लोक-संगीत माने कहन-कथन का माधुर्य। कहां से आया यह संगीत, कहां से फूटे बोल? कोई नहीं जानता। पर संवेदनाओं का अद्भुत राग है इनमंे। परम्पराओं और संस्कृति को जीवंत देखना, सुनना और गुनना आखिर लोकनृत्यों की पाण ही तो संभव है। अभी कल की ही तो बात है। रवीन्द्र रंगमंच स्वर्णजयन्ती समारोह की समापन सांझ की नूंत मिली। विलम्ब से पहुंचा पर पलक पावड़े बिछाए जैसे लोक संगीत की स्वरलहरियां स्वागत कर रही थी। घेरदार घाघरे में हो रहा था, ‘घूमर’। ताल-लय का सुछन्द! मन उसमें रमा ही था कि भवई के साथ रूपसिंह शेखावत प्रकट हुए। पाश्र्व में ध्वनित लोक स्वर ‘कुण रै खुदाया कुंआ, बाग...’, ‘उडियो रै उडियो...’, ‘पल्लो लटके’, ‘जळ भरियौ हबोळा खाय..’ के बोल नृत्य मुद्राओं से जैसे जीवंत हो उठे।
लोकनृत्य सम्राट रूपसिंह शेखावत छायांकन : श्याम शर्मा |
तलवार की धार, परात पर सात मटकों को सिर पर साधे वह जब थिरक रहे थे, लगा राजस्थान का नृत्य और संगीत उनमें ही रूपान्तरित हो रहा है। वह जैसे बंचा रहे थे-कर, पाद और मुख-मुद्राओं से राजस्थान की संस्कृति और सभ्यता के पाठ दर पाठ। व्यक्त में संस्कृति का बहुतेरा अव्यक्त भी रच रहे थे। मुझे यूं नृत्य में रमते देख, पास बैठे संस्कृतिकर्मी मित्र ईश्वरदत्त माथुर ने धीरे से कान में कहा, ‘यह तो इनकी कला का चैथाई ही है।’ अचरज! चैथाई ही यह है तो सर्वांग कैसा होगा?
सोचता हूं, संगीत, नृत्य के घरानों की तरह लोकनृत्यों में वैसा कुछ नहीं है पर जो कुछ वहां संचित है, उसे यदि अपने तई अंवेरते, नया उसमें कुछ जोड़ते लोक को आधुनिकता में भी जिन्दा रखने वाले कलाकार भी क्या वैसे ही सम्मान के हकदार नहीं है! कोई, उनकी पहचान भी तो करे। आखिर तमाम हमारा नृत्य-संगीत लोक से ही तो है। विडम्बना ही है, रूपसिंह शेखावत जैसे लोक कलाकारों की कूंत हम नहीं कर रहे।
हां, रवीन्द्र मंच लोक रंजन से जुड़ी ऐसी प्रस्तुतियों का आरंभ से ही साक्षी रहा है। सुखद है, स्वर्णजयन्ती पर रवीन्द्रमंच सोसायटी, सांस्कृतिक संस्थाओं और संस्कृतिकर्मियों की सहभागिता से वर्षपर्यन्त संगीत, नृत्य, नाट्य के आयोजन हुए। बहुधा ऐसे आयोजनों में प्रशासकीय भूमिका कत्र्तव्य निर्वहन के दायरे में ही दिखती है पर आयोजनों में प्रबंधक नीतू राजेश्वर ने जिस रूचि से बारम्बार नूंत दी, कलाकारों के संग कलाकार होते जो सहभागिता निभाई वह सांस्कृतिक आयोजनों के लिए सुखद संकेत तो है ही।
घूमर छायांकन : श्याम शर्मा |
बहरहाल, लोक चिर-पुरातन है, पर चिर नूतन भी। शाश्वत जो हैं इसके स्वर! नृत्य कला में रमते, उसमें बसते मन नृत्य सम्राट उदयशंकर की नृत्य मुद्राओं को याद कर रहा था। लगा, जिस तरह से उन्होंने नृत्य की शास्त्रीयता को अपने तई गुंजरित किया, ठीक वैसे ही तो रूपसिंह शेखावत राजस्थान की लोक संस्कृति को अपनी नृत्य मुद्राओं से ध्वनित और जीवंत करते हैं। राजस्थानी लोकनृत्य सम्राट ही तो हैं वह! उम्र के सत्तर दशक बाद भी जिस चपलता से वह नृत्य करते हैं, लगता है लोक थिरकन ही है, उनका यह जीवन।