Wednesday, September 12, 2018

सांस्कृतिक विरासत संरक्षण के लिए भी हो कार्य

यह चिंताजनक है कि विष्व में जो बड़े अपराध पिछले कुछ वर्षों में विषेष रूप से उभर कर सामने आये हैं। उनमें सांस्कृतिक विरासत की तस्करी धीरे-धीरे प्रमुख होता जा रहा है। यूनेस्को के अनुसार ड्रग्स और हथियारों की तस्करी के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा अपराध आज सांस्कृतिक विरासत की तस्करी है। 
भारत विविधताओं की धरती है और सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से अत्यधिक सम्पन्न भी है परन्तु यह विडम्बना ही है कि धरोहर संरक्षण के प्रति बहुत से स्तरों पर जो सजगता नजर आनी चाहिए, वह लुप्त प्रायः है। यह सही है, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा पुरामहत्व के स्थलों और वहां की सांस्कृतिक संपति के संरक्षण का कार्य निरंतर किया जा रहा है परन्तु देष मंे अभी भी बहुत से ऐसे अल्पज्ञात स्थल हैं जिनका ऐतिहासिक, पौराणिक, पुरातात्विक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व तो है परन्तु वे सरकारी और सामाजिक चेतना की दृष्टि से उपेक्षित प्रायः हैं। सांस्कृतिक संपदा को तस्करी के जरिए देष से बाहर भेजने वालों से भी अधिक खतरा इस बात का है कि हम अपने ऐसे स्थलों के सांस्कृतिक मूल्यों को नहीं पहचानकर सदा के लिए उनसे दूर होते जा रहे हैं।
बहुत से स्थान जो सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से बहुज्ञात हैं परन्तु उनके आस-पास के स्थलों पर हमारा ध्यान नहीं है। हाल ही में बिहार संग्रहालय में एक व्याख्यान के लिए जाना हुआ। इसी बहाने नालन्दा और राजगीर जाने का भी संयोग हो गया। यह सर्वविदित है कि सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से बिहार के यह क्षेत्र अत्यधिक समृद्ध है। नालन्दा के रास्ते में पड़़़ने वाले छोटे-छोटे गांवों और वहाँ की मूर्ति कला धरोहर में इसे साक्षात अनुभूत भी किया। पर यह जानकर दुख भी हुआ कि सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न वहां के बहुत सारे स्थलों से मन्दिरों की मूल मूर्तियां धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। बहुत से सार्वजनिक स्थलों पर से तो मूल प्राचीन मूर्तियों से हूबहू वैसी ही नयी मूर्तियों की अदला-बदली कर दी गयी है। इसकी बड़ी वजह सांस्कृतिक विरासत की तस्करी तो है ही साथ ही इसके प्रति वृहद स्तर पर आमजन की चेतना नहीं होना भी है। इसी कारण तस्कर स्थानीय मूर्तिकारों से प्राचीन मूर्तियों की नकल करवाते हैं और जब मूर्तियां बन जाती है तो कब असल गायब हो जाती है, पता ही नहीं चलता। मुझे लगता है, इस संदर्भ में यदि वृहद स्तर पर सर्वे करवाया जाए तो हमारे यहां से सांस्कृतिक विरासत तस्करी के बड़े गिराहों का पर्दाफास हो।
पर्यटन के विकास में इस बात को भी देखे जाने की जरूरत है कि कैसे स्थान-विषेष में सांस्कृतिक विरासत के प्रति आम जन में प्रभावी वातावरण बनाया जाए। ज्ञात स्थलों के पर्यटन स्थलों के साथ ही वहां के आस-पास के ऐसे अल्पज्ञात स्थलों के लोगों में यह समझ खासतौर से विकसित किए जाने की जरूरत है कि कैसे वे अपनी धरोहर को बचा सकते हैं। बाकायदा इसके लिए प्रोत्साहन अभियान चलाए जाएं तो इसके बेहतर परिणाम हमारे संग्रहालयों को मिलने वाली बेषकीमती पुरा संपदा के रूप में हमारे सामने आ सकते हैं।
बहरहाल, सांस्कृतिक विरासत की तस्करी से देष अतीत की हमारी गौरवमयी संस्कृति से निरंतर महरूम हो रहा है। परन्तु इस संदर्भ का एक बड़ा सच यह भी है कि बहुत सारे स्थानों पर सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न धरोहरें इसकारण से भी हमसे दूर होती हा रही है कि वहां पर उनके संरक्षण की कोई जागरूकता नहीं है। सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न होते हुए भी बहुत सारे स्थानों के विरासत स्थल, वहां की मूर्तियां, वहां के षिल्प और कलाएं दुर्दषा झेलती स्वतः ही काल-कवलित हो रही है। मुझे लगता है, सांस्कृतिक विरासत के प्रति सचेत नहीं होना अतीत से विमुख होना है।...और जो समाज अतीत के बगैर भविष्य की राह पकड़ता है, वह बहुत लम्बे समय तक अपने अस्तित्व को बचाकर नहीं रख सकता है। अतीत भविष्य की एक तरह से रोषनी है और संस्कृति जीवन का ऐसा राग है जो व्यक्ति को निरन्तर यांत्रिक होने से बचाता है। वहीं समाज सदियों तक अपना होने को बचाये रख सकता है जो परम्परा में आधुनिकता ओढ़ता है। सांस्कृतिक चेतना इसलिए भी जरूरी है कि इसी से भविष्य सुगम होता है और मनुष्य मानसिक रूप से भी सम्पन्न होता है। 
देश  के जाने माने कलाकार और कला षिक्षा में विरासत संरक्षण के पैरोकार डाॅ. जयकृष्ण अग्रवाल ने हाल ही में लखनऊ के रवीन्द्रालय पर बनी 81 फीट लम्बी और 9 फीट चैड़ी टेराकोटा की उस विष्व प्रसिद्ध कला कृति की ओर सोषल मीडिया के जरिये ध्यान दिलाया है जो सामाजिक उपेक्षा के चलते झाड़ियों और वहाँ उग आई घास में कहीं लोप होती जा रही है। विष्व कवि रवीन्दनाथ टैगोर के कथानक पर भारत के प्रमुख कलाकार स्व. के.जी. सुब्रमण्यम द्वारा 1963 में सृजित यह कलाकृति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आधुनिक भारतीय कला का प्रतिनिधत्व करती है। पर इसे समझक कौन? जयकृष्णजी ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा इस कलाकृति के साथ ही ऐसी और कलाकृतियों और उनके स्थलों को संसूचित कर संरक्षित करने पर जोर दिया है। सोषल मीडिया में उनकी इस मुहिम को युवा कलाकार भूपेन्द्र अस्थाना सहित कई और कलाकारों ने आगे बढ़ाया है परन्तु सवाल यह है कि वृहद स्तर पर क्या इस संदर्भ में सरकार को कोई नीति नहीं बनानी चाहिए। यह बात इसलिए कि देषभर में ऐसी बहुत सी सांस्कृतिक धरोहरे हैं जो उपेक्षा के कारण अपना अस्तित्व लगभग खोती जा रही है। ऐसे बहुत से स्थान हैं, जो घोर उपेक्षा के चलते अतीत हो गए हैं या फिर ऐसा होने की राह पर हैं। 
मध्यप्रदेष के मुरैना क्षेत्र में, चैसठ यौगिनी मंदिर बना हुआ है। ब्रिटिष वास्तुकार लुटियन ने इसे देखकर ही कभी भारतीय संसद भवन के निर्माण की कल्पना की थी। कोई वहां पर जाए तो अचरज करेगा कि हमारा संसद भवन हुबहू चैसठ योगिनी मंदिर का प्रतिरूप है। लुटियन ने उससे प्रेरणा ली परन्तु वर्तमान यही कहता है कि संसद भवन की परिकल्पना उसी की थी...ऐसे बहुत से और भी स्थान हैं जो विष्व में आधुनिक निर्माण की भारतीय प्रेरणा है परन्तु वहां भारतीय संस्कृति के होने के चिन्ह अब नजर नहीं आते।  भारतीय संसद भवन की प्रेरणा रहा चैसठ योगिनी का मूल मंदिर और वहां के कुछ संस्कृत षिलालेख, चट्टानों पर अतीत से जुड़ी संदर्भों की दास्तां सुनाती लिपि और सदियों पुराने वहां के और भी सांस्कृतिक संदर्भ घोर अपेक्षा के कारण विदेषी जनों के लिए तो प्रेरणा बन गए परन्तु अपने ही घर में घरबारे हैं। मुझे लगता है, इस दृष्टि से व्यापक स्तर पर चिंतन की जरूरत है कि कैसे हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को तस्करों से तो बचाए हीं साथ ही जो कुछ हमारे पास उपेक्षित है-उसको सहेजतने का भी वृहद स्तर पर हम जतन करें। निष्चित ही सामाजिक भागीदारी इसमंे जरूरी है परन्तु सरकारी स्तर पर विज्ञ कलाकारों, धरोहर सरंक्षण मंे रूचि रखने वाले, लेखकों को सम्मिलित कर इस दिषा में किसी नीति पर कार्य किया जाता है तो उसके दूरगामी परिणाम आ सकते हैं।
राजस्थान की ही बात करें तो यहां अलवर जिले में स्थित नीलकण्ठ महादेव मन्दिर और उसके पास कोई दो-तीन किलोमीटर तक प्राचीन मूर्तियों का जैसे खजाना बिखरा पड़ा है। कहते हैं मंदिर में भगवान षिव का जो लिंग है वह भी नीलम का है। बौद्ध और जैन प्रतिमाओं का भी यह क्षेत्र एक प्रकार से गढ़ है। परन्तु यहां भी सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण का कोई धणी-धोरी नजर नहीं आता है। जालौर में परमार कालीन संस्कृत पाठषाला, बूंदी के शैल चित्र, जयपुर के पास महाभारत कालीन कहे जाने वाले विराटनगर की चट्टानों और मूर्तिषिल्प, षिलालेखों आदि बहुत सारी सांस्कृतिक धरोहर इसीलिए उपेक्षित है कि उसके बारे में सूक्ष्म समझ का अभाव है। ऐसे स्थलों से यदि तस्करी भी किसी स्तर पर होती है तो किसे पता है! जरूरत इस बात की है कि के सूक्ष्म सांस्कृतिक सोच रखते हुए इस सबके संरक्षण पर वृहद स्तर पर ध्यान दिया जाए। जयकृष्णजी जैसे कलाकारों की सेवाएं इस दिषा में सरकार लेकर किसी नीति पर कार्य करती है तो उसके अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। पहल तो हो।

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