Sunday, December 24, 2017

अर्थ-लय का गुंजन – ‘दीठ रै पार’

  

         दैनिक नवज्योति, रविवारीय में कविता संग्रह 'दीठ रै पार' पर सुप्रशिद्ध कवि, आलोचक डॉ. आईदान सिंह भाटी ने लिखा है।         उनके शब्द ओज से नहाते ही साहित्य को जिया है. आभार सहित उनके लिखे को यहाँ साझा कर रहा हूँ.

डॉ॰ राजेश कुमार व्यास आधुनिक राजस्थानी भाषा के  समर्थ और कला-पारखी कवि है, जिनकी कविताएँ अपनी अर्थवता और रूप-विधान के सौन्दर्य को प्रकट करती है | उनके इस कविता संग्रह  ‘दीठ रै पार’ में उनकी चार मनगतों के रूप सामने आते हैं जो, जूण जातरा, अंतस रो उजास, रंगोसुखन और सुर री देही के रूप में रचे गए हैं | वे शब्द-मितव्ययी कवि हैं और अपनी बात को ‘अर्थ की विरल छटाओं’ के रूप में अभिव्यक्ति देते हैं | उनके इससे पहले वाले कविता-संग्रह ‘कविता देवै दीठ’ में भी इसी तरह की अनुगूंजें थी |
  इस कविता-संग्रह  के ‘जूण जातरा’ खण्ड में वे अपनी मनगत के मौन को ‘भोर के उजास’ और उसके रंगों में नृत्य-रत शब्दों में देखते हैं, जहां मन भाषा के पार चला जाता है | उनकी कविता अदीठ-संगीत के चित्रों में बसती है, जहां बालू के टीले हैं, उस पर मंडराती तितलियाँ हैं, विरल रेगिस्तानी फूलों की छटाएँ हैं और विरल घन-घटाओं की बरसती बरसातें हैं |  प्रीत, पहचान के रास्ते तलाशती कविताओं में जीवन के संघर्षों और मातृभाषा-प्रेम की अनुगूंजें पाठक को मन और दृष्टि के पार ‘इतिहास की जेवड़ी’ तक ले जाती है, जहाँ मानवीय-चालाकियों के अंधकार के बीच प्रकाश की एक किरण कौंधती है | ये कविताएँ ‘दीठ रै पार’ छिपे हुए ‘साच’ को तलाशने का एक जतन है, राजस्थानी भाषा की ‘आफळ’ है –
दीठ रै पार / भींत्यां लुकोड़ै / साच नैं / जोवण री / आफळ है सबद |
रोज नीं आवै / पण / जद भी आवै / कुण? कद? कियां? जैड़ा
सवालां रा लावै पड़ूतर /सबद भांगै भींत / कूड़ नै पाधरो करता /
चलावै कवि-/ सबद-बाण /इणी ढाळै रचीजै / अबखै बगत कविता | (पेज-21)
कवि समय की अबोली-ध्वनियों को सुनने का आग्रह करते हुए, अकालों की विभीषिका और ओळूं की आत्मीयता के शब्द-बिम्ब उकेरता है –
अकाळ:एक 
आंख की कांकड़ है / रोही रो सूनपण / बंजड़ खेत देख / इणगी-उणगी /
मुंडो लुकांवतो फिरै / अड़वो | (पेज-27)
छिंया: दो (पापा री ओळूं)
घर है / भींत्यां है / इंट्यां सूं चिण्योड़ा / घणकरा आळा है / पण
मांय पसर् योड़ा / जाळा है | (पेज-31)
इस संग्रह के ‘अंतस रो उजास’ खण्ड में ‘झाझरको’, ‘सोन चिड़कली’, रूंख, नदी, नाव और सूरज के प्रतीकों से जीवन के रूप-बिम्ब रचता है, जिसमें पहचान की पगडंडिया गुम होती निशान-सीढ़ियों और इच्छाओं की रंगीनियों के बीच मुक्ति के मार्ग खोजती है | अंततः कवि अपना जीवन सार कहता है –
कला है --/  जीवन | / जीवतै मरणो स्थापत्य / मर’र  जीवणो शिल्प | /
अदीठ मांय भी / बचसी वै ही / जका रचसी | (पेज-44)
अरदास और महापरिनिर्वाण शीर्षक कविताएँ जीवनगत सौन्दर्य-दृष्टि, वैचारिता और आध्यात्मिक राहों की बारीकियों को बिम्बित करती है |
   रंगोसुखन और सुर री देही खण्ड की कविताएँ कवि के मन में बसे कला-चिंतक की सौन्दर्य-दृष्टि है, जो सूने मन्दिर, अनन्त आकाश, कैनवस, कांकड़, काळी कांठळ, बादल और चित्रकारों-संगीतकारों के माध्यम से अपनी अन्तस-दीठ का पसराव किया है |  रंगोंसुखन ( एस.एच. रज्जा रै चित्रां सूं अेकमेक हुवतै थकां) कविता में कवि रंगों और रेखाओं के बीच ‘धा-छंद’ की ध्वनियाँ सुनता है और एम्.बालमुरलीकृष्ण व किशोरी अमोणकर को सुनते हुए गहराती रात, तैरते बादल और बरसते उजास को देखता है | कलाओं के अंतर्संबंधो को रचती ये कविताएँ पाठक को शब्दों के पार ले जाती है और एक रूहानी आलोक रचती हैं |  किशोरी अमोणकर को सुनते हुए कविताओं वे चारों ओर उजास की सृष्टि देखते हैं, मन में मूसलाधार बरखा बरसती है, कानों में पवित्र प्रार्थनाएं गूंजने लगती हैं, गहराती रात देह के बिछोह की साख भरती है, स्वर अपनी सुधबुध भूल जाते हैं , इन्तजारती आँखें चलने लगती हैं आदि रूप-चित्रों और छवियों से पाठक को सम्मोहन के जाल में उलझा कर  रूहानी-जगत में ले जाते हैं |
    डॉ॰ राजेश कुमार व्यास का यह काव्य-जगत शब्द की लघिमा-शक्ति से बना है | वे शब्द-लाघव के कुशल कारीगर हैं | बिम्बों और प्रतीकों द्वारा अपनी बात कहने और रूपक रचने में उन्हें महारत हासिल है | कैनवस कविता में इस रूपक को देखें –
कैनवस है / बैंवती नदी / आभो जठै रचै
घाटी,डूंगर / अर जंगळ रो मून | (पेज-68)

 आधुनिक राजस्थानी कविता में डॉ॰ राजेश कुमार व्यास अपने  जीवनगत सौन्दर्य-बोध, चिन्तन-दृष्टि और शब्द की अर्थ-लय को अनुगुंजित करनेवाले विरल कवियों में से एक हैं | राजस्थानी के पश्चिमी भाषारूप की खूबसूरती उनकी कविताओं से रस बन कर टपकती है | उनकी कविताएँ रंगोसुखन और सुर के खूबसूरत झकोरे हैं |

Friday, November 3, 2017

लोक संस्कृति का उजास बिखेरती वह विरल गायिका


अल्लाह जिलाई बाई  का गाया ‘पधारो म्हारे देस...’ जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें। सुनते ही  रहें। उनके गान में राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगती है। स्वरों में लोक का माधुर्य ऐसा, जिसे सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है।...
मधुर और श्रृंगारिक राग है मांड। आरोह-अवरोह में वक्र सम्पूर्ण राग। संगीत की विष्णु नारायण भातखंडे की परम्परा की मानें तो मांड राग बिलावल थाट में आता है परन्तु सुनते हैं तो मांड का लोक संगीत मिश्र राग में ध्वनित होता लगेगा। स्व. अल्लाह जिलाई बाई का ‘पधारो म्हारे देस...’ तो मांड का पर्याय ही हो गया है। उनके स्वर माधुर्य में जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें। सुनते ही  रहें। 
अल्लाह जिलाई बाई ने वर्षों तक लोक संगीत की भारतीय पंरपरा को न केवल संजोकर रखा बल्कि राजस्थानी लोकसंगीत को भी एक नया आयाम दिया। उन्हें संगीत विरासत में मिला। पांच वर्ष की अल्पायु में ही अल्लाह जिलाई अपनी मां के साथ बीकानेर रियासत के महाराजा गंगासिहं के दरबार में गायन हेतु जाने लगी। जब उनकी मां दरबार में गाती तो वह खूब ध्यान से मां के गाए गीत सुनती। इन्हें फिर वह गुनगुनाती भी। ऐसे ही उनकी गुनगुनाहट को एक दिन उस्ताद हुसैन खां ने सुन लिया। फिर क्या था हुसैन साहब ने उन्हें अपनी षिष्या बना लिया। हुसैन खां से 8 वर्ष की उम्र से ही विधिवत संगीत की तालिम लेते अल्लाह जिलाई ने अल्प अवधि के दौरान ही गायन की बारीकियों को ग्रहण कर लिया। हुसैन साहब की जल्द ही मृत्यु हो गयी परन्तु उनसे जो अल्लाह जिलाई ने सीखा उसे ता उम्र अपने तई संजोकर रखा। संगीत तालीम के अंतर्गत बाद में बीकानेर राजघराने की ओर से राजघराने के प्रतिष्ठित गुणीजन खाना (संगीत तालीम का केंद्र) में उन्हें भर्ती करवा दिया गया। गुणीजन खाने के अंतर्गत बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज से अल्लाह जिलाई ने कत्थक की शिक्षा भी प्राप्त की। लच्छू महाराज, अमीर खां, शमशुद्दीन आदि का भी उन्हें इस दौरान निरंतर सानिध्य प्राप्त हुआ। हालांकि वे नृत्यांगना नहीं थी परंतु नृत्य उनसे कभी दूर भी नही रहा। जिस अंदाज से वह गाती उसमें आरोह-अवरोह का अंदाज वह शायद अपने भीतर की नृत्यांगना से लेती थी। यही कारण था कि उनकी खनकदार आवाज के साथ स्वतः ही ताल शुरू हो जाता था। 
ठुमरी दादरा, ख्याल तथा पारंपरिक राजस्थानी गायन में अल्लाह जिलाई बाई जैसे लोक का उजास रचती थी। शास्त्रीय आधार पर गांठ, चैताला, उडी, झूमरा आदि कठिन तालों में भी वह गाती तो जैसे स्वरो ंका आकाष बनता। राजस्थानी प्रेमाख्यान, महेन्द्र मूमल, रतन राणा सांवरिया की पाल, ढांेला मारू आदि माड गीतों में अल्लाह जिलाई बाई ने अपने सधे स्वर का जो जादू बिखेरा वह आज भी दिल में घर करता है। गायकी में फिरत ओर धुमावदार तानों भरी गूंजती खनकती आवाज की अल्लाह जिलाई बाई अद्भुत संगीत साधिका थी। 
राजस्थानी लोकसंगीत की विभिन्न परंपराओं को अपने कंठों में समेटे अल्लाह जिलाई बाई ने दादरा, ठूमरी, कजरी, व होली के गीतों को भी जैसे जिया। राग देस, सारंग, आाशा खमाज, जैजैवंती, सोरठ, झिंझोटी तथा अन्य विविध रागों को कुशलता से अपने सुरों में साधते उन्होंने जो भी गाया, उसे मन से जिया। ‘केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारा देस..’, ‘बाई सा रा बीरा म्हाने पिहरिये ले चालो सा...’, आदि माड गीतों की उनकी खनकती आवाज आज भी फ़िजा में जैसे रस घोलती है।
अल्लाह जिलाई बाई ने न केवल राजस्थानी लोकसंगीत को ख्याति दिलाई बल्कि लोक गायन परंपरा को भी शास्त्रीय गायन की ही तरह उच्च स्थान दिलाया। वर्ष 1987 में लंदन में ‘वल्र्ड कोर्ट सिंगर कांफें्रस’ में भारत का प्रतिनिधित्व करते अल्लाह जिलाई बाई ने दुनिया भर के इकट्ठा हुए संगीतकारों में यह साबित किया कि राजस्थान का लोक संगीत मिट्टी की सौंधी महक लिए ऐसा है जिसे कभी बिसराया नहीं जा सकता। याद पड़ता है, लोकगीतों की माड गायन परंपरा के संबंध में अल्लाह जिलाई बाई से इस लेखक ने एक मुलाकात में पूछा था तो उन्होनें कहा था, ‘माड दूहों की ही अलंकृति है।’ 
अल्लाहजिलाई बाई ‘पधारो म्हारे देस...’गाती तो पावणों की मेजबानी की राजस्थानी संस्कृति के दृष्य चितराम भी अनायास आंखों के सामने घुमने लगते हैं। उनके गाए ‘सुपनो,’ ‘हेलो, ‘जल्ला’, ’ओळ्यू’, ‘कलाली’, ‘कुरंजा’ गीतों को सुनेंगे तो राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगेगी। उनके स्वरों में लोक का माधुर्य सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है। 
बीकानेर टाऊन हाल में अपने अंतिम कार्यक्रम में अल्लाह जिलाई बाई ने ‘केसरिया बालम’, ‘गोरबंध’, ‘मूमल’, तथा ‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है’ जैसे गीत, गजल प्रस्तुत करते अपनी बेहतरीन गायकी का ढलती उम्र में भी अहसास दिलाया था। 90 वर्ष की आयु में 3 नवंबर 1992, अल्लाह जिलाई बाई ने हम सबसे सदा के लिए विदा ले ली परंतु ‘पधारो म्हारे देस...’ के उनके सुर क्या कभी हमसे जुदा होंगे...?
-'राष्ट्रीय सहारा', 3 नवम्बर 2017 

Sunday, October 29, 2017

अर्थ संभावनाओं का संस्थापन आकाश ‘पूर्णमिदम्’


विद्यासागर उपाध्याय : पूर्णमिदम 
हमारे यहां इन्स्टालेषन माने संस्थापन की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। दूर्गा, गणेष पूजा और फिर विसर्जन, जन्माष्टमी और तमाम हमारे ग्रामीण, आदिवासी परम्पराओं-संस्कारों का ताना-बाना संस्थापनों से भरा पड़ा है। पर इन्स्टाॅलेषन आर्ट में इधर देष में जो कुछ हो रहा है, उसमें विचार प्रायः गौण है। माने संस्थापन के अंतर्गत जो कुछ किया जा रहा है, उसमें चमत्कृत करने, अपने आपको स्थापित करने का आग्रह इस कदर रहता है कि कला का मूल कहीं नजर नहीं आता। इस दीठ से पिछले दिनों जयपुर के रवीन्द्र मंच की कलादीर्घाओं में भारतीय दर्षन और चिंतन से जुड़े स्वरांे में देषके प्रमुख पांच कलाकारों की संस्थापन प्रदर्षनी ‘पूर्णमिदम्’ ने जैसे जड़ता को तोड़ कला में विचार के भारतीय दर्षन से साक्षात् कराया है। 
इषावष्योपनिषद् का शांति मंत्र है, ‘पूर्णमिदम्’। कुम्हार मिटटी से घड़ा बनाता है परन्तु मिट्टी में घड़ा पहले से मौजूद होता है। सत्य यही है, हम सोचते है कि षिल्प के जरिए मिट्टी से कुछ निकाला जाता है परन्तु वह भी अंततः मिट्टी ही हो जाता है। यही पूर्णता है। पूर्ण से पूर्ण निकाल दे ंतब भी पूर्ण ही बचा रहेगा।  सृजन के बाद विसर्जन होगा तभी नया कुछ सृजित हो सकता है। भारतीय परम्परा में जीवन से जुड़े इसी दर्षन की गूंज है। यह महज संयोग ही नहीं है कि इस कला प्रदर्षनी में सभी कलाकारों ने जीवन से जुड़ी संवेदनाओं के भावों को अपने तई कला चिंतन में गहरे से जिया है। ‘पूर्णमिदम्’ में प्रदर्षित कलाकृतियों की एक बड़ी विषेषता दृष्य की अनंत संभावनाओं में अनुभवजन्यता की बढ़त का कला संस्कार भी है।
विनय शर्मा : अतीत का सौन्दर्यान्वेषण 
‘पूर्णमिदम्’ के संस्थापन अंतर्मन में बनने वाली छवियों, आभासी दुनिया और वास्तविकता के बीच संवेदनाअेां को चक्षु देते एक पूल की मानिंद हैं। मुझे लगता है, विचार और जो कुछ हो रहा है उस पर प्रतिक्रियाओं का गहन आत्मान्वेषण इन कलाकृतियो में है। विद्यासागर उपाध्याय का इनस्टाॅलेषन रंगो के उजास में पूर्णता के भारतीय दर्षन को गहरे से जैसे मौन में भी व्याख्यायित कर रहा था। रंग-रेखाओं के भांत-भांत के रूप उन्होंने माउंटबोर्ड पर संजोए।  सूक्ष्म कलाकृतियों का रंग-रूप कोलाज! एक साथ कलाकृतियों के मेल से प्रतीत होता है, एक-दूसरे के होने में ही सभी पूर्ण है परन्तु गौर करेंगे तो यह भी पाएंगे, हरेक का अपना निज अस्तित्व है। 
विनय शर्मा ने अपने संस्थापन में परम्पराओं के आधुनिक बोध में तिरोहित होते जा रहे जीवन मूल्यों की जैसे बारीक पड़ताल की है। उनका संस्थापन ‘परम्पराओं का सौंदर्यान्वेषण’ समय संदर्भों में तकनीक के मेल से होने वाले बदलावों पर चिंतन का नया स्वर देता है। घरों में, व्यवसाय में कभी हिसाब-किताब के लिए बही लेखन का कार्य होता था। आलमारियांे में पुराने हिसाब-किताब के लेखे-जोखे से भरी बहियां भरी होती थी। कागज और कलम का पूजन होता था।  ‘लाभ-षुभ’ के साथ यह घर, व्यवसाय में यह सोच मौजूद थी कि लाभ हो परन्तु ऐसा जो शुभकारी हो। मंगलदायक हो। इसीलिए लक्ष्मीपूजन यानी धन की पूजा भर जीवन का ध्येय नहीं होता था बल्कि लक्ष्मी के साथ सरस्वती भी घरों में पूजी जाती थी। इसीलिए तो कलम, दवात के भी पूजन की परम्परा थी। पर समय बदला और बही, कलम और दवात तथा ‘लाभ-षुभ’ की सोच के बहाने परिवेषगत जो सौंदर्य था उसका स्थान एक अकेले कम्प्यूटर ने ले लिया। 
गौरीशंकर सोनी : रेखाओं की लय 
तकनीक ने बहुत कुछ आसान कर दिया परन्तु परम्परा के सौंदर्य को लील लिया। इन्हीं सबको प्रदर्षित करता विनय शर्मा का संस्थापन बहुत से स्तरों पर झकझोरता भी है तो परम्पराओं के हमारे सौंदर्यगत परिवेष की नई दीठ भी दे रहा था। विनय ने परिवेषत अतीत होती जा रही चीजों को अपने संस्थापन में नए संदर्भ दिए हैं।  उनके संस्थापन में अतीत स्मृति भर नहीं है बल्कि परम्पराओं का सौंदर्यान्वेषण है। 
गौरीषंकर सोनी का संस्थापन ‘लिनियर ट्रांसफोर्मेषन’ लोक में रची-बसी संवेदनाओं का अनूठा रेखीय आयाम है। आसमान में उड़ती पतंग के संग चलती चरखी की डोर बहुतेरी बार हवा के रूख के साथ भांत-भांत के मोड़ों में अनूठे रूप धारण करती है। अपनें संस्थापन में गौरीषंकर ने चरखी से निकलती डोर के अनंत आकाष में रेखीय आयामों में उभरते रूपाकारों का एक तरह से पुनराविष्कार किया है। गौरीषंकर रंग-रेखाओं में भावों का अनूठा संसार रचते रहे हैं। उनका यह संस्थापन भी रेखाओं की लय अवंेरता मूर्त-अमूर्त को आकाष देता है। दृष्य की  लूंठी सोच में भावों की विरल व्यंजना इस संस्थापन में है। 
मनीष शर्मा : धरोहर 
मनीष शर्मा ने शहरों के वास्तुषिल्प से जुड़े संदर्भों में धरोहरों के निरंतर उजड़ते जाने की व्यथा-कथा को अपने संस्थापन ‘म्यूजियम शाॅप’ में संजोया है। उनके संस्थापन के केन्द्र में हजार हवेलियों का शहर बीकानेर है। हवेलियों के षिल्प सौंदर्य और वास्तु षिल्प से जुड़े सौंदर्य संदर्भो का उनका संस्थापन कहन इसलिए भी लुभाता है कि वहां पर हवेलियों, घरों में छत बनाने के लिए प्रयुक्त ‘टोडी’ और षिकार कर जानवरों को अपने महलों में भुसा भरकर रखी प्रतिकृतियों को माध्यम बनाया है। इन प्रतिकृतियो में पारम्परिक भारतीय लघु चित्रषैलियों, बीकानेर की मथेरण और उस्ता कला का भी मोहक चित्रण मनीष के संस्थापन में अलग से ध्यान खंीच रहा था।
नीरजा पालशेट्टी : क्षणिक रूप से मूर्त 
नीरजा पालीसेट्टी की कलाकृति ‘क्षणिक रूप से मूर्त’ में कागज की ढ़ेर सारी कतरनें और उनसे बने स्तम्भ पर बहुत सारे रखे समाचार पत्र जैसे जीवन चक्र को ही व्यंजित कर रहे थे। यह भी कि कागज के कितने-कितने रूप हो सकते हैं। और यह भी कि विचार संप्रेषण के सषक्त माध्यम के रूप में यह कागज ही है जो अपने यथार्थ में होने और न होने के मध्य भी जीवन से जुड़ी संवेदना को जैसे परिभाषित करता है। जन्म का अंत हो सकता है परन्तु जीवन का नहीं। कागज के जरिए इसी दार्षनिक चिंतन को अपने संस्थापन में नीरजा ने प्रदर्षित किया है। कागज का मूर्त रूप भी यहां है तो अमूर्त भी। सामग्री परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ यहां समय की भी सुमधुर व्यंजना है। कागज के कितने-कितने रूपों के बहाने नीरजा का यह संस्थापन वैचारिक उन्मेष लिए देखने वालों के भीतर गहरे से रचता-बसता है।
बहरहाल, विद्यासागर उपाध्याय, विनय शर्मा, गौरीषंकर सोनी, मनीष शर्मा और निधि की कलाकृतियांे से साक्षात् होते यह अहसास भी निंरतर होता है कि वहां आधुनिकता का बोध है, संप्रेषण के लिए तकनीक है परन्तु कलाकारों ने सृजन को माध्यमों के प्रदर्षन की वस्तु मात्र नहीं देखते उनमें संवेदनाओं के जरिए सौंदर्य और अर्थ की अनंत संभावनाओं की तलाष की है।

Monday, October 9, 2017

रम्य रूप

''...दूर जहां तक नजर जाए पानी ही पानी। आसमानी की परछाई ओढ़े नीला पानी।...प्रकृति ने जैसे धरती को उपहार दिया है।...दो बेहद मोहक हरियाली से आच्छादित पहाड़ियां और बीच में बहता नीर। घाट पर जहां बैठा हूं, वहां नाव बंधी है और प्रस्तर खंड को तराश सिरजा धवल हाथी जैसे दूर तक फैले जल को निहार रहा है। सूंड उठाए। यह पहाड़ियों के मध्य बिखरे जल का रम्य रूप है। प्रस्तर निर्मित घाट...एशिया  का मानव निर्मित सबसे बड़ा जलाशय  है यह। पर गौर करता हूं, समुद्र सरीखा है यहां का दृष्य। हवा में बनती पानी की शांत लहरें....दूर तक जाती हुई और फिर से आती हुई।..'' 

"....घर लौटता सूर्य जैसे इन सब पर अपनी किरणों से जादू जगा रहा है। दूर तक पसरा जल...टापू और नीड़ पर लौटते पक्षियों के समूह को देख अनुभूत होता है किसी ओर लोक में हूं। 

सफेद संगमरमर पत्थरों से निर्मित घाटों पर अब सूर्यास्त से अंधेरा पसरने लगा है।...पर यह क्या! चन्द्रमा की धवल चांदनी में जयसमंद का सौन्दर्य और भी जैसे बढने लगा है। चांद की चांदनी में दूध से नहाए हाथी जैसे झील की ओर मुख करते हुए भी मुझसे कुछ और देर वहीं रूकने का आग्रह कर रहे हैं। मैं उनकी बात मान वहीं घाट पर बनी सीढ़ियों पर बैठ जाता हूं। विशाल प्रस्तर खंड को सामने रख सिरजे शिल्पटषिल्प सौन्दर्य पर पड़ती धवल चांदनी और दूर तक फैला झील का नीर। खंड-खंड अखंड! सौन्दर्य की जैसे रूप वृष्टि। ठंडी हवाओं के झोंके मन को विभोर कर रहे हैं। पता ही नहीं चलता, कितने घंटे ऐसे ही वहां बैठे गुजर जाते हैं। 

वन विभाग के विश्रामगृह का चैकीदार मुझे ढूंढते झील के घाट पर आ मुझे झिंझोड़ते हुए कहता है, ‘साब खाना नहीं खाना है?’ मैं कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डालता हूं...अरे! रात्रि के 9 बज गए हैं।...उठकर विश्राम गृह की ओर लौट पड़ता हूं।... जयसमंद से विदा लेता हूं, यह कहते हुए-कल सूर्योदय पर फिर आऊंगा इन घाटों पर।"...

-'जनसत्ता', 9 अक्टूबर, 2017 'दुनिया मेरे आगे'

Friday, October 6, 2017

संस्कृति से अपनापा कराती केलीग्राफी कलाकृतियां

कैलीग्राफी यानी अक्षरांकन की दृष्यात्मक दीठ। आमतौर पर यही माना जाता है कि कैलीग्राफी के अंतर्गत अक्षरों को ही उकेरा जाता है परन्तु कलाकृतियों के सृजन का आधार भी यह है। यह सही है, मूलतः कैलीग्राफी में सुंदर अक्षरों को ही उकेरा जाता है परन्तु इससे महत्ती कलाकृतियों भी इधर सृजित हो रही है। 
संकतो का अर्थपूर्ण, सुव्यवस्थित आकार ही तो है कैलीग्राफी।...और यह जब है तो स्वाभाविक ही है कि इसके जरिए अर्थगर्भित कलाकृतियां भी आरंभ से ही सृृजित की जाती रही है।
अर्थ के आग्रह से मुक्त ऐसी ही कलाकृतियां के लिए कोरिया में बाकायदा प्रतिवर्ष आर्ट बिनाले भी होता है। पिछले दो दषको ंसे कोरिया में ‘द वर्ल्ड कैलीग्राफी बिनाले’ का आयोजन हो रहा है। इस बार यह बिनाले 21 अक्टूबर से 19 नवम्बर के दौरान होगा। यह महत्वपूर्ण है कि इस बिनाले में इस बार राजस्थान मूल के सुप्रसिद्ध कलाकार विनय शर्मा की कैलीग्राफी कलाकृतियां भारत का प्रतिनिधित्व करेगी। 
विनय शर्मा अपनी कलाकृतियों में अतीत का एक तरह से पुनराविष्कार करते हैं। पुरानी बहियां, ताड़पत्र, जन्मपत्रियां और तमाम जो हमारी संस्कृति सं संबद्ध पुराना रहा है, उसे वह अपनी कलाकृतियो ंमें बड़े जतन से सहेजते हैं। इधर उन्होंने कैलीग्राफी कलाकृतियों का भी जो संसार रचा है, उसमें अतीत से अपनापा कराते भारतीय षोडस संस्कारों  के साथ ही संस्कृति से जुड़े बारीक तत्वों को अंवेरा है। प्राचीन अभिलेखों, सुसज्जति पांडुलिपियों, संग्रहालय में संग्रहित पुरावस्तुओं के साथ ही उन्होंने जीवन से जुड़े सांस्कृतिक सरोकारों को अपनी कैलीग्राफी कलाकृतियों में एक तरह से जिया है। उनकी ऐसी कलाकृतियां में भारतीय नृत्य, संगीत, नाट्य और वास्तुकला से संबद्ध संकेताक्षरों में कलाओं के ंअंतःसंबंधों को भी गहरे से जिया गया है।
विनय ने प्राचीन लिपियों की अपनी कैलिग्राफी कलाकृतियों में अतीत का आधुनिकता में एक तरह से पुनराविष्कार किया हैं। उनकी कलाकृतियों में अक्षरांकन के अनूठे दृष्यालेख उभरते हैं। उन्होंने प्रकृति और जीवन से जुड़ी कैलिग्राफी पेंटिंग श्रृंखला बनाई है। इसमें पेड़-पौधों और जीवन से जुड़े सरोकारों की मनोरम व्यंजना हुई है। इसी प्रकार उन्होंने लघु कैनवस पर कुछ समय पहले  कैलिग्राफी पेंटिंग में ही गणेष के बहुविध रूपों को भी प्रदर्षित किया था। षिव के आदि, अनादि स्वरूप, भगवान श्री कृष्ण के पौराणिक आख्यानों को भी उन्होंने कैलीग्राफी की अपनी कला में गहरे से जिया है। 
कोरिया में आयोजित होने जा रहे ‘द वर्ल्ड कैलिग्राफी बिनाले’ में विनय शर्मा भारतीय संस्कृति से जुड़े इसी तरह के आख्यानों आधारित अपनी कैलिग्राफी पेंटिंग का प्रदर्षन करेंगे। विनय शर्मा बताते हैं, ‘कैलीग्राफी अथवा अक्षरांकन  की ही नहीं कलाकृतियों रचने की भी दृश्यात्मक शैली है। प्राचीन काल में कैलीग्राफी के जरिए ही इतिहास का चित्रात्मक प्रदर्षन किया जाता था। अतीत से जुड़े संदर्भों की कैलिग्राफी दृष्य कहन है। ‘द वर्ल्ड कैलिग्राफी बिनाले’ विष्वभर के कैलिग्राफी कलाकारों का साझा मंच है।’
कतर में दोहा एशियाई खेलों के दौरान आयोजित एशियन आर्ट प्रदर्शनी में भी विनय ने इससे पहले भारतीय कला का प्रतिनिधित्व किया था। इंग्लेण्ड, पोलेण्ड, साउथवेल्स सहित देश विदेश में उनकी अनेकों एकल चित्र प्रदर्शिनियां आयोजित होती रही है। यह महत्वूर्ण है कि कोरिया में आयोजित होने जा रहे वर्ल्ड कैलीग्राफी बिनाले में भारतीय संस्कृति से जुड़ी कला विनय के जरिए विष्वभर में पहुंचेंगी।

Wednesday, September 27, 2017

संस्कृति से जुड़े सरोकारों की दृष्टि से हो पर्यटन का प्रभावी विपणन

आज विश्व पर्यटन दिवस है। संयुक्त राष्ट्रमहासभा ने वर्ष 2017 के लिए पर्यटन को विकास एक उपकरण का अन्र्तराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। माने पर्यटन को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास आदि का प्रमुख आधार मानते हुए कार्य करने पर विष्वभर एक साथ काम करे। ऐसा हुआ भी है और बहुत से देषों की अर्थव्यवस्था आज पूरी तरह से पर्यटन पर ही केन्द्रित है परन्तु मुझे लगता है, जरूरत इस बात की भी है कि पर्यटन आर्थिग गतिविधि बनने के साथ सांस्कृतिक रूप में भी राष्ट्रों के विकास का प्रमख्ुा आधार बने।
किसी स्थान पर पर्यटकों के आगमन का ग्राफ इस बात पर निर्भर करता है कि वहां का वातावरण और सांस्कृतिक परिवेष कैसा है। इस दृष्टि से पर्यटकों के लिए सभी स्तरों पर अनुकूलता है अथवा नहीं। पर वैष्वीकरण के इस दौर में जब इन्टरनेट टूरनेट बन रहा है तो संस्कृतियों की वैविध्यता का बहुत से स्तरों पर ह्ास भी हो रहा है। स्वाभाविक ही है कि इस ओर आज सर्वाधिक ध्यान देने की आज जरूरत है। राजस्थान की ही बात करें, जो कुछ पर्यटन नक्षे पर मौजूद है वह यहां उपलब्ध पर्यटन संभावनाओं का दस प्रतिषत भी नहीं है। इतने विविधतापूर्ण ऐतिहासिक, पुरातात्विक, वास्तुसंपन्न और सांस्कृतिक दृष्टि से भरे-पूरे स्थान यहा ंमौजूद है कि उनमें सनातन भारत की खोज की जा सकती है। मेरे एक मित्र हैं, राजस्थान प्रषासनिक सेवा के अधिकारी अजयसिंह राठौड़। संवेदनषील छायाकार और घुम्मकड़। देषाटन का कोई अवसर नहीं चूकते। उनके पास अपने कैमरे से लिए राजस्थान के अनछूए स्थलों के छायाचित्रों और उनके साथ के अनुभवों का नायाब खजाना है। पर्यटन विकास की बड़ी जरूरत आज यही है कि अनछूए स्थलों के साथ ही संस्कृति से जुड़े सरोकारों की दीठ से उनका विपणन किया जाए।
अभी कुछ समय पहले ही ग्वालियर स्थित भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान में आयोजित पर्यटन लेखन की एक कार्यषाला में बोलने के लिए जाना हुआ। वहां के निदेषक मित्र संदीप कुलश्रेष्ठ ने तभी ग्वालियर से कोई 40-50 किलोमीटर दूर मितावली, गढ़ी पढ़ावली और बटेष्वर मंदिर समूह के बारे में बताया। वहां गया तो पता चला हम जिसे भारतीय संसद को वास्तुकार लुटियन्स की रचना मान रहे हैं मूलतः वह मितालवी के चैंसठ योगिनी षिव मंदिर का हूबहू प्रतिरूप है जबकि इसे पुर्तगाली वास्तु से जोड़ा जा रहा है। विडम्बना यह भी है कि मितालवी आम पर्यटको ंकी पहुंच से अभी भी बहुत दूर है। राजस्थान में कांकवाड़ी दुर्ग, सिंहगढ़, मांडलगढ़, सिवाना, बयाना के किलों, झालावाड़ की बौद्ध गुफाएं, खजुराहो की मानिंद बने नीलकंठ मंदिर और वहां की पुरासंपदा, जालौर की परमारकालीन वास्तु समृद्ध संस्कृत पाठषाला, धौलपुर, बांसवाड़ा के मंदिर षिल्प और प्राकृतिक परिवेष आदि पर भी आम पर्यटक कहां पहुंच पाता है! पर्यटकीय दीठ से ऐसे और भी बहुत से अनएक्सप्लोर स्थलों पर विचारा जाए तो बहुत कुछ पर्यटन का नया राजस्थान उभरकर सामने आएगा। पर इसके लिए सांस्कृतिक सोच से कार्य करने की भी जरूरत है। मेरी चिंता यह भी है कि हम पर्यटन विकास का नारा तो देते हैं परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से पर्यटन को संपन्न करने का काम नही ंके बराबर कर रहे हैं। इसीलिए बहुत से अल्पज्ञात स्थानों के इतिहास, वहां की संस्कृति से हम निरंतर महरूम भी हो रहे हैं।
राजस्थान में जल स्वावलम्बन अभियान को इस दृष्टि से मैं महत्वपूर्ण मानता हूं। इस अभियान के तहत पुरानी बावड़ियों, तालाबों के जिर्णोद्धार का काम बहुत से स्तरों पर हो रहा है। इस अभियान से पुराने जलस्त्रोतों को नयापन मिला है। प्राचीन बावड़ियों के भी दिन फिरे हैं परन्तु उनके पुनर्निर्माण या फिर जिर्णोद्धार में भी हमारी संस्कृति से जुड़े वास्तु पर ध्यान देना जरूरी है। वास्तुकार मित्र संजीवसिंह ने कुछ दिनों पहले नागौर स्थित बावड़ियों पर इस दृष्टि से कार्य किया है। वह कहते हैं, मरम्मत या जिर्णोद्धार भर ही ध्येय नहीं हो जरूरी यह भी है कि स्थान विषेष की संस्कृति और वास्तुकला का इससे कहीं हनन नहीं हो। यह सच है, वास्तु से ही तो किसी स्थान के मूल सौंदर्य का भान होता है।
बहरहाल, राजस्थान में पर्यटन आकर्षण में विविधता सबसे बड़ी विषेषता है। पर ‘पधारो म्हारे देष...’ की संस्कृति और पर्यटन समृद्धता के अनछूए पहलुओं के विपणन का यहां अभी भी अभाव है। मुझे लगता है, प्रदेष में पर्यटन उद्योग के विकास की ऐसी नीति पर विचार किया जाना जरूरी है जिससे देष मे नहीं बल्कि विेदषों में भी यहां के पर्यटन आकर्षण और संस्कृति का समुचित प्रचार-प्रसार हो। यह सही है, स्वतंत्रता से कुछ समय पहले ही यहां के राजाओं ने पर्यटन को एक आर्थिक साधन के रूप में अपनाते हुए अपने किले महलों के द्वार विदेषी पर्यटकों के लिए खोलने प्रारंभ कर दिए थे। पर आजादी के बाद किले-महलों की सार संभाल के भी टोटे हो गए। यह तो भला हो तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत का जिन्होंने हैरिटेज होटल का विचार दिया। इसी से किले महलों की धरोहर बच पाई और पर्यटन संस्कृति से इसका फिर से जुड़ाव हुआ। पर इस समय जो सबसे बड़ी जरूरत है वह यह है कि हमारी समृद्ध कलाओं, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि के साथ ही ऐसे स्थल जो अभी पर्यटन मानचित्र पर अनदेखी के कारण नहीं आए हैं, उनके जरिए विकास के एक उपकरण के रूप में पर्यटन को अपनाया जाए।
यह गौर करने की बात है कि पर्यटन विपणन की कारगर रणनीति किसी प्रदेष ने अपनाई है तो वह केरल है। विष्व पर्यटन मानचित्र पर तेजी से उभरे केरल का पर्यटन उद्योग न केवल वहां की अर्थव्यवस्था का मूलाधार बन चुका है बल्कि वहां यह सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाले उद्योग के रूप में भी उभर कर सामने आया है। पर विचारें, क्या है ऐसा केरल मे जो राजस्थान में नहीं है? समुद्र और बर्फ के अलावा सब-कुछ तो है यहां। तो फिर क्यों नहीं राजस्थान भी विष्व पर्यटन मानचित्र पर केरल की तरह उभरे। केरल-हरियाला स्वर्ग के नारे के साथ ही केरल पर्यटन विभाग ने अपनी वेबसाईट के जर्मनी व फ्रेंच संस्करण जारी कर विदेषी सैलानियों की आवष्यकता की पूर्ति की है। खाड़ी देषों में तो केरल के मानसून व वहां के आर्युवेद का इस कदर प्रचार किया गया कि वहां के अधिकांष पर्यटकों के लिए अब केरल ही सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन स्थल बन गया है। 
राजस्थान में भी पर्यटन विपणन के प्रयास हो रहे हैं परन्तु उन प्रयासों का दायरा केरल की तरह आक्रामक नहीं रहा है। सोचें, यह वह प्रदेष है जिसके बारे में कर्नल टाॅड ने कभी कहा था-‘राजस्थान की तुलना में युनान के ऐपो का सौन्दर्य भी हल्का हो जाता है।‘ इस परिप्रेक्ष्य में राज्य की समृद्ध पर्यटन विरासत के अनछूए पहलुओं और वैविध्यता का प्रभावी प्रसार किए जाने की जरूरत है।  प्रदेष मे पर्यटन व होटल उद्योग के प्रोत्साहन के लिए जो कदम उठाए जाते हैं, उनका भी कमजोर पहलू यह है कि उनके बारे में जानकारी जरूरतमंद उद्यमियों व निजी क्षेत्र के संस्थानों तक पहुंचती ही नहीं है। इस समग्र परिपे्रक्ष्य में जरूरी यह है कि सैद्धान्तिक रूप में ही नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप में पर्यटन की योजनाओं व नीतियाॅं का व्यापक स्तर पर क्रियान्वयन किया जाए। इसी से राजस्थान आने वाले वर्षों में पर्यटन समृद्ध राज्य होगा। निष्चित ही तब पर्यटन से यहां होने वाली आय और रोजगार अवसर भी बढ़ेंगे, जिनकी कि आज सर्वाधिक आवष्यकता है।

Sunday, September 24, 2017

'दीठ रै पार' (दृष्टि से भी आगे)




कविताएं अंतस का आलाप है। बहुतेरी बार शब्द के भीतर बसे शब्द के पास भी वे ले जाती हैं। राजस्थानी मेरी मायड़ भाषा है। हाल ही में 'बोधि प्रकाशन' से राजस्थानी का नया कविता संग्रह 'दीठ रै पार' (दृष्टि से भी आगे) प्रकाशित हुआ है। 

इसमें पिछले एक दशक में लिखी कविताएं संग्रहित है। इससे पहले वर्ष 1994 में 'जी रैयो मिनख'  (जी रहा है मनुष्य)  और वर्ष 2012 में 'कविता देवै दीठ' (कविता दृष्टि देती है)  प्रकाशित हुए हैं।  

'दीठ रै पार' संग्रह का आवरण ख्यात कलाकार विनय शर्मा ने तैयार किया है। इस संग्रह की दो कविताएं—
मून
आतम है
मून।
मनगत
दीठ।
कदास
थूं-
बसतो रूं-रूं
मारग
पूग जावती आंख।



अंवेरी नीं छांट

आभो जोवै
बैंवती नदी
गड्डा कैवै
पाणी री कहाणी
रूंख झाड़ै पान
मगसो हुयोड़ो हरो खोलै
मांयरा पोत-
बिरखा हुई
पण
अंवेरी नीं ही छांट।

Sunday, July 16, 2017

श्रावणे पूजयेत शिवम्


चैत्र प्रतिपदा से प्रारंभ नव वर्ष का पांचवा महिना है श्रावण। पावस ऋतु! ऋग्वेद का एक श्लोक है, जिसमें आया है, ‘...वाचंपर्जन्यानिन्वितांप्रमण्डूकाअवादिषु।।’ माने वर्ष पर्यन्त जो जीव मौन व्रत धारण किए होते हैं, इस ऋतु में बोलना प्रारंभ कर देते हैं। ...तो कहें, मौन व्रत के बाद जीवों के नाद से साक्षात् का माह है श्रावण। जो नास्तिक हैं उनके मन में भी यह श्रावण आस्था का वास कराता है। भगवान शिव का प्रिय जो है यह मास! ...श्रावण से बहुत सारी कथाएं जुड़ी हैं। कहते हैं, महादेव को यह इसलिए अत्यधिक प्रिय है कि देवी सती ने दक्ष के यज्ञ में जब योग शक्ति से शरीर त्यागा तो उससे पहले हर जन्म में षिव को ही पाने का प्रण किया था। दूसरे जन्म में वह हिमाचल की पुत्री रूप में जन्मी। युवावस्था में हिमाचल-मैना की बेटी पार्वती ने इसी श्रावण माह में निराहार रहते कठोर तप किया। षिव प्रसन्न हुए और उनसे विवाह किया। बस तभी से यह समय षिव को सदा के लिए प्रिय हो गया। दूसरी कथा षिव के विष पान से जुड़ी है। कहते हैं इसी माह में समुद्र मंथन हुआ। मंथन से 14 प्रकार के तत्व निकले। बाकी सभी तत्व तो देवताओं और राक्षसों ने ग्रहण कर लिए पर हलाहल विष का पान कौन करे? सृष्टि की रक्षा के लिए षिव सारा विष पी गए। उन्होंने इसे कंठ में धारण किया। जहर के संताप से बचाने उन्हें गंगा जल अर्पित किया गया। बस तभी से श्रावण में षिव के विषेष जलाभिषेक की परम्परा भी जुड़ गई। षिव का जलाभिषेक करने के लिए हरिद्वार, काषी और भी कहां से कहां से गंगाजल लिए कांवर यात्रा करते हैं लोगा। कहते हैं कभी कांधे पर कांवर लिए भगवान श्री राम ने भी सुल्तानगंज से जल  लिया और देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया।
वैदिक परम्परा में उद्घोष भी है, ‘श्रावणे पूजयेत शिवम् ’। त्रिगुण स्वामी हैं षिव। सत, रज और तम गुण भाव को जो प्राप्त करता है, वही है त्रिगुणातीत। जन्म-मरण से अपने भक्तों को मुक्त ही तो करते हैं षिव। इसीलिए श्रावण में षिव पूजन का अर्थ है, मन को साधना। यह मन ही मोक्ष और बंधन का सबसे बड़ा कारक है। कहते हैं, साधना की सबसे बड़ी बाधा चन्द्रमा है। इसी से चित्त अस्थिर रहता है। पर षिव ने अपने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण किया हुआ है। सो जो षिव का पूजन करे, उसकी साधना पूर्ण हो जाए। जिसने षिव को साध लिया, समझिए मन को भी उसी ने साधा है। 
श्रावण मंे ही मरकंडू ऋषि के पुत्र मार्कण्डेय ने लम्बी आयु पाने के लिए घोर तप किया। काल के काल महाकाल प्रसन्न हुए और मार्कण्डेय ने मृत्यु को पराजित किया। श्रवण में कथा यह भी आती है कि श्रावण में षिव पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए और वहां उनका स्वागत जलाभिषेक से हुआ। इसलिए श्रावण में षिव के जलाभिषेक का खास महत्व है। बिल्वाष्टकम में षिव पर चढ़ाए जाने वाले बेल पत्रों का रोचक वर्णन है। तीन पत्तियां एक साथ जुड़ी होती है माने षिव के तीन रूपों का ही उनमें वास है-सृजन, पालन और संहार। तीन गुणों की भी यह द्योतक है-सत, रज और तम। तीन ध्वनियों अ,उ,म् से उत्पन्न एक नाद ऊॅं की भी यह द्योतक है और त्रिपुरारी षिव भी तो त्रिनेत्र वाले त्रिषुल धारी हैं। स्वयं वेद स्वरूप हैं षिव। इसीलिए तो कहा गया है, ‘वेदः षिवः, षिवः वेदः’ माने वेद ही षिव है और षिव ही वेद है। 
भगवान षिव के बारे में जब भी विचारता हूं, मन त्वरित उनकी अर्चना को ही उद्यत हो उठता है। ऐसे ही हैं भोले भंडारी। याद है, स्वामी श्री रामसुखदासजी षिव के भस्मलेपन पर बड़ी रोचक कथा सुनाया करते थे। कहते, एक बार षिव कहीं जा रहे थे। देखा कुछ लोग एक शव को ‘राम नाम सत है’ का नाद करते हुए श्मषान ले जा रहे थे। षिव को लगा, अरे वाह! इस शव में राम का वास है। भोले भंडारी शवयात्रा के साथ हो लिए। श्मषान पहुंचे तो देखा, लोगों ने शव दाह किया। कुछ समय वहां रूके और फिर सब अपने-अपने घर चल दिए। षिव वहीं रूक गए। पूरी तरह से जब मुर्दा जल गया तो षिव ने सोचा, इसमें ही राम बसे हुए हैं सो उन्होंने जले हुए शव की भस्म का लेपन कर लिया। बस तभी से षिव भस्म रमाने वाले हो गए। पंचाक्षर स्त्रोत है, ‘नागेन्द्रहराय त्रिलोचनाय, मस्मांगरागाय महेष्वराय।’
आईए, षिव के प्रिय मास श्रावण में हम भी षिव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न करें। जल्द प्रसन्न होने वाले देवों के देव हैं महादेव। आषुतोष। काल के भी काल-महाकाल। निपट भोले-भोलेनाथ। रुद्रह्योपनिषद् में षिव के बारे में कहा गया है कि सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित है और सभी देवता रुद्र की आत्मा है। इसीलिए कहा गया है, ‘रुतम्-दुःखम्,द्रावयति-नाषयतीतिरुद्रः।’ यानी भगवान षिव सभी दुखों को नष्ट कर देते हैं। श्रावण में षिव की अर्चना करेंगे तो धरित्रि पर भी सभी दुःखों का शमन होगा। आईए हम षिव के बहाने अपने आपको साधें। चित्त की अस्थिरता को साधने का ही तो पावन पर्व है श्रावण मास।

Sunday, June 25, 2017

जिसका मन रंगरेज

कलाओं में अव्वल तो हिन्दी में अच्छी पुस्तके है ही बहुत कम, और जो है उनमें अधिकतर सैद्धान्तिक और अकादमिक घेरे में आबद्ध ऐसी है जिन्हे पढते मन रंजित नही होता। या कहे उन्हें पढ़कर कलाओं से किसी प्रकार का हेत पैदा नही होता। इस दृष्टि से कलाकार और कला समीक्षक देव प्रकाष चैधरी की सद्य प्रकाषित पुस्तक ‘जिसका मन रंगरेज‘ लीक से हटकर कही जा सकती है। सुप्रसिद्ध कलाकार अपर्णा कौर की कला पर केन्द्रित यह ऐसी पुस्तक है जिसमें शब्दों के सांगीतिक भावों का सुमधुर केनवास रचा गया है। पुस्तक में ठोड़-ठोड़ देव प्रकाष के शब्दों की मोहक काव्य व्यंजना में मन रंगो के आलोक से नहाता है तो रेखाओं की लय में आबद्ध होते कलाओं  के सर्वांग से साक्षात भी होता है। अपर्णा कोर के रंगरेज मन की थाह लेते जरा उनके शब्द देखें, ‘‘गुरूनानक के हाथ/ रंगो की एक दोपहर में/खोलते है संसार के द्वार। यही नही वह अपर्णा कोर के बहाने रंगो की प्रार्थना का अमूर्तन भी हममें बसाते है तो झूठ के अंधेरे और सच की धूप के साथ अपनी परछाई और दूसरे की छाया के मध्य कलाओं के लिए बनी जगह की भी अनायास पाठक को तलाष करवा देते है।
‘जिसका मन रंगरेज‘ की बडी विषेषता यह भी है कि इसमें शब्दांडम्बर नही है। थोडे़ शब्द परन्तु अर्धसघनता। वह भी ऐसी कि पुस्तक पढने के बाद  भी कलाकार की कला से जुडी संवेदना को पाठक निरंतर अनुभूत करता रहता है। एक और बडी खासियत इस पुस्तक की यह भी है कि इसमें कविता और चित्रकला का सांगोपांग सहकार है। जरा इन पंक्तियों को देखे, ‘रंगों का पडा़ेस/रिष्तों की महक/गमले की गुलदाउदी में/उतर आया है आसमान।’ 
बहरहाल, पुस्तक अपर्णा कोर की कला यात्रा की बहुत सी अनछूई बाते भी पाठकों से साझा करती है। मसलन बचपन से ही अमृता शेरगिल अर्पणा की पसंदीदा कलाकार रही हैं और महज 9 साल की उम्र में उन्होंने अमृता शेरगिल की पेंटिंग बनाई। यह भी है कि वह जिंदगी को प्रकृति की सबसे खूबसूरत कविता मानती है और अरावली के पहाड़ उन्हे भाते है। और यह भी कि 2010 में जब काॅमनवेल्थ खेल आयोजन हुआ तो अपर्णा ने खेलगांव में सिरीफोर्ट आॅडिटोरियम के आस-पास सड़कों के किनारे दषकों से खडे पेडो की गिनती करती थी और उन्हे परवाह इस बात की थी कि उन पेडो की हरियाली से दिल्ली सदा के लिए महरूम हो जायेगी। उन पर रहने वाले पक्षियों के घोसलें उजड़ जाएंगे। इसके लिए बाकायदा उन्होंने आंदोलन किया। सोनी-महिवाल की प्रेम कहानी से अपार प्यार, कागज की कष्ती बनाने से लेकर केनवास पर आकारों की प्राण प्रतिष्ठा, स्कल्पचर, इंस्टालेषन आदि के अंतर्गत अपर्णा कोर के कला सरोकारों की रोचक दास्तां को पुस्तक में देव प्रकाष ने बखूबी संजोया है।
देव प्रकाष ने पुस्तक में अपर्णा की कलाकृतियों और उनके निहितार्थ को भी गहरे से छूआ है। वह लिखते है, ‘इनके (अर्पणा कौर की कलाकृतियों में) रंगो में कोई घमासान मचा हुआ नही दिखता। कही रंगो का स्पर्ष बहुत हल्का है, मानों रंग किसी सिद्ध आवाज की तरह लगभग गायब हो रहे है।’ वह अपर्णा की कलाकृति ‘ट्रि आॅफ डिजायर’ के बहाने प्रकृति से उनके जुडाव और रंग-रेखाओं को बरतने की मौलिक दीठ भी देते है। स्वयं अपर्णा के शब्दों में, ‘पेंटिंग का मतलब सिर्फ केनवास पर पेंट लगाना भर नही है। यह जीवन का पूरा दर्षनषास्त्र है।’ और इस दर्षनषास्त्र के पन्ने ही देवप्रकाष चैधरी ने ‘जिसका मन रंगरेज’ में अपर्णा से किए एक साक्षात्कार में खुलवाए है। इन खुले पन्नों में वृन्दावन में रहने वाली विधवाओं के जीवन पर बनाई ‘विंडोज‘ श्रंखला की दास्तां है, कबीर श्रंखला और स्ट्रीट आर्ट यानी दीवारों पर किए रिलीफ वर्क के उनके कार्य के साथ ही बहुतेरी दूसरी बातों के साथ उनकी कला में प्रतीकात्मक रूप में आई कैंची से जुडा आख्यान भी पाठक को पृथक से आंदोलित करता है।
अपर्णा की बहुत सारी कलाकृतियों से अलंकृत ‘जिसका मन रंगरेज‘ ऐसी कला पुस्तक है जो कलाकार के बहाने हमे कलाओं की सूक्ष्म सूझ से सम्पन्न करती है। काले, लाल, पीले, हरे और नीले रंगो की प्रार्थना सरीखे शब्दों में इस पुस्तक में रेखाओं का उजास ध्वनित होता है। कहें, पुस्तक पढ़कर मन कलाओं का रसिक ही नही बनता बल्कि रंग-रेखाओं को सुनने-देखने के लिए संस्कारित भी होता है। देवप्रकाष चैधरी के ही पुस्तक में बरते शब्दों में कहूं तो हिंदी में कला पुस्तकों की एकरसता को जीते पाठकों के मध्य ‘मेरा मन रंगरेज’ से ‘...औचक चुप्पी का दरवाजा टूटा है।’   
-दैनिक नवज्योति, रविवारीय परिशिष्ट 25 जून, 2017 

Thursday, May 18, 2017

सुन्दर समाज की नींव तैयार करते हैं कला संग्रहालय


संग्रहालय ज्ञान के अनुपम भंडार होते हैं। ऐसे जिनसे किसी देष या स्थान की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के बारे में जाना जा सकता है। मुझे लगता है, अतीत में प्रवेष करने, उसमें झांकने की दीठ कहीं है तो वह संग्रहालयों में ही है। यह है तभी तो देष आजाद होने के कुछ ही समय बाद 1949 में कोलकता के कला सम्मेलन में राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय (नेषनल गैलरी आॅफ माॅर्डन आर्ट) की आवष्यकता महसूस की गई और 1954 में फिर इसकी स्थापना नई दिल्ली स्थित जयपुर हाऊस में हुई। आज इस कला संग्रहालय में 18 हजार से अधिक कलाकृतियों का अनूठा संग्रह है और निरंतर इसमें वृद्धि ही हो रही है। बाद में इसकी दो और शाखाएं भी मुम्बई और बैंगलुरू में खुली। देष के 150 वर्षों की सांस्कृतिक धरोहर को अंवेरे यह संग्रहालय भारतीय संस्कृति का जीता-जागता उदाहरण है।
ष्अभी बहुत समय नहीं हुआ, लखनऊ स्थित डाॅ. शकुन्तला मिश्र राष्ट्रीय पुनर्वास विष्वविद्यालय ने अपने यहां करीब 5 हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में 18 करोड़ रूपये की लागत से ‘समकालीन कला संग्रहालय’ स्थापना की घोषणा की है। किसी विष्वविद्यालय में इस तरह की शुरूआत की पहल बेहद महत्वपूर्ण है। इसलिए कि वहीं से नई पीढ़ी को भविष्य के संस्कार मिलते हैं। यह सही है, षिक्षण से अर्जित ज्ञान असीम होता है। पर इतना ही सच यह भी है कि षिक्षण के साथ यदि कलाओं के संस्कार भी मिले तो एक सुन्दर समाज की रचना स्वयमेव हो जाती है। 
मुझे लगता है, विष्वविद्यालयों में तमाम तरह की विधाओं के ज्ञान के साथ कलाओं के सौंदर्य बीज भी बोए जाने चाहिए। संग्रहालय एक तरह से अतीत का वातायन ही होते है। ऐसा वातायन जहां से हमारी विरासत में झांककर हम भविष्य की अपनी दृष्टि में बढ़त कर सकते हैं। कुछ समय पहले समकालीन कला पर आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी मंे बोलने के लिए डाॅ. शंकुतला मिश्र राष्ट्रीय पुनर्वास विष्वविद्यालय जाना हुआ था। कुलपति डाॅ. निषीथ राय और संगीत एवं कला संकाय के अध्यक्ष व देष के ख्यातनाम मूर्तिकार डाॅ. राजीव नयन ने तभी विष्वविद्यालय में स्थापित किए जाने वाले आधुनिक कला संग्रहालय की पूरी रूपरेखा बताई। सुखद लगा, यह जानकर कि वह अपने यहां ओपन एरिया गार्डन के साथ प्रिंट, मूर्तिकला और चित्रकला का ऐसा अनुपम भंडार करने जा रहे हैं जिसमें दृष्टिबाधित बच्चे भी कलाओं का स्पर्ष कर उन्हें भीतर से महसूस कर सके। ऐसा अगर होता है तो यह अपने आप में अनूठी कला संग्रह सर्जना होगी। विष्वविद्यालय में वाणिज्य सहित दूसरे विषयों के भी बहुत से संकाय है परन्तु यह देखना सुखद था कि मुख्य परिसर में देष के ख्यातनाम कलाकारों द्वारा सर्जित मूर्तियां, संस्थापन और कलाकृतियां  के प्रदर्षन से सौंदर्य का अनूठा कला संसार मन को मोहता है।
बहरहाल, कुछ बरस पहले केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के आमंत्रण पर एक व्याख्यान के लिए बनारस जाना हुआ था। तभी बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय प्रांगण में स्थित भारत कला भवन भी जाना हुआ था। तभी एषिया के उस सबसे बड़े विष्वविद्यालय संग्रहालय से साक्षात् हुआ था। सुप्रसिद्ध कलाविद् राय कृष्णदास ने भारत कला भवन की स्थापना की और आज इसमें 12 वीं से 20 शती तक के चित्र और मूर्तियों का अनूठा संग्रह है। पर यह विडम्बना ही है कि इसके बाद किसी विष्वविद्यालय में कला संग्रहालय के लिए इस तरह से कभी कोई विचार नहीं हुआ। इस दृष्टि से लखनऊ की पहल अनुकरणीय है।
होना यह भी चाहिए कि देष के तमाम प्रांतों के प्रमुख विष्वविद्यालय अपने यहां पर पृथक से क्षेत्र-विषेष में सृजित कलाओं की एक दीर्घा अपने यहां विकसित करें। ऐसा यदि होता है तो न केवल स्थान-विषेष की कलाओं के महत्ती पहलुओं को संरक्षित किया जा सकता है बल्कि विष्वविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों की सौंदर्य सूझ भी इससे स्वतः विकसित होगी। कला संग्रहालयों की स्थापना में यह भी ध्यान में रखा जाए कि वहां कला के शास्त्रीय रूपों के साथ ही परम्परा और लोक के बीज भी हों। राजस्थान में रियासतों के एकीकरण से पहले लगभग सभी प्रांतों में राजा-महाराजाओं ने अपने तई संग्रहालयों की स्थापना की थी। यह सही है इनमें पुरा वस्तुओं का अनुपम भंडार है परन्तु अधिकतर संग्रहालयों में राजसी वैभव की ही महिमा का अधिक गान है। राजा-महाराजा कैसे रहते थे, उनके द्वारा उपयोग मे ंली गई वस्तुएं, वस्त्र, अस्त्र-षस्त्र आदि इनमें अधिक हैं।  हां, कुछेक निजी स्तर के प्रयासों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में देष के चर्चित कलाकार विनय शर्मा ने अपने तई इधर अपने यहां जो निजी संग्रहालय विकसित किया है, वह भी अनुकरणीय है। विनय का निजी संग्रहालय कलाओं की दृष्टि से बेहद संपन्न है। पुरखों की सहेजी वस्तुओं के साथ ही पुराने समय की बहियां, भोजपत्र, चित्रकलाओं के आधार और छायांकन के सौंदर्य के साथ ही संगीत, नृत्य और आधुनिक ध्वनि यंत्र रेडियो के इतिहास को उन्होंने अपने निजी संग्रहालय में करीने से जुनून की हद तक जाकर संजोया है। मुझे लगता है, इस तरह के प्रयासों को राजकीय स्तर पर तरजीह दी जानी चाहिए ताकि जो कुछ हमारे अतीत का हमारे पास है, उसे संजोया जा सके।
संग्रहालय हमारी सांस्कृतिक विरासत और इतिहास से रू-ब-रू होने के महत्ती स्त्रेात है। उनका होना अपने आप में सौंदर्य से संपन्न होना ही है। समकालीन कलाओं में प्रदर्षन के हदभात आग्रह से उपजी अर्थहीन छवियों के इस दौर में विष्वविद्यालयों, षिक्षण संस्थाओं में यदि कला संग्रहालयों की स्थापना होती है और निजी स्तर पर ऐसे प्रयासों को संरक्षण मिलता है तो सुन्द समाज की नींव अपने आप ही तैयार हो सकेगी।

Tuesday, April 11, 2017

शब्दों की उज्ज्वल दीठ ‘एकान्त का मानचित्र’

कवि, कथाकार और नाटयषास्त्र मर्मज्ञ संगीता गुन्देचा की यह पुस्तक सर्वथा भिन्न दृष्टि की कविता और कहानियां का मौलिक दस्तावेज है। संगीत, नृत्य, चित्रकलाओं में रची बसी इस संग्रह की कहानियां दार्षनिकता के रंग में शब्दों का अनूठा उजास लिए है। छन्दों में बिखरी गद्य की लय संगीता गुन्देला की 16 कहानियों में यहां है तो दृष्यालेख सरीखी कविताओं में जीवनानुभूतियों की अनूठी रागात्मकता है। अंतर्मन अनुभूतियों के साथ मनोवैज्ञानिक भावों में रची-बसी संगीता की कहानियों में ध्वनित शब्द ही नही वह अदेखा, अपढ़ा भी पाठक अनुभूत कर सकता है, जिसे शब्दों के बीच का मौन कहते है। 
भाषायी रूढ़ता से परे अंर्तमन संवेदनाओं के आलोक में अदेखे छंद को अंवेरती इस संग्रह की कहानियां प्रयोगधर्मिता के साथ शब्दों के जिस भाव में ले जाती है, वह पाठकों को लुभाता है। कहें उनकी इस संग्रह की कहानियों में समय का मौन बजरिए शब्द मुखरित हुआ है। मसलन संग्रह की ‘छन्द’ कहानी को ही लें। कहानी नहीं एक तरह से यह शब्द गीत है। ऐसा जिसमें भाषिक विवेचना के केन्द्र में मनोभावों का सागर रचा गया है। दुनियाभर की भाषाओं की अन्व्तिि में अपने होने, उस क्षण को अनुभूत करने की यात्रा का कहानी मार्मिक विवेचन है जो हममें अनायास घट कर औचक दूर हो जाता है। संगीता गुंदेचा की कहानियां की यही विषेषता है, वहां जीवनानुभूतियों की क्षण विवेचना है। गहरी संवेदना के साथ शब्दों का अपूर्व उजास वहां है। एक कहानी की पंक्तियां देखे, ‘वहां का आकाष, वहीं का आकाष था, यहां का पानी वहीं का।’
एकांत का मानचित्र,-संगीता गुंदेचा 
(कहानिया एवं कविताएं)
सूर्य प्रकाशन मंदिर, नेहरू मार्ग, बीकानेर
मूल्य : २५० रूपये, प्रथम संस्करण २०१६
बहरहाल, एकांत का अर्थ प्रायः अकेलेपन से लिया जाता है परन्तु कथाकार संगीता गुंदेचा की कहानियां पढंेगें तो यह भी पाएंगे वहां एकंात आत्म से जुड़ी संवेदना की सूक्ष्म व्यंजना है। यह है तभी तो उनकी कहानियां अपने आप से संवाद के अनूठे राग में अंतर्मन संवेदनाओं से साक्षात् कराती है। इनमें भीतर झांकने की दीठ है। कहानिकाकार के अंतर उजास में पाठक इन कहानियों में समय के अनूठे संदर्भ तलाष सकता है। इसलिए कि संग्रह की लगभग सभी कहानियां मन के आंतरिक कानों को छूती हममें गहरे से बसती है-उस समय के लिए ही नहीं जब हमें उन्हें पढ़ रहे होते हैं बल्कि उसके बाद भी वे निरंतर मन में घटती हमें मथती है। संग्रही की डायरीनुमा कुछ कहानियां इस दृष्टि से विरल है कि वहां शब्द नहीं शब्द के भीतर के शब्द की कथा है। ‘निषानेबाज’ कहानी कुछ इसी तरह की है। आख्यान सरीखी यह कथा ऐसी है जिसमें कहानी के भीतर कहानियों का आकाष है। ऐसे ही ‘कथाकार’, ‘डायरी’, ‘गुमषुदा’ आदि ऐसी कहानियां है जो मन को बांचती, बंचवाती पात्रों की व्यथा-कथा के मर्म उघाड़ती हममें सदा के लिए बस जाती है। उनकी कहानियां में शब्द ही नहीं वह अदेखा-अपढ़ा भी अनुभूत किया जा सकता है जो हमारे परिवेष का हिस्सा तो है परन्तु उस ओर हमारा कभी ध्यान नहीं जाता है। शायद इसलिए कि इस तकनीक आक्रांत समय में हम अकेले तो बहुतेरी बार होते हैं परन्तु एकांत को नहीं जीते।...तो यह कहानियां इसीलिए ‘एकांत का मानचित्र’ बनाती है।
आस-पास की घटनाओं, संवेदनाओं के मर्म से साक्षात कराती संग्रह की संगीत गुंदेचा की कहानियां ही नहीं कविताए भी पाठक को सर्वथा नई दीठ से संस्कारित करती है। संग्रह की ‘भस्म से जागता है महाकाल’, ‘वह मेघदूत पढती है/जहां दिनों के बीतने का हिसाब/फूलों से किया जाता है।’ कविताएं पढते आख्यानों की हमारी परम्परा जैसे आधुनिकता में पुनराविस्कृत होने लगती है। गोधूली बेला की  उनकी अप्रतीम शब्द व्यंजना देखें, ‘पक्षियों की टोली, आकाष में उडते-उडते शब्द बन जाती है।’ ऐसे ही शब्द भीतर के शब्द को ध्वनित करती उनकी श्राप कविता की पंक्तियां देखें, ‘..प्रार्थनाएं/मौन को समर्पित हैं/जिसमें पड़ी हुई दरारों से झांकते हैं देवगण/क्या वे उन वारांगनाओं की तरह है/जो खेल से मन उचट जाने पर/कभी कभी झांक लिया करती हैं-/अपने गवाक्षों से बाहर।’
 संगीता गुंदेचा का गद्य और पद्य इसलिए भी लुभाता है कि वहां लिखे की परम्परा की बजाय कहानी-कविता की नई राह तलाषी गई है। वह शब्द ब्रह्म में परम्पराओं को गहरे से खंगालती है। ‘छटपटाहट’ कविता में लोगों की आकांक्षाओं की उनकी दार्षनिक व्यंजना देखें, ‘..मंदिरों के गर्भगृह खाली हैं/देवताओं को सोख लिया है/लोगों की भटकती आकांक्षाओं ने।’ 
उनकी कविताएं अर्थगर्भित शब्द की उज्ज्वल दीठ है। ‘संभव’ कविता को पढ़ते  शब्द के ओज में जीवन से जुड़ संवेदनाओं के राग में एक तरह से हम बंध जाते हैं। कविता नहीं, जीवन के सच और तमाम कहे और कहे जा सकने को जैसे संगीता ने अपने भावों में समेट लिया है, यह कहते, ‘..मौत एक दिन आएगी/लील लेगी वह सारे कहे हुए को/लौटते हुए उसके पैरों के निषां में/संभव है छूट जाए/न कहे जा सके की आकृति/मानचित्र एकान्त का।’
‘एकान्त का मानचित्र’ रस की वह गागर है जिसमें अंतर्मन संवेदनाओं के सागर को समेटा गया है। हिंदी में इधर आई पुस्तकों में यह सर्वथा भिन्न पर अनूठी रागात्मकता लिए ऐसी पुस्तक है जिसे पढंगे तो मन करेंगा गुनें, गुनते ही रहें।
- वागर्थ, अप्रैल 2017  में प्रकाशित समीक्षा 

Tuesday, February 28, 2017

समकालीन कला



केन्द्रीय ललित कला अकादेमी ने 'समकालीन कला' के एक अंक के अतिथि संपादन का दायित्व आपके इस मित्र को दिया था। यह अंक ४९ है.

आभारी हूं, मेरे आग्रह को स्वीकार करते नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़, प्रिय कवि, गद्यकार गीत चतुर्वेदी, कलाकार एवं लेखक देव प्रकाश चौधरी, सुप्रसिद्ध ध्रुवपद गायिका डॉ. मधुभट्ट तैलंग, भाषा शास्त्री देवर्षि कलानाथ शास्त्री, ख्यातिलब्ध कला अध्येता श्रीकृष्ण जुगनू, 'कला दीर्घा' के संपादक अवधेश मिश्र, स्तम्भकार पंकज चतुर्वेदी, राजस्थानी—हिन्दी के ख्यात लेखक अतुल कनक, राजस्थान ललित कला अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. भवानीशंकर शर्मा, कलाकार और कवि कुमार अनुपम,कलाकार विनय शर्मा आदि ने मेरे लिए लिखा।



अंक की सामग्री कलाओं के अंत:संबंधों पर ही अधिक केन्द्रित है। आवरण सुप्रसिद्ध कलाकार हिम्मतशाह का है। 

अमर उजाला, रविवारीय 7  फरवरी 2017 


दैनिक नवज्योति, रविवारीय 19 फरवरी 2017 

Monday, January 2, 2017

बचेगा वही जो रचेगा

भोर का उजास मन को गढ़ता है, कुछ रचने के लिए। पक्षियों की चहचहाट से मन उल्लसित होता बहुतेरी बार आकाष बन जाता है।...और धीरे-धीरे फैलता उजास प्रेरित करता है-नया कुछ करने के लिए। इसीलिए कहूं प्रकृति को सुनें और मन ही  मन गुनें। लगेगा आपके भीतर कोई गा रहा है। यह जो गान है, वही तो अनाहत नाद है। अंर्तध्वनि का प्रतीक! यह बजाया नहीं जाता फिर भी परमानंद के रूप में बज पड़ता है। अनाहद नाद का मूल स्त्रोत हमारी अनुभूति ही तो है। प्रकृति को महसूस करने की हमारी दृष्टि। भावात्मक होने से अव्यक्त यानी अविगत है यह। इसीलिए यह अव्यक्त है। कहा भी तो गया है, ‘अविगत गति कछु कहति न आवै।...’
जनसत्ता, २ जनवरी 2017 
संगीत के इतिहास लेखक सांबमूर्ति कहते हैं, ‘अनाहत नाद से ही निनादित है यह विष्व।’ सच ही तो कहते हैं सांब! बारिश जब होती है तो मोर बोलते हैं। कोयल गाती है। चिड़ियाएं चहचहाती हैं। प्रकृति तब बहुतेरी बार मौन में भी संगीत का आस्वाद कराती है। साहित्य, संगीत, नृत्य की कलाएं प्रकृति के इन गुणों से ही तो पल्लवित-पुष्पित होती है।
कोई कह रहा था, एकांत नहीं सुहाता। अकेलापन काटने को दौड़ता है। इसका अर्थ उसने एकांत को जाना ही नहीं। एकांत माने एक-आप। अपने से संवाद। पर विचारेें, कभी अपने से संवाद का एकांत होता है! नही ंना? इस तकनीक आक्रांत समय में तो हम अपने से दूर और दूर हुए जा रहे हैं।...और इसी से सर्जना से भी हो रहे हैं विलग। साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकलाओं का जन्म आपके भीतर के एकांत से होता है। एकांत प्रकृति से प्रेरणा ग्रहण करता है। इसीलिए कभी यह भी जरूरी है कि आप अपने आप से भी मिलें। 
हमारे यहां कलाएं शरण्य ही नहीं हैं, आश्रय भी हैं। अपने आपको अभिव्यक्त करने का माध्यम। इनमें तैरा जा सकता है। सच्ची कला आपको वहां ले जाती है जहां आप पहले कभी न गए हों।...भले कईं बार वह जानी-पहचानी जगह पर भी ले जाती है परन्तु तब उस स्थान को अप्रत्याशित ढंग से देखने के लिए वह आपको विचलित भी करती है। 
लो वह जो पुराना था, बीत रहा है। नया साल प्रारंभ हो गया है। अनवरत चलती है समय की घड़ी। काल चक्र के पहियों पर किसका जोर! समय घड़ी के सूईयों पर नजर डालते हैं तो पाते हैं बीते ने बहुत कुछ दिया है तो हमसे बहुत कुछ लिया भी है। इस नये वर्ष में संकल्प लें कि भीतर के मौन को स्वर देंगे। विचारेंगे, जो आज है वह कल नहीं होगा। तब क्या यह जो आज है वह क्या हमारी परम्परा नहीं बन जाएगा! मन इस परम्परा में ही है। चित्रकारों की चित्रकृतियों की परम्परा में, नृत्य की, नाट्य की, संगीत की हमारी परम्परा में। हम जितना उन परम्पराओं में जाते हैं, उतना ही पुनर्नवा होते हैं। अंदर का हमारा जो रीता है, वह भरता है। यह परम्परा ही है जो अतीत को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य से जोड़ती है। सामाजिक जीवन को इसी से तो निरंतरता मिलती है। 
रोज नया सूर्य उगता है। एमिली डिकिन्सन की बेहद खूबसूरत सी एक कविता है, ‘दिस इज माई लेटर टू दी वल्र्ड..’। वह कहती हैं मैं कविता नहीं कर रही। यह तो बहुत जरूरी, निहायत जरूरी चिट्ठी है मेरी-दुनिया के नाम...जिसे लिखे बिना मैं रह नहीं सकती-भले दुनिया उसे समझे न समझे, भले दुनिया को उसे पढ़ने की फुरसत हो, न हो।’ एमिली कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह रही है। कह क्या रही है, हममें जैसे प्रवेश कर रही है। यही तो संप्रेषण की उसकी कला है। सच्ची कला कल्पना और अनुभूति का ही तो संयोजन है। एक तरह से कल्पना प्रवण भावुकता के दौर में आए एक संवेदनशील मस्तिष्क की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति। 
इस मूल्यमूढ़ समय में नए माध्यमों में हमारी अपनी पहचान और भीतर की खोज का उन्मेष जगाती हैं कलाएं। इसलिए कि वे समयातीत हैं। यह कलाएं ही हैं जिनके सरोकार उत्तरोतर विराट् और व्यापक होने की सामथ्र्य रखते हैं। परम्परा के पोषण और परस्परता में वे निरंतर फलती है, सांमजस्य भाव पैदा करते। विग्रह के लिए वहां कोई अवकाष नहीं है। आत्म को व्यक्त करने का माध्यम हैं कलाएं। 
आईए, बीते वक्त की तमाम कड़वाहटों को भुलाते, अच्छाईयों को याद करते साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्र कृतियों की कलाओं मे रमें। उन्हें अपने भीतर की सर्जना से रचें। हर दिन नया आसमान छूएं। अपना नया आकाश बनाएं।...बचेगा वही जो रचेगा। यह आकाश ही तो है जिसमें कुछ नहीं रहता और सब भरा रहता है।