढ़ा था। लगा, बगैर दृष्टि कैमरे सेे कैसे दृश्य को संजोया जा सकता है! छायाकार मित्र महेश स्वामी एक रोज जिद कर प्रदर्शनी दिखाने ले गए। पहुंचा तब भी अनमनापन था, पर जब छायाचित्रों को देखा तो विश्वास नहीं हुआ। बगैर दृष्टि ध्वनियों ने जो सृजित करवाया, क्या वह इस कदर मोहक हो सकता है!  दृष्टिहीन बच्चों ने कैमरे से जो सिरजा उसमें प्रकृति में पसरे मौन की व्यंजना थी, नदी थी, नाव थी और था प्रकाश से टिमटिमाता लहरमय नीर। दृश्य और भी थे जिनमें कहीं बिखरे सूखे पेड़ की पत्ती, नदी की पाल पर रखी बैंच पर बैठे दो जन और पेड़ो की छांव के साथ प्रकृति की सौरम का छायांकन से रचा सौंदर्य था तो कहीं केवल कदमों की सरसराहट भर भी उनके कैमरे ने कैद की थी। एक छायाचित्र मैदान में बच्चों की खेलकूद भरी मस्ती को इंगित था तो एक में बाजार की हलचल थी। रेत, साईकिल, बरसात और परिवार से जुड़ी ध्वनियों  के आधार पर सृजित छायाचित्र देखने के भिन्न आयामों को जैसे हमारे समक्ष रख रहे थे। अचरज हुआ, आखिर कैसे बगैर दृष्टि के दृश्य संवेदनाओं के ताने-बाने को कैमरे से रचा गया होगा? पर पष्चिम बंगाल के दृष्टिहीन छायाकार अंजन, मिलन, फणी, दुलाल और टिंकू को छायांकन के लिए प्रेरित, दक्ष-प्रषिक्षित किया युवा फिल्म निर्माता, छायाकार और लेखक चन्दन राठौड़ और पद्मजा शर्मा ने। कभी नेत्रहीन छायाकार के बारे में फिल्म देखकर चंदन-पद्मजा के मन में दृष्ठिटीहन बच्चों से छायाकारी कराने का खयाल आया और दोनों ही इसके लिए प्रयास में जुट गए। उनके खयाल को बहुतेरों ने मजाक में उड़ाया तो कुछ को यह नागवार भी लगा। अंततः बंगाल के हुगली के सेवाडाफुली स्थित ‘सोसायटी फाॅर ब्लाइण्डस’ में यह दृष्टिहीन बच्चों को छायांकन के लिए तैयार करने की कार्यषाला हो पाई। लकड़ी के फ्रेम अी अनुभूति, अनुमान से दृष्यों को ध्वनि आधार पर पकड़ने और बहुतेरे ऐसे ही प्रयोग रंग लाए और अल्प समय में दृष्टिहीन बच्चों ने छायांकन कला को अपना लिया।
दृष्टिहीन बच्चों से उनके छायांकन अनुभवों पर संवाद हुआ तो लगा, उन्होंने ध्वनियों की अनुभूति से बाह्य सौंदर्य को आंतरिक चक्षुओं से उकेरा है। यह भी लगा आंख बहुत बार धोखा देती है, आप देखते हुए भी वह नहीं देख पाते जो महत्वपूर्ण होता है। इस दृष्टि से दृष्टिहीन बच्चों की ’ध्वनियां‘ चित्र प्रदर्शनी ने बहुतेरे स्तरों पर यह भी जैसे समझाया कि देखना आंखों से ही नहीं होता, हमारी साफ समझ से भी होता है। आखिर कलात्मक समझ परिवेश के अंतज्र्ञान के साथ समाप्त नहीं होती बल्कि वह इसे एक अर्थपूर्ण आकार देने का प्रयास ही तो करती है। 
मुझे लगता है ’ध्वनियां‘ प्रदर्षनी अनुभूतियों और कल्पनाओं का ऐसा सुरम्य ताना बाना है जिसमें छवियां प्रतिध्वनित हुई है। दृष्टिहीन विद्यार्थियों ने कैमरे के बहाने संवाद किया है- अदेखी प्रकृति से और जीवन से। उस दीठ से जो सदा उनके लिए अदीठ रही है, पर उनके कैमरे से हुए संवाद ने देख नहीं पाने की उनकी स्थाई चुप्पी को छायाचित्रों के जरिए एक तरह से तोड़ा है। आंख नहीं होने पर प्रकृति में बिखरे सौंदर्य और जीवन के सरोकारों से अलग-थलग होने की बाधा को जैसे समाप्त किया है। 
कैमरे ने कुछ अलग नहीं किया है, पर बाह्य जगत, दृश्य के भिन्न आयामों से इन छायाचित्रों के जरिए दृष्टिहीनों को आकाष दिया है। एक संवाद स्थापित हुआ है-ध्वनियों के जरिए दृश्य की अनंतता से। और उससे शायद न देख पाने की इनकी आंतरिक बेचेनी का शमन भी हुआ है। यह है तभी तो दृृष्टिहीन छायाकारों से संवाद में उनके छायांकन कला से जगे भीतर के उत्साह को अनुभूत कर सका। सहज सवाल संवाद में यह भी हुआ कि दृष्टिहीन ये बच्चे कैमरा लिए क्यों उस अदृश्य के पीछे भाग रहे थे जो उनकी आंखे नहीं देख सकती। जवाब मिला, ’कैमरे ने हमारी अनुभूतियों और दृश्य की कल्पनाओं को जीवंत करने का मार्ग दिया है। हम जो कल्पनाएं ध्वनियों के आधार पर करते रहे हैं, अनुभूतियों को संजोते रहे हैं, उन्हें छायाचित्रों के जरिए प्रकट कर रहे हैं। शब्द से जो बंया नहीं कर सकते, छवियां वह शायद बता रही हैै।‘
सच भी है, छायांकन कला की सांकेतिक भाषा है। कल्पना और अनुभूतियों से बाह्य परिवेश को फिर से नए रुप में सृजित करने की। इसके लिए बाहरी आंख की कहां जरुरत है! आंतरिक चक्षु ही पर्याप्त है। दृश्य के लिए समझ का साफ होना जरुरी है। कलाएं समझ को पाक-साफ ही तो करती है। दृष्टि वहां कहां बाधक है!