संस्कृति जीवन से जुड़े संस्कारों में निहित है। संस्कृति के मूल में ही सभ्यताओं का नाद है। वैष्वीकरण की बड़ी विडम्बना यह है कि विरासत से जुड़ी जनजातीय कलाओं की हमारी थाती से हम निरंतर दूर भी होते जा रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि इससे समूहों की सांस्कृतिक अस्मिता और समृद्ध जनजातीय परम्पराओं में निहित कलाओं का लोक भी क्षीण हो रहा है। संस्कृति या कहें इतिहास का अनघड़ रूप बगैर किसी छेड़छाड़ के कहीं है तो वह आदिवासी सभ्यता में ही है। अनघड़ पाषाण भी वहां पूजनीय है। रूंख माने पेड़ भी है तो उसकी टहनियां और उससे जुड़े धार्मिक संस्कारों का वहां सुमधुर गान है, पर्वत, नदियां अजस्त्र ऊर्जा के स्त्रोत ही नहीं हैं आदिवासियों का जीवन है।
बहरहाल, देषभर में घुम्मकड़ी की है परन्तु आदिवासी इलाकों के भीतर जाने का सुयोग कभी नहीं हुआ। हां, आदिम परम्पराओं के अन्वेषण में इधर-उधर भटकते बहुत कुछ मिला तो है परन्तु वह सब सुना हुआ ही गुना लगता है। इधर संयोग हुआ कि मध्यप्रदेष में कुछ समय पहले भोपाल जाना हुआ तो, सुदूर आदिवासी इलाकों की महक को गहरे से अनुभूत किया। बल्कि आदिवासी कलाओं से गहरे से साक्षात् भी हुआ। लगा, आदिवासी इलाकों में पहुंच गया हूं, उनकी परम्पराओं, रिवाजों और संस्कृति की अनूठी गाथाओं में रच-बस गया हूं। ऐसा ही हुआ, जब कुछ समय पहले अस्तित्व में आए मध्यप्रदेष के जनजातीय संग्रहालय जाना हुआ। संग्रहालय क्या, पूरी आदिवासी सभ्यता और संस्कृति से जुड़े चिन्ह ठौड़ ठौड़ वहां मौजूद है। सच है! आदिवासी इलाकों के अंदर तक नहीं गया परन्तु इस संग्रहालय में प्रवेष करना आदिवासियों और उनकी कलाओं तक एक तरह से पहुंचना ही है। जनजातीय जीवन, देषज ज्ञान, परम्परा और सौन्दर्यबोध का चावा स्थल ही तो है मध्यप्रदेष का जनजातीय संग्रहालय।
संग्रहालय में प्रवेष करता हूं और पाता हूं यह आम संग्रहालयों की भांत नहीं है। अक्सर संग्रहालयों में जाने पर यह अनुभूत किया कि बेशकीमती कलाओं को संजोने वाले यह आलय भी पुरा वस्तुओं के आगार भर बन कर रह गए हैं। कोई बड़ी सी इमारत बना दी और उसमें पुरातन चीजों को करीने से संग्रहित कर रख दिया। लो, हो गया संग्रहालय तैयार। जनजातीय संग्रहालय इस तरह का पारम्परिक संग्रहालय नहीं है। यहां खंड-खंड आदिवासी क्षेत्रों की धरा को जैसे अवतरित किया गया है। कलाकार मित्र हरचंदन सिंह भट्टी ने आदिवासी इलाकों की भौगोलिकता के साथ वहां की बनावट को इसमें एक तरह से जीवंत किया है। आप जैसे ही प्रवेष करेंगे, बांस उगे मिलेंगे। सामने ही तालाब सा कुछ है। और इधर-उधर झोपडि़यां, वटवृक्ष, सिंदूर पूता पाषाण माने लोक देवता, आदिवासियों की निर्मित कलाएं और आदिवासी बच्चों के खेल तक के जीवंत स्कल्पचर यहां है। आदिवासी क्षेत्रों की वर्चुअल सैर ही तो है यह संग्रहालय! कला की आभासी दुनिया। भले आदिवासियों के गांव और उनकी धरती मूल मंे यहां नहीं है परन्तु हूबहू वैसे ही माॅडल इस कदर आकर्षक है कि यहां की यात्रा करते आपको कहीं यह अहसास नही ंहोगा कि आप जनजातीय क्षेत्रों का भ्रमण नहीं कर रहे हैं। सांस्कृतिक वैभव, जनजातीय कलाबोध, देवलोक और जनजातीय कलाओं के अद्भुत रूप यहां है। जनजातीय परिवेष में मिट्टी, घास, बांस, लकड़ी, रस्सी और तमाम दूसरी चीजों से सृजित कलाएं यहां जैसे आने वालो से संवाद करती है। यह नहीं कि यहां जो है, वह दिखानेभर को ही है और उनका मूल से नाता नहीं है। यहां जो है उसमें तमाम वस्तुएं वही हैं जो जनजातीय क्षेत्र के समुदाय उपयोग मंे लेते हैं। जैसा जीवन वह जीते हैं, उसी को यहां आदिवासी कलाकारों ने एक तरह से जीवंत किया है।
संग्रहालय में प्रवेष माने षिल्प सौन्दर्य के अनूठो भव से साक्षात्। जनजातीय मौखिक परम्पराओं के बहुविध षिल्प यहां है। सुप्रसिद्ध कलाकार अनिल कुमार से पता चलता है, मध्यप्रदेष मे ंनिवासरत 43 जनजातीय समूहों में से आमंत्रित कर यहां षिल्प रचने का दायित्व उन्हीं को दिया गया। अचरज होता है, आधुनिक षिल्पियों ने नहीं, कोल, बैगा, भारिया, सहरिया, कोरकू, भील और गोण्ड जनजातियों तथा इनकी उपजातियों के अलग-अलग माध्यमों मंे काम करने वाले षिल्पियों ने रचा कला का यह मोहक संसार। शायद यही कारण है कि यहां कहीं किसी बनावट की अनुभूति नही ंहोती है। जो कुछ है सब असल सरीखा ही लगता है। वहां से लौट आया पर मन में आदिवासी क्षेत्र और वहां की संस्कृतियांे हुआ समय का वह संवाद अभी भी कहीं ध्वनित है। इतिहास, अतीत और वर्तमान की दूरियों को कम करता हुआ।
- लोकप्रिय सांध्य दैनिक "न्यूज़ टुडे", 26 मार्च 2015