Wednesday, February 21, 2018

संविधान की आठवी अनुसूची में सम्मिलित हो मातृभाषा राजस्थानी

यूनेस्को ने 21 फरवरी का दिन अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की हुई है। उद्देष्य है, विष्व मे भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले। पर विडम्बना है, संविधान की 8 वीं अनुसूची मंे सम्मिलत भाषाओं में हमारी अपनी मातृभाषा राजस्थानी नहीं है। बावजूद इसके कि इसका समृद्ध प्राचीन साहित्य है, विष्व की  किसी भी भाषा से कही अधिक समृद्ध शब्द कोष है, देष के बड़े भु-भाग पर रहने वालों की यह भाषा है। दुनियाभर में राजस्थानी के अपने लिखे से पहुंचने वाले ‘ंधरती धोरा री’ के महाकवि कन्हैयालाल सेठिया, साहित्य के नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित हुए प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा ‘बिज्जी’ आदि अपनी मातृभाषा की संवैधानिक मान्यता की उम्मीद में ही इस लोक से विदा हो गए पर मान्यता है कि अभी तक नहीं मिली।
बहरहाल, जनहित के विषयों के पैरोकार, अभिभाषक मित्र सूर्यप्रताप सिह राजावत ने हाल ही प्रधानमंत्री कार्यालय में सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी चाही है कि राजस्थान विधानसभा में 2003 में राजस्थानी को मान्यता दिए जाने के प्रस्ताव को पारित कर भिजवाए जाने और इसके बाद 24 जुलाई 2014 को केन्द्रीय संस्कृति मंत्री चन्द्रकुमारी कटोच द्वारा राजस्थानी को आठवी सूची मे सम्मिलित करने के लिए प्रधानमंत्री को लिखे पत्र पर क्या कार्यवाही की गयी है। आरटीआई का जवाब तो खैर, देर-सवेद आयेगा ही परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि करोड़ों राजस्थानियों की मातृभाषा को आखिर क्योंकर मान्यता के अपने सांस्कृतिक अधिकार की प्रतीक्षा करनी पड़ रही है।
मुझे लगता है, संस्कृति की विविधता की हमारी थाती तभी बची रह सकती है जब हम अपनी आंचलिक भाषाओं को बचा लें। केन्या के उपन्यासकार, भाषाविद् न्गुगीवा थ्योगो की किताब ‘डिकोलाइजिंग द माइंड’ में भाषा की राजनीति पर विषद् विमर्ष है। पुस्तक हमें बताती है कि कैसे भाषा के जरिए गुलाम बनाया जाता हैे। भाषा व्यापक जन-समुदाय की सामुहिक स्मृति होती है। यदि वह आपकी अपनी नहीं है तो आप एक समय के बाद अपने अतीत के गौरव को सदा के लिए खों देंगे। मुझे लगता है, राजस्थानी को यदि समय रहते संवैधानि मान्यता नही मिलती है तो  राजस्थान की संस्कृति की स्मृति से भी हम वंचित हो सकते हैं। तब हो सकता है, स्मृति वंचित समाज में जीने को हम मजबूर हो जायें। उपनिषदों में कहा गया है कि अपनी भाषा के बगैर न सत्य को, न असत्य को, न पाप को, न पुण्य को , न अच्छे और न बुरे को, न सद्गुण, न अवगुण को-किसी को नहीं पहचाना जा सकता है। अपनी भाषा में ही हम अपने आत्म को पहचान सकते है। जान सकते हैं। इसलिए जरूरी है हम अपनी बोलियों, मातृभाषाओं और उसकी विविधता को सहेंजे। 
मैं हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी में भी लिखता हूं। याद पड़ता है एक दफा कमलेष्वर जब बीकानेर आए तो उनसे लम्बा संवाद बोलियांे पर हुआ। बाद में उनके साथ को सहेजते मैने संस्मरणनुमा कुछ उन पर लिखा।  सहज ही वह अपनी मातृभाषा राजस्थानी में लिखा गया। राजस्थानी भाषा अकादमी की पत्रिका में जब वह प्रकाषित हुआ तो मैने हिंदी में उसका कुछ अनुवाद और मुल छपा उन्हें डाक से भेज दिया। थोड़े दिनों बाद कमलेष्वर का पत्र हस्तगत हुआ, उन्होंने लिखा था, ‘तुम्हारे द्वारा ‘‘जागती जोत’’ में छपा-लिखा हुआ बहुत आत्मीय आलेख-संस्मरण मिला।  पढ़ता हूं तो राजस्थानी समझ में आती है। आखिर हिंदी को रक्त- संस्कार तो राजस्थानी , शौर सैनी और ब्रज ने ही दिया है। हिंदी तो भाषा नहीं, भाषा मण्डल है! मैं स्वयं ब्रजभाषी हूं - मैनें वृहद शुभ और भविष्य के लिए अपनी मातृभाषा को खड़ी बोली हिंदी के लिए समर्पित किया है...सांस्कृतिक समन्वय के लिए, देष और राष्ट्र के उत्थान के लिए यह बलिदान जरूरी होते हैं...पर अपनी मातृ-भाषाओं -बोलियों के विसर्जन से हिंदी प्रगाढ़ और शक्तिषाली नहीं होगी, हमें अपनी मातृभाषाओं को जीवित रखना पड़ेगा, जहां से हिंदी की शब्द संपदा सम्पन्न होगी। यह बिटिया- बेटे को ब्याहने वाला रिष्ता है- जो नाती- पोतों में हमें अपनी निरंतरता देता है।’ उनके इस कहन के आलोक में ही यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हिंदी की संपन्नता बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं से है। जो लोग राजस्थानी की मान्यता के विरोधी हैं, उन्हें इस बात को समझ लेना चाहिए कि राजस्थानी की मान्यता से किसी और भाषा का अहित नहीं होने वाला है और जो लोग बोलियों के नाम पर राजस्थानी की मान्यता पर प्रष्न उठाते हैं, उन्हें भी भी भाषाविद्ों की इस बात को नहीं भुलना चाहिए कि किसी भी भाषा की जितनी अधिक बोलियां होती है, वह भाषा उतनी ही अधिक समृद्ध मानी जाती है। राजस्थानी के साथ यही है। 
विष्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगौर ने राजस्थानी के दूहे सुनकर कभी कहा था, ‘‘रवीन्द्र गीतांजली लिख सकता है, डिंगल जैसे दूहे नहीं।’ भाषाषास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी, आषुतोष मुखर्जी राजस्थानी भाषा के समृद्ध कोष और इसकी शानदार परम्परा के कायल होते समय-समय पर राजस्थानी की मान्यता की हिमायत करते रहे हैं। यही नहीं भाषाओ के विकास क्रम के अंतर्गत राजस्थानी का प्रार्दुभाव अपभ्रंष में, अपभ्रंष की उत्पत्ति प्राकृत तथा प्राकृत का प्रारंभ संस्कृत और वैदिक संस्कृत की कोख में परिलक्षित होता है। इन सबके बावजूद राजस्थानी को मान्यता नहीं मिलना क्या समय की भारी विडंबना नहीं है?
राजस्थान विधानसभा में वर्ष 1956 से ही राजस्थानी को राज-काज और षिक्षा की भाषा के रूप में मान्यता के प्रयास हो रहे हैं परन्तु इन प्रयासों को अमलीजामा पहनाने की दिषा में कोई समर्थ स्वर नहीं होने के कारण यह भाषा राजनीति की निरंतर षिकार होती रही है। राज्य विधानसभा में पहली बार 16 मई 1956 को विधायक सम्भुसिंह सहाड़ा ने राजस्थानी भाषा प्रोत्साहन के लिए जो अषासकीय संकल्प रखा उसमें राजस्थान की पाठषालाओं में राजस्थानी भाषा और तत्संबंधी बोलियों की षिक्षा देने पर जोर देने हेतु तकड़ा तर्क दिया गया था। संकल्प में कहा गया था कि बच्चे घरों मंे अपने माता-पिता के साथ जिस भाषा में बात करते हैं, उसी मंे षिक्षा दी जानी चाहिए, इसी से वे पाठ्यपुस्तकों में वर्णित बातों को प्रभावी रूप में ग्रहण कर पांएगे। इसके बाद 2003 में राज्य विधानसभा ने राजस्थान की मान्यता का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भिजवा दिया। तब से आज इतने वर्ष हो गए हैं, राजस्थानी मान्यता की बाट ही जो रही है। यह कितनी विडम्बना की बात है कि लगभग 1 हजार ई. से 1 हजार 500 ई. के समय के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखकर जिस भाषा के बारे में गुजराती भाषा एवं साहित्य के मर्मज्ञ स्व. झवेरचन्द मेघाणी ने यह लिखा कि व्यापक बोलचाल की भाषा राजस्थानी है और इसी की पुत्रियां फिर ब्रजभाषा, गुजराती और आधुनिक राजस्थानी का नाम धारण कर स्वतंत्र भाषाएं बनी। उस भाषा की संवैधानिक स्वीकृति के बारे में निरंतर प्रष्न उठाए जा रहे हैं।
एक प्रष्न यह हो सकता है कि संविधान की मान्यता के बगैर क्या कोई भाषा अपना अस्तित्व बनाकर नहीं रह सकती। यह सच है कि भाषा सरकारें नहीं बनाती, वे लोग बनाते हैं जो इसका प्रयोग करते हैं परन्तु इसका व्यवहार में प्रयोग तो तब होगा न जब यह षिक्षा का माध्यम बनेगी, जब राजकाज, विधानसभाओं, अदालतों में इस भाषा का प्रयोग उचित समझाा जाएगा। और यह सब तब होगा जब सरकार इसे मान्यता प्रदान करेगी। इन पंक्तियों के लेखक जैसे बहुत से हैं जिनका आरंभिक परिवेष राजस्थानी का रहा है, आज भी घर में हम राजस्थानी में बात करते हैं परन्तु बच्चों से हिन्दी में बात करने के लिए मजबूर हैं। कारण यह है कि वे ठीक से विद्यालय में हिन्दी या अंग्रेजी यदि नहीं बोल पाएंगे तो जिस भाषा में वे षिक्षा ले रहे हैं, उन्हें बोलने वाले दूसरे बच्चों के साथ उन्हें हीन भावना जो महसूस होगी। राजस्थान में ही गांवो, छोटे शहरों से राजधानियां और बड़े शहरों में आए अधिकाषं राजस्थानी बोलने वालों के साथ यही हो रहा है। उन्हें अपनी भाषा से लगाव है, प्यार है परन्तु इस बात की लगातार गम भी है कि उनके बाद इस भाषा को उनके बच्चे नहीं बोलंेगे, व्यवहार में नहीं लंेगे। क्या ऐसा तब संभव होता जब उन बच्चों को भी राजस्थानी में ही पढ़ने का मौका मिलता?
भाषा निरंतर प्रयोग से समृद्ध होती है परन्तु राजस्थानी का यह दुर्भाग्य है कि प्रतिवर्ष गांवों, सुदूर ढ़ाणियों से अपनी मेहनत से पढ़-लिखकर शहर में आकर नौकरी करने वाले राजस्थानी भाषी मजबूरन अपनी दूसरी पीढ़ी के साथ राजस्थानी में संवाद नहीं कर पाते हैं, ऐसे दौर में कब तक राजस्थानी गांवो के अलावा शहरों में बची रहेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। राजस्थानी की मान्यता को क्यों इस नजरिए से नहीं देखा जा रहा? क्यों राजस्थानी भाषा के बाद जो भाषाएं विकसित हुई उन्हें मान्यता मिल गयी परन्तु राजस्थानी आज भी मान्यता की बाट जो रही है? क्यों बोलियों के नाम पर राजस्थानी के साथ यह अन्याय हो रहा है? हकीकत यह है कि राजस्थानी की मान्यता इसके अधिकाधिक लोक प्रयोग के लिए जरूरी है, इसलिए भी कि इसी से मुद्रण और प्रकाषन, पठन-पाठन और बोलने की आदत का इसका अधिक विकास होगा और यही इस भाषा की आज की जरूरत है। इसी से राजस्थानी के समृद्ध प्राचीन साहित्य को भी अंवेरा जा सकेगा।
बहरहाल, संविधान की मूल अवधारणा लोकतांत्रिक प्रस्थापना में है। संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अगर एक हिस्से की भाषा कोई है तो उसको बचाया जाए। राजस्थानी 9 करोड़ लोगों की भाषा है, इसे बचाना, इसकी मान्यता, संरक्षण इसलिए जरूरी है। वर्ष 1959 में भाषाविद् जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ पुस्तक में राजस्थान की भाषा राजस्थानी बताते स्पष्ट कहा है-‘‘मारवाड़ी के रूप में, राजस्थानी का व्यवहार समस्त भारतवर्ष में पाया जाता है। ‘पंजाबी के ठीक दक्षिण में लगभग 1 करोड़ साढ़े बयासी लाख राजस्थानी भाषा-भाषियों का क्षेत्र है जो इंगलैण्ड तथा वेल्स की आधाी जनसंख्या के बराबर है। जिस प्रकार पंजाबी उत्तर-पष्चिम में मध्य देष की प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है, उसी प्रकार राजस्थानी उसके दक्षिण-पष्चिम में प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है।’’
ग्रियर्सन ने भाषा सर्वेक्षण का यह कार्य तब किया था जब भारतीय संविधान बना भी नहीं था, बाद में अंग्रेजी से यह पुस्तक हिन्दी में अनुवादित होकर प्रकाषित हुई। वर्ष  1967 से लेकर अब तक बहुत सारी भाषाएं संविधान की 8 वीं अनुसूची में जोड़ी गयी है। यह सच में विडम्बना की बात है कि जिस भाषा की लिपि से आधुनिक देवनागरी और दूसरी अन्य भाषाओं की लिपियां बनी है और जिसका अपना व्याकरण और विष्व के विषालतम शब्दकोषों में से एक जिसका शब्दकोष है, ऐसी भाषा को संविधान की 8 वीं अनुसूची में जुड़ने का अभी भी इन्तजार है।
राजस्थानी की मान्यता में किसी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है। इसका अर्थ इतना ही है कि इससे वर्षो पुरानी इस भाषा का संरक्षण हो सकेगा। ऐसे दौर में जब मातृभाषाओं पर विष्वभर में संकट चल रहा है, इस दिषा में गंभीर चिंतन कर त्वरित कार्यवाही की जानी समय की आवष्यकता भी है। इसलिए भी कि भाषा, साहित्य और संस्कृति से व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। राजस्थानी की मान्यता भाषा के प्रयोग को व्यापक स्तर पर प्रयोग की स्वीकृति देती है। इसी दीठ से क्या हमारी मातृभाषा को संवैधानिक मान्यता नहीं मिलनी चाहिए!