Saturday, May 28, 2016

मनोरंजन में हो कलाओं का वास


 इस सोमवार को देशभर  में नर्सों ने एक टीवी चैनल पर उन्हें बेहद भद्दे ढंग से फुहड रूप में प्रस्तुत किए जाने पर कॉमेडियन कपिल शर्मा के खिलाफ नाराजगी जताते हुए उन्हें माफी मांगने के लिए कहा गया है। कॉमडी धारावाहिकों में ही नहीं इस समय में लगभग सभी मनोरंजन चैनलों में हास्य के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है, उसे देखकर शर्म आती है। भद्दे मजाक, चिरौरियां, रिष्तों को नेस्तनाबुद करते धारावाहिकों के बोल और इस कदर भोंडापन खुलेआम प्रस्तुत किया जा रहा है कि मर्यादा तार-तार हुई जा रही है। एक धारावाहिक है जिसमें मां समान भाभी को लेकर पूरी की पूरी कॉमेडी गढते फुहड़पन को जैसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया गया है। मनोरंजन के नाम पर टीवी चैनलों पर इस कदर सामग्री दी जा रही है कि उन्हें पूरा परिवार बैठकर एक साथ देखले तो एक दूसरे से आंख तक न मिला सके।
बहरहाल, मनोरंजन का अर्थ है, मन को रंजित करना। मन को रंगना। अतीत में जाएंगे तो पाएंगे, मनोरंजन का बड़ा आधार हमारी कलाएं रही हैं। सोचिए, इस समय मनोरंजन का जो दौर चल रहा है, क्या उससे मन वास्तव में रंजित होता है! फूहडता, भौण्डेपन में अनर्गल कार्यक्रमों से सजे हैं सारे के सारे टीवी चैनल। मंचीय कार्यक्रमों में चुटकुलों को कविता रूप में परोसा जा रहा है। विडम्बना यह है कि मन के बगैर रंजित हुए भी हम लगोलग देखे जा रहे हैं, सहन कर रहे हैं। विकल्प जो नहीं है! सवाल यह है कि ऐसा आखिर हो कैसे रहा है? सीधा सा जवाब है कि मनोरंजन में कला पक्ष की पूरी तरह से अनदेखी हो गयी है। मनोरंजन को हमारे सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़कर नहीं देखा जा रहा है। जबकि सच यह है कि कभी मनोरंजन की जो विधाएं समाज में पुष्पित और पल्लवित हुई हैं, उनके पीछे कलाओं का ही मजबूत आधार रहा है, और इधर हो यह रहा है कि मनोरंजन से कला पक्ष पूरी तरह से तिरोहित सा हो गया है।
बहरहाल, साहित्य के साथ मनोरंजन से जुड़ी कलाओं ने ही हमारी संस्कृति को बहुत से स्तरो ंपर समृद्ध किया है। कहानी कहने वालों का भी एक दौर था। हमारे यहां तो वैसे भी कहानी की परम्परा का लूंठा इतिहास है। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ को ही लें। ‘पंचतंत्र’ में कहानियां है पर कहन की कला का सौन्दर्य भी है। कुशल पारंगत गुरू मूढ शिष्यों को भी विवेकवान बना सकता है, यही इन कथाओं का आधार है। मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथा के जरिए नीति के महत्वपूर्ण संदेश इसमें दिए गए हैं। अकबर-बीरबल और तेनालीराम की कहानियां आज भी खत्म कहां हुई है!  मूल कहानियां तो पता नहीं किस तरह की रही है परन्तु जिसने जैसे चाहे उसमें बदलाव करके बीरबल, तेनालीराम की बुद्धिमानी को अपने तई व्यंजित किया है। पहेलियां भी मनोरंजन का बड़ा आधार रही है, और इसके सांस्कृतिक संदर्भ भी हैं। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की प्रहेलिकाएं बतायी थी। कहते हैं उसी से बाद में खुसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ी। मनोरंजन के अंतर्गत संगीत की बात करें ंतो धु्रवपद में ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ जैसे निर्थक शब्द भी कुछ इसी तरह से आए। कहते हैं अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुवपद की भारतीय परम्परा बहुत भायी पर इसमें संस्कृत के श्लोकों को देख वह घबराए। खुसरो अरबी विद्वान थे। उन्होंने धु्रवपद में निर्थक शब्द ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ गढ़ कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही बाद में तराने हुए। 
कला-संस्कित का अभिजात दक्षिण भारत के कलात्मक रूप में परिणत हुआ है। आधुनिक मनोरंजन विधाओं का बहुत से स्तरों पर संस्कृतिकरण बाद में इन कलाओं ने ही किया। परन्तु बड़ी विडम्बना यह भी है कि आज के दौर में मनोरंजन का अर्थ पूरी तरह से हास्य से लिया जाने लगा है। सोचिए! हंसना ही क्या मनोरंजन है? हास्य मनोरंजन के एक पक्ष की स्थूल अभिव्यक्ति जरूर है पर यह पूरी तरह से मनोरंजन तो नहीं ही है। टीवी चैनल इधर यही कर रहे हैं। हंसाने के नाम पर दर्शकों को वहां निरंतर भोंडापन परोसा जा रहा है! माने वक्ट काटना है। कैसे भी कटे परन्तु वक्ट काटना क्या मनोरंजन है? वक्ट काटने के अर्थ में ही यदि मनोरंजन लें तो उसका परिणाम मन में उपजे क्षोभ, विषाद से अतिरिक्त कुछ न होगा। वक्ट कटे पर भौंडेपन से उपजे हास्य से नहीं, इस तरह से कि वक्ट से व्यक्ति ऊपर उठ जाए। मनोरंजन हो पर मन को रंजित करता। स्वस्थ मनोरंजन। कलाएं यही करती है। मन उनसे रंजित ही नहीं होता, सृजन के लिए निरंतर प्रेरित भी होता है। 
नाट्य, नृत्य, संगीत के ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ है। इन संदर्भों में जीवनानुभूतियां है। संस्कार हैं और है हमारी संपन्न संस्कृति का आधार। सोचिए! सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आखिर कोई समाज कैसे आगे बढ़ सकता है! कालिदास ने रंगमंच को ‘चाक्षुस यज्ञ’ की संज्ञा दी थी। देखने के यज्ञ का अर्थ है, हमारी देखने के संस्कार की आहुति। कलाओं में गूंथा मनोरंजन व्यक्ति को संस्कारित करता है, संस्कृति के गुणों से लबरेज करता है। इस दौर में जबकि सांस्कृतिक मूल्य क्षीण हो रहे हैं, सबसे बड़ी आवश्यकता तो यही है कि हम मनोरंजन में कलाओं के वास पर गौर करें। ऐसा मनोरंजन जो खाली वक्त काटने के लिए ही किया जा रहा है, उसका कोई औचित्य नहीं है।