Sunday, April 8, 2018

आलोक छुए अपनेपन की रंग दीठ

विनय शर्मा  के चित्रों की अपनी ज्यामिति है। रंग-रेखाओं में वृक्ष, चट्टानों और आदिम सभ्यता से जुड़े अवषेषों की मधुर व्यंजना वहां है। उनकी लगभग हर कलाकृति में प्राचीन लिपियों का धुंधलापन दिखेगा। रंगालेप में किसी कथा, प्रसंग, अनुभूति या स्मृति के छंद सरीखी लिपि! विनय के चित्र एकांगी अर्थ आषय लिए नहीं है बल्कि वहां रंगो के अनूठे कथा अभिप्राय है। कह सकते हैं, अमूर्तन में रंगो का आलोक वहां है। रंग संसार की विपुलता नहीं विविधता। सुविन्यस्त रेखाओं में बिखरे रंगो से झांकते मानव मन और प्रकृति से जुड़े आख्यान। रेखाएं जैसे दीठ का आलोक रचती है। 
मसलन एक चित्र है जिसमें अनूठा रंग विभाजन किया गया है। चैकड़ी में बंटे रंग। गोले और पट्टिकाएं। टैक्सचर में उर्दू लिपि। कागज बने कैनवस पर तरेड़ें...पुरातन की अनुभूति कराती। रंगो के अनूठे बिम्ब यहां है। कलाकृति में प्रवेष करेंगे तो पाएंगे वहां पर सूरज, चांद, तारे और हरियाली के आंगन में पसरा जैसे मौन हमसे बतिया रहा है। एक ओर घनीभूत होते रंग किसी अंधेरी सुरंग में जैसे ले जा रहे हैं तो दूसरी ओर छोटे गलियारों से अपनी जगह बनाता उदित होता सूर्य। चमकीली पीली रोषनी के रंग। 
विनय की कलाकृतियों की यही विषेषता है, वह रंगों के होने का जैसे हमसे पाठ बंचावते हैं।  अनुभूतियों की विरल छटाओं में उनके किए रंग विभाजन की ज्यामितिय संरचनाओं में एक साथ गहराती रात की अनुभूति है तो उदित होते सूर्य के उजास का सुकून भी। ऐसा बहुत कम होता है जब एक ही चित्र दिन और रात की ऐसी सुमधुर व्यंजना करता हमें दिखे। विनय की ‘रंग आलोक’ श्रृंखला के चित्र ऐसे ही हैं। वहां प्रकृति और जीवन से जुड़े आख्यानों में हम भावों के अनूठे लोक में पहुंच जाते हैं।  उर्दू अक्षरों की पाष्र्व व्यजना में वह अभिप्रायों का जैसे कोई किवाड़ खोलते हैं। यह ऐसा है जिसमें प्रवेष करते हम रंग-रेखाओं के माधुर्य से ही साक्षात्कार नहीं करते बल्कि प्रकृति और जीवन के रिष्तों से भी रू-ब-रू होते हैं।
इसी श्रृंखला की एक और कलाकृति है, त्रिकोण और गोलेनुमा रंग पट्टिकाओं के नीचे हरे, रक्तिम लाल और पीली चैकियां। पाष्र्व में दरारें। बिंदु-बिंदु नाद। हल्का आसमानी, गहरा नीला, भगवा, हरा, लाल और पीले रंग के घेरे में बसे घेरे। शून्य में ब्रह्माण्ड को उकेरते रंग ध्वनियों की विरल व्यंजना विनय ने इस कलाकृति में की है। मुझे लगता है यह विनय की रेखाओ का रंग अध्यात्म है और संयोग देखिए, ठीक इसके सामने कलाकृति में त्रिभुज में भी रेखाओं की ऐसी ही लय अंवेरते रंगो का उजास जैसे छिड़का गया है। रंगो की इस छटा के नीचे चैकोर रंग पट्टिकाएं और इस समग्र परिवेष में हल्के पीलेपन में उभरी उर्दू लिपि। भाव सामंजस्य की अनूठी व्यंजना। शून्य का अनहद, रंग-नाद।...और इसके बाद की कलाकृति में परिवेष लगभग यही परन्तु रंगो का प्रवाह जैसे फूलों में रूपान्तरित हो गया है। छाया-प्रकाष में हरे, पीले, नीले और लाल में समाहित श्वेत रंग जैसे बहते हुए अपने आप ही पुष्पगुच्छ में रूपान्तरित हो गए हैं।
विनय का यही रंग आलोक उन्हें अपने समकालीनों से जुदा करता है। दार्षनिक भव में ले जाता रंगों का उनका लोक रेखाओं के लावण्य में रंग अध्यात्म सरीखा है।इसी श्रृंखला का एक चित्र चैपड़ सरीखा है। सहज, सरल। रंग परन्तु वह देखने वाले पर हावी नहीं होते। चैपड़ नहीं बल्कि उसकी छाया में हरे, पीले, नीले और रंग की आभा। पाष्र्व में टैक्सचर में उर्दू लिपि। आप इसे देखते हैं और स्मृतियों के जैसे किसी अनूठे लोक में प्रवेष कर जाते हैं। ऐसे ही एक और चित्र है जिसमें विघ्न-विनायक गणेष की व्यंजना है। भित्ति चित्र सरीखी कलाकृति। पाष्र्व में पुरालिपि और श्वेत रेखाओं के उजास में गणेष को चंवर ढुलाती रिद्धि-सिद्धि। मटमेले और जीर्ण-षीर्ण कागद पर संस्कृत भाषा के श्लोक और रंग पट्टिकाएं और छाया सरीखे आवरण में उभरती श्वेत रेखाओं में उकेरे गणेष की यह अनूठी व्यंजना है। चित्र परन्तु अतीत वहां जैसे ध्वनित हो रहा है। ऐसा लगता है किसी पुरानी हवेली के भित्तिचित्र से हम साक्षात् हो रहे हैं। यही विनय शर्मा के वह रंग अभिप्राय हैं जिनमें परिवेष का मर्म ठौड़ ठौड़ उद्घाटित होता सदा के लिए देखने वालों की आंखों में बस जाता है।

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