Friday, November 3, 2017

लोक संस्कृति का उजास बिखेरती वह विरल गायिका


अल्लाह जिलाई बाई  का गाया ‘पधारो म्हारे देस...’ जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें। सुनते ही  रहें। उनके गान में राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगती है। स्वरों में लोक का माधुर्य ऐसा, जिसे सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है।...
मधुर और श्रृंगारिक राग है मांड। आरोह-अवरोह में वक्र सम्पूर्ण राग। संगीत की विष्णु नारायण भातखंडे की परम्परा की मानें तो मांड राग बिलावल थाट में आता है परन्तु सुनते हैं तो मांड का लोक संगीत मिश्र राग में ध्वनित होता लगेगा। स्व. अल्लाह जिलाई बाई का ‘पधारो म्हारे देस...’ तो मांड का पर्याय ही हो गया है। उनके स्वर माधुर्य में जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें। सुनते ही  रहें। 
अल्लाह जिलाई बाई ने वर्षों तक लोक संगीत की भारतीय पंरपरा को न केवल संजोकर रखा बल्कि राजस्थानी लोकसंगीत को भी एक नया आयाम दिया। उन्हें संगीत विरासत में मिला। पांच वर्ष की अल्पायु में ही अल्लाह जिलाई अपनी मां के साथ बीकानेर रियासत के महाराजा गंगासिहं के दरबार में गायन हेतु जाने लगी। जब उनकी मां दरबार में गाती तो वह खूब ध्यान से मां के गाए गीत सुनती। इन्हें फिर वह गुनगुनाती भी। ऐसे ही उनकी गुनगुनाहट को एक दिन उस्ताद हुसैन खां ने सुन लिया। फिर क्या था हुसैन साहब ने उन्हें अपनी षिष्या बना लिया। हुसैन खां से 8 वर्ष की उम्र से ही विधिवत संगीत की तालिम लेते अल्लाह जिलाई ने अल्प अवधि के दौरान ही गायन की बारीकियों को ग्रहण कर लिया। हुसैन साहब की जल्द ही मृत्यु हो गयी परन्तु उनसे जो अल्लाह जिलाई ने सीखा उसे ता उम्र अपने तई संजोकर रखा। संगीत तालीम के अंतर्गत बाद में बीकानेर राजघराने की ओर से राजघराने के प्रतिष्ठित गुणीजन खाना (संगीत तालीम का केंद्र) में उन्हें भर्ती करवा दिया गया। गुणीजन खाने के अंतर्गत बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज से अल्लाह जिलाई ने कत्थक की शिक्षा भी प्राप्त की। लच्छू महाराज, अमीर खां, शमशुद्दीन आदि का भी उन्हें इस दौरान निरंतर सानिध्य प्राप्त हुआ। हालांकि वे नृत्यांगना नहीं थी परंतु नृत्य उनसे कभी दूर भी नही रहा। जिस अंदाज से वह गाती उसमें आरोह-अवरोह का अंदाज वह शायद अपने भीतर की नृत्यांगना से लेती थी। यही कारण था कि उनकी खनकदार आवाज के साथ स्वतः ही ताल शुरू हो जाता था। 
ठुमरी दादरा, ख्याल तथा पारंपरिक राजस्थानी गायन में अल्लाह जिलाई बाई जैसे लोक का उजास रचती थी। शास्त्रीय आधार पर गांठ, चैताला, उडी, झूमरा आदि कठिन तालों में भी वह गाती तो जैसे स्वरो ंका आकाष बनता। राजस्थानी प्रेमाख्यान, महेन्द्र मूमल, रतन राणा सांवरिया की पाल, ढांेला मारू आदि माड गीतों में अल्लाह जिलाई बाई ने अपने सधे स्वर का जो जादू बिखेरा वह आज भी दिल में घर करता है। गायकी में फिरत ओर धुमावदार तानों भरी गूंजती खनकती आवाज की अल्लाह जिलाई बाई अद्भुत संगीत साधिका थी। 
राजस्थानी लोकसंगीत की विभिन्न परंपराओं को अपने कंठों में समेटे अल्लाह जिलाई बाई ने दादरा, ठूमरी, कजरी, व होली के गीतों को भी जैसे जिया। राग देस, सारंग, आाशा खमाज, जैजैवंती, सोरठ, झिंझोटी तथा अन्य विविध रागों को कुशलता से अपने सुरों में साधते उन्होंने जो भी गाया, उसे मन से जिया। ‘केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारा देस..’, ‘बाई सा रा बीरा म्हाने पिहरिये ले चालो सा...’, आदि माड गीतों की उनकी खनकती आवाज आज भी फ़िजा में जैसे रस घोलती है।
अल्लाह जिलाई बाई ने न केवल राजस्थानी लोकसंगीत को ख्याति दिलाई बल्कि लोक गायन परंपरा को भी शास्त्रीय गायन की ही तरह उच्च स्थान दिलाया। वर्ष 1987 में लंदन में ‘वल्र्ड कोर्ट सिंगर कांफें्रस’ में भारत का प्रतिनिधित्व करते अल्लाह जिलाई बाई ने दुनिया भर के इकट्ठा हुए संगीतकारों में यह साबित किया कि राजस्थान का लोक संगीत मिट्टी की सौंधी महक लिए ऐसा है जिसे कभी बिसराया नहीं जा सकता। याद पड़ता है, लोकगीतों की माड गायन परंपरा के संबंध में अल्लाह जिलाई बाई से इस लेखक ने एक मुलाकात में पूछा था तो उन्होनें कहा था, ‘माड दूहों की ही अलंकृति है।’ 
अल्लाहजिलाई बाई ‘पधारो म्हारे देस...’गाती तो पावणों की मेजबानी की राजस्थानी संस्कृति के दृष्य चितराम भी अनायास आंखों के सामने घुमने लगते हैं। उनके गाए ‘सुपनो,’ ‘हेलो, ‘जल्ला’, ’ओळ्यू’, ‘कलाली’, ‘कुरंजा’ गीतों को सुनेंगे तो राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगेगी। उनके स्वरों में लोक का माधुर्य सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है। 
बीकानेर टाऊन हाल में अपने अंतिम कार्यक्रम में अल्लाह जिलाई बाई ने ‘केसरिया बालम’, ‘गोरबंध’, ‘मूमल’, तथा ‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है’ जैसे गीत, गजल प्रस्तुत करते अपनी बेहतरीन गायकी का ढलती उम्र में भी अहसास दिलाया था। 90 वर्ष की आयु में 3 नवंबर 1992, अल्लाह जिलाई बाई ने हम सबसे सदा के लिए विदा ले ली परंतु ‘पधारो म्हारे देस...’ के उनके सुर क्या कभी हमसे जुदा होंगे...?
-'राष्ट्रीय सहारा', 3 नवम्बर 2017 

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