Thursday, December 29, 2016

उच्च शिक्षा शिक्षण

राजस्थान में राज्यपाल और विष्वविद्यालयों के कुलाधिपति श्री कल्याण सिंह की पहल पर कुछ समय पहले सरकारी विष्वविद्यालयों में कुलपति चयन मेें पारदर्षिता लाने के लिए विज्ञापन प्रकाषित कर उसके जरिए पात्र आवेदकों से आवेदन आमंत्रित करने के संबंध में दिषा निर्देष जारी हुए थे। इसके अंतर्गत अब संबंधित विष्वविद्यालय के लिए गठित कुलपति चयन समिति कुलपति पद के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन जारी कर योग्य अभ्यर्थियों से आवेदन आमंत्रित करती है। यह निष्चित ही महत्वपूर्ण कदम है परन्तु विष्वविद्यालय षिक्षण प्रक्रिया में षिक्षकों की नियुक्ति एवं कुलपति चयन में रूढ़ हो चुके नियमों को बदले जाने की भी बहुत से स्तरों पर जरूरत है।
थोड़ा अतीत में जाएं। जब देष आजाद हुआ था, देष में विभिन्न मंत्रालयों का गठन किया गया था। तब षिक्षा को संस्कृति से जोड़ते हुए केन्द्र सरकार ने ‘षिक्षा और संस्कृति मंत्रालय’ का गठन किया था। बाद में इसमें विज्ञान को भी जोड़ दिया गया और मंत्रालय का नाम हुआ, ‘षिक्षा विज्ञान और संस्कृति मंत्रालय’। देष में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस मंत्रालय मंे मानवीय विषयों और संसाधन को जोड़़ते हुए इसे नाम दिया, ‘मानव संसाधन मंत्रालय’। अभी तक मंत्रालय का नाम यही चला आ रहा है। षिक्षा से संबंधित महकहमे का नामकरण सरकार चाहे जो करे परन्तु सवाल यह है कि क्या वास्तव में हमारे यहां षिक्षण से जुड़े सरोकारों पर नीतिगत कोई ठोस पहल हुई है? उच्च षिक्षा की वर्तमान व्यवस्था से क्या बेहतर मानव संसाधन समाज को मिल पा रहे हैं? यह सही है, उच्च स्तर पर समय-समय पर षिक्षा से जुड़े निर्णय होते रहे हैं परन्तु यह ऐसे होते हैं जिनमें या तो पाठ्यक्रम में बदलाव से जुड़ी बात होती है या फिर परीक्षाओं को कराए जाने या नहीं कराए जाने, उनके मूल्यांकन से जुड़ी ही बातें होती है। षिक्षकों के चयन में योग्यताओं के आधार से जुड़े निर्णयों में भी कभी पीएच.डी. को मान्य करने और कभी उसके स्थान पर केवल नेट, स्लेट या फिर संबंधित किसी वर्ष तक के अभ्यर्थियों के लिए चयन में किसी प्रकार की छूट से आगे कभी कोई निर्णय आज तक किसी भी सरकार में नहीं हुआ है। सवाल यह है कि क्या विष्वविद्यालयों या उच्च षिक्षण संस्थाओं में पढ़ाने वाले प्रोफेसर या कुलपति की योग्यता क्या केवल औपचारिक स्नातकोत्तर डिग्री, पीएच.डी या फिर नेट, स्लेट ही होनी चाहिए? 
बाकी विषयों के अध्यय-अध्यापन को छोड़ दें। केवल भाषा, साहित्य और संस्कृति की ही बात करें तो बहुत पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का लिखा जे़हन में इस समय कौंध रहा है, ‘भाषा और साहित्य के संबंध में उल्लेखनीय शोध कार्य अधिकांष विष्वविद्यालयों के बाहर ही हुए हैं।’ माने विष्वविद्यालयों में इस दिषा में उल्लेखनीय कुछ नहीं हुआ है। यह बात द्विवेजी ही नहीं, समय स्वयं जैसे कह रहा है। भाषा और साहित्य से जुड़ा अधिकतर शोध उन लेखकों ने किया है जो किसी विष्वविद्यालय में पढ़ाने से नहीं जुड़े रहे हैं। ऐसे भी बहुत हैं जिनके पास औपचारिक षिक्षा की डिग्री तक नहीं है। उदाहरण बहुत सारे दिए जा सकते हैं पर एक ही शायद बहुत होगा। संसार का अद्वितीय हिंदी थिसारस वृहत समांतर कोष अरविंद कुमार ने तैयार किया है। किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा शब्दकोष और थिसारस नहीं मिलेगा जिसमें शीर्षकों एवं उपषीर्षकों में अद्भुत भाषाई संपदा को अंवेरा गया हो। अरविंद कुमार फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’, ‘सर्वोत्तम रिडर्स डाइजेस्ट’ और दिल्ली प्रेस पत्रिका समूह की ‘सरिता’ के संपादन और फुटकर लेखन से जुड़े रहे हैं परन्तु उन्होंने अनूठा कार्य हिंदी में अपने तई किया है। वही क्यों राहुल सांकृत्याययन, अज्ञेय, मनोहरष्याम जोषी आदि की एक वृहद श्रृंखला है जिन्हें पाठ्यक्रमों में पढ़ा जाता है और जिन्होंने हमारी भाषा को संपन्न और सृदृढ किया है। राहुल सांकृत्यायन के पास तो औपचारिक डिग्री तक नहीं थी।
यह सही है, षिक्षा की बुनियाद में आरंभ में षिक्षण के लिए निर्धारित शैक्षिक योग्यता प्राप्त षिक्षक ही अधिक कारगर होता है। चूंकि तब सिखाने के लिए कुछ निर्धारित मानकों, पद्धति से ही षिक्षा की बुनियाद तैयार होती है परन्तु उच्च षिक्षा में यह जरूरी नहीं है। पर हम ब्रिटिष काल की पारम्परिक षिक्षा पद्धति की रूढ़ियां से आज भी इस कदर ग्रस्त हैं कि वहां पढ़े हुए का अंत में कोई बहुत अधिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिलता है। मसलन किसी भी विषय में स्नातक भले वह तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण हो अथवा सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण, दोनों ही सर्वोच्च भारतीय प्रषासनिक सेवा में सफल हो सकते हैं। माने सफलता का मापदंड न तो विषय है और न ही अधिक अंक। यही बात दूसरे व्यवसायों में भी है। सदा वरीयता सूची में आने वाला हमारे यहां क्लर्क पद पर मिल सकता है और सदा सर्वदा औसत अंक लाने वाला सफतम अधिकारी। कारण यही है कि, एक समय के बाद हमारे यहां डिग्री की उपादेयता औपचारिक प्रतिस्पद्र्धी परीक्षा में प्रवेष भर के लिए रह जाती है। संगीत, नृत्य, चित्रकला का क्षेत्र देख लीजिए, अधिकतर सफल वहां वे लोग नहीं है जो विष्वविद्यालय की बड़ी डिग्रीयां प्राप्त हैं बल्कि वे हैं जो आत्मदीक्षित हैं। भले बाद में उन्हें वही विष्वविद्यालय जिन्होंने सामान्य डिग्री भर नहीं दी, उन्हें डाॅक्टरेट, डी-लिट जैसी मानद उपाधियाॅं देते हैं।  
राहुल सांकृत्यायन 36 भाषाओं के जानकार प्रकाण्ड विद्वान थे। तिब्बत और श्रीलंका से दुर्लभ ग्रंथो को खच्चरों पर लादकर वह भारत लाए और उनका विषद् विश्लेषण, व्याख्या का महत्ती कार्य किया। राहुलजी के पास औपचारिक डिग्री नहीं थी पर उनकी लिखी पुस्तक ‘मध्य एषिया का इतिहास’ को आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया था। यह तब की बात है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू देष के प्रधानमंत्री थे। वह उनकी विद्वता से बेहद प्रभावित थे सो उन्होंने तत्कालीन षिक्षा मंत्री हिमायु कबीर को कहा कि राहुलजी की सेवाएं हमारे यहां प्रोफसर के रूप में उच्च षिक्षा में ली जाए। हिमायु कबीर थे पारम्परिक ब्रिटिष षिक्षा पद्धति के हिमायती। सो उन्होंने औपचारिक डिग्री के अभाव में उनकी सेवांए प्रोफसेर के रूप में लिए जाने से साफ इन्कार कर दिया। यह बात अलग है कि उन्हीें राहुल सांकृत्यायन को उन्हीें दिनों श्रीलंका स्थित अनुराधापुर विष्वविद्यालय ने अपने यहां प्रोफसर के रूप में नियुक्त कर लिया। सोवियत सरकार ने भी आग्रह कर उन्हें अपने विष्वविद्यालयें में पढ़ाने के लिए बुलाया। पर हमारे यहां पढ़ाने के लिए तब भी और अब भी औपचारिक स्नोतकोत्तर डिग्री, नेट-स्लेट जरूरी है। यह ठीक है, सैद्धान्तिक स्तर पर पढ़ाने के लिए किसी तरह का नियुक्ति पैमाना होना भी चाहिए परन्तु व्यावहारिक स्तर पर क्या संबंधित विषय का विषिष्ट ज्ञान क्या पढ़ाने की एक योग्यता नहीं हो सकती? 
यह बात इसलिए कि इस समय जो तरीका उच्च षिक्षा और विष्वविद्यालयी षिक्षण के लिए चयन प्रक्रिया का है वह इतना रूढ़ है कि उसमें पुस्तकों से हुबहु नकल कर पीएच.डी. करने वाले, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पत्रवाचन और आईएसएसएन नम्बर की निकलने वाली अनाप-षनाप पत्रिकाओं में निर्धारित राषि का भुगतान कर शोध पत्र छपवाने वाले बहुतेरे असिस्टेंट, एसोसिएट और प्रोफसर बन जाते हैं। याद है, कुछ साल पहले भारत सरकार की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में इन पंक्तियों के लेखक की एक शोधपरक आवरण कथा प्रकाषित हुई थी। कुछ समय बाद वही आवरण कथा हुबहु पत्रिका में किसी शोधार्थी ने अपने नाम से प्रकाषित करा ली। पता चला तो त्वरित मैंने संपादक को पत्र लिखा। बाद में उस शोधार्थी ने बहुत गिड़गिड़ाते हुए माफी मांगी और कहा, ‘सर आप अपनी षिकायत वापस ले ले। मेरा कैरियर बर्बाद हो जाएगा।‘ लबोलुआज यह कि उच्च षिक्षा में षिक्षक पद पर आवेदन के लिए दूसरों के लिखे को अपने नाम से प्रकाषित करवा निर्धारित योग्यता के काॅलम को बहुत से स्तरों पर पूरा कर दिया जाता है। बहुत कम स्तरों पर यह पता चल पाता है कि वह कार्य किसी ओर की मेहनत को अपने नाम किया होता है। उच्च षिक्षण में नियुक्ति का पैमाना यदि इसी तरह शोधपत्र प्रकाषन, सम्मेलन में पत्रवाचन रहेगा तो स्वतः समझा जा सकता है कि उसका परिणाम क्या हो सकता है, होता रहा है।
बहरहाल, विद्यालयी षिक्षा से उच्च षिक्षा की बुनियाद तैयार होती है। पर बुनियाद तैयार होने के बाद षिक्षक वही पर्याप्त नहीं है जो निष्चित शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के बाद पढ़ाने के क्षेत्र में आता है। वह भी जरूरी है पर अधिक उपयोगी शिक्षक वह है जो संबंधित विषय के सरोकारों से सीधे जुड़ा है। माने पाठकों में लोकप्रिय ख्यात लेखक, चिंतक और लब्धप्रतिष्ठि पत्रकार, सपंादक यदि पढ़ाने के सरोकारों में आता है तो वह विद्यार्थियों को अधिक बेहतर ढंग से ज्ञान का संप्रेषण कर सकता है। विद्यार्थियों में सोचने-समझने की शक्ति का विकास संबंधित ज्ञान से व्यावहारिक रूप में जुड़ा वही व्यक्ति अधिक कर सकता है जो उस विषय को गहराई से जीता रहा है। वह नेट, स्लेट और पीएच.डी. करने वाला अभ्यर्थी भी हो सकता है। इसलिए जरूरी है, नियुक्ति मानदंड ऐसे हों जिनसे अर्से से चली आ रही उच्च षिक्षा मंे षिक्षक नियुक्ति की रूढ़ियों से जड़ हो रहे मूल्यों को बदला जा सके। 
व्यापक समझ की व्यावहारिकी और सैद्धान्तिकी दोनों का दायरा और दोनांे का हिस्सा अलग-अलग होता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उच्च षिक्षा षिक्षण का मानदंड पूरी तरह से किसी एक विचार यानी केवल संबधित विषय की आधिकारिता और कार्य पर ही आधारित हो। वहां सैद्धान्तिक स्तर पर किसी प्रकार की षिक्षण योग्यता भी निर्धारित होनी चाहिए परन्तु षिक्षक चयन प्रक्रिया में कुछ हिस्सा उस व्यावहारिकी का भी होना चाहिए जिससे विद्यार्थियो को सैद्धान्तिक के साथ संबंधित विषय का व्यावहारिक ज्ञान भी मिल सके। अगर ऐसा होता है तो उच्च षिक्षा प्राप्त मानव संसाधन का देष और समाज के लिए वास्तव में बेहतर उपयोग हो सकता है। पर जरूरत इस बात की है कि बरसों से चली आ रही परम्पराओं और नियम-कानूनों में बदलाव की कोई सार्थक पहल हो।

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