Thursday, December 29, 2016

उच्च शिक्षा शिक्षण

राजस्थान में राज्यपाल और विष्वविद्यालयों के कुलाधिपति श्री कल्याण सिंह की पहल पर कुछ समय पहले सरकारी विष्वविद्यालयों में कुलपति चयन मेें पारदर्षिता लाने के लिए विज्ञापन प्रकाषित कर उसके जरिए पात्र आवेदकों से आवेदन आमंत्रित करने के संबंध में दिषा निर्देष जारी हुए थे। इसके अंतर्गत अब संबंधित विष्वविद्यालय के लिए गठित कुलपति चयन समिति कुलपति पद के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन जारी कर योग्य अभ्यर्थियों से आवेदन आमंत्रित करती है। यह निष्चित ही महत्वपूर्ण कदम है परन्तु विष्वविद्यालय षिक्षण प्रक्रिया में षिक्षकों की नियुक्ति एवं कुलपति चयन में रूढ़ हो चुके नियमों को बदले जाने की भी बहुत से स्तरों पर जरूरत है।
थोड़ा अतीत में जाएं। जब देष आजाद हुआ था, देष में विभिन्न मंत्रालयों का गठन किया गया था। तब षिक्षा को संस्कृति से जोड़ते हुए केन्द्र सरकार ने ‘षिक्षा और संस्कृति मंत्रालय’ का गठन किया था। बाद में इसमें विज्ञान को भी जोड़ दिया गया और मंत्रालय का नाम हुआ, ‘षिक्षा विज्ञान और संस्कृति मंत्रालय’। देष में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस मंत्रालय मंे मानवीय विषयों और संसाधन को जोड़़ते हुए इसे नाम दिया, ‘मानव संसाधन मंत्रालय’। अभी तक मंत्रालय का नाम यही चला आ रहा है। षिक्षा से संबंधित महकहमे का नामकरण सरकार चाहे जो करे परन्तु सवाल यह है कि क्या वास्तव में हमारे यहां षिक्षण से जुड़े सरोकारों पर नीतिगत कोई ठोस पहल हुई है? उच्च षिक्षा की वर्तमान व्यवस्था से क्या बेहतर मानव संसाधन समाज को मिल पा रहे हैं? यह सही है, उच्च स्तर पर समय-समय पर षिक्षा से जुड़े निर्णय होते रहे हैं परन्तु यह ऐसे होते हैं जिनमें या तो पाठ्यक्रम में बदलाव से जुड़ी बात होती है या फिर परीक्षाओं को कराए जाने या नहीं कराए जाने, उनके मूल्यांकन से जुड़ी ही बातें होती है। षिक्षकों के चयन में योग्यताओं के आधार से जुड़े निर्णयों में भी कभी पीएच.डी. को मान्य करने और कभी उसके स्थान पर केवल नेट, स्लेट या फिर संबंधित किसी वर्ष तक के अभ्यर्थियों के लिए चयन में किसी प्रकार की छूट से आगे कभी कोई निर्णय आज तक किसी भी सरकार में नहीं हुआ है। सवाल यह है कि क्या विष्वविद्यालयों या उच्च षिक्षण संस्थाओं में पढ़ाने वाले प्रोफेसर या कुलपति की योग्यता क्या केवल औपचारिक स्नातकोत्तर डिग्री, पीएच.डी या फिर नेट, स्लेट ही होनी चाहिए? 
बाकी विषयों के अध्यय-अध्यापन को छोड़ दें। केवल भाषा, साहित्य और संस्कृति की ही बात करें तो बहुत पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का लिखा जे़हन में इस समय कौंध रहा है, ‘भाषा और साहित्य के संबंध में उल्लेखनीय शोध कार्य अधिकांष विष्वविद्यालयों के बाहर ही हुए हैं।’ माने विष्वविद्यालयों में इस दिषा में उल्लेखनीय कुछ नहीं हुआ है। यह बात द्विवेजी ही नहीं, समय स्वयं जैसे कह रहा है। भाषा और साहित्य से जुड़ा अधिकतर शोध उन लेखकों ने किया है जो किसी विष्वविद्यालय में पढ़ाने से नहीं जुड़े रहे हैं। ऐसे भी बहुत हैं जिनके पास औपचारिक षिक्षा की डिग्री तक नहीं है। उदाहरण बहुत सारे दिए जा सकते हैं पर एक ही शायद बहुत होगा। संसार का अद्वितीय हिंदी थिसारस वृहत समांतर कोष अरविंद कुमार ने तैयार किया है। किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा शब्दकोष और थिसारस नहीं मिलेगा जिसमें शीर्षकों एवं उपषीर्षकों में अद्भुत भाषाई संपदा को अंवेरा गया हो। अरविंद कुमार फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’, ‘सर्वोत्तम रिडर्स डाइजेस्ट’ और दिल्ली प्रेस पत्रिका समूह की ‘सरिता’ के संपादन और फुटकर लेखन से जुड़े रहे हैं परन्तु उन्होंने अनूठा कार्य हिंदी में अपने तई किया है। वही क्यों राहुल सांकृत्याययन, अज्ञेय, मनोहरष्याम जोषी आदि की एक वृहद श्रृंखला है जिन्हें पाठ्यक्रमों में पढ़ा जाता है और जिन्होंने हमारी भाषा को संपन्न और सृदृढ किया है। राहुल सांकृत्यायन के पास तो औपचारिक डिग्री तक नहीं थी।
यह सही है, षिक्षा की बुनियाद में आरंभ में षिक्षण के लिए निर्धारित शैक्षिक योग्यता प्राप्त षिक्षक ही अधिक कारगर होता है। चूंकि तब सिखाने के लिए कुछ निर्धारित मानकों, पद्धति से ही षिक्षा की बुनियाद तैयार होती है परन्तु उच्च षिक्षा में यह जरूरी नहीं है। पर हम ब्रिटिष काल की पारम्परिक षिक्षा पद्धति की रूढ़ियां से आज भी इस कदर ग्रस्त हैं कि वहां पढ़े हुए का अंत में कोई बहुत अधिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिलता है। मसलन किसी भी विषय में स्नातक भले वह तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण हो अथवा सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण, दोनों ही सर्वोच्च भारतीय प्रषासनिक सेवा में सफल हो सकते हैं। माने सफलता का मापदंड न तो विषय है और न ही अधिक अंक। यही बात दूसरे व्यवसायों में भी है। सदा वरीयता सूची में आने वाला हमारे यहां क्लर्क पद पर मिल सकता है और सदा सर्वदा औसत अंक लाने वाला सफतम अधिकारी। कारण यही है कि, एक समय के बाद हमारे यहां डिग्री की उपादेयता औपचारिक प्रतिस्पद्र्धी परीक्षा में प्रवेष भर के लिए रह जाती है। संगीत, नृत्य, चित्रकला का क्षेत्र देख लीजिए, अधिकतर सफल वहां वे लोग नहीं है जो विष्वविद्यालय की बड़ी डिग्रीयां प्राप्त हैं बल्कि वे हैं जो आत्मदीक्षित हैं। भले बाद में उन्हें वही विष्वविद्यालय जिन्होंने सामान्य डिग्री भर नहीं दी, उन्हें डाॅक्टरेट, डी-लिट जैसी मानद उपाधियाॅं देते हैं।  
राहुल सांकृत्यायन 36 भाषाओं के जानकार प्रकाण्ड विद्वान थे। तिब्बत और श्रीलंका से दुर्लभ ग्रंथो को खच्चरों पर लादकर वह भारत लाए और उनका विषद् विश्लेषण, व्याख्या का महत्ती कार्य किया। राहुलजी के पास औपचारिक डिग्री नहीं थी पर उनकी लिखी पुस्तक ‘मध्य एषिया का इतिहास’ को आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया था। यह तब की बात है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू देष के प्रधानमंत्री थे। वह उनकी विद्वता से बेहद प्रभावित थे सो उन्होंने तत्कालीन षिक्षा मंत्री हिमायु कबीर को कहा कि राहुलजी की सेवाएं हमारे यहां प्रोफसर के रूप में उच्च षिक्षा में ली जाए। हिमायु कबीर थे पारम्परिक ब्रिटिष षिक्षा पद्धति के हिमायती। सो उन्होंने औपचारिक डिग्री के अभाव में उनकी सेवांए प्रोफसेर के रूप में लिए जाने से साफ इन्कार कर दिया। यह बात अलग है कि उन्हीें राहुल सांकृत्यायन को उन्हीें दिनों श्रीलंका स्थित अनुराधापुर विष्वविद्यालय ने अपने यहां प्रोफसर के रूप में नियुक्त कर लिया। सोवियत सरकार ने भी आग्रह कर उन्हें अपने विष्वविद्यालयें में पढ़ाने के लिए बुलाया। पर हमारे यहां पढ़ाने के लिए तब भी और अब भी औपचारिक स्नोतकोत्तर डिग्री, नेट-स्लेट जरूरी है। यह ठीक है, सैद्धान्तिक स्तर पर पढ़ाने के लिए किसी तरह का नियुक्ति पैमाना होना भी चाहिए परन्तु व्यावहारिक स्तर पर क्या संबंधित विषय का विषिष्ट ज्ञान क्या पढ़ाने की एक योग्यता नहीं हो सकती? 
यह बात इसलिए कि इस समय जो तरीका उच्च षिक्षा और विष्वविद्यालयी षिक्षण के लिए चयन प्रक्रिया का है वह इतना रूढ़ है कि उसमें पुस्तकों से हुबहु नकल कर पीएच.डी. करने वाले, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पत्रवाचन और आईएसएसएन नम्बर की निकलने वाली अनाप-षनाप पत्रिकाओं में निर्धारित राषि का भुगतान कर शोध पत्र छपवाने वाले बहुतेरे असिस्टेंट, एसोसिएट और प्रोफसर बन जाते हैं। याद है, कुछ साल पहले भारत सरकार की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में इन पंक्तियों के लेखक की एक शोधपरक आवरण कथा प्रकाषित हुई थी। कुछ समय बाद वही आवरण कथा हुबहु पत्रिका में किसी शोधार्थी ने अपने नाम से प्रकाषित करा ली। पता चला तो त्वरित मैंने संपादक को पत्र लिखा। बाद में उस शोधार्थी ने बहुत गिड़गिड़ाते हुए माफी मांगी और कहा, ‘सर आप अपनी षिकायत वापस ले ले। मेरा कैरियर बर्बाद हो जाएगा।‘ लबोलुआज यह कि उच्च षिक्षा में षिक्षक पद पर आवेदन के लिए दूसरों के लिखे को अपने नाम से प्रकाषित करवा निर्धारित योग्यता के काॅलम को बहुत से स्तरों पर पूरा कर दिया जाता है। बहुत कम स्तरों पर यह पता चल पाता है कि वह कार्य किसी ओर की मेहनत को अपने नाम किया होता है। उच्च षिक्षण में नियुक्ति का पैमाना यदि इसी तरह शोधपत्र प्रकाषन, सम्मेलन में पत्रवाचन रहेगा तो स्वतः समझा जा सकता है कि उसका परिणाम क्या हो सकता है, होता रहा है।
बहरहाल, विद्यालयी षिक्षा से उच्च षिक्षा की बुनियाद तैयार होती है। पर बुनियाद तैयार होने के बाद षिक्षक वही पर्याप्त नहीं है जो निष्चित शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के बाद पढ़ाने के क्षेत्र में आता है। वह भी जरूरी है पर अधिक उपयोगी शिक्षक वह है जो संबंधित विषय के सरोकारों से सीधे जुड़ा है। माने पाठकों में लोकप्रिय ख्यात लेखक, चिंतक और लब्धप्रतिष्ठि पत्रकार, सपंादक यदि पढ़ाने के सरोकारों में आता है तो वह विद्यार्थियों को अधिक बेहतर ढंग से ज्ञान का संप्रेषण कर सकता है। विद्यार्थियों में सोचने-समझने की शक्ति का विकास संबंधित ज्ञान से व्यावहारिक रूप में जुड़ा वही व्यक्ति अधिक कर सकता है जो उस विषय को गहराई से जीता रहा है। वह नेट, स्लेट और पीएच.डी. करने वाला अभ्यर्थी भी हो सकता है। इसलिए जरूरी है, नियुक्ति मानदंड ऐसे हों जिनसे अर्से से चली आ रही उच्च षिक्षा मंे षिक्षक नियुक्ति की रूढ़ियों से जड़ हो रहे मूल्यों को बदला जा सके। 
व्यापक समझ की व्यावहारिकी और सैद्धान्तिकी दोनों का दायरा और दोनांे का हिस्सा अलग-अलग होता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उच्च षिक्षा षिक्षण का मानदंड पूरी तरह से किसी एक विचार यानी केवल संबधित विषय की आधिकारिता और कार्य पर ही आधारित हो। वहां सैद्धान्तिक स्तर पर किसी प्रकार की षिक्षण योग्यता भी निर्धारित होनी चाहिए परन्तु षिक्षक चयन प्रक्रिया में कुछ हिस्सा उस व्यावहारिकी का भी होना चाहिए जिससे विद्यार्थियो को सैद्धान्तिक के साथ संबंधित विषय का व्यावहारिक ज्ञान भी मिल सके। अगर ऐसा होता है तो उच्च षिक्षा प्राप्त मानव संसाधन का देष और समाज के लिए वास्तव में बेहतर उपयोग हो सकता है। पर जरूरत इस बात की है कि बरसों से चली आ रही परम्पराओं और नियम-कानूनों में बदलाव की कोई सार्थक पहल हो।

Wednesday, December 14, 2016

बाजार पोषित कला का यह छाया-छवि दौर

सम् और कृति से बना है संस्कृित। अभिप्राय है, संषोधन अथवा उत्तम करने का कार्य। सम् माने ठीक प्रकार से और कृति यानी करना। इसीलिए कहें, संस्कृति कोई भी बुरी नहीं होती। भले वह पाष्चात्य हो या फिर भारतीय। पर इधर देष में आर्थिक उदारीकरण के बाद उपभोक्तावाद का नया दौर प्रारंभ हुआ, उसने जैसे संस्कृति को भी बाजारीकरण के मोल से जोड़ दिया है। मुझे लगता है, अब सब कुछ जो हमारे इस संसार में सुन्दर है वह सौन्दर्य के भाव से नहीं बल्कि मूल्य से आंका जाने लगा है। कला, साहित्य और संस्कृति भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। देषभर में कलाकृतियों का बाजार बन गया है। ऐसे लोग जिन्हें कला का क ख ग भी नहीं पता, वह कला आयोजनों के प्रमुख और कला पारखी बन गए हैं। कलाकृतियां  आनन्दानुभूति की बजाय बाजार विक्रय की वस्तु जो हो गई है। यही हाल संगीत और नृत्य कलाओं का भी हुआ। संगीत, नृत्य की प्रस्तुतियों में पोषाक और तड़क-भड़क के साथ कोरियोग्राफी में चमक-दम के नूतन का अधुनातन रचा जाने लगा। संगीत में रागदारी और नृत्य में थिरकन का लोप हो गया।  प्रस्तुतियों में उन्हीं की भागीदारी अधिक होने लगी है जो रंजन की बजाय मूल्यों के भंजन में अधिक विष्वास रखते हैं। 
कला में बाजार का आलम यह हो गया है कि निजी कलादीर्घाएं ही नहीं मध्यमवर्ग का एक तबका भी इसीलिए सोने और चांदी की कीमती धातुओं की तरह ही कलाकृतियांे को अपने घर का हिस्सा बनाने लगा है। यह सोचकर कि अभी खरीद  लेते हैं और जब फलां कलाकार की कलाकृतियां का मूल्य बढ़ेगा या वह इस संसार में नहीं रहेगा तो उसे बेच देंगे। माने कला भी निवेष की वस्तु ओ गई। इसका कलाकारों को लाभ भी हुआ। कुछेक कलाकारों को उनकी कला के अच्छे-खासे दाम मिलने लग गए। रातों-रात गरीबी से अमरी के ठाठ में भी बहुत से कलाकार आ गए परन्तु जो बाजार से जुड़ न सके, उसकी समझ को भुना न सके वे फिर भी हासिए पर ही रहे। हां, इस सबका एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि कलाएं आम जन से धीरे-धीरे दूर होती चली गई हैं। या कहें अभिजात्य होती जन सरोकारों से उनकी दूरी हो गई है। 
कहने को लिटरेरी फेस्टिवल, आर्ट समिट जैसे आयोजनों की शुरूआत इसीलिए हुई है कि इनके जरिए साहित्य और कलाओं में लोगों की अधिकाधिक भागीदारी की जा सके परन्तु यह आयोजन भी बाजार पोषित व्यवस्था के हिस्से बन कर ही रह गए हैं। जयपुर में लिटरेरि फेस्टिवल प्रारंभ होने के दो-एक बरस तक तो ठीक-ठाक रहा परन्तु शनैःषनैः वह भी व्यावसायिकता का षिकार हो गया। उत्सव में हिंदी और राजस्थानी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखकों की उपस्थिति होती है परन्तु उनसे अधिक शोर और प्रचार अंग्रेजीदां उन लेखकांे को मिलता है, जिन्हें बाजार या कहें उनके प्रकाषक अधिक बिक्री के लिए पोषित करता है। यही हाल आर्ट समिट जैसे आयोजनों का है। वहां देषज कलाकारों की कला की कोई पूछ नहीं है जबकि लोक कलाओं का सहारा अपने संस्थापन में लेने वाले बडे़ बाजार पोषित कलाकारों की चांदी है। ऐसे में कुछ लोगों के पास अपनी कला की बजाय अपने आपको दिखाने का सिगूफा ही बचा रह जाता है। ऐसे आयोजनों की मीडिया कवरेज देखेंगे तो यह भी पाएंगे कि वहां कला की सूक्ष्म सूझ की बजाय अपने आपको प्रदर्षित करने वालों को ही अधिक स्थान मिलता है। संस्थापन के नाम पर चाहे जो करने वाले या फिर अष्लीलता को प्रचार हथकंडा मान परोसने वालों को मीडिया भी तव्वजो अधिक देता है। इसीलिए कलाकृतियों में रंग, तान और रेखाओं की बजाय अपने आपको रंगने वाले, गुलाल बिखेरकर चाहे जैसे उसे अपने तई व्याख्यायित करने वालों को अधिक प्रचार मिल जाता है।  माने जो कला का प्राकृतिक सहज सौन्दर्य है, उसकी बजाय चमक-दमक ही इस समय प्रमुख हो गयी है। 
बहरहाल, एक समय था जब गान में गायक और वादक श्रोता के राग-अनुराग की सोचते हुए अपने को साधते थे। प्रस्तुति से पहले रियाज पर ध्यान दिया जाता था परन्तु अब स्थितियां बदल गई है। अब आप किसी संगीत सभा मंे जाएंगे तो पाएंगे कलाकार महोदय प्रस्तुति से पहले तबले की थाप और यंत्रचलित तानपुरे की ध्वनि पर खांसने के अभ्यास को ही अपने ध्यानाकर्षण का जरिया बनाए हुए हैं। बाद की उनकी प्रस्तुति में भी स्वयं की बजाय सह गायक-गायिकाएं आलापते हैं। भीड़ भी इस बात पर जुटती है कि कलाकार के साथ चमक-दमक कितनी है। याद है, भारत भवन, भोपाल में एक व्याखान के लिए जाना हुआ था। जिस होटल में ठहराया गया था वहीं एक नामी-गिरामी अपने ही शहर के वादक भी ठहरे हुए थे। उनकी भी प्रस्तुति थी परन्तु उससे पहले उन्होंने अपने बालों को रंगा, मैकअप किया और आपको प्रस्तुति की स्टाईलिष पोषाक में फीट करने में कोई तीन-चार घंटे लगाए। गोया कलाकार की बजाय उसके लटके-झटके और उसका ताम-झाम ही प्रधान हो गया है। नृत्य के साथ भी यही हो रहा है। वहां थिरकन और भाव-भंगिमाओं की सहज प्रस्तुति की बजाय कोरियोग्राफी की सज्जा प्रधान हो रही है। वह समय बीत गया जब साधारण सी पोषाक पहने, बीड़ी पीने के बाद उस्ताद बिस्मिला खां की शहनाई बजने लगती तो लोग उनके वादन से विभोर हो पूरी-पूरी रात उन्हें सुनते। उनकी शहनाई मन को सुकून देती लोगों के दिलों पर छा जाती। 
पर समय का सच यही है कि हर चमकने वाली चीज हीरा है। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। परिवार में एक शादी समारोह में जाना हुआ था। देखा, बहुत से निकट के परिजनों ने बाकायदा कोरियोग्राफर से फिल्मों में किए जाने वाले नृत्य के लटके-झटके सीखे हुए थे। पत्नी ने टोकते हुए कहा, आप न तो सीखते हो न हमें सीखाने का कोई जतन करते हो। मैंने त्वरित कहा, किसने कहां मुझे नृत्य नहीं आता। मैं भी नाच सकता हूं। सबके आग्रह पर मैंने भी अपनी चमकदार प्रस्तुति दी। मैंने कुछ नहीं किया। हाथ और पैरों की नृत्य से जुड़ी भंगिमाएं कुछ इस तरह से कर स्थिर खड़ा हो गया जिससे छायाकार मेरी उन भंगिमाओं की भिन्न कोणों से छवियां ले सकें। भौचक्के होते मेरे परिजनों ने कहा, यह कौनसा नृत्य हुआ! मैंने तुरंत कहा, यह ‘फोटोग्राफी डांस’ है। सच ही था, तमाम दूसरों से मेरा वह नृत्य भारी था। जब छायाचित्रों का आस्वाद कैमरे से किया गया तो उसमें  भरत नाट्यम, कथक, कथकली और फिल्मों में होने वाले तमाम नृत्यों के मेरे ऐसे दृष्य थे जिनसे कोई कह नहीं सकता कि मैं नृत्य नहीं जानता। संगीत, नृत्य और चित्रकला का आज का सच क्या यही नहीं है! प्रस्तुतियां भले मन को रंजित नहीं करे, उनकी छाया-छवियां तो मन को भाती ही है। 

Monday, December 12, 2016

नर्मदा सौन्दर्य के अविराम चितराम

अमृत लाल वेगड़जी नर्मदा के अनथक पदयात्री तो हैं पर रेखाओं की लय में वह दृश्य संवेदनाओं का भी मोहक भव रचते हैं। नर्मदा की उनकी पदयात्रा को उनके शब्दों से ही नहीं बांचा जा सकता, रेखाओं में उकेरे उजास से भी अनुभूत किया जा सकता है। उनकी पेपर कोलाज कलाकृतियां भी नर्मदा के तीरे ले जाती अदभुत रंग लोक से साक्षात् कराती है। नर्मदा यात्रा और उनके कलाकर्म पर 'नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो!' पर यह आलेख ...

मध्यप्रदेष की जीवनरेखा है-नर्मदा नदी। विष्व की वह प्राचीनतम और एकमात्र नदी जिसकी परिक्रमा की जाती है। कहते हैं, जब हिमालय नहीं था, गंगा-यमुना का मैदान नहीं था, नर्मदा तब भी थी। सौन्दर्य की नदी नर्मदा! तपोभूमि नर्मदा! मध्यप्रदेष और गुजरात को मिला प्रकृति का वरदान नर्मदा! 
नर्मदा के अनथक यात्री हैं-अमृतलाल वेगड़। नर्मदा उनके लिए नदी नहीं संस्कृति है। याद है, बचपन में उनकी नर्मदा नदी के यात्रावृतान्त को पढ़ा था। जे़हन में बरसों वह बसा रहा। बाद में तो वेगड़जी की नर्मदा परिक्रमा की त्रयी ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’, ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ और ‘अमृतस्य नर्मदा’ को पढ़ा तो लगा नर्मदा उनके भीतर निरंतर घटती रही है। पर इधर उनकी एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाषित हुई है, ‘नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो’। सच! यह वेगड़जी द्वारा नर्मदा सौन्दर्य की भरी गागर है। ऐसी जिसमें नर्मदा के सौन्दर्य का सागर पूरी तरह से समाया हुआ है। 
अमृतलाल वेगड़ इस समय के अद्भुत कलाकार हैं। देष की नदियों में पांचवी सबसे बड़ी नर्मदा 1312 किलोमीटर लंबी है। देष की दूसरी तमाम नदियां पष्चिम से पूर्व की ओर बहती बंगाल की खाड़ी में मिलती है, पर नर्मदा पूर्व से पष्चिम की ओर बहती खंभात की खाड़ी में मिलती है। वर्ष 1977 से इस पवित्र नदी की पदयात्रा का सिलसिला वेगड़जी ने प्रारंभ किया था और तभी से उनके भीतर के कलाकार ने रेखाओं और रंगों में यात्रा अनुभूतियों, स्मृतियां, अंतर्मन संवेदनाओं के साथ ही  विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों के नर्मदा के कोलाज भी बनाने प्रारंभ कर दिए थे। नर्मदा के सौन्दर्य की ठौड़-ठौड़ व्यंजना करते वेगड़जी ने इस नदी की संस्कृति को गहरे से जिया है। पर मन की प्यास देखिए, 4 हजार किलोमीटर की नर्मदा पद परिकमा के बाद भी वह ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में लिखते हैं, ‘कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे।’
नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ ने इस नदी से विष्वभर के लोगों को अपने लिखे और कलाकर्म से साक्षात् कराया है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में वेगड़जी लिखते हैं, ‘यात्रा पर निकलते समय हर बार कहता-नर्मदा! तुम संुदर हो, अत्यन्त सुन्दर। अपने सौन्दर्य का थोड़ा-सा प्रसाद मुझे दो ताकि मैं उसे दूसरों तक पहुंचा सकूं। और नर्मदा ने मुझे कभी निराष नहीं किया। हर बार मेरी झोली छलका दी। मैंने अपने जीवन के उत्कृष्ट क्षण नर्मदा-तट पर बिताए हैं। परिक्रमा के दौरान मैंने कितने पहाड़ देखे, कितनी नदियां पार कीं, टूटी-फूटी धर्मषालाओं में रात रहा, ठंड में ठिठुरा, गरमी में झुलसा। खूबसूरत लेकिन कठिन पगडंडियों पर चला। खुला आकाष, हरियाली से लहलहाते खेत, सुरम्य प्रभात, जाने क्या-क्या देखा। कितने सुहाने थे वे दिन-एक से बढ़कर एक!’
वेगड़जी की सद्य प्रकाषित कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते उनके इस कहे साक्षात् भी होता है। इसमें थोड़े शब्द हैं, चित्र और रेखांकन अधिक। नर्मदा तट पर तपस्या करके उसे तपोभूमि बनाने वाले ऋषियों के साथ सुदूर केरल से आकर नर्मदातट पर विद्याध्ययन करने और अत्यन्त मधुर नर्मदाष्टक लिखने वाले आदि शंकाराचार्य को निवेदित इस कृति में ‘एक नदी की सौंदर्ययात्रा’ में वेगड़जी ने शांतिनिकेतन में हुई अपनी षिक्षा-दिक्षा के साथ ही प्रकृति के सौन्दर्य को देखने की दृष्टि देने वाले आचार्य नन्दलाल वसु को षिद्दत से याद किया है। वह लिखते हैं, ‘जब पढ़ाई पूरी करके घर आने लगा तो गुरू के आषीर्वाद लेने गया। चरणस्पर्ष करके बैठा तो उन्होंने कहा, ‘बेटा, जीवन में सफल मत होना, अपना जीवन सार्थक करना।’ वेगड़जी ने यही किया। नर्मदा की परिक्रमा में अपने जीवन की सार्थकता देखते उन्होंने एक साथ नहीं, रूक-रूक कर, खंडो में नर्मदा की यात्रा की। उनके समस्त सृजन का आधार बाद में यही नर्मदा बनी। वह लिखते हैं, ‘नर्मदा ने मेरी कला को नया आयाम दिया। मेरी प्रथम परिक्रमा के समय नर्मदा तट का एक भी गांव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत कुछ वैसी ही थी जैसी सैंकड़ो वर्ष पर्वे थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौंदर्य को मैंने सदा के लिए इन पृष्ठों पर संजोकर रख दिया।’
यह सच है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ इस दीठ से अपूर्व है। नर्मदा के सौन्दर्य चितराम ही इसमें पन्ने दर पन्ने मंडे हैं। रेखाओं के उजास में इसमें वेगड़जी के नदी मे ंस्नान करती, घाट पर कपड़े बदलती स्त्रियों के मनोरम स्केच हैं। गांव की संस्कृति, वहां के लोगों की बतकही, आस्था के सींचन को ठौड़-ठौड़ उद्घाटित करते नर्मदा से जुड़े जीवन को उन्होंने इसमें अपने कलाकर्म से जैसे जीवंत किया है। और सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि इसमे उनके वह पेपर कोलाज हैं, जिनमे नर्मदा का सौन्दर्य झिलमिलाता हमें उसके होने का जीवंत अहसास कराता है।
वेगड़जी विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों से कोलाज बनाते हैं। आरंभ में सपाट पोस्टर पेपर से उन्होंने कोलाज बनाए परन्तु बाद में ‘नेषनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका के रंगीन पृष्ठ ही उनके रंग और रेखाएं होते चले गए। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ के पन्ने उनके इन्हीं पेपर कोलाज की सुरम्यता से लबरेज हैं। अचरज होता है! कैसे छाया-प्रकाष, जल के सूर्य से बदलते रंगों और जीवन से जुड़े सरोकारों की रंग धर्मिता को कैसे वेगड़जी ने कागजों से निर्मित अपनी कला में जीवंत किया है। लगता है, नर्मदा ने उनका इसमें निरंतर साथ दिया है। यह है तभी तो उनके रंगीन पेपर कोलाज में नर्मदा से जुड़ा जीवन गहरे से उद्घाटित होता देखने वाले के मन में जैसे हमेषा के लिए बस जाता है। एक पेपर कोलाज है, पेड़ की छांव उकेरता। मिट्टी और झांकते पेड़ के पत्तों और जमीन पर सूखे बिखरे पत्तों का परिवेष जैसे पूरी तरह से उद्घाटित हो गया है। छांव को पार कर वहां से गुजरते लोगों का पुस्तक का यह अद्भुत चितराम है। ऐसे ही ‘अमरकंटक से यात्रा शुरू’ पेपर कोलाज भी अद्भुत है। इसमें यात्रा की तैयारी की अनुभूति भर नहीं है बल्कि नर्मदा से जुड़ा वह परिवेष भी है जिसमें अभी भी कलाकार का मन बसा है। ‘नमामि देवी नर्मदे’ का स्त्री रेखांकन और बाद में नर्मदा पर दीप दान करती स्त्रियों के चित्र भी रंग-रेखाओं का अद्भुत लोक रचते हैं। ‘अमरकंटक के तीर्थयात्री’ पेपर कोलाज में यात्रा से जुड़े मन की सुमधुर व्यंजना है। और ‘कपिलधारा अमरकंटक’ कोलाज तो अद्भुत है। तेजी से बहते झरने के पानी का श्वेतपन और आस-पास का रंगाकन माधुर्य की सीमा को भी पार करता है। वेगड़जी के पेपर कोलाज की यही विषेषता है। वह अपने इस कलाकर्म में समय को जैसे व्यंजित करते संस्कृति का उसमें छांेक लगाते हैं। ‘नगारावादक’, ‘एक कन्या’, ‘बैगा महिला’, ‘रात में घाट’, एकांत स्नान, ‘विश्राम’, ‘दही मथती नारी’, ‘वानरलीला’, ‘एक शांत पहाड़ी गांव’, आदि बहुतेरे कोलाज ऐसे ही पुस्तक में हैं जो नर्मदा नदी की उनकी यात्रा की जीवंत गवाही सरीखे है। और वह चित्र तो अद्भुत है जिसमें नर्मदा को पैदल पार करते दंपति को उकेरा गया है। पेपर में अपना झोला उठाए दंपति की इस नर्मदा यात्रा के बारे में जितना कहा जाए उतना ही कम है। वेगड़जी के पास वह दृष्टि है जिसमे ंवह स्थानों को उसके भुगोल में ही नहीं वहां के संस्कार, संस्कृति में देखने वालों को बंचवाते हैं। पुस्तक में उनके रेखांकन की लय और निहित बारीकी में भी मन अटक अटक जाता है। ‘ओंकारेष्वर’ का रेखा चित्र ऐसा ही है। टापू पर स्थित ओंकारेष्वर को उसकी पूर्णता में उकेरते वह उससे जुड़े परिवेष को इसमें गहरे से व्यंजित करते हैं। यह सच है! प्रकृति को देखने की उनकी कला दृष्टि अपूर्व है। इस कला दृष्टि से उपजे उनके पेपर कोलाज, रेखांकनों पर पन्ने दर पन्ने लिखे जा सकते हैं फिर भी जो कुछ लिखा जाएगा, वह कम ही लगेगा।
बहरहाल, नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ की कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते मन नहीं भरता। मुझे लगता है, हिन्दी में अपने तरह की यह विरल कृति है। यहां यात्रा के सौन्दर्य का शब्द गान है, रेखाओं का आकाष भर उजास है और है, वह रंगीन चित्रकृतियां जिससे नर्मदा के सौन्दर्य का घूंट घूंट पान किया जा सकता है। नर्मदा को उसकी समग्रता में, दिखाती-बंचाती ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ कला जगत को अमृतलाल वेगड़ का अप्रतीम उपहार है। नर्मदा के सौन्दर्य का वेगड़जी का शब्द कहन देखें, ‘नर्मदा सौन्दर्य की नदी है। वह चलती है उछलती कूदती, बलखाती, चट्टानों को तराषती, पहाड़ों में मार्ग तलाषती, डग-डग पर सौन्दर्य की सृष्टि करती, पग-पग पर सुषमा बिखेरती।’ मुझे लगता है, उनकी कृति में इस शब्द कहन का चित्र सच है।
अमृतलाल वेगड़ इस समय 87 वर्ष के हैं। नर्मदा की 400 किलोमीटर की पद परिक्रमा उन्होंने की। सहधर्मिणी कान्ता भी 2002 में उनके 75 वें वर्ष में प्रवेष के समय 1250 मिलोमीटर साथ चली। नर्मदा को अपनी पदयात्राओं और कलाकर्म में उन्होंने गहरे से जिया है। ‘नर्मदा तुम कितनी  सुन्दर हो’ कृति में नर्मदा, उसके मोड़, घाट, नदी को पार करते ग्रामीणों, बैगा, गोंड, भील, आग तापते ग्रामीण, ग्रामीण गायक, पडे-पुरोहित, नाई, चक्की पीसती या मूसल चलाती महिलाएं और तमाम नर्मदा यात्रा का परिवेष रेखांकनों और पेपर कोलाज में जैसे हमसे बतियाता है। सौन्दर्य के अविराम चितराम है उनकी यह कृति। बावजूद इसके वेगड़जी इसमें लिखते हैं, ‘नर्मदा के राषि-राषि सौन्दर्य में से अंजुरी भर सौंदर्य ही लरा सका हूं। कोई असीम को कैसे समेट सकता है? इसलिए जो लाया हूंू वह ‘चिड़ी का चोंच भर पानी’ ही है।...‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ की यह व्यंजना गुदगुदा रही है। यह सब लिख दिया है पर मैं फिर से इस कलाकृतिनुमा पुस्तक के पन्ने पलटने लगा हूं। सौन्दर्य का घूंट घूंट आस्वाद कर रहा हूं, करता रहंूगा। अवसर मिले तो आप भी करियेगा।