Wednesday, December 14, 2016

बाजार पोषित कला का यह छाया-छवि दौर

सम् और कृति से बना है संस्कृित। अभिप्राय है, संषोधन अथवा उत्तम करने का कार्य। सम् माने ठीक प्रकार से और कृति यानी करना। इसीलिए कहें, संस्कृति कोई भी बुरी नहीं होती। भले वह पाष्चात्य हो या फिर भारतीय। पर इधर देष में आर्थिक उदारीकरण के बाद उपभोक्तावाद का नया दौर प्रारंभ हुआ, उसने जैसे संस्कृति को भी बाजारीकरण के मोल से जोड़ दिया है। मुझे लगता है, अब सब कुछ जो हमारे इस संसार में सुन्दर है वह सौन्दर्य के भाव से नहीं बल्कि मूल्य से आंका जाने लगा है। कला, साहित्य और संस्कृति भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। देषभर में कलाकृतियों का बाजार बन गया है। ऐसे लोग जिन्हें कला का क ख ग भी नहीं पता, वह कला आयोजनों के प्रमुख और कला पारखी बन गए हैं। कलाकृतियां  आनन्दानुभूति की बजाय बाजार विक्रय की वस्तु जो हो गई है। यही हाल संगीत और नृत्य कलाओं का भी हुआ। संगीत, नृत्य की प्रस्तुतियों में पोषाक और तड़क-भड़क के साथ कोरियोग्राफी में चमक-दम के नूतन का अधुनातन रचा जाने लगा। संगीत में रागदारी और नृत्य में थिरकन का लोप हो गया।  प्रस्तुतियों में उन्हीं की भागीदारी अधिक होने लगी है जो रंजन की बजाय मूल्यों के भंजन में अधिक विष्वास रखते हैं। 
कला में बाजार का आलम यह हो गया है कि निजी कलादीर्घाएं ही नहीं मध्यमवर्ग का एक तबका भी इसीलिए सोने और चांदी की कीमती धातुओं की तरह ही कलाकृतियांे को अपने घर का हिस्सा बनाने लगा है। यह सोचकर कि अभी खरीद  लेते हैं और जब फलां कलाकार की कलाकृतियां का मूल्य बढ़ेगा या वह इस संसार में नहीं रहेगा तो उसे बेच देंगे। माने कला भी निवेष की वस्तु ओ गई। इसका कलाकारों को लाभ भी हुआ। कुछेक कलाकारों को उनकी कला के अच्छे-खासे दाम मिलने लग गए। रातों-रात गरीबी से अमरी के ठाठ में भी बहुत से कलाकार आ गए परन्तु जो बाजार से जुड़ न सके, उसकी समझ को भुना न सके वे फिर भी हासिए पर ही रहे। हां, इस सबका एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि कलाएं आम जन से धीरे-धीरे दूर होती चली गई हैं। या कहें अभिजात्य होती जन सरोकारों से उनकी दूरी हो गई है। 
कहने को लिटरेरी फेस्टिवल, आर्ट समिट जैसे आयोजनों की शुरूआत इसीलिए हुई है कि इनके जरिए साहित्य और कलाओं में लोगों की अधिकाधिक भागीदारी की जा सके परन्तु यह आयोजन भी बाजार पोषित व्यवस्था के हिस्से बन कर ही रह गए हैं। जयपुर में लिटरेरि फेस्टिवल प्रारंभ होने के दो-एक बरस तक तो ठीक-ठाक रहा परन्तु शनैःषनैः वह भी व्यावसायिकता का षिकार हो गया। उत्सव में हिंदी और राजस्थानी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखकों की उपस्थिति होती है परन्तु उनसे अधिक शोर और प्रचार अंग्रेजीदां उन लेखकांे को मिलता है, जिन्हें बाजार या कहें उनके प्रकाषक अधिक बिक्री के लिए पोषित करता है। यही हाल आर्ट समिट जैसे आयोजनों का है। वहां देषज कलाकारों की कला की कोई पूछ नहीं है जबकि लोक कलाओं का सहारा अपने संस्थापन में लेने वाले बडे़ बाजार पोषित कलाकारों की चांदी है। ऐसे में कुछ लोगों के पास अपनी कला की बजाय अपने आपको दिखाने का सिगूफा ही बचा रह जाता है। ऐसे आयोजनों की मीडिया कवरेज देखेंगे तो यह भी पाएंगे कि वहां कला की सूक्ष्म सूझ की बजाय अपने आपको प्रदर्षित करने वालों को ही अधिक स्थान मिलता है। संस्थापन के नाम पर चाहे जो करने वाले या फिर अष्लीलता को प्रचार हथकंडा मान परोसने वालों को मीडिया भी तव्वजो अधिक देता है। इसीलिए कलाकृतियों में रंग, तान और रेखाओं की बजाय अपने आपको रंगने वाले, गुलाल बिखेरकर चाहे जैसे उसे अपने तई व्याख्यायित करने वालों को अधिक प्रचार मिल जाता है।  माने जो कला का प्राकृतिक सहज सौन्दर्य है, उसकी बजाय चमक-दमक ही इस समय प्रमुख हो गयी है। 
बहरहाल, एक समय था जब गान में गायक और वादक श्रोता के राग-अनुराग की सोचते हुए अपने को साधते थे। प्रस्तुति से पहले रियाज पर ध्यान दिया जाता था परन्तु अब स्थितियां बदल गई है। अब आप किसी संगीत सभा मंे जाएंगे तो पाएंगे कलाकार महोदय प्रस्तुति से पहले तबले की थाप और यंत्रचलित तानपुरे की ध्वनि पर खांसने के अभ्यास को ही अपने ध्यानाकर्षण का जरिया बनाए हुए हैं। बाद की उनकी प्रस्तुति में भी स्वयं की बजाय सह गायक-गायिकाएं आलापते हैं। भीड़ भी इस बात पर जुटती है कि कलाकार के साथ चमक-दमक कितनी है। याद है, भारत भवन, भोपाल में एक व्याखान के लिए जाना हुआ था। जिस होटल में ठहराया गया था वहीं एक नामी-गिरामी अपने ही शहर के वादक भी ठहरे हुए थे। उनकी भी प्रस्तुति थी परन्तु उससे पहले उन्होंने अपने बालों को रंगा, मैकअप किया और आपको प्रस्तुति की स्टाईलिष पोषाक में फीट करने में कोई तीन-चार घंटे लगाए। गोया कलाकार की बजाय उसके लटके-झटके और उसका ताम-झाम ही प्रधान हो गया है। नृत्य के साथ भी यही हो रहा है। वहां थिरकन और भाव-भंगिमाओं की सहज प्रस्तुति की बजाय कोरियोग्राफी की सज्जा प्रधान हो रही है। वह समय बीत गया जब साधारण सी पोषाक पहने, बीड़ी पीने के बाद उस्ताद बिस्मिला खां की शहनाई बजने लगती तो लोग उनके वादन से विभोर हो पूरी-पूरी रात उन्हें सुनते। उनकी शहनाई मन को सुकून देती लोगों के दिलों पर छा जाती। 
पर समय का सच यही है कि हर चमकने वाली चीज हीरा है। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। परिवार में एक शादी समारोह में जाना हुआ था। देखा, बहुत से निकट के परिजनों ने बाकायदा कोरियोग्राफर से फिल्मों में किए जाने वाले नृत्य के लटके-झटके सीखे हुए थे। पत्नी ने टोकते हुए कहा, आप न तो सीखते हो न हमें सीखाने का कोई जतन करते हो। मैंने त्वरित कहा, किसने कहां मुझे नृत्य नहीं आता। मैं भी नाच सकता हूं। सबके आग्रह पर मैंने भी अपनी चमकदार प्रस्तुति दी। मैंने कुछ नहीं किया। हाथ और पैरों की नृत्य से जुड़ी भंगिमाएं कुछ इस तरह से कर स्थिर खड़ा हो गया जिससे छायाकार मेरी उन भंगिमाओं की भिन्न कोणों से छवियां ले सकें। भौचक्के होते मेरे परिजनों ने कहा, यह कौनसा नृत्य हुआ! मैंने तुरंत कहा, यह ‘फोटोग्राफी डांस’ है। सच ही था, तमाम दूसरों से मेरा वह नृत्य भारी था। जब छायाचित्रों का आस्वाद कैमरे से किया गया तो उसमें  भरत नाट्यम, कथक, कथकली और फिल्मों में होने वाले तमाम नृत्यों के मेरे ऐसे दृष्य थे जिनसे कोई कह नहीं सकता कि मैं नृत्य नहीं जानता। संगीत, नृत्य और चित्रकला का आज का सच क्या यही नहीं है! प्रस्तुतियां भले मन को रंजित नहीं करे, उनकी छाया-छवियां तो मन को भाती ही है। 

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