Monday, December 30, 2019

पुस्तक पठन संस्कृति की उम्मीदें जगाता वर्ष


वर्ष 2019 की उल्लेखीय, पठनीय पुस्तकों का संसार


हिन्दी साहित्य में यह दौर स्थापनाओं का है। एक ओर सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के इस समय में मुद्रित शब्द के अतीत होते चले जाने का हर ओर बोलबाला है तो दूसरी ओर पुस्तकें बहुतायत से छप रही है, बिक रही है और ‘लिटरेचर फेस्टिवल्स’, ‘साहित्य आज तक’ जैसे आयोजनोें से पुस्तक-लेखक को प्रचारित करने का भी एक नया ट्रेंड बाजार में चल निकला है। पर विडम्बना यह भी है कि कुछेक प्रकाषन समूहों, लेखकों की बिरादरी ही इनमें नजर आती है या फिर इस बिरादरी ने जिन्हें स्थापित करने की ठानी है, वही हर तरफ प्रमुखतया से प्रचारित किए जा रहे हैं। पुस्तकें भी ऐसे-ऐसे शीर्षकों और सज्जा से प्रकाषित करने की होड़ मच रही है, जिससे पाठक उसे खरीदे ही खरीदे-यह देखने के लिए कि आखिर उनमें है क्या? हिन्दी अंग्रेजी भाषा में भी जैसे कोई भेद नही ंरह गया है। साहित्य के नाम पर रहस्य, रोमांच के साथ ही भूत-प्रेत गाथाओं से संबद्ध प्रकाषनों की भी बाजार में जैसे बाढ़ आ गयी है।
वर्ष 2019 साहित्य की दृष्टि से इस रूप में महत्वपूर्ण रहा कि अज्ञेय द्वारा संपादित ‘चैथा सप्तक’ के कवि, नाटककार, आलोचक राजस्थान के नंदकिषोर आचार्य को हिन्दी का केन्द्रीय साहित्य अकादेमी सम्मान उनकी काव्य कृति ‘छिलते हुए अपने को’ पर मिला तो राजस्थानी का यह सम्मान ख्यात कथाकार रामस्वरूप किसान को उनकी कथाकृति ‘बारीक बात’ के लिए मिला। हिन्दी के लिए राजस्थान के किसी लेखक को पहली बार साहित्य अकादमी का सम्मान मिला है। पुस्तको के प्रकाषन की दृष्टि से देखें तो यह साल उम्मीदें जगाने वाला रहा। सालभर पुस्तकों के प्रकाषन का दौर चलता रहा। बहुतेरी प्रकाशित पुस्तकेां में हिमांषु वाजपेयी का  उपन्यास ‘किस्सा-किस्सा लखनउवा’, प्रभात रंजन का ‘पालतू बोहेमियान: मनोहरष्याम जोषी की एक याद’, राजेन्द्र मोहन भटनागर का उपन्यास ‘अथ पद्मावती’, उदय प्रकाष का कविता संग्रंह ‘अम्बर में अबाबील’, कृष्ण कल्पित का ‘हिन्दनामा’ खूब चर्चित रहीं।
बहरहाल, पुस्तकों के बड़ी संख्या में प्रकाषन को देखते हुए सहज यह कहा जा सकता है कि पुस्तकों के पाठक हैं और भविष्य में भी रहेंगेे।  प्रकाषित कथाकृतियों में  ईषमधु तलवार की ‘रिनाला खुर्द’ विभाजन की त्रासदी को बंया करता दो देषो के भाषायी, भावनात्मक संसार की अनूठी कथा व्यंजना है। सूर्यबाला की औपन्यासिक कृति ‘कौन देस को वासी: वेणु की डायरी’ कृति आधुनिक समय संवेदना का एक तरह से लालित्य भरा कथा कोलाज है। सूर्यबाला के पास अनूठी किस्सागोई है और भाषा का लालित्य भी। मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘मल्लिका’ भारतेन्दु हरिष्चन्द्र और उनकी प्रेमिका के अकथ प्रेम की व्यंजना है। पढ़ते भारतेन्दु हरिष्चन्द्र के युग से ही पाठक साक्षात् नहीं होते बल्कि शब्दों की उस दृष्य लय से भी औचक साक्षात् होते हैं जिसमें घटनाएं, समय और परिवेष जीवंत होता सदा के लिए हममें बस जाता है। इसी तरह जितेन्द्र सोनी की कथाकृति ‘एडियोस-ढाई आखर की ढाई कहानियां’ ढाई अक्षरों में व्यंजित प्रेम का अनहद नाद सुनाती पात्रों की मर्मान्तक मजबूरियों के क्षणों का सुंदर कथा संयोजन कथाकार जितेन्द्र सोनी ने किया है। बेहद सामान्य सी लगने वाली स्थिति-परिस्थितियों से प्रारंभ कर कहानियों को बड़ा और मार्मिक अर्थ कथाकार ने दिया है। राजस्थानी कहानी की गौरवमयी परम्परा के साथ ही आधुनिक दृष्टि और बदले परिवेष का षिल्प समृद्ध संसार लिए डाॅ. नीरज दईया द्वारा संपादित ‘एकसौ एक राजस्थानी कहानियां’ इस मायने में महत्वपूर्ण रही है कि इसमें राजस्थानी कहानी की परम्परा और वर्तमान के विविध पक्षों की गहराई है। भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कहानी की भी एक तरह से यह विरल दीठ है।
वर्ष 2019 में कविता की भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाषित हुई परन्तु उनमें राकेश रेणु की काव्य कृति ‘इसी से बचा जीवन’ प्रेम, प्रकृति और जीवन को कविता के चालू मुहावरे की बजाय वैचारिक सघनता में अनुभव की आंच पर पकी है। कवि मायामृग की ‘मुझसे मिठा तू है’ काव्यकृति में कविता बोलती नहीं बल्कि दिखती हुई हममें बसती है। कवि के पास कहन की अनूठी संवेदना है तो पेड़, धरती और आसमान को देखने की उदात्त दृष्टि भी है। राकेष मिश्र के कविता संग्रह ‘जिन्दगी एक कण है’ में विचार, भाव और रूप का अनूठा साहचर्य है। आंतरिक अन्वेषण में उनकी कविताएं ‘याद की बारिष’ से सराबोर करती है तो भ्रम बीजों से उपजी खुषियों की फसल की अनुभूतियां से भी साक्षात् कराती है।
कथेतर गद्य में वर्ष 2019 में रामबक्ष जाट की आत्मकथात्मक, संस्मरण कृति ‘मेरी चित्ताणी’ गद्य का अनूठा उजास लिए है। इसमें अपने गांव के बहाने लेखक ने लोक संस्कृति, आधुनिकता में साहित्य और साहित्य से इतर जीवन का सांगोपांग कथात्मक चित्र उकेरा है। सत्यनारायण की ‘सब कुछ जीवन’ कृति रिपोर्ताज, रेखाचित्र रूप में हिन्दी गद्य की बढ़त हैं। लेखिका, संपादक उमा की कृति ‘किस्सागोई’ मे जीवनीपरक है परन्तु इसमें लेखकों के चरित्र के अपनापे को अनूठी कथा शैली में गुना और बुना गया है। यात्रा संस्मरण की महत्ती कृतियांे में असगर वजाहत की ‘स्वर्ग में पांच दिन’ हंगरी के इतिहास का वातायन ही नहीं है बल्कि जीवन और स्थानों की यात्रा से जुड़े संस्मरणों की उज्ज्वल शब्द दृष्टि भी है। प्रताप सहगल का यात्रा संस्मरण ‘देखा-समझा देस-बिदेस’ इस मायने मंे विषिष्ट है कि इसमें कहानी का अनूठा गद्य है तो डायरी की निजता भी है, निबंध का लालित्य है तो स्थान और परिवेष को देखने और समझने-समझाने की आलोचना दीठ भी है। डाॅ. गोपबंधु मिश्र का पेरिस प्रवास का यात्रावृतान्त ‘पारावार के पार’ मूल संस्कृत से हिन्दी मे अनुदित है पर इसमें पेरिस की सभ्यता और संस्कृति की सुंदर दार्षनिक व्याकरणिक व्याख्या करते भारतीय और पष्चिमी समय संवेदना के गहरे मर्म भी उद्घाटित हुए हैं।
इस वर्ष आयी गद्य की कुछ अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में चार साल की ही उम्र में ही पोलियो से ग्रस्त होने के बावजूद कठिनाइयों से जूझते समाज में अपना एक विषिष्ट स्थान बनाने की कहानी कहती ललित कुमार कीे संस्मरणात्मक जीवन गाथा ‘विटामिन जिन्दगी’ चुनौतियों को अवसर में बदलने का जैसे प्रभावी सूत्र है। प्रयाग शुक्ल की ‘स्वामीनाथन: एक जीवनी’ बंधे-बंधाए ढर्रे से पृथक कलाकार स्वामीनाथन के साथ की यात्राओं, उनके कला प्रष्नों, कलाकृतियों और सृजन सरोकारों को सहेजते सिनेमा की मानिंद शब्दों का दृष्य रूपान्तरण सरीखी है। विजय वर्मा की व्यंग्यकृति ‘राग पद्मश्री’ सरकारी तंत्र, समाज और साहित्य-संस्कृति से जुड़ी जीवनानुभूतियों की से सूक्ष्म दीठ है। इस वर्ष शरद सिंह द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर विमर्ष’ को तीसरे लिंग से जुड़ी वर्जनाओं, धार्मिक सामाजिक और भय से जुड़ी मानसिकता के चिंतन की महत्ती कृति कहा जा सकता है तो लेखिका सुजाता की ‘स्त्री निर्मिती’ स्त्रीवाद का जैसे आईना है। डाॅ. श्रीलाल मोहता और ब्रजरतन जोषी सपादित ‘संगीत: संस्कृति की प्रकृति’ इस मायने में इस वर्ष की विरल कृति कही जा सकती है कि इसमें भारतीय कलाओं के आलोक में संस्कृति से जीवंत संवाद में डाॅ. छगन मोहत्ता की महत्ती स्थापनाएं हैं।
-राजस्थान पत्रिका ‘हम लोग’ में प्रकाशित
29-12-2019

Tuesday, November 12, 2019

स्वर-सिद्ध कण्ठों के ध्रुवपद गान का बिछोह


स्मृति शेष : रमाकांत गुंदेचा

गुंदेचा बंधु रमाकांत गुंदेचा का बिछोह धु्रवपद की जड़़ होती परम्परा को बचाने के जतन में जलाए किसी दीए के बूझने सरीखा है। बरसों से धु्रवपद में गाये जा रहे पदों की एकसरसता को तोड़ते उन्होंने उसकी रागदारी में बढ़त की। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सूर, कबीर, तुलसी, पद्माकर के साथ ही आधुनिक कविताओं को धु्रवपद में उन्होंने पिरोया तो स्वयं भी बहुत से पद रचे। धु्रवपद के प्रचलित पदों के साथ ही सबद गाए, रवीन्द्र संगीत को धु्रवपद से जोड़ा और बहुतेरे वाद्य यंत्रों के साथ भी जुगलबंदी की।  मुझे लगता है, धु्रवपद गायकी को लोकप्रिय करते उन्होंने अपने तई संगीत में भाव दृष्यों का मधुर भव रचा।

कहते है, धु्रवपद में साथ में आवाज लगाने की परम्परा नहीं रही है। पर उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा बंधुओ की गायिकी को सुनते यह मिथक जैसे टूटता हुआ सा लगता है। धु्रवपद में अल्लाबंदे खांन और जकीरूद्दीन खां की जुगलबंदी की भी बात होती है पर यह 1920-21 की बात है। पर, गौर करेंगे तो पाएंगे वहां दो आवाजें जरूर है पर वह साथ नहीं लगती थी। इस दीठ से उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा बंधुओ ने जुगलबंदी में एक साथ स्वर मिलाते धु्रवपद के डागर घराने को अपने तई समृद्ध ही नहीं एक तरह से सपन्न किया। धु्रवपद के मूल को बरकरार रखते हुए भी उन्होंने चारूकेषी, षिवरंजनी, हंसध्वनि, सरस्वति और मारवा जैसे कम प्रचलित बल्कि कहें धु्रवपद में आमतौर पर नहीं गाये जाने वाले रागों में बढ़त की। उनके गायन का अति दु्रप भी लुभाता हैै। इसलिए नहीं कि वहां तेज गमक है, बल्कि इसलिए कि उसमें सुनने के अपूर्व रस की अनुभूति होती है। धु्रवपद में आलाप के जड़त्व को तोड़ते उसमें रोचकता का समावेष रमाकांत गुंदेचा ने किया।
धु्रवपद भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनमोल विरासत है परन्तु यह विडम्बना ही है कि इसमें घरानों की परम्परा में किसी तरह का प्रयोग नही ंके बराबर हुआ हैं परन्तु मुझे लगता है, रमाकांत-उमाकांत गुंदेचा ने इस धारणा को बदलते हुए ध्रुवपद की मूल संरचना मे बगैर किसी प्रकार का बदलाव किए निरंतर प्रयोग किए हैं। कर्नाटक संगीतकारों के साथ गायन की बात हो या फिर कथक में गान की उनकी संगत-धु्रवपद उनसे ही आम जन में सहज संप्रेषित हुआ है। अरसा पहले, प्रख्यात कथक नृत्यांगना चन्द्रलेखा के कथक प्रयोग में गति की मंथरता में मनोंभावों की विरल व्यंजना को अनुभूत किया था। सोचकर अचरज होता है, रमाकांत-उमाकांत गुंदेचा ने चन्द्रलेखाजी के नृत्य के उस मंथर में भी धु्रवपद की अद्भुत संगत की। माने जो ‘नहीं होता’ उसके होने को धु्रवपद में किसी ने संभव किया है तो वह गुंदेचा बंधुओ की जोड़ी है।
धु्रवपद में लयकारी और ताल पक्ष पर विषेष ध्यान देते उन्होंने परिपाटी की तरह परम्परा के प्रयोग की धारणा को भी एक तरह से बदला। रमाकांत गुंदेचा ने एक दफा कहा था, ‘कबीर ने सरल भाषा का इस्तेमाल किया था लेकिन उनके विचार पक्ष की गहनता फिर भी बरकार रही।’ मुझे लगता है, धु्रवपद में उन्होंने भी यही किया। उसे सरल, सहज, ग्राह्य बनाते हुए भी उन्होंने उसकी शास्त्रीय गंभीरता को तिरोहित नही होने दिया। कहना चाहिए, स्वर के प्रति धु्रवपद की जो संवेदनषीलता है, उसकी तमाम संभावनाओं को तुलसी, कबीर, निराला, पद्माकर और दूसरे आधुनिक कवियों के लिखे पदों में उन्होंने तराषा।  वह कहते भी थे, ‘स्वर को उसकी शुद्धि के साथ प्रस्तुत करने में धु्रवपद गायिकी में जो अवकाष है, वह दूसरी किसी भी गायिकी में नहीं।’ उन्हें सुनते लगता भी है कि इसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने अपनी गायिकी मंे किया भी। राग मालकौष में गाया उनका ‘षंकर गिरिजापति’ तो जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें, सुनते ही रहें। ऐसे ही राग अडना में षिव की महिमा का उनका सस्वर ‘षंकर आदिदेव...’ सुनेंगे तो मन करेगा उन्हंे गुनें-गुनते ही रहें। राग चारूकेषी में कबीर के पद ‘झीनी झीनी-बीनी चदरिया’ या फिर राग जैजैवंती में ‘एक समय राधिका’, राग भिमपलासी में ‘नमो अंजनी नंदनम्’ या फिर राग भूपाली का उनका आलाप-सुनतें मन अवर्णनीय आनंद रस की ही तो अनुभूति करता हैै।
यह सही है, दो गायकों की जुगलबंदी में किसी एक की आवाज की परख आसान नहीं है परन्तु ध्यान से सुनंेगे तो अनुभूत होगा गुंदेचा बंधु का गान दो आवाजें हैं परन्तु दोनों नितान्त अलग-अनूठी हैं। रमाकांत गुंदेचा की वैयक्तिकता भी वहां अलग से अपने ओज में नजर आती है। यह भी कि आमतौर पर धु्रवपद की जुगलबंदी में एक ने कुछ गा दिया तो दूसरा उसी को नहीं करता। पहले उसे सुनता है फिर स्वरों में अपना सिद्ध गाता है परन्तु रमाकांत गुंदेचा ने धु्रवपद में संग गाते बोल-तान में जुगलबंदी का अनूठा रस-उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी गायकी धु्रवपद का नाद-ब्रह्म ही तो है!
ऐसे दौर में जब धु्रवपद क्या, दूसरे शास्त्रीय संगीत को सुनने श्रोता नहीं मिलते, धु्रवपद के गुणगान की बजाय उसे सुनने के लिए प्रेरित करने का कार्य रमाकांत गुंदेचा ने अपने भाई उमाकांत के साथ मिलकर किया। धु्रवपद की बरसों से चली आ रही गान परम्परा में श्रव्यता पर ध्यान देते उन्होंने उन रूढ़ियों को तोड़ा जिनके कारण धु्रवपद किन्हीं खास श्रोताओं की ही पसंद बना हुआ था। प्रस्तुति उन्मुख उनकी गायकी इसलिए ही पंसद की जाती है कि वहां पर शास्त्रीयता के घोर गरिष्ठ का आतंक नहीं है। धु्रवपद की विरासत को सहेजते, उसे पुनर्नवा करते रमाकांत गुंदेचा ने अपने भाई उमाकांत गुंदेचा के साथ धु्रवपद में अपने को सांस से ही नहीं चिन्तन और मनन से भी निरंतर साधा। रमाकांत गुंदेचा का असामयिक निधन धु्रवपद की विरल जुगलबंदी का सदा के लिए बिछोह है।

Saturday, September 7, 2019

सुरों के रस का सारंगी गान


पंडित रामनारायण
करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करता तत्वाद्य है सारंगी। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी वहां है। माने कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। कोई कह रहा था, अतीत का ‘सारिंदा’ सारंगी बन गया। राजस्थानी लोकवाद्य ‘रावणहत्था’ से भी इसे प्रायः जोड़ा जाता है। यह जब लिख रहा हूं, पंडित रामनारायण की बजायी सारंगी के सुर ज़हन में बस रहे हैं। राग पीलू ठुमरी। सारंगी के स्वरों का जादू तन-मन को जैसे भीगो रहा है। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सारंगी रच रही है दृश्य की भाषा। ठुमरी के रंग रच गए तो लो अब सारंगी के तारों पर पंडितजी ने राग जोगिया की तान छेड़ दी है। सारंगी जैसे समझा रही है असार संसार का सार। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते सारंगी के सुर। निरवता का गान। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है यह नाद! 
उदयपुर में वह जन्में और फिर बाद में मुम्बई में ही बस गए। उस्ताद अमीर खाॅं, गंगूबाई हंगल, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, केसर बाई, बड़े गुलाम अली खां के साथ उन्होंने सारंगी संगत की। यही नहीं, विश्व संगीत हस्तियों यहूदी मेनुहिन, पैब्लो कासाल्स और रास्त्रोपोविच के साथ विश्वभर के मंचों पर उन्होंने सारंगी की प्रस्तुतियां दी। कहें, सारंगी की शास्त्रीय पहचान उनसे ही हुई। वह नहीं होते तो सारंगी कब की हमसे विदा ले चुकी होती। पिता नाथूजी बियावत दिलरूबा बजाते पर  पंडितजी ने सारंगी अपनायी। वर्ष 1956 में पंडितजी ने मुम्बई के संगीत समारोह में पहली बार एकल सारंगी वादन किया। बस फिर तो देश-विदेश में उनकी सारंगी गाने लगी। उस्ताद विलायत खां के साथ उनका एलपी रिकाॅर्ड आया। सारंगी के सुरों की वर्षा पहले पहल फिल्मों में उन्होंने ही की। याद करें ‘कश्मीर की कली’ का ‘दिवाना हुआ बादल...’ गीत। गीत की धुन में सारंगी के सुरों पर गौर करें। मन करेगा बस उन्हें गुनें। गुनते ही रहें।
पंडित रामनारायणजी की सारंगी में सुरों का अनूठा उजास है। सुनते लगता है, बीन और अंग के आलाप के साथ मन्द्र सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों तक वह सारंगी की बढ़त करते हैं। गज चलाना कोई उनसे सीखे! दोनों हाथों की अंगुलियों का संतुलित संचालन। सारंगी बजाते खुद भी वह जैसे खो जाते हैं और सुनने वालों को सुरों के समन्दर की जैसे सैर कराते हैं। एक लहर आती है, दूर तक बहा ले जाती है। दूसरी आती है और जैसे अपने में समा लेती है। भीगोती, पानी के छींटे डालती हुई। ...सच! पंडित रामनारायणजी की सारंगी बजती नहीं, गाती हुई हममें जैसे सदा के लिए बसती है।
पंडितजी के पास उदयपुर से मुम्बई, लाहौर रेडियो स्टेशन पर स्टाफ आर्टिस्ट के रूप में कार्य करने और फिर कोठों से निकालकर सारंगी को शास्त्रीयता की पवित्रता के साथ स्थापित करने की ढेरों यादें हैं। यादों का वातायन खुला तो फिर खुलता ही चला गया। कहने लगे, ‘सारंगी अपनायी तो संकट यह भी था कि तब इस वाद्य को बजाने वाले अधिकतर अपनी कला को कोठों में कैद किए हुए थे। सारंगी बाहर तब बजती भी कहां थी! मुझे गर्व है कि कोठों से निकाल मैने इस वाद्य की पवित्रता को फिर से कायम किया। अच्छी सारंगी आज उपलब्ध ही नहीं है। सारंगी युरोप में विकसित हुई। वहां आज भी सारंगी की परम्परा कायम है।’ सही भी है, पंडित रामनारायण ने ही उसे नृत्यांगनाओं के नृत्य मे ंप्रयुक्त संगीत के वाद्यों से निकाल एकल वाद्य के रूप में पहचान दी परन्तु एकल वाद्य के शास्त्रीय कार्यक्रम उनके जितने विदेशों में हुए, उतने भारत में कहां हुए! 
सारंगी वादन की पंडितजी की शुरूआत आॅल इण्डिया रेडियो से हुई। संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘मैं 1944 में रेडियों आर्टिस्ट के रूप में नौकरी लग गया था। उस जमाने में डेढ सौ रूपये तन्खाह थी। कम नही थी, अच्छे से बसर हो जाती। परन्तु रेडियो आर्टिस्ट के रूप में मैने देखा आपको पूरा कार्यक्रम करने को नहीं मिलता। आपका कार्यक्रम काट दिया जाता। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैने सारंगी को ही अपने को समर्पित करने का निर्णय ले लिया-मुझे खुशी है मैं सही था।’ 
गज पकड़ने के अंदाज और उसके संतुलन की विशिष्टता में ही उनके बजायी धुनों की भी याद आने लगती है। उन्हें उनकी बजायी सारंगी की कुछेक रागों की याद दिलाते हुए बातें होती है तो औचक लगने लगता है, वह सारंगी बजाने लगे हैं। उनके बोल भी उनकी बजायी सारंगी की मानिंद होले-होले आगे बढ़ते हैं, ‘गज सारंगी की जुबान है। गज सही से नहीं पकड़ा जाए। उसे साधा नहीं जाए तो सारंगी बोल नहीं सकती। आप खुद ही बताईए, जुबान को ठीक से नहीं चलाया जाए तो गलत भाषा ही निकलेगी ना! इसलिए मैंने सारंगी में सबसे पहले यही काम किया। सारंगी के गज का संतुलन बनाया। गज चलाने के अपने स्तर पर कुछ सिद्धान्त बनाए। गज कैसे और कब चलाना चाहिए, इस पर ध्यान दिया। कहां गज चलाते हुए धीमे हो जाएं, कहां पर तेज-इस सबको अपने स्तर पर संतुलन के रूप में साधा। लोगों के पास रोटी-पानी का गुजारा ही नहीं होता। सारंगी के रंग खोजने की फुर्सत कहां से आएगी! और जब तक खोज नहीं होती रहेगी चीज खत्म होती जाएगी। इसलिए संगीत में खोज होती रहनी चाहिए।’ यह कहते हुए वह गज पकड़ने के बारे में बहुत सी और भी जानकारियां देते है। उनकी सारंगी के बारे में सोचकर यह भी लगता है, सारंगी बजती नहीं गाती है। हजारांे-हजार भावों की अनुभूतियां कराती हुई। सारंगी से जुड़ी बातों का सिलसिला चला तो चलता ही रहा। औचक, बचपन के दिनों और सांरगी की शुरूआत के बारे मंे प्रश्न होता है तो लगता है, अतीत उनकी आखों में तैरने लगा है। वह कहने लगे, ‘मेरी शुरूआत मेरे भाग्य मे थी। मेरे पिताजी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। उन्हीं से मैंने पढ़ने और सारंगी की शिक्षा भी पाई। 
कभी कहीं कोई आलोचना नहीं हुई। देश में ही नहीं विदेशों में उनकी बजायी सारंगी की विशेष पहचान है। कभी सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ यहूदी मेनुहिन ने पंडितजी की सारंगी पर कहा भी, ‘सारंगी भारत का ही नहीं भरतीयता का अधिकृत और वास्तविक नमन करने योग्य वाद्य यंत्र है। पंडित रामनारायण के हाथों सच में वह भारतीय सोच और भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति बहरहाल, पंडित रामनारायणजी देश के एकमात्र ऐसे जीवन्त किवदन्ती सारंगीवादक है जिनकी देता है। वह भारत के महान संगीतज्ञ है।’ पंडितजी सारंगी से अपने को पृथक नहीं पाते। इसीलिए कहते हैं, ‘सारंगी से ही मेरा वजूद है। मेरा तो जो कुछ है, वह यह सारंगी ही है।’ सोचता हूं, पंडितजी नहीं होते तो सारंगी क्या हमें यूं अपने रंगों से रंगती!

Sunday, August 11, 2019

इतिहास लेखन में सभ्यताओं और संस्कृति के अध्ययन की प्रस्तावना



सभ्यताओं के अध्ययन को हमारे यहां ऐतिहासिक ज्ञान के संदर्भ में देखने का प्रयास कम ही किया गया है। यही कारण है कि सभ्यताओं के इतिहास लेखन का कार्य भी इधर नहीं के बराबर ही हुआ है। इस दृष्टि से प्रो. दयाकृष्ण की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सभ्यताएं और संस्कृतियां-भावी इतिहास लेखन की प्रस्तावना’ महत्वपूर्ण कृति है। पुस्तक में प्रचलित इतिहास लेखन के बरक्स सभ्यताओं और संस्कृतियाॅं के आलोक में मानव इतिहास को सर्वथा नवीन या कहें सांस्कृतिक दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है। 
ख्यातनाम दार्शनिक, चिंतक प्रो. दयाकृष्ण ने अपने लिखे में सभ्यता, संस्कृति और इतिहास लेखन के बने बनाए ढर्रे को लेकर बहुतेरे प्रश्न उठाए हैं और इन प्रश्नों के विमर्श में ही इतिहास लेखन की नयी या कहें अब तक छूटी हुई प्रस्तावना भी जैसे स्थापित की हैं। पुस्तक में वह शिल्प, शास्त्र, पुरूषार्थ की त्रयी में संस्कार को भी जोड़ने पर जोर देते हैं और ऐसा करते प्राकृतिक के सांस्कृतिक में रूपान्तरण की अर्थपूर्ण व्याख्या भी करते हैं। यही नहीं, दृश्यकला की वृतियों संगीत, नृत्य, साहित्य के प्रयोजन को भी सभ्यताओं के इतिहास से जोड़ते वह सभ्यताओं और संस्कृति को मानवीय विकास के संदर्भ में अन्वेषण करना भी प्रस्तावित करते हैं। 
यह महत्वपूर्ण है कि प्रो. दयाकृष्ण ने अपने चिंतन में संस्कृति को उन चीजों से जोड़े जाने पर भी जोर दिया है जिन्हें संस्कृति अपने तई निरन्तर संरक्षित करती है और आगामी पीढ़ियों में हस्तान्तरित करने का प्रयास करती है। वह लिखते हैं, ‘वैयक्तिक स्मृति अतीत में घटित का निरंतर संपादन करती है तथा अप्रासंगिक को भुला देती है उसी प्रकार संस्कृति भी अपने अतीत की स्मृतियों को संपादित करती है।’
प्रो. दयाकृष्ण का लिखा इतिहास, सभ्यताओं और संस्कृति से जुड़ी जीवनानुभूतियों की चली आ रही परम्पराओं का अर्थान्वेषण है। उनका चिंतन पश्चिम के चिंतन की अपेक्षा शुद्ध भारतीय है और इसमें सभ्यताओं के अध्ययन को समकालीन विश्व की अर्थव्यवस्था अथवा राजनीति के अध्ययन की अपेक्षा कहीं अधिक बड़े स्तर का उद्यम बताते इस पर गहराई से कार्य किए जाने पर जोर दिया गया है। यह सच है, सभ्यताएं मानवीय सर्जनात्मकता की सर्वाधिक स्थायी वृतियां हैं और इसीलिए उन्हें रूचि अथवा सरोकार के किसी एक क्षेत्र से संबंधित किसी मानवीय रचना से अलग तथा भिन्न पद्धतियों से समझे जाने की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में प्रो. दयाकृष्ण की यह कृति गहन चिन्तन लिए इतिहास लेखन की नयी प्रस्तावना भर ही नहीं है बल्कि संस्कृति और जीवन मूल्यों की सूक्ष्म अंतर्धवनियांे में दर्षन के लोक का आलोक हैं। ख्यात चिंतक नंदकिशोार आचार्य ने प्रो. दयाकृष्ण की लिखी अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी इतना प्रभावी किया है कि पढ़ते मूल स्वर कहीं विलोपित नहीं होता है।
-अमर उजाला, 11 अगस्त 2019 

Monday, June 3, 2019

जीवनानुभूतियों का अर्थगर्भित छन्द

ऋतुराज जीवनानुभूतियों की दृष्य लय के इस दौर के अनूठे कवि हैं। उनकी कविताएं दैनिन्दिनी जीवन से जुड़ी घटनाओं का एक तरह से अर्थ कोलाज है। ऐसे समय में जब कविता निरंतर वक्तव्य बनती जा रही है, जब बहुत सारी मात्रा में लिखे जाने के बावजूद उसकी लय कहीं दूर जाती दिखाई दे रही है और जब वह समाज के केन्द्र से लगभग गायब सी हो रही है-ऋतुराज की कविताएं अपनी विरलता में उम्मीद की किरण है। ऊपर से सहज, सादगीपूर्ण उनका कविता का षिल्प अर्थगर्भित छन्द में इस कदर लुभाता है कि मन करता हैं, उन्हें पढ़ें और गुनें। गुनते ही रहें। इसलिए कि वहां बड़ी घटनाओ, प्रसंगों और दिखावे की कोई गंभीर मुद्राएं नहीं है पर पंक्ति दर पंक्ति जीवनानुभूतियों का राग-अनुराग हैं। भाषिक सरंचना और सवेदना के बृहत्तर फलक में उनकी कविताएं पाठक मन को पढ़ने वाली कविताएं है। मुझे लगता है, हिन्दी कविता में छन्द, लय और तान को अनुभूत करना हो तो ऋतुराज को पढ़ संपन्न हो सकते हैं। इसलिए कि सृजनात्मक अभिव्यंजना की गहराई और विस्तृतता में उनकी कविताएं हमारे युग की मुखर व्यंजना हैं। यह महत्वपूर्ण है कि सादाबयानी में वह सीधे-सीधे संवेदनाओ ंकी गहराई में ले जाते अपूर्व की व्यंजना करते हैं। ‘कोड’ कविता को ही लें। यह ऐसी ही है जिसमे देखी-सुनी को सर्वथा नए ढंग से पहचानवाने का कविकर्म है। कविता का उनका वितान देखें-
‘भाषा को उलट कर बरतना चाहिए
मैं उन्हें नही जानता
यानी मैं उन्हें बखूबी जानता हूं
...अगर अर्थ मंषा में छिपे होते
तो उल्टा बोलने का अभ्यास
खुद ब खुद अर्थ व्यक्त कर देगा
मुस्कराने मे घृणा प्रकट होगी
स्वागत में तिरस्कार’
कविता का यह वह वृहतर स्पेस है जिसमें देष-काल को देखने, परखने के नए ढंग में ऋतुराज चुपके से कविता के उस चर्म पर ले जाते है जहां कहन का उनका अर्थ हममें पूरी तरह से रूपान्तरित हो जाता हैं। यहां आनंद कुमार स्वामी का कहा औचक याद आता है, कलाएं रूपान्तरण हैं। मुझे लगता है, ऋतुराज की कविताएं भी पाठक को रूपान्तरित कर देती है। उन्हें पढ़ने के बाद पाठक वह नहीं रहता जो पहले था। माने वह पूरी तरह से कविता के रस में रूपान्तरित होता समय संवेदना के मर्म का साक्षी हो जाता है। शायद इसलिए कि उनकी कविता का षिल्प व्यक्त में निहित अर्थ संकेतों का विरल भव है। 
‘नागार्जुन सराय’ कविता पढेंगे तो लगेगा वह कविता में जीवन रचते हैं। नागार्जुन के कवित्व पर, उनके व्यक्तित्व पर वृहद उपन्यास, संस्मरणनुमा भी कोई लिखे तो कम पड़े परन्तु ऋतुराज की उन पर लिखी यह कविता गद्य की तमाम विधाओं के रसों को अपने में समाए कविता की आधुनिकी में काव्य परम्परा का अनूठा छन्द है। ‘पूंछ-उठौनी नन्हीं चिड़िया’ के बहाने नागार्जुन का यह विरल शब्द चितराम है जिसमें ‘अरी, तू जानती है इन्हें?’ जैसी मधुर व्यंजना में भावनाओं का अनूठा भव रचा गया है। ऋतुराज की कविताओं की यही विषेषता है-वे शब्द-षब्द ओज में कहन के अपने माधुर्य में भावों का विरल पाठ बंचाते हैं। 
अपनी चुनी हुई कविताओं के संग्रह में ‘कवि ने कहा’ में ऋतुराज ने अपना आलोचक स्वयं बनते अरसा पहले भले यह लिखा है कि उनकी कविताएं क्रियात्मक कम प्रतिक्रियात्मक ज्यादा है। यह भी कि यथार्थ का बेहद सरलीकरण वहां है और यह भी कि समय का प्रत्युतर होने की बजाय फेटेंसी, रूपक, प्रतीक, बिम्ब आदि इतर साधनों का इस्तेमाल उन्होंने कविताओं में किया है परन्तु उनकी कविताओ का सच यही नहीं है। मुझे लगता है, उनकी कविताएं चीजों, व्यक्तियों और जीवन को सर्वथा नए ढंग से देखने को संस्कारित करने का एक तरह से पाठ है। नरेष सक्सेना के शब्द उधार लेकर कहूूं तो उनकी कविताएं लोकगीतों की तरह सरल और संगीत की तरह सहज ऐसी हैं जो पाठक के भावबोध का एक तरह से परिष्कार करती है। याद है, अरसा पहले उनके निवास पर ही उनसे कविता और इतर विषयांे पर लंबा सवाद हुआ था। तभी सद्य प्रकाषित सप्तक के बाद के प्रतिनिधि कवियों के संकलन ‘कवि एकादष’ की प्रति उन्होंने भेंट की थी। इसमें कविताओं के साथ दिए वक्तव्य में अपनी सृजन प्रक्रिया के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘...मैंने अपनी सभी कविताएं घर के बाहर लिखी है, खुले में, किसी ऊंची चट्टान पर बैठे या किसी झील के किनारे, घने जंगल की निस्तब्धता में, पषु पक्षियों आदिवासियों की अपरिहार्य उपस्थिति में...इससे बड़ा अंतर्विरोध शायद दूसरा न हो कि कविता सबकुछ समेटना चाहती है, मुझे छोड़कर।’ 
यह सच है, उनकी कविताए दौर और दायरों का समग्र है। इसीलिए कविता के होने में पाठक वहां अपने होने की तलाष कर सकता है। ...और हां उनकी कविताएं सहज उपजी हैं इसलिए उनमें कृत्रिमता और ओढ़ी हुई बौद्धिकता नहीं है-इसीलिए वह पाठकों में सहज संप्रेषित होती भावों के अनूठे भव में अपनी प्रासंगिकता कभी समाप्त नही होने देती है।
बहरहाल, ‘मैं आंगरिस‘, ‘एक मरणधर्मा और अन्य’, ‘कितना थोड़ा वक्त’, ‘पुल पर पानी, ‘अबेकस’, ‘नही प्रबोधचन्द्रोदय’, ‘सुरत-निरत’, ‘लीला मुखारविन्द’, ‘आषा नाम नदी’ आदि उनके कविता संग्रहों की कविताओं में सहज पर कहन के विरल अंदाज में संवेदनाओं को संस्कारित करते वह शब्द-षब्द नाद ऐसे भावलोक की निर्मिती करते है, जहां अर्थ के मर्म उद्घाटित होते हैं। उनकी कविता देखे-सुने और अनुभूत किए की शब्द व्यंजना या समय की साक्षी भर ही नहीं है बल्कि ठहरे पानी में हलचल मचाते उस कंकड की भांति है जो अपने होने में जल को पूरी तरह से हिलाकर रख देता है। कविताओं में गूंथी उनकी दृष्य गाथाओं में देखे, अनुभूत किए के चिंतन में घूली कवि मन की आत्मीयता का अपनापा है। मनुष्य जीवन और प्रकृति के विविध रूपों, छवियों और कथन के नए ढंग मे हम उन्हें शब्दों के सहारे सुन सकते है, सदा के लिए गुन सकते हैं। मुझे यह भी लगता है, सभ्यता के बदले रूपों मे वह मानव मन की थाह के कवि हैं। और हां, कविताओ की उनकी खास रंगत में परिवेष के आर-पार देखने की अद्भुत क्षमता से भी पाठक अनायास साक्षात् होते हैं। 
‘कन्यादान’ कविता को ही लें। भारतीय स्त्री जीवन का जैसे मर्म इसमे उद्घाटित हुआ  है। पूरी कविता जितनी व्यक्त है उतना ही उसमें निहित वह अव्यक्त भी है जिसमें अर्थ के बहुत सारे आयाम खुलते पाठक को अंदर तक झकझोर देते हैं। कविता में माता के ‘प्रामाणिक दुख’, ‘अंतिम पूंजी’ के बहाने कन्यादान की भारतीय परम्परा का विरल आख्यान यहां हैं तो भावों के उनके अनूठे भव में स्त्री के संघर्ष और बंधनो में जकड़े जीवन की मार्मिक व्यंजना है। भाषा की उनकी शक्ति और अभिव्यक्ति की यह क्षमता अद्भुत है,
 ‘लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास होता था
लेकिन दुख बांचना नहीं आता था।’
कविता की इन पंक्तियां में कवि ही नहीं पाठक मन भी संस्कारित होता जीवन और उससे जुड़े सरोकारों से साझा होने, अनुभव करने के सर्वथा नवीन ढग से साक्षात् होता है। ....यही नहीं अपनी दूसरी कविताओं की ही तरह वह कविता के अंतिम पाठ में अर्थ के चरमोत्कर्ष पर ले जाते कहन का जैसे मर्म छूआते है,
‘...मां ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी मत दिखाई देना।’
मुझे लगता है, ऋतुराज की कविताएं संगीत में किसी राग की मानिंद बढ़त करती है। बहुतेरी बार पाठक को पढ़ने के आनंद के चरमोत्कर्ष पर ले जाती अपनी पूर्णता को प्राप्त करती वह अपूर्व की अनुभूति कराती है। यह महज संयोग नहीं है कि उनकी कविताओं में संगीत की भांति धीमे आलाप में स्वरों के नये नये बनाव, नई उपज, नये विस्तार के अनूठे चित्रों से हम साक्षात् होते हैं।
किषोरी अमोनकर पर लिखी उनकी एक कविता संगीत के उनके सरोकारों मे जीवन के मूलभूत प्रष्नों पर ऐसी टिप्पणी है जिसमें भाषा के अभिव्यंजनात्मक प्रयोग में समय की वेदना को जैसे गहरे से जिया गया है। कविता में ‘प्रेक्षागृह खचाखच भरा था/जनसंख्या बहुल देष मे/यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी।’ जैसी पंक्तियां में निहित व्यंग्य और फिर ‘लो वे आ ही गई/हल्की सी खांसी और/तुनकमिजाजी जुकाम है/डांट कर बोली/यह क्या हंसने का समय है?’ पर गौर करेंगे तो पाएंगे सहज बयानी का यह ऐसा मुहावरा है जिसमें कहन की अनेक तहें खुलती नजर आती है। इस कविता में संगीत की उनकी सूक्ष्म सूझ से तो पाठक साक्षात् होते ही हैं इसके बहाने विसंगतियों भरे जीवन की जैसे थाह भी उन्होंनंे सहज ली है। वह षिल्प और रचना-प्रक्रिया की मौलिकता में कविता को इसी तरह पठनीय बनाते उसमें संवेदना के अनगिनत अर्थ पिरोते हैं। 
ऋतुराज लोक संवेदना के कवि हैं। आदिवासी और जनजाजीय जीव से उनका गहरा लगाव रहा है। उन्हांेने निरंतर यात्राएं की है। गांव, खेत-खलिहान और सुदूर आदिवासी जीवन को नजदीक से उन्होंने देखा है। यह है तभी तो उनका संवेदन मन जंगल में बसे आदिवासी जीवन और वहां रहने वाले लोगो के मन की बारीक पड़ताल करता है-
‘उन्हें घर नहीं चाहिए
घर मंे अंधेरा होता है
अकेले व्यक्तियों का
वे घर की बजाय पेड़ चाहते हैं
जिस पर तरह-तरह की चिड़ियाएं बैठेगी
और उड़ जाएगी।’
उनके इस कविता कैनवस में शब्द भीतर बसे शब्द के स्वरों का नाद है। उन्हें पढ़ते हुए शब्द दृष्य में जैसे रूपान्तरित हो जाते हैं। मुझे लगता है, उनकी कविताएं एक तरह से चीजों, व्यक्तियों और जीवन को नई तरह से देखने का संस्कार प्रदान करती है। 
अरसा पहले उनकी एक कविता पढ़ी थी, ‘हसरूद्दीन’ं। जहन मे अभी भी वह जस की तस बसी है। कविता नहीं रूपक। जीवन में जो कुछ है, उसे अंवेरते तमाम अभावों को भुला देते रहने की ‘समझ’ का जैसे अनूठा आलोक इस कविता में है। आम आदमी को केन्द्र मे रखते उसके दर्द-अभावों पर बहुतेरी कविताएं लिखी जा रही है परन्तु ऋतुराज का कविता मुहावरा जुदा है। कविता के अपने पात्रों के संबोधन की लय और शब्द-गुम्फन में निहित विचार इस कदर अर्थगर्भित है कि कविता पढ़ने के बाद भी जहन में निरतर ध्वनित होती हममें सदा के लिए बस जाती है। सीधे-सरल वह शब्दों की अनूठी लय से साक्षात् कराते कविता के अपने विषिष्ट मुहावरे में ’ पाठक को बांध लेते है। ‘हसरूद्दीन’ कविता का वह विन्यास है जिसमें रोजमर्रा के जीवन का का मार्मिक वर्णन है। व्यक्तियों, चीजों और जीवन का सच वही नहीं है जो दिखता या कहने से बंया किया जाता है बल्कि वह है जो दिखने के बाद मन में घटता है...और ऋतुराज संवेदनषील और ऐसे सषक्त कवि हैं इसलिए परतों के पार भी झांकते कविता को जीवन का नाद बना देते हैं। कविता की उनकी पंक्तियां देखें, 
‘...वह अपने दर्द में भी
एक कहकहा पिरोता है
उसकी भी एक ‘समझ’ है
और उस समझ से उसका ‘समझौता’ है
...हसरूद्दीन!! तुम्हारे लिए 
घर एक झूठा रिष्ता है...’
ऋतुराज ंकविता मेें शब्दों का इसी तरह से नवोन्मेष करते अर्थ की भांत-भांत की भंंिगमाओं से साक्षात् कराते हैं। ‘हसरूद्दीन’ शीर्षक ही नहीं पूरी कविता में सवाक् चलचित्र की मानिंद ध्वनियों और शब्दों का अर्थान्वेषण है। दैनिन्दिनी जीवन के घटना प्रसंगों का यह विरल कविता छन्द है। यहां उनके बरते ‘समझ’ और ‘समझौता’ शब्दो में ही इतनी गहराई है कि पढ़ने वाला अंदर तक कविता के पूरे पाठ को आत्मसात कर लेता है। अर्थ मीमांसा में कथाओं के कविता घेरे मेें आधुनिक जीवन की विद्रुपताओं और विसंगतियों के वह उद्घाटक हैं। ऐसे जिनके कहन में जीवन की बहुत सी तहें झिलमिलाती है। ‘हसरूद्दीन’ हर उस पात्र की आम कथा है जो स्थितियों-परिस्थितियों को अपनी नियति मान बैठा है। यहां पात्र कोरी कल्पना नहीं होकर उसके खोल में समय का सामाजिक यथार्थ है। मुझे लगता है, ऋतुराज सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के इस दौर के ऐसे कवि हैं जो परोक्ष कथा रूपों में युगीन जीवन की अदृष्य-अव्यक्त की सूक्ष्म संवेदनात्मक काव्य व्यंजनां करते हैं। उनकी कविताओं मे साहित्य और संस्कृति की दार्षनिक अनुगूंजे सुनी जा सकती है।
 अनावष्यक शब्दाडम्बरों की उनकी कविताओं में दर्षन की गहराईया हैं। जीवन से जुड़े द्वन्द हैं तो रूपकों में रचित वह आत्मस्वीकृतियां भी है जो लगभग हम सभी का सच भी है। ‘लौटना’ कविता को ही लें। ंयहां जीवन दर्षन के साथ अनुभवगत सौंदर्य के अनूठे आख्यान कवि ने जैसे रचे हैं। शीर्षक शब्द ‘लौटना’ के बहाने वह कविता का विरल  भव रचते हैं। ऐसी जिसकी अनुगूंजे अर्थ की अलग-अलग छटाओं में हममें सदा के लिए बस जाती है। जरा कविता के उनके बिम्ब देखें-
‘...मनुष्य कोई परिन्दे नहीं है
न है समुद्र का ज्वार
न सूर्य न चन्द्रमा है
बुढ़ापे में बसंत तो बिल्कुल नहीं है
भले ही सुन्दर पतझर लौटता हो
पर है तो पतझर ही’
यहा पतझर के सुन्दरपन का जो आख्यान है, वह भूलाए नहीं भुलता। इसके बहाने जैसे नष्वर जीवन में भी निहित सौंदर्य की लय को गहरे से अंवेरा गया है।...और फिर यहां आगे कविता में ऋतुराज पाठक को सदा की तरह अपने विषिष्ट कविता मुहावरे में चरमोत्कर्ष पर ले जाते हैं। प्रष्नों में निहित प्रष्नों में विचार का आलोक देते वह कविता के अद्भुत वितान से रू-ब-रू कराते हैं,
‘क्या कहीं गया हुआ मनुष्य
लौटने पर वही होता है?
क्या जाने और लौटने का समय
एक जैसा होता है?
फिर भी कसी हुई बैल्ट
और जूते और पसीने से तरबतर
बनियान उतारते समय
कहता हूं-
आखिर लौट ही आया।’
मुझे लगता है, यह ऋतुराज ही हैं जिनका कविता घर अनुभूतियों के रचाव के बने-बनाए ढर्रे को तोड़ता हुआ भाव और अनुभाव की अपूर्व सुन्दरता लिए है। चाक्षुस और अर्थगर्भित बिम्बों के साथ औचक सीधे-सपाट सब कुछ कहने की उनकी कविता अदा इसीलिए मन को मथती है कि वहां कौतुक नहीं रचा जाता। इसलिए कि वहां भावनाओं और जीवन से जुड़े द्वन्दों का सम्यक और वस्तुपरक आकलन है।ं इसलिए भी कि उनकी कविताएं विविध अनुभवों और संवेगो के रंगो से हमें दीप्त करती है। 
यह ऋतुराज ही हैं जो कविताओं में आख्यानों की आधुनिकता रचते हैं। ‘राजधानी’ कविता में ‘अष्वमेध’ और ‘रसोई में महायुद्धों की चटपट’ जैसी व्यंजना में वह कुछ नहीं कहते हुए भी जैसे समय संवदना में शहराते जीवन के निर्मम सच को उघाड़कर रख देते हैं। उनकी बहुतेरी कविताओं में मिथकों के विरल षिल्प हैं। आख्यानों के संदर्भ में वह यथार्थ और वर्तमान जीवन का मार्मिक शब्द चित्र उकेरते हैं। ‘दर्षन’ कविता अपनी व्यंजकता में आधुनिकता से उपजी स्थितियों की चिंताओं का अद्भुत पाठ है तो ‘सामान’ जैसी उनकी कविताएं‘ परिवेष की व्यंजना में स्थितियों-परिस्थितियों का तटस्थ मूल्यांकन है। रोजमर्रा की जिन्दगी के अछूते बिम्बों में वह ‘फूटने दो फलियाॅं फैलने दो बीज’, ‘जो इंजीनियर है/इस विराट वास्तुषिल्प का/दलित की दृष्टि में वह कौतुक है’, ‘अदृष्य मनुष्यों के पांव छपे हैं/कंक्रिट की सड़क पर’ जैसी पंक्तियों के अर्थ संकेतोें में भाषा का वह अनूठा पाठ बंचाते हैं।

‘लहर’, ‘षरीर’, ‘कोड’, ‘दर्षन’, ‘जब हम नहीं रहेंगे, ‘रास्ता’, ‘पावों के निषान’ आदि बहुतेरी उनकी कविताएं पढ़ने के बाद भी निरंतर जहन में कौंधती रहती है। इसलिए कि इनके रूप-विन्यास में जितना शब्द का बाह्य है उतना ही आंतरिक भी उद्घाटित हुआ है। कहें, उनकी कविताओं में बरते शब्द, रंग-रेखाए और कहन का सहज पर शब्द लय रचते स्वर अतीत, परम्परा और वर्तमान को जीवंत बनाते पाठक को नए अर्थ देते हैं। शब्द वही, जो सभी बरतते हैं परन्तु उनकी संवेदनाएं और परिकल्पनाए इतनी नई और जीवंत है कि कविता पाठक को पुनर्नवा करती मन में सदा के लिए घर करती है। महत्वपूर्ण यह भी है ऋतुराज की कविताएं एकरसता से मुक्त है। उनके संपूर्ण कवि कर्म पर जाएंगे तो पाएंगे भारतीय आख्यानों, मिथकों और हमारी शास्त्रीय परम्पराओं का राग तो वहां बहुत से स्तरों पर है परन्तु वह जड़ता लिए कविता का सहारा नही है। बल्कि कहें उन्होंने परम्परा की पढ़त को अपने यात्री मन के विचार वैषिष्ट्य से संवारा है। 
मुझे ऋतुराज का कवि मन सुहाता है। इसलिए कि वह शब्दों का अनावष्यक बोझ पाठक पर नहीं लादते। इसलिए भी कि संप्रेषण का बगैर कोई आग्रह-पूर्वाग्रह वह सहज-सरल कहन के वैषिष्ट्य में कविता की लय अंवेरते हैं। उनकी कविताओं में घटनाओं के कोलाज है पर स्थूल घटनात्मकता का ध्यानाकर्षण नही है। मुझे लगता है, वह घटनाओं से उपजी मनःस्थितियों में यथार्थ के निर्मम सच की अनूठी काव्यभाषा रचते हैं। यह महज संयोग ही नहीं है कि कविता में वह राजनीति, धर्म, इतिहास, संस्कृति और परम्परा पर गहन चिंतन करते हैं पर कविता में इनका ओढ़ा हुआ बौद्धिक लबादा कहीं नजर नहीं आता। स्वतंत्र दृष्टि में वहां पाठक से संवाद है, अपनापा है। कहें वह शब्द-सजग ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं की अपनी व्याप्ति और विषिष्ट मुहावरा हैं। 

-मधुमती, अप्रैल 2019 

Saturday, April 13, 2019

साहित्य अकादेमी के सम्मान समारोह में सृजन के संदर्भ में दिया वक्तव्य

मेरे लिए आज का दिन अंतर्मन हर्ष के साथ उमंग लिये है। साहित्य अकादेमी के प्रति कृतज्ञ हूं कि मेरी कृति ‘कविता देवै दीठ’ को उसके निर्णायक मंडल ने सम्मान के योग्य समझा। मुझे लगता है, यह मेरी उस मायड़ भाषा राजस्थानी का सम्मान है जिसका अपना समृद्ध साहित्यिक इतिहास है, विरल शैली है और किसी भी अन्य भाषा से कहीं अधिक संपन्न शब्दावली है।
अनुभूत हो रहा है, अपनी लिखी कृति को जब सम्मान मिलता है तो मन में उत्साह जगता है, भविष्य में नया कुछ और बेहतरीन लिखने के लिये। मुझे गर्व है कि मातृभाषा में लेखन ने मुझे आज इस मुकाम पर पहुंचाया है। मेरे पिता स्व. श्री प्रेमस्वरूप व्यास को साहित्य का मेरा अर्जन सदा सुकून और सुख देता था। काश! वह आज जीवित होते। मैं उन्हें यह सुख सौंप पाता। ‘कविता देवै दीठ’ कृति मैंने अपनी माता, षिक्षाविद् श्रीमती शांति व्यास को समर्पित की हुई है। लिखने की प्रेरणा उनसे ही मुझे मिली। मुझे लगता है, इसी से यह सुअवसर मेरे जीवन में आया है। मेरे लिखे का मूल मेरी मायड़ भाषा है। इसके शब्दों के भीतर बसे संगीत की मिठास है। अनुभूतियों के अपने भव, संस्कृति की ओळख मैं अपनी मायड़ भाषा से ही पाता हूं। साहित्य की दूसरी विधाओं में भी निरंतर लिखता रहा हूं परन्तु कविता मुझे जीवन का अनहद नाद लगती है। जीवनानुभूतियों को अंवेरने (सहेजने) और हम-सब में मनुष्यता को बचाने की दृष्टि कविता देती है। मेरी एक कविता है-
‘काळ सुणावै/अणहद नाद,/कवि थूं गा-/मनड़ै रा गीत।/न्यारो-न्यारो/सब रो आभो/धरती सबरी अेक!/मिनख मानखो/मति गुमा थूं/कविता देवै-/दीठ!’
चित्र, संगीत, नृत्य, नाट्य, आदि कलाओं से सदा ही संपन्न होता रहा हूं। मुझे लगता है कलाओं की साक्षी कोई है तो वह कविता है। डिंगल और पिंगल की परम्परा वाली मेरी मायड़ भाषा राजस्थानी में इसलिए लिखता हूं कि वहां शब्द के भीतर बसे शब्दो का आलोक है। मुझे लगता है, विष्व की सबसे लयात्मक भाषा कोई है तो वह राजस्थानी है। इसीलिये यह काव्यमय है। 
रिल्के ने कभी कहा था, ‘कविता लिखना जीवंत होना है।’ मुझे भी लगता है अंतर्मन भावों की रूपाळी दीठ से उपजी कविताएं मुझे सदा जीवंत करती रही है। लिखने की शुरूआत कविताओं से ही हुई। बीकानेर, जहां मेरा जन्म हुआ वहां लोकनाट्य रम्मत की समृद्ध परम्परा है। होली के दिनों में चैक-मोहल्लों में कोई एक महिने तक हमारे यहां रम्मतें होती है। इनमें ऐतिहासिक, पौराणिक और सुनी-सुनायी गाथाओं पर आधारित लोक नाट्य रात-रात भर मंचित होते हैं। पात्रो का संवाद इनमें पद्य मे ही होता है। लोकभाषा की यह वाचिक परम्परा कब मेरे कविता सृजन का कारण हो गयी, पता ही नहीं चला। 
मुझे लगता है, तमाम जो मेरा लिखा है-यात्रा वृतान्त, डायरी, कहानियां या कुछ और वह कलाओं में रमे मेरे मन के अन्वेषण की परिणति है। लिखे का मेरा कोई राग है तो वह कलाओं का अनुराग है। साहित्य की सभी विधाओं में लिखता हूं पर ंलिखने का आधार कलाओं का रसिक मेरा कवि मन ही है। मै यह मानता हूं कि कविता अंतर्मन सघनता को साधने का अनूठा अनुषासन, श्रेष्ठतम माध्यम है। गहराई के साथ बहुत कम शब्दों में बगैर किसी औपचारिकता के ढे़र सारा उसमें हम कह सकते हैं। मुझे तो यह भी लगता है, कविता मे कथन की लयात्मक परम्परा कहीं से आयी है तो वह राजस्थानी भाषा से ही आयी है।
लिखना मेरे लिए जीवन की एक जरूरी क्रिया है। जब भी कईं दिनों तक कुछ नहीं लिख पाता हूं, एक अजीब सी उदासी से घिर जाता हूं। मायड़ भाषा राजस्थानी के शब्द मुझे लिखने का आलोक देते हैं। संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य आदि कलाओं और जीवन से जुड़ी सवेदनाओं, दृष्य-श्रव्य अनुभूतियों से घटे मन के भावों से ही ‘कविता देवै दीठ’ यानी ‘कविता दृष्टि देती है’ कृति सृजित हुई है।
घुम्मकड़ी का भी जुनून रहा है। मुझे लगता है, बाहरी यात्राए ही इन कविताओं की मेरी भीतर की यात्रा को प्रेरित करती रही है। ‘कविता देवै दीठ’ दरअसल मेरे अंतर का संसार है। इनमें कविताओं के जरिये मैंने अखिल संसार को एक तरह से देखा और अपने तई परखा है। प्रकृति और मौन में बसे संगीत को सुना है। भोर के उजास की सुनहरी आभा को सदा के लिए अंवेरा है तो शब्द के भीतर बसे शब्द के पास भी इनके जरिए ही मैं पहुंचा हूं। जब कभी अपने पास विसंगतियों और विदु्रपताओं के साथ भय से घिरे बादल पाए हैं, उनसे उबरने की उम्मीद की किरण इन कविताओं के रचाव ने ही प्रदान है। दृष्य-अदृष्य को शब्द लय के जरिए इनसे ही मैंने जीवनानुभूतियों को व्यंजित किया है। 
मुझे लगता है, प्रकृति स्वयमेव एक चित्राकाष है।  इसमें रच-बस कर ही शब्द, रंग और राग के नए थान  थरपे जा सकते हैं। मेरे इस सग्रह की कविताओ में तारे सवाल करते हैं, आसमान जवाब बन जाता है। समय के अनहद नाद को सुनते इन कविताओं मे मैंने जीवन और उससे जुड़े सरोकारों के साथ अपने परिवेष, अपनी मायड़ भाषा के प्रेम को शब्द चित्रों में उकेरने का प्रयास किया है। मैं यह मानता हूं, कविता लिखी नहीं जाती, स्वयमेव उपजती है। जीवनगत अनुभूतियों से जो उपजता है, वही फिर शब्दों में झरता है। इसीलिए कविता मुझे जीवन के सुख-दुख और तमाम दूसरे अनुभवों को अंवेरने की सुरों की एक तरह से सौरम लगती है।
मैं यह मानता हूं कि मूल से जुड़कर ही मौलिक लिखा जा सकता है। राजस्थानी भाषा ही मेरा मूल है। मुझे याद है वर्ष 2000 में प्रख्यात कथाकार कमलेष्वर पर मैने राजस्थानी भाषा अकादेमी की पत्रिका ‘जागती जोत’ में एक संस्मरण लिखा था। वह मैंने उन्हें पढ़ने के लिये भेजा। उन्होंने तुरंत जवाब में पत्र भेजा। लिखा ‘पढ़ता हूं तो राजस्थानी समझ मे आती है। आखिर हिन्दी को अपना रक्त संस्कार राजस्थानी, शौरसेनी और ब्रज ने ही दिया है। ...अपनी मातृभाषाओं के विसर्जन से हिन्दी प्रगाढ़ और शक्तिषाली नहीं होगी, हमें अपनी मातृभाषाओं को जीवित रखना पड़ेगा, जहां से हिन्दी की शब्द सम्पदा संपन्न होगी।’
उनके लिखे को यहां दोहराने की यही वजह है कि मेरी मातृभाषा अभी भी संवैधानिक मान्यता की बाट जो रही है। यह वह भाषा है जिसके शब्द-शब्द ओज में अखाणे है, गीत है, लोरियां हैं, वार-त्योहंार से जुड़ी परम्पराओं का संगीत है, मूमल, जसमा ओढ़ण, ढोला-मरवण, रूंख, डूंगर, तळाब अर कीड़ी-मकोड़ी जैसे जीव जंतुओ तक के लिये लिखे के न्यारे-निरवाळे रूपो की जूुनी परम्परा है। राजस्थानी भाषा नहीं भाषा मंडल है।

दूसरी भाषाओं की ही तरह राजस्थानी की भी मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, वागड़ी आदि बोलियां हैं। सभी बोलियां एक-दूसरे से इतनी भिन्न नहीं है कि आपस में समझी नहीं जा सके। यह बोलियां ही इसका श्रृंगार है। ‘बारां कोसा बोली बदळे, पांच कोस पर पाणी’ का सिद्धान्त राजस्थानी ही नहीं सभी भाषाओ पर लागू होता है। इसलिये मुझे लगता है, मायड़ भाषा राजस्थानी को आठवी अनुसूची में सम्मिलित नहीं करने का यह कुतर्क बेमानी है कि किसे राजस्थानी माना जाए। सभी जानते हैं, हिन्दी भी एक बोली के रूप में ही बतौर भाषा विकसित हुई है। 

यह याद रखे जाने की जरूरत है कि लोकभाषाओं ने ही लोकतंत्र की नींव को सदा हरा रखा है। हिन्दी का भी आलोक राजस्थानी, भोजपुरी जैसी भाषाओं से ही है। साहित्य अकादेमी का अवार्ड मिलने पर मुझे प्रसन्न्ता है परन्तु इस बात की अंतर्मन पीड़ भी है कि विषाल भू-भाग वाले राजस्थान की सामुहिक विरासत वाली मेरी मायड़ भाषा राजस्थानी को राजीतिक कारणों से अभी तक मान्यता नहीं मिल पायी है। लोकतंत्र का एक दायित्व देष की हमारी विविधताओं, भाषाओं का संरक्षण भी है। इस दृष्टि से राजस्थानी को मान्यता नही मिलना हमारी संस्कृति और समृद्ध परम्पराओं से नई पीढ़ी को सदा के लिए वंचित कर देने के मानवीय अधिकारों का उल्लंघन है। 
साहित्य अकादेमी के प्रति हम राजस्थानी कृतज्ञ हैं कि उसने हमारी भाषा को स्वीकृति दी हुई है।  आज अपने सम्मान के अवसर पर राजस्थान में रहने वाली और राजस्थानी समझने वाली लगभग 8 करोड़ की आबादी और इस भाषा को व्यवहार मे बरतने वाले राजस्थान और उससे बाहर रहने वाले 6 करोड़ से अधिक के जन-समुदाय की ओर से अपनी मायड़ भाषा को संविधान की आठवी सूची में सम्मिलित किए जाने की अरदास करता हूं। भाषा की मान्यता ही असली आजादी है। हमें इस आजादी के हक से महरूम नही किया जाना चाहिए। 
साहित्य अकादेमी का पुनः आभार कि उन्होंने ‘कविता देवै दीठ’ को सम्मान के योग्य समझा और साहित्य के मेरे सरोकारों को सामाजिक स्वीकृति प्रदान की और मुझे यहां अपनी बात रखने का अवसर दिया। जय भारत। जय राजस्थानी।
(मूल राजस्थानी से अनुदित)

Sunday, March 3, 2019

भस्मांगरागाय महेश्वराय...



स्वामी श्री रामसुखदासजी शिव के भस्मलेपन पर बड़ी रोचक कथा सुनाते थे। याद है, बचपन में बीकानेर में दादी के साथ उनकी कथा सुनने जाना होता था। अभी भी वह ज़हन में बसी है। वह सुनाते थे, एक बार शिव कहीं जा रहे थे। देखा कुछ लोग एक शव को ‘राम नाम सत है’ का नाद करते हुए श्मशान ले जा रहे थे। शिव को लगा, अरे वाह! इस शव में राम का वास है। भोले भंडारी शवयात्रा के साथ हो लिए। श्मशान पहुंचे तो देखा, लोगों ने शव दाह किया। कुछ समय वहां रूके और फिर सब अपने-अपने घर चल दिए। शिव वहीं रूक गए। पूरी तरह से जब मुर्दा जल गया तो शिव ने सोचा, इसमें ही राम बसे हुए हैं सो उन्होंने जले हुए शव की भस्म का लेपन कर लिया। बस तभी से शिव भस्म रमाने वाले हो गए। पंचाक्षर स्त्रोत है ‘नागेन्द्रहराय त्रिलोचनाय, भस्मांगरागाय महेश्वराय।’
मुझे लगता है, शिव चित्त की अस्थिरता को साधने वाले देव हैं। देवों के देव। महादेव! 
अकेले शिव ही ऐसे हैं जो नंग-धड़ंग पूजे जाते हैं। और कुछ नही तो लंगोटी की जगह चमड़े का टुकड़ा ही लपेट लिया। गहनों के नाम पर गले में सर्प धारण कर लिया। चिता की राख लपेटे भी वह हमें लुभाते हैं। आप ही सोचिए! सवारी भी कोई और नहीं सांड। कोई पास जाते हुए भी डरे। ...और भोजन भंग-धतुरा। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तो उसे कौन पीए? भोले भंडारी आगे आए। दूषण हलाहल उनके कंठ पहुंच भूषण बन गया। वह नीलकंठ हो गए। गंगा के प्रचण्ड वेग को कौन धारण करें? शिव ने अपनी जटाओं में उसे धारण किया। कलंकी चन्द्रमा किसके पास जाए? शिव ने उसे भी माथे पर स्थान दे आभूषण बना लिया।...तो दूषण सारे भूषण हो गये। है ना सौन्दर्य का उनका यह अद्भुत रूप! 
शिव रूद्रावतार हैं। संगीत कला के पर्याय। कहते है, इसी अवतार में उन्होंने कभी नारद को संगीत कला का ज्ञान दिया था। शिव नाद रूप हैं और पराशक्ति नाद रूपिणी। ‘संगीत मकरंद’ में शिव के नाट्य कला रूप का ही गान है। शिव नृत्य करते हैं तो ब्रह्मा ताल देते हैं, विष्णु ढोल, सरस्वती वीणा, सूर्य-चन्द्र बांसूरी, अप्सराएं और गंधर्व तान देते हैं, नंदी और भृंगिरिडि मृद्दल बजाते हैं और नारद गाते हैं। शिव ताण्डव में शिव एकाकी प्रतीक है, किन्तु नृत्य में सभी ईश्वरीय शक्तियों का योग है। भर्तृहरि ने जीवन के अलग-अलग पड़ावों में नीति, श्रृंगार और वैराग्य शतक रचे। एक श्लोक में वह लिखते हैं, ‘लहरे हैं। फफोले हैं। तडि़त हैं। संपत्ति है। चमकते गृह, सर्प और नदियों का प्रवाह है। लेकिन इन सबमें अटके हे मन! कामनाओं को छोड़ कर शिव शक्ति को प्राप्त कर। शिव प्राप्ति के लिये गंगा किनारे बसेरा बनाकर मोक्ष पाले।’