दैनिक नवज्योति, रविवारीय में कविता संग्रह 'दीठ रै पार' पर सुप्रशिद्ध कवि, आलोचक डॉ. आईदान सिंह भाटी ने लिखा है। उनके शब्द ओज से नहाते ही साहित्य को जिया है. आभार सहित उनके लिखे को यहाँ साझा कर रहा हूँ.
डॉ॰
राजेश कुमार व्यास आधुनिक राजस्थानी भाषा के
समर्थ और कला-पारखी कवि है, जिनकी कविताएँ अपनी अर्थवता और रूप-विधान के
सौन्दर्य को प्रकट करती है | उनके इस कविता संग्रह ‘दीठ रै पार’ में उनकी चार मनगतों के रूप सामने
आते हैं जो, जूण जातरा, अंतस रो उजास, रंगोसुखन और सुर री देही के रूप में रचे गए
हैं | वे शब्द-मितव्ययी कवि हैं और अपनी बात को ‘अर्थ की विरल छटाओं’ के रूप में
अभिव्यक्ति देते हैं | उनके इससे पहले वाले कविता-संग्रह ‘कविता देवै दीठ’ में भी
इसी तरह की अनुगूंजें थी |
इस
कविता-संग्रह के ‘जूण जातरा’ खण्ड में वे
अपनी मनगत के मौन को ‘भोर के उजास’ और उसके रंगों में नृत्य-रत शब्दों में देखते
हैं, जहां मन भाषा के पार चला जाता है | उनकी कविता अदीठ-संगीत के चित्रों में बसती
है, जहां बालू के टीले हैं, उस पर मंडराती तितलियाँ हैं, विरल रेगिस्तानी फूलों की
छटाएँ हैं और विरल घन-घटाओं की बरसती बरसातें हैं | प्रीत, पहचान के रास्ते तलाशती कविताओं में
जीवन के संघर्षों और मातृभाषा-प्रेम की अनुगूंजें पाठक को मन और दृष्टि के पार
‘इतिहास की जेवड़ी’ तक ले जाती है, जहाँ मानवीय-चालाकियों के अंधकार के बीच प्रकाश
की एक किरण कौंधती है | ये कविताएँ ‘दीठ रै पार’ छिपे हुए ‘साच’ को तलाशने का एक
जतन है, राजस्थानी भाषा की ‘आफळ’ है –
दीठ
रै पार / भींत्यां लुकोड़ै / साच नैं / जोवण री / आफळ है सबद |
रोज
नीं आवै / पण / जद भी आवै / कुण? कद? कियां? जैड़ा
सवालां
रा लावै पड़ूतर /सबद भांगै भींत / कूड़ नै पाधरो करता /
चलावै
कवि-/ सबद-बाण /इणी ढाळै रचीजै / अबखै बगत कविता | (पेज-21)
कवि समय
की अबोली-ध्वनियों को सुनने का आग्रह करते हुए, अकालों की विभीषिका और ओळूं की
आत्मीयता के शब्द-बिम्ब उकेरता है –
अकाळ:एक
आंख
की कांकड़ है / रोही रो सूनपण / बंजड़ खेत देख / इणगी-उणगी /
मुंडो
लुकांवतो फिरै / अड़वो | (पेज-27)
छिंया:
दो (पापा री ओळूं)
घर
है / भींत्यां है / इंट्यां सूं चिण्योड़ा / घणकरा आळा है / पण
मांय
पसर् योड़ा / जाळा है | (पेज-31)
इस
संग्रह के ‘अंतस रो उजास’ खण्ड में ‘झाझरको’, ‘सोन चिड़कली’, रूंख, नदी, नाव और
सूरज के प्रतीकों से जीवन के रूप-बिम्ब रचता है, जिसमें पहचान की पगडंडिया गुम
होती निशान-सीढ़ियों और इच्छाओं की रंगीनियों के बीच मुक्ति के मार्ग खोजती है |
अंततः कवि अपना जीवन सार कहता है –
कला
है --/ जीवन | / जीवतै मरणो स्थापत्य /
मर’र जीवणो शिल्प | /
अदीठ
मांय भी / बचसी वै ही / जका रचसी | (पेज-44)
अरदास
और महापरिनिर्वाण शीर्षक कविताएँ जीवनगत सौन्दर्य-दृष्टि, वैचारिता और आध्यात्मिक
राहों की बारीकियों को बिम्बित करती है |
रंगोसुखन
और सुर री देही खण्ड की कविताएँ कवि के मन में बसे कला-चिंतक की सौन्दर्य-दृष्टि
है, जो सूने मन्दिर, अनन्त आकाश, कैनवस, कांकड़, काळी कांठळ, बादल और
चित्रकारों-संगीतकारों के माध्यम से अपनी अन्तस-दीठ का पसराव किया है | रंगोंसुखन ( एस.एच. रज्जा रै चित्रां सूं अेकमेक
हुवतै थकां) कविता में कवि रंगों और रेखाओं के बीच ‘धा-छंद’ की ध्वनियाँ सुनता है
और एम्.बालमुरलीकृष्ण व किशोरी अमोणकर को सुनते हुए गहराती रात, तैरते बादल और
बरसते उजास को देखता है | कलाओं के अंतर्संबंधो को रचती ये कविताएँ पाठक को शब्दों
के पार ले जाती है और एक रूहानी आलोक रचती हैं | किशोरी अमोणकर को सुनते हुए कविताओं वे चारों ओर
उजास की सृष्टि देखते हैं, मन में मूसलाधार बरखा बरसती है, कानों में पवित्र
प्रार्थनाएं गूंजने लगती हैं, गहराती रात देह के बिछोह की साख भरती है, स्वर अपनी
सुधबुध भूल जाते हैं , इन्तजारती आँखें चलने लगती हैं आदि रूप-चित्रों और छवियों
से पाठक को सम्मोहन के जाल में उलझा कर रूहानी-जगत
में ले जाते हैं |
डॉ॰ राजेश कुमार व्यास का यह काव्य-जगत शब्द
की लघिमा-शक्ति से बना है | वे शब्द-लाघव के कुशल कारीगर हैं | बिम्बों और
प्रतीकों द्वारा अपनी बात कहने और रूपक रचने में उन्हें महारत हासिल है | कैनवस
कविता में इस रूपक को देखें –
कैनवस
है / बैंवती नदी / आभो जठै रचै
घाटी,डूंगर
/ अर जंगळ रो मून | (पेज-68)
आधुनिक राजस्थानी कविता में डॉ॰ राजेश कुमार
व्यास अपने जीवनगत सौन्दर्य-बोध,
चिन्तन-दृष्टि और शब्द की अर्थ-लय को अनुगुंजित करनेवाले विरल कवियों में से एक
हैं | राजस्थानी के पश्चिमी भाषारूप की खूबसूरती उनकी कविताओं से रस बन कर टपकती
है | उनकी कविताएँ रंगोसुखन और सुर के खूबसूरत झकोरे हैं |
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