Thursday, March 26, 2015

जनजातीय कलाओं से साक्षात्


संस्कृति जीवन से जुड़े संस्कारों में निहित है। संस्कृति के मूल में ही सभ्यताओं का नाद है। वैष्वीकरण की बड़ी विडम्बना यह है कि विरासत से जुड़ी जनजातीय कलाओं की हमारी थाती से हम निरंतर दूर भी होते जा रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि इससे समूहों की सांस्कृतिक अस्मिता और समृद्ध जनजातीय परम्पराओं में निहित कलाओं का लोक भी क्षीण हो रहा है। संस्कृति या कहें इतिहास का अनघड़ रूप बगैर किसी छेड़छाड़ के कहीं है तो वह आदिवासी सभ्यता में ही है। अनघड़ पाषाण भी वहां पूजनीय है। रूंख माने पेड़ भी है तो उसकी टहनियां और उससे जुड़े धार्मिक संस्कारों का वहां सुमधुर गान है, पर्वत, नदियां अजस्त्र ऊर्जा के स्त्रोत ही नहीं हैं आदिवासियों का जीवन है।
बहरहाल, देषभर में घुम्मकड़ी की है परन्तु आदिवासी इलाकों के भीतर जाने का सुयोग कभी नहीं हुआ।  हां, आदिम परम्पराओं के अन्वेषण में इधर-उधर भटकते बहुत कुछ मिला तो है परन्तु वह सब सुना हुआ ही गुना लगता है। इधर संयोग हुआ कि मध्यप्रदेष में कुछ समय पहले भोपाल जाना हुआ तो, सुदूर आदिवासी इलाकों की महक को गहरे से अनुभूत किया। बल्कि आदिवासी कलाओं से गहरे से साक्षात् भी हुआ। लगा, आदिवासी इलाकों में पहुंच गया हूं, उनकी परम्पराओं, रिवाजों और संस्कृति की अनूठी गाथाओं में रच-बस गया हूं। ऐसा ही हुआ, जब कुछ समय पहले अस्तित्व में आए मध्यप्रदेष के जनजातीय संग्रहालय जाना हुआ। संग्रहालय क्या, पूरी आदिवासी सभ्यता और संस्कृति से जुड़े चिन्ह ठौड़ ठौड़ वहां मौजूद है। सच है! आदिवासी इलाकों के अंदर तक नहीं गया परन्तु इस संग्रहालय में प्रवेष करना आदिवासियों और उनकी कलाओं तक एक तरह से पहुंचना ही है। जनजातीय जीवन, देषज ज्ञान, परम्परा और सौन्दर्यबोध का चावा स्थल ही तो है मध्यप्रदेष का जनजातीय संग्रहालय।

संग्रहालय में प्रवेष करता हूं और  पाता हूं यह आम संग्रहालयों की भांत नहीं है। अक्सर संग्रहालयों में जाने पर यह अनुभूत किया कि बेशकीमती कलाओं को संजोने वाले यह आलय भी पुरा वस्तुओं के आगार भर बन कर रह गए हैं। कोई बड़ी सी इमारत बना दी और उसमें पुरातन चीजों को करीने से संग्रहित कर रख दिया। लो, हो गया संग्रहालय तैयार। जनजातीय संग्रहालय इस तरह का पारम्परिक संग्रहालय नहीं है। यहां खंड-खंड आदिवासी क्षेत्रों की धरा को जैसे अवतरित किया गया है। कलाकार मित्र हरचंदन सिंह भट्टी ने आदिवासी इलाकों की भौगोलिकता के साथ वहां की बनावट को इसमें एक तरह से जीवंत किया है। आप जैसे ही प्रवेष करेंगे, बांस उगे मिलेंगे। सामने ही तालाब सा कुछ है। और इधर-उधर झोपडि़यां, वटवृक्ष, सिंदूर पूता पाषाण माने लोक देवता, आदिवासियों की निर्मित कलाएं और आदिवासी बच्चों के खेल तक के जीवंत स्कल्पचर यहां है। आदिवासी क्षेत्रों की वर्चुअल सैर ही तो है यह संग्रहालय! कला की आभासी दुनिया। भले आदिवासियों के गांव और उनकी धरती  मूल मंे यहां नहीं है परन्तु हूबहू वैसे ही माॅडल इस कदर आकर्षक है कि यहां की यात्रा करते आपको कहीं यह अहसास नही ंहोगा कि आप जनजातीय क्षेत्रों का भ्रमण नहीं कर रहे हैं।  सांस्कृतिक वैभव, जनजातीय कलाबोध, देवलोक और जनजातीय कलाओं के अद्भुत रूप यहां है। जनजातीय परिवेष में मिट्टी, घास, बांस, लकड़ी, रस्सी और तमाम दूसरी चीजों से सृजित कलाएं यहां जैसे आने वालो से संवाद करती है। यह नहीं कि यहां जो है, वह दिखानेभर को ही है और उनका मूल से नाता नहीं है। यहां जो है उसमें तमाम वस्तुएं वही हैं जो जनजातीय क्षेत्र के समुदाय उपयोग मंे लेते हैं। जैसा जीवन वह जीते हैं, उसी को यहां आदिवासी कलाकारों ने एक तरह से जीवंत किया है।
संग्रहालय में प्रवेष माने षिल्प सौन्दर्य के अनूठो भव से साक्षात्। जनजातीय मौखिक परम्पराओं के बहुविध षिल्प यहां है। सुप्रसिद्ध कलाकार अनिल कुमार से पता चलता है, मध्यप्रदेष मे ंनिवासरत 43 जनजातीय समूहों में से आमंत्रित कर यहां षिल्प रचने का दायित्व उन्हीं को दिया गया। अचरज होता है, आधुनिक षिल्पियों ने नहीं, कोल, बैगा, भारिया, सहरिया, कोरकू, भील और गोण्ड जनजातियों तथा इनकी उपजातियों के अलग-अलग माध्यमों मंे काम करने वाले षिल्पियों ने रचा कला का यह मोहक संसार। शायद यही कारण है कि यहां कहीं किसी बनावट की अनुभूति नही ंहोती है। जो कुछ है सब असल सरीखा ही लगता है। वहां से लौट आया पर मन में आदिवासी क्षेत्र और वहां की संस्कृतियांे हुआ समय का वह संवाद अभी भी कहीं ध्वनित है। इतिहास, अतीत और वर्तमान की दूरियों को कम करता हुआ। 
- लोकप्रिय सांध्य दैनिक "न्यूज़ टुडे", 26 मार्च 2015 


Friday, March 13, 2015

खजुराहो में मानवीय सौन्दर्य...

कलाओं की जीवंत अभिव्यक्ति है खजुराहो। कोई एक कला नहीं .कलाओं का समग्र वहां जो है! शिल्प संयोजन में जीवन से जुड़े सरोकारों की संगत! पाषाण में जीवन की लय! संगीत, नृत्य में ध्वनित होते पाषाण। हाँ, मिथुन मूर्तियां भी वहां है... पर खजुराहो का सच वही नहीं है। सच है कलाओं का मेल। आप मूर्तियां देखते हैं, देखते देखते औचक जहन में तमाम कलाओं का संयोजन, शिल्प पूर्णता को अनुभूत करने लगते हैं। 
छायांकन : राजेश 
बहरहाल, मध्यप्रदेष का संस्कृति विभाग पिछले चार दषकों से निरंतर खजुराहो नृत्य उत्सव का आयोजन करता आ रहा है। इस बार कलाओ ंके अंर्तसंबंधों पर बोलने के लिए आमंत्रित हुआ तो खजुराहो में बिखरे षिल्प वैभव को भी जैसे गहरे से जिया। व्याख्यान से एक दिन पहले अल्लाउद्दीन खां सगंीत अकादमी के निदेषक और मित्र अनिलकुमार से मंदिरों को देखने की चाह जताता हूं तो वह गाड़ी भेज देते हैं। जल्द तैयार होकर 9 बजे ही निकल पड़ता हूं। पूर्वी, पष्चिमी और दक्षिणी समूह में बंटे हैं मंदिर। देखता हूं, दूर मंदिर से सटे तालाब में लोग नहा रहे हैं। गंदे पानी को और गंदा करते हुए। यहां से आगे बढ़ता हूं। मंदिरों के समूह दिख जाते हैं। यह पष्चिमी समूह के मंदिर हैं। खजुराहो का मूल षिल्प वैभव पष्चिमी समूह के इस मंदिर परिसर में ही है। रत्नजडि़त हार सरीखे मंदिर। अलंकृत। मन को मोहते। पहले मंदिर समूह से पृथक पर उनसे जुड़े मातंगेष्वर महादेव हो आता हूं। आदिकाल से पूजित है यह मंदिर!  हर्षवर्धन द्वारा 9 वीं सदी में निर्मित। कहते हैं कभी यहां भगवान राम ने भी पूजा की। अधिस्ठान तक आने के लिए खड़ी सीढि़यां। षिखर वाले इस मंदिर की दरो-दीवार सौन्दर्य प्रतिमाओं से भरी है। ...यहां से आगे पुरातत्व विभाग की खिड़कीसे टिकट ले चंदेल शासको द्वारा बनाए मंदिर समूह परिसर में प्रवेष करता हूं। वराह मंदिर्! बलुआ पत्थरों से निर्मित वराह प्रतिमा पर अलंकृत 672 मूर्तियां। सामने लक्ष्मण मंदिर, कंदरिया महादेव, जगदम्बी, चैसठ योगिनी, चित्रगुप्त, विष्वनाथ आदि मंदिरों  की दीवारों पर उत्कीर्ण षिल्प, सम्मोहित करता है। लगता है, यहां हरेक कला दूसरी से गूंथी है। चित्र-नृत्य में, नृत्य-संगीत में, संगीत-षिल्प में और ऐसे ही स्थापत्य, नाट्य जैसे एक दूसरे से जुड़े देखने वालों से संवाद करते हुए।
मुझे लगता है, खजुराहो में मंदिरों पर उत्कीर्ण मूर्तियां जगत् वस्तु रूप नहीं, आत्मवस्तुरूप है। कहूं, व्यस्टि और समष्टि को जोड़ने वाली एक संधि रेखा। षिल्प क्या है? चक्षु, भाव और बुद्धि की त्रिवेणी ही तो! मानवीय देह, जीवन से जुड़े प्रसंगों का प्रस्तरण रूपान्तरण कहीं है तो वह यहीं है। यहीं। प्रतिमाओं की सुघड़ता...नैरन्तर्य...क्रमबद्धता...संतुलन! अपार्थिव सौन्दर्य। पाषाणों में है संगीत का माधुर्य। नृत्य का उल्लास। षिल्पी ने जैसे नृत्यरत भंगिमाओं में गति का अंकन किया है। लय अंवेरते। स्त्री-पुरूष। एक-दूसरे में समाते। संगत को ध्वनित करते। मानवीय देह के सूक्ष्म सौन्दर्य रूप! चित्त को संस्कारित करती छवियां-श्रृंखलाबद्ध। मन को उद्वेलित कर कलाओं के रस से ओत-प्रोत करती। 
खजुराहो में मूर्तियां नहीं रूप बंध है। कलाओं में बसा है जीवन। स्त्री-पुरूष की देह नहीं-उनके अंग प्रत्यंगों की सौन्दर्य दीठ! औचक संत एकनाथ जेहन में कौंधते हैं, ‘देखणे देखिजे देखणेनी’ माने देखने जैसा है (सुंदर) उसे देखिए। सौन्दर्य का षिल्प मुहावरा ही तो है खजुराहो की यह प्रस्तर प्रतिमाएं। मिथुन मूत्रियां पर वह भारतीय दृष्टि जिसमें कुण्ठाओं, दुराग्रहों के त्याग पर बल है। पष्चिम में शरीर या कहे ंदेह को अध्यात्म प्राप्ति की बाधा माना गया है। हमारे यहां ऐसा नहीं है। हमारे यहां कहा गया है, ‘अनंद ब्रह्णो रूपं तच्य देहे व्यवस्थितम्’ यानी आनंद ही ब्रह्म का रूप है और वह मनुष्य की देह में अवस्थित है। खजुराहो देह का गान है। देह का दृष्यात्मक संगीत! ऐसी मूर्तियां छत्तीसगढ़ में भोरमदेव मंदिर और कोणार्क में भी देखी है।...और भी यत्र-तत्र देखता रहा हूं पर यहां खजुराहो में प्रस्तर सर्वथा नये सौन्दर्य भव से साक्षात् कराते हैं। रेखाओं और घनाव के मघ्य केवल और केवल चेतना की लय जो यहां है! कलाओं के अंर्तसंबंधों की प्रस्तर व्याख्या कहीं है तो वह खजुराहो में ही है। सोचता हूं, खजुराहो को देखना कलाओं के परस्पर संबंधों को एक तरह से समझना ही तो है।
-सांध्य दैनिक "न्यूज़ टुडे" १२ मार्च, २०१५