Sunday, May 13, 2018

‘नीर महल’ की ओर


खिड़की के पार यहां दूर तक धूंध है। पहाड़ हैं पर धूंए में कहीं खोए-खोए हुए से। एक पगडंडी दूर कहीं उतर जा रही है। मिलट्री का एक ट्रक भी खड़ा है। हरे वृक्षों का बसेरा है पर अभी तो धुंधलके में जैसे सब ऊंघ रहे हैं। त्रिपुरा की राजधानी अगरतला के राजकीय विश्राम गृह के जिस कमरे में ठहरा हूं, उसके कमरे की खिड़की से यह सब देख मन में आया, पहाड़ों की धरा हमें जगाती है।...और कहीं होते हैं तो वहां की आपाधापी, भागमभाग और वाहनों के धूंए का राज इस कदर आक्रांत करता है कि मन उन सबसे दूर नींद में कहीं खोना चाहता है। रहता वहीं है पर वहां से भागने, दूर जाने या फिर कुछ देर के लिए अपने आस-पास को भूलने को मन करता है। यह भूलना क्या है? नींद ही तो! माने जो है, उससे दूर जाना। प्रकृति मध्य ऐसा नहीं है। यहां मन जागता है। सोया हुआ भी यहां भीतर को जगाता है। तो कहूं, जाग का मार्ग है प्रकृति। 
जयपुर से दिल्ली का हवाई मार्ग। रात्रि विश्राम राजधानी में और फिर दिल्ली से अलसुबह कोलकत्ता की फ्लाईट और फिर वहां से बदली कर अगरतला पहुंचा तब तक दुपहरी हो गई थी। अगरतला में छोटा सा एअरपोर्ट है। 
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सांझ घिरने को थी।... क्षितिज में लालिमा बिखेरता सूर्य विदा ले रहा था। पानी पर पड़ती सूर्य की जाती किरणों को देखना अद्भुत अनुभव था। हम जहां थे, वहां से दूर तक आंखों में नीर ही नीर बस रहा था।...पर सौन्दर्य का सच केवल यही नहीं था, दूर बीच पानी में खड़ा वह मूक महल भी था जिससे सुनाई दे रहा था जीवन का राग। त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से 53 किलोमीटर दूर रूद्रसागर झील में थी हमारी बोट। आसमान की परछाई से नीलेपन का अहसास कराता झील का पानी। नाव ‘नीर महल’ की ओर बढ़ रही थी, तभी झील पर किलोल करते प्रवासी पक्षियो का झुण्ड समवेत स्वर में गान करता उड चला। पास बैठे कलाकार मित्र ने तुरंत कैमरा थामा और प्रयास किया कि पक्षी संगत के उस दृष्य को सदा के लिए कैमरे से स्थिर कर संजो ले परन्तु तब तक देर हो चुकी थी।... झील के पानी में परछाई छोड़ता पक्षियो का काफिला दूर कहीं आसमान में जैसे खो गया। 
झील के मध्य बने ‘नीर महल’ की ओर बढ़ते मन ने औचक कहा, प्रकृति ने त्रिपुरा में सौन्दर्य का नीर ही तो बहाया है। यत्र-तत्र-सर्वत्र।...
—शीघ्र प्रकाश्य यात्रा वृतान्त पुस्तक से