Saturday, January 13, 2018

संस्कृति की जीवंतता में उत्सवधर्मिता का नाद


उतसवधर्मिता का नाद - कला मेला 
राजस्थान ललित कला अकादमी का एक वार्षिक आयोजन है, ‘कला मेला’। वर्षों से यह होता आ रहा है। पर पिछले कुछ वर्षों का इतिहास देखें तो इस मेले से उत्साह, उमंग नदारद रही है। करना है, इसलिए किए जाने की औपचारिकता की एकरसता में कला मेले के सांस्कृतिक सरोकार कभी वृहद स्तर पर सामने  आए हों, ऐसा लगा नहीं। कलाकारों को अकादमी स्टाॅल आंवटित करती है, कला प्रदर्षनी का आयोजन होता है और उद्घाटन-समापन समारोहों के साथ ही तमाम औपचारिकताआंें में सब कुछ संपन्न हो जाता है। पर इस बार ललित कला अकादमी का ‘कला मेला’ विरल था। संस्कृति के साझे सरोकारों में जीवन के उल्लास, उत्सवधर्मिता से पूरी तरह से जुड़ा हुआ। रवीन्द्र मंच पर आयोजित मेले के पांच दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला। 
कहने को जयपुर में एषिया का सबसे बड़ा प्रचारित ‘जयपुर लिटरेचल फेस्टिवल’ भी वर्ष 2006 से होता आ रहा है। आरंभ के कुछ वर्ष यह फेस्टिवल साहित्य की संवेदना से लबरेज था भी परन्तु शनैःषनैः अब यह बाजार और व्यावसायिकता से ग्रसित होता पष्चिम की भौंडी नकल और फिल्मी हस्तियों को एकत्र कर युवा पीढ़ी को भरमाने का एक जरिया भर रह गया है। ऐसे में राजस्थान ललित कला अकादमी का पांच दिवसीय कला मेला इस बार उत्सवधर्मिता जगाता जैसे एक बड़ा संदेष देने वाला था। संदेष यह कि कलाएं मानवीय अनुभूतियों का सौन्दर्य रूपान्तरण है। कला-साहित्य से जुड़े आयोजन श्रव्य, दृश्य से जुड़े होते हैं परन्तु सांस्कृतिक चेतना के अंतर्गत संस्कृति व्यापक संदर्भों के साथ इन्हीं के जरिए जीवन को पोषित करती है। ऐसा यदि नही ंहोता है तो फिर मेले या उत्सव के बहाने किसी भी प्रकार के आयोजन की कोई सार्थकता नहीं है।
सांस्कृतिक संध्या 
मुझे लगता है, कला या साहित्य से जुड़ा कोई भी मेला-डत्सव वही सार्थक है जिसमें भारतीय संस्कृति और हमारी अपनापे की संस्कृति का समावेष हो। वहां औपचारिकताओं की भरमार नहीं हो। वही जिसमें एकरसता नहीं हो और वही जिससे संस्कृति जीवंत रहे जीवाश्म न बने। आनंदकुमार स्वामी स्थापित करते हैं, ‘नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में है।’ इस दीठ से इस बार का कला मेला अब तक के हो रहे कला मेलों से अपने आप मे ंनवीन था। कैनवस पर कलाकारों की कलाकृतियों का रूपहला संसार मेले में था तो संस्थापन (इंस्टालेषन) की भी बेहतरीन प्रस्तुतियां उसमें थी। कला षिविर में कलाकारों ने वहीं कलाकृतियां सृजित की तो संगीत और नाट्य की भी लगभग रोज ही प्रस्तुतियां हुई। पहली बार कलाओं के भिन्न आयामों, यहां तक की कला षिक्षा और कला के अंतःसंबंधो पर संगीत, नृत्य, नाट्य, वाद्य, साहित्य आदि तमाम कलाओं पर संवादों का भी यह मेला संवाहक बना। 
राजस्थान ललित कला अकादमी में अध्यक्ष का मनोनयन भी इस बार लगता है, राज्य सरकार ने गहरी सूझ से किया है। अकादमी अध्यक्ष डाॅ. अष्विन एम. दलवी यू ंतो ‘सुरबहार’ जैसे विरल भारतीय वाद्य के देष के जान-माने कलाकार है ंपरन्तु दृष्य कलाओं से भी उनके गहरे सरोकार हैं। राग-रागिनियों पर चित्र की परम्पराओं के साथ ही संगीत के दृष्य सरोकारों की उन्हं गहरी समझ है। सितार, तबला और दूसरे वाद्य यंत्रों के साथ ही नृत्य, चित्रकलाओं में भी वह रमे हुए हैं। 
कलाओं के अन्तः संबंधों पर संवाद 
इसीलिए इस बार के कला मेले में उनने एक बड़ी पहल यह भी की कि विभिन्न संवाद कार्यक्रमों में से एक ‘कलाओं के अंतःसंबंध’ पर भी रखा। भरनाट्यम की देष की ख्यात कलाकार संध्या पुरेचा, सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक चेतन जोषी, लब्धप्रतिष्ठि रंगकर्मी, संेसर बोर्ड सदस्य अषोक बांठिया, बतौर संगीत साधक अष्विन एम.दलवी, जाने-माने चित्रकार जय झरोटिया के साथ ही कला आलोचक रूप में इस पंक्तियों के लेखक ने इस सत्र में षिरकत की। यह शायद पहला अवसर था जब राजस्थान ललित कला अकादमी ने ‘कला मेले’ में इस तरह की संस्कृति की संवेदन पहल की। संवाद और भी हुए जिनमें कला षिक्षा पर एक महत्ती सत्र हुआ तो भारतीय कला दृष्टि, भारतीय कला की चिंतन परंपरा और सौंदर्य मानदंड, जयपुर की कला परंपरा और नगर नियोजन पर भी सार्थक संवाद-चर्चाएं हुई। महत्ती यह भी था कि इन चर्चाओं के बहाने कलाओं के मानवीय सराकारों पर विषद् विमर्ष की अकादमी के जरिए एक तरह से राह खुली। संगीत की आलाचारी के दौरान सुनने वाले के जेहन में बनने वाले आकारों का चित्रण भी कैलीग्राफी कैम्प के दौरान मेले में हुआ। माने इस बार का कला मेला इस मायने में जीवंत था कि इसमें किसी एक कला नहीं बल्कि कलाओं के अंतर्गुम्फन को भी बहुत से स्तरों पर स्वर दिया गया था। मेले में प्रतिदिन सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाट्य मंचन और संस्कृति के दूसरे उपादानों की बडी विषेषता यह भी थी कि पहले दिन आने वाले दर्षकों ने मौखिक प्रचार कुछ इस तरह से किया कि लगभग प्रतिदिन ही कला मेला लोगों की आवा-जाही से गुलजार रहा।
मेले में सुप्रशिद्ध कार्टूनिस्ट सुधीर गोस्वामी का सृजन 
बहरहाल, ‘मेला’ शब्द उत्सव और उमंग से जुड़ा है। वहां यदि औपचारिकता और एकरसता रहेगी तो कभी भी वह जनोत्सव नहीं बन सकेगा। अकादमी के मेले ने इस बार जनोत्सव का रूप लिया, इसलिए कि जनता ने स्वतःप्रेरित इसमें भाग लिया। भीड़ ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ में भी कम नहीं रहती। पर गौर करें, बाजार की चकाचैंध में ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ में भीड़ होती नहीं, जुटाई जाती है। इसके विभिनन सत्रों में अधिकतर उच्च शिक्षण संस्थाओं, तकनीकी संस्थानों के विद्यार्थी और स्वयंसेवक यूनिफाॅर्म में दिखते हैं। बाकायदा इसके लिए शिक्षण संस्थान प्रमुखों को उन्हें भेजे जाने के लिए नूंत दी जाती है। इसके लिए पास बनाए जाते हैं। मेला बाजार आयोजक जानते है, उनका खरीदार बुद्धिजीवी साहित्यकार, पाठक नहीं होकर उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्ययनरत यह नई पीढ़ी ही है! इसीलिए काॅरपोरेट कंपनियों के साथ ब्रिटिश एयरवेज, ब्रिटिश काउन्सिल प्रायोजक रूप में वहां प्रमुखता से नई पीढ़ी को आकर्षित करने में अपने स्टाॅल प्रमुखता से लगाते हैं। 
कला की जीवंत प्रस्तुतियां 
दरअसल ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ साहित्योत्सव नहीं अंग्रेजी में लिखी किताबों का एक तरह से हाट बाजार है। ग्लेमर की दुनिया से जोड़ अंग्रेजी पुस्तके किस तरह से बेची जा सकती है, यह इस आयोजन से सीखा जा सकता है। जयपुर अंग्रेजी दां शहर नहीं है, पर अग्रेजी पुस्तकों की बिक्री के बड़े बाजार की संभावना को देखते हुए ही इसे ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ के लिए शायद चुना गया है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में यह आयोजन होता है, स्वाभाविक ही है हिन्दी के सत्र नहीं होंगे तो हो-हुल्ला होगा। सो अंग्रेजी शीर्षक ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ में बेचारी हिन्दी के भी चंद सत्र रोज होते ही हैं। पर माहौल और शिरकत करने वाले लेखकों की बेचारगी हर कोई भांप सकता है। कहने को हिन्दी या राजस्थानी के सत्र होते हैं पर उनमें सकुचाए से बैठे लेखकों को देखकर यह भी लगता है, वे किसी पांच सितारा होटल संस्कृति के माहौल से ही गदगद हैं। गोया, वहां पहुंचना ही उनकी बड़ी उपलब्धि हो गई है इसलिए भाषा की उपलब्धि से उनका कहां कोई सरोकार हो सकता है। विदेशी भाषाओं के लेखक अपने देश की संस्कृति, अपने लेखन की विशेषताओं को इस ऐषिया के बड़े कहे जाने वाले आयोजन में रेखांकित करते हैं और इस सबके साथ ‘कहीं नहीं ठहरती भारतीय संस्कृति’ का अंदाजे बंया भी अपने अपने अंदाज से कर मीडिया में स्थान भी पाते ही हैं। इस लिहाज से आयोजन की सार्थकता को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता!
अपनी कला संग कलाविद  राम जैसवाल 
इस समग्र परिप्रेक्ष्य में राजस्थान ललित कला अकादमी की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि बगैर किसी काॅरपोरेट सहयोग, इवेंट मैनेजमेंट कंपनी के ‘कला मेला’ ने लोकप्रियता के भी नए मुकाम बनाए। कलाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य की दृष्टि को पुनर्नवा करती है। और हां, देखने और सुनने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएं ही हैं। विष्णु दिग्म्बर पलुस्कर ने कभी कहा था, ‘हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।’ इसमें निहित भाव पर जाएंगे तो यह भी पाएंगे कि कलाओ और साहित्य के उत्सव, मेले भले कलाकार नही ंबनाएं परन्तु कला रसिक या पाठक यदि तैयार करती है तभी उनकी सार्थकता है। आप क्या कहेंगे!