Saturday, November 19, 2016

सांगीतिक भाव-भाषा का वृहद ग्रंथ ‘लता सुर-गाथा’


यतीन्द्र मिश्र के पास संगीत की सूक्ष्म सूझ और उसे शब्दों में पिराने की मौलिक दीठ है। संगीत पर लिखे का उनका अपना मुहावरा है। ऐसा जिसमें अंतर्मन संवेदनाओं की लय में वह पढ़े-सुने को गुनते हैं या कहें उसका एक तरह से स्मृति छंद रचते हैं। लता मंगेशकर  के गायन और उनसे हुए संवाद के जरिए उनके जीवन में रमते-बसते इधर उन्होंने सांगीतिक भाव-भाषा का वृहद ग्रंथ "लता सुर—गाथा"  सृजित किया है। लता के गान से जुड़ी अनुभूतियों , उनसे हुए संवाद के साथ ही संगीत की यतीन्द्र की विरल दीठ का एक तरह से यह सौन्दर्यान्वेषण है।
संगीत व सिनेमा अध्येता यतीन्द्र मिश्र ने इस पुस्तक में जीतेजी किवदन्ती बन चुकी महान भारतीय पाष्र्वगायिका लता मंगेषकर की सांगीतिक यात्रा को ही नहीं संजोया है बल्कि एक महान गायिका के भीतर छूपे संवेदन मन की अनजानी परतों को बहुत से स्तरों पर खोला है। लता के गायन और उनके जीवन पर इतना अधिक लिखा जाता रहा है, कि बहुधा वह लिखा दोहराव का षिकार हो गया है। वही बातें, वही सब कुछ जो दूसरों ने लता पर कहा है, से ही पाठक प्रायः रू-ब-रू होते हैं पर ‘लता सुर-गाथा’ इस मायने में भिन्न है। इसमें लता की गायिकी की बारीकियों का सूक्ष्म ब्योरा ही नहीं है बल्कि लता से हुए संवाद के जरिए प्रामाणिकता के अनछूए समय संदर्भों का ताना-बाना भी है। लता के गीतों को सुनते सृजित यतीन्द्र की भाव-भाषा की रूप-सृष्टि यहां है। मुझे लगता है, ‘लता सुर-गाथा’ लता के गान का शब्द में पिरोया स्मृति तीर्थ है। 
यतीन्द्र ने इस पुस्तक में लता मंगेषकर के गायन के साथ ही उनके जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं के आधार पर उनके सदाबहार होने, उनकी महानता को इस पुस्तक में ठौड़-ठौड़ अपने सांगीतिक शब्द राग में संजोया है। सूक्ष्म सूझ से लता के जीवन से जुड़े पहलुओं पर विचारते यतीन्द्र ने पुस्तक में लता के गीतों मे सुरों के अर्थ पर विचार किया है तो उनकी सुर-यात्रा के बहुत से अनछूए हिस्सों को भी वह पाठकों के समक्ष पहली बार लेकर आए हैं। मसलन इस पुस्तक से ही पता चलता है कि रेडियो के लिए लता पहली बार अपने पिता का हाथ पकड़कर गाने के लिए पहुंची थी, यह भी कि उन्होंने पहला जो राग सीखा वह पूरिया धनाश्री था, यह भी कि पहले उनके पिता ने नाम हृदया रखा जो बाद में लता हो गया और यह भी कि गाने से पहले 5 वर्ष तक लता ने फिल्मों में अदाकारा का सफरनामा तय किया और यह भी कि कभी ‘आनन्दघन’ के नाम से मराठी फिल्मों मे ंलता ने संगीत निर्देषन का कार्य भी किया था। पुस्तक में लता के प्रिय भूपाली और मालकोंस राग की की संवाद चर्चा के साथ ही रियाज के लिए सबसे अच्छी राग पहाड़ी को भी गुना और बुना गया है। यूसुफ यानी दिलीप कुमार द्वारा यह कहे जाने पर कि मराठी लोगों के मुंह से तो दाल-भात की महक आती है, वह उर्दू का बघार क्या जानें?’ को सुनकर लता द्वारा गालिब, मीर, मोकिन, जौक, सौदा और दाग़ जैसे शायरों को पढ़ने और बाकायदा मौलवी उस्ताद महबूब से उर्दू सीखने की रोचक दास्तां भी पुस्तक में है तो यतीन्द्र के एक प्रष्न के जवाब में मोक्ष और संगीत में से किसी एक को चुनने पर लता संगीत को चुनती है। यह कहते हुए कि मेरा संगीत ही मुझे अन्ततः जन्म-मृत्यु के खेल से मुक्त करेगा।’ 
‘लता सुर-गाथा’ के आरंभ के 200 पन्ने लता के जीवन और गान पर केन्द्रित यतीन्द्र की विवेचना के हैं। यतीन्द्र ने इन पन्नों में लता के गायन को रूपकों के जरिए सुमधुर शब्द लय में अंवेरा है। पढ़ते यह अहसास भी होता है कि उनकी भाषा पाठक को अंतर से प्रकाषित करती है। वह लिखते हैं, ‘लता ने अपनी सांगीतिक यात्रा में इत्रफरोष का कार्य किया है।’ लता के गाए गीतों के सांगीतिक सूत्रों की तलाष करते पुस्तक में उनकी आवाज के बड़े दायरे के साथ वाद्य के प्रभाव में विकसित होती उनकी गायिकी के स्वरूप को गहरे से गुना और बुना गया है। यतीन्द्र लता के गान में कभी रागों के शुद्ध चेहरे को देखते हैं तो कभी रागों की स्वरावलियों पर जाते उनके उच्चतम स्तरों पर जाते आरोह-अवरोह के सुरीले उतार-चढ़ावों में आम जन की स्वीकृति को भी अनुभूत करते उसे पाठकों से साझा करते हैं।
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‘लता सुर-गाथा’ को पढ़ते हुए यह अहसास भी बारम्बार होता है कि यतीन्द्र मिश्र ने इसमें रूपकों में अपनी भाषा के घर को एक तरह से आबाद किया है। उनकी शब्द व्यंजना देखें, ‘वे एक ही बार में तमाम ऐसे सीमान्तों तक जाकर लौट आती हैं, लगता है जैसे वामन की तरह अपने एक डग से ही पूरी पृथ्वी को नाप लेना चाहती हों।’ इसी तरह एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘अपने सुरीले संसार में एक साथ कईं धु्रवान्तों पर सक्रिय और समय के पा चली जाने वाली जिजीविषा के साथ जगमगाती हुई है लता।’ 
यतीन्द्र पुस्तक में लता के गायन की खूबियों के सूक्ष्म ब्योरों में भी बहुतेरी बार ले जाते हैं। ऐसा करते वह उनकी गायन खूबियों के साथ चहलकदमी करते सितार की हरकतों, जमजमों और मींड़ों का काम देखने के लिए उनके ढ़ेरों गंीतों की याद दिलाते हैं तो लता के सुरों को कथन के बोल व पढ़त से जोड़ते उनके गान की नृत्य भाषा से भी साक्षात् कराते हैं। ‘झनक झनक पायल बाजे’ के बहाने लता रची रागमाला के बारामासा षिल्प को भी उन्होंने इस पुस्तक में अपने तई गहरे से गुना और बुना है। लता के गायन के बारे में चर्चा करते एक जगह वह लिखते हैं, ‘अपनी आवाज को वह तीनों सप्तकों में घुमा सकती है। वे अति मन्द्र से लेकर अति तार तक की यात्रा में इतनी सहजता से कुछ ही क्षणों में गमन कर सकती है, जो उनके कौषील के लिहाज से एक आसान बात ही है। इसके पीछे कुछ तो उनके रियाज का कड़ा अनुषासन दिखता है, तो कहीं यह बात भी समझ में आती है कि उनके गले पर दैवीय कृपा या प्राकृतिक देन ऐसी अवष्य रही है, जो रेकाॅर्डिंग के व्याकरण पर अक्षरषः सटीक ढंग से उभरती है।’
यह सही है, लता का गायन सर्वथा अलहदा है। उसे किसी सीमाओं से नहीं बांधा जा सकता। इसीलिए यतीन्द्र ने इस पुस्तक में उनके गाने के अलहदेपन को ही बंया नहीं किया है बल्कि संगीत की अपनी सूक्ष्म सूझ से उनके गान में अपने तई गुने सांगीतिक अनुभवों की मिठास को भी घोला है। वह लता की गायकी की विषेषताओं की चर्चा करते इस पुस्तक में सिनेमा की अत्यन्त मुखर दुनिया से अलग उनकी आवाज के मौन और एकांत अर्जन को भी खासतौर से रेखांकित करते हैं। पढ़ते हुए जेहन में यह भी आता है कि ‘लता सुर-गाथा’ लता के गायन और जीवन पर गहन शोध, संवाद भर ही नहीं है बल्कि  यह लता की गायिकी से जुड़े द्वैत और अद्वैत के साथ ही शास्त्रीय रागों के आलोक में भाषा का विरल सांस्कृतिक पाठ है।
यतीन्द्र ने सही ही लिखा है कि लता मंगेषकर का जीवन और गायन महाकाव्यात्मक सी लगती महान संगीत यात्रा है। वह लिखते हैं, ‘...वे (लता) अपनी गायिकी के वजूद की बरगद सी सदाषांत छाया के नीचे इतने तरीके का हुनर संजोए हुए हैं, लगता है जेसै किसी बड़ी रंगोली पर चारों दिषाओं की तरफ़ छितराकर छोटे-छोटे कईं मणि दीप जलाए गये हों।’ एक स्थान पर लता के गाए मीरा भजनों की चर्चा करते हुए यतीन्द्र ने लता की गायिकी को मीरा के जीवन से भी जोड़ा है। वह लिखते हैं कि उनका गायन परम्परा से विद्रोह और पुनः उसके साथ संतुलन है। इसी में वह लता के गायन की  स्वयं की दुनिया बनते देखते हैं तो उनके गाए हुए मीरा भजनों में लौकिक और अलौकिक की लुका-छिपी को भी उदाहरणों के जरिए बेहद सहज ढंग से रूपायित करते है। वह लिखते हैं, ‘लता अपने कण्ठ से भक्ति का उतना ही बड़ा अछोर बनाती हैं, जितना कि स्वयं वह कृष्णाभिमुख सन्त गायिका।’
पुस्तक में लता के संगीत की अप्रतिम यात्रा से प्रारंभ बातचीत को यतीन्द्र मिश्र ने 350 के करीब पन्नों में समेटा है। टूकड़ों टूकड़ों में लता से हुआ यह संवाद कोई 6 वर्षों तक चला। लता के गायन के विभिन्न पहलुओं के साथ ही यतीन्द्र ने उनके साथ के गायक-गायिकाओं, उनके जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं और उनके समकाल को गहरे से छूने का प्रयास किया है। यह सच है, सुरों की 640 पृष्ठ की यह वृहद गाथा एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसमें भारत रत्न लता मंगेषकर की सुर यात्रा के अद्भुत सांगीतिक संसार को शब्दों के जरिए पाठकों के समक्ष एक तरह से जीवंत किया गया है। पुस्तक नहीं यह लता के गाए गीतों के आलोक में रचा यतीन्द्र मिश्र का ऐसा स्मृति छन्द है जिसमें भारत की महान गायिका के जीवन और सृजन का सौन्दर्यान्वेषण किया गया है।
पुस्तक :   लता सुर-गाथा
लेखक :   यतीन्द्र मिश्र
प्रकाषक :  वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली - 110002
मूल्य :     695 रू. मात्र, पृष्ठ 640