Friday, July 29, 2011

ध्रुपद के उस अद्भुत गान की विदाई...


उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर के गान की लयकारी और सांसों पर नियंत्रण की उनकी साधना सुनने वालों को अचरज कराती थी। उन्हें सुनना संगीत को गुनना है। यह जब लिख रहा हूं, मन गान में आरोह-अवरोह में सांसो के उतार-चढाव की उनकी अद्भुत लयकारी में ही जा रहा है। याद पड़ता है, जयपुर में धु्रपद समारोह में ही उनसे पहले पहल साक्षात् हुआ था। उन्हें सुना तो लगा उम्र को पीछे धकेलते वह सांगीतिक सौन्दर्य का अद्भुत रचाव करते हैं।

मुझे लगता है, यह उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ही थे जिन्होंने धु्रपद की विरासत को न केवल सहेजा बल्कि उसकी बढ़त भी की। बढ़त माने विस्तार। आरोह में अवरोह और अवरोह में आरोह पर जाते वह सुनने वालों को चकित करते थे। नोम् तोम् की आलापकारी में प्रत्येक शब्द का उनका उच्चारण मन को उद्वेलित करता भीतर के खालीपन को जैसे भरता था। वह गाते थे लय बद्ध और नपा तुला। स्वरावलियों का अद्भुत अलंकरण वहां होता था। मन्द्रस्वर से मध्य और तार सप्तकों की खेंच में उनका गान परवान चढ़ता। याद पड़ता है, मन को झंकृत करता कभी उनके गाये राग सोहनी में नाद षिवभक्ति का रिकॉर्ड सुना था। शब्दों में स्वरों का उजास जैसे उन्होंने वहां रचा। उनका सुना और भी बहुत कुछ याद आ रहा है...चार ताल पर गत की उनकी बंदिषे। सच! यह डागर ही थे जिनका तीनों सप्तकों पर स्वर नियंत्रण का समान अधिकार था। स्वरावली को अलंकारित करते वह गायकी की निरंतरता को गहरे से अनुभूत कराते थे। बहुतेरी बार गान में वह अवरोहात्मक को भी अनपेक्षित आरोहात्मक बना देते थे। गान का यह चरम आवेग ही उनकी गायकी की विषेषता थी। ढ़लती उम्र में भी अपनी कसी हुई, गमकयुक्त शानदार तान को वह साधे हुए थे।

बहरहाल, भरतमुनि के नाट्यषास्त्र में धुवा-गीत का वर्णन आता है। कहते हैं यही बाद में ध्रुपद से जाना जाने लगा। कहा यह भी जाता है कि मध्यकाल मंे ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने सन् 1486 से 1516 तक के अपने शासन काल में ध्रुपद गायन परम्परा को पहले पहल विकसित किया। उनके प्रयासों से धु्रपद संवरा और निखरा। अबुल फजल की ‘आईने अकबरी’ में लिखे को मानें तो राजा मानसिंह ने धु्रपद शैली का विस्तार खुद नहीं करके अपने दरबारी गायक नायक बख्शू, मझू, भानु आदि की सहायता लेकर किया। जो हो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि यह राजा मानसिंह तोमर ही थे जिन्होंने धु्रपद को बढ़ावा दिया।

अकबर के जमाने में स्वामी हरिदास के षिष्य तानसेन ने धु्रपद को परवान चढ़ाया। उनके समय में ही बानियों का विकास हुआ। बानियां अपने प्रतिष्ठाता के नाम और स्थान से जानी गयी। मसलन तानसेन गौड़ ब्राह्मण थे इसलिये उनकी शैली गौड़ी हुई। दिल्ली के निकट स्थित डागुर निवासी ब्रजचंद से डागर वाणी, खंडार निवासी राजा समोखन सिंह से खंडार वाणी और नोहर निवासी श्रीचंद राजपूत से नोहर वाणी। तानसेन रचित धु्रपद मंे आता भी है ,‘बानी चारों के भेद सुन लीजै गुनीजन तब पावै यह विद्यासार/राजा गुबरहार, फौजदार खंडार, डागुर दीवान, बकसी नौहार।’ गौड़हार यानी शांत रस, डागुर माने मधुर और करूण रस, खंडार का मतलब वीर रस और नौहार से आषय प्रबंधों में अद्भुत रस।

खैर...यह पुरानी बातें हैं। अब तो धु्रपद के नये-नये और भी घराने विकसित हो गये हैं। राजस्थान मंे डागर घराने का आरंभ से ही बोलबाला रहा है। इमाम खां के पुत्र बाबा बहराम खां इस घराने के जन्मदाता माने जाते हैं। उनकी धु्रपद परम्परा को ही उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ने न केवल संजोया बल्कि अपने तई निरंतर उसका विस्तार भी किया। वह नहीं है परन्तु ध्रुपद के उनके अद्भुत गान को क्या कभी हम भुला पाएंगे!

Friday, July 22, 2011

कला का अनूठा शब्द आस्वाद

मनीष पुष्कले मूलतः चित्रकार हैं परन्तु रचना प्रक्रिया को बयां करते वह अंतर्मन संवेदनाओं के अछूते, अनूठे लोक में ले जाते हैं। कला मर्मज्ञ मित्र पीयूष दईया ने कुछ समय पहले उनसे लम्बा संवाद किया था। उसकी परिणति ही है सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सफ़ेद स(ा)खी’। पिछले दिनों मनीष ने जब यह भेजी तो सुखद अचरज हुआ। हिन्दी में कला पुस्तकों की बंधी-बंधायी लीक को तोड़ती, गद्य की अद्भुत लय अवंेरती है यह। संवाद में भले पीयूष ने इसमें अपने शब्दों को मौन कर केवल मनीष के कहे को ही धरा है परन्तु सृजन की उनकी गहरी दीठ को मनीष की रचना प्रक्रिया को खंगालने में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।

बहरहाल, कला में संवाद की प्रचलित अवधारणाओं के जड़त्व को तोड़ती पुस्तक मनीष के चित्रों, उनकी शैली के साथ ही कैनवस को परोटते रंग, रूपाकारों के व्यक्त, अव्यक्त का सर्वथा नया अर्थ विस्तार करती है। कला की शास्त्रीय अवधारणाओं से इतर मनीष का कैनवस चिन्तन वर्तमान संदर्भो के साथ ही अंतर्मन संवेदनाओं के बहुत से अनुभवों से संपृक्त होकर नई अर्थवत्ता लिये पुस्तक में हमारे सामने आता है। कला चिन्तन की समृद्ध परम्परा के साथ ही इतिहास, मिथक, आख्यान, किस्से-कहानियांे का सम्यक उपयोग करते मनीष ने पुस्तक के जरिये कला समझ की एक प्रकार से नई दीठ भी हमें दी है। इस दीठ में चित्रोद्भव की मनीष की तमाम संभावनाओं में कैनवस के निर्विकार सफेद की निर्गुणी स्मृतियां है। ‘रंग अदृश्य को ओढ़ने की चादर’ जैसी खूबसूरत अभिव्यंजना है तो गोगां की सकल चित्र-यात्रा में संश्लिष्ट रूपधर्मिता के एहसास की उनकी अलहदा अनुभूतियां भी है। मनीष इसमें नैन्सी हॉल्ट, रिचर्ड सेरां, लैग के साथ ही अनीष कपूर, डेमियन हर्स्ट, रोथको, रूसो, रोदां, मूर आदि की कला भाषा पर जाते हैं तो प्रभाकर कोलते, राजेन्द्र धवन नसरीन मोहमदी, रजा, जे.राम पटेल, अम्बादास, रामकुमार, गणेश हलोई के कला उत्स की बारीकियों से भी अनायास साक्षात्कार कराते हैं। स्वयं अपने चित्रों के बारे में वह कहते हैं, ‘मेरे चित्र होने के चित्र नहीं, न होने के चित्र हैं।’

गायतोण्डे से मनीष गहरे से प्रभावित रहे हैं। उनके पहले और अंतिम दर्शन, स्पर्श की अनुभूति की मनीष की अभिव्यंजना ‘सफ़ेद स(ा)खी’ में मर्म को गहरे से छूती है तो प्रियम्वदा और देवव्रत की कथा के जरिये वह अपने चित्रों की अनूठी साख भरते हैं। रेखाचित्रों पर उनका कहा जरा देखें, ‘...रेखा कागज के निरंजन सफेद को आविष्ट करती है, विचलित भी। यह सफेद को संहित करती है। और उसके असीम का अपने एक नन्हें से बिन्दु-रूप से सन्धान करती है। यही रेखा की विभूति है। मुझे रेखाचित्र इसीलिए भाता है कि यह सीधे-सीधे सफेद और काले का मेल है-मानो अपने विपर्याय की सन्धि।’ जल रंगों की उनकी व्याख्या भी अलग से लुभाती है, ‘जलरंग प्रभावी व अचूक है। जो चूके तो चित्र चातुर्य धरा रह जाय...जल-रंग शुरू से आखिर तक चैतन्य को एकाग्र रहने के लिए बाध्य करता है।..’ डेविड हॉकन, अज्ञेय, अशोक वाजपेयी, बर्वे, बावा, फ्रांसिस बेकन आदि के उद्धरणों से मनीष का कहन भी अलग से ध्यान खींचता है।

सच! ‘सफ़ेद स(ा)खी’ कला का अनूठा शब्द आस्वाद है। ऐसा कला वातायन भी जिससे छनकर आता है किसी कलाकार की अनुभूतियों, संवेदनाओं और विचारों का अनपेक्षित आलोक। मनीष के विचारों को शब्दों का गजब आकाश भी पीयूष ने इसमें बहुत से स्तरों पर दिया है। ऐसा करते वह कलाकार के मनोलोक के साथ ही स्वयं अपने चिन्तन में झांकने का स्पेस भी हमें देते हैं। हिन्दी में कला पर इस तरह की पुस्तक का आना एक नयी शुरूआत है। सुखद। इसलिये कि यह कला संवाद, चिन्तन और समझ के हमारे बहुत से पूर्वाग्रहों को तोड़ती है। अज्ञेय ने कभी अपने डायरी लेखन को ‘अंतः प्रक्रियाएं’ की संज्ञा दी थी। ‘सफ़ेद स(ा)खी’ पढ़ते अज्ञेय की यह संज्ञा गहरे से मन में घर करती है।

Friday, July 15, 2011

अभिनय शास्त्र में भाव लिपियों की सर्जना


संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि तमाम भारतीय कलाओं में सृष्टि का अनुकरण है। वहां सृष्टि के संदर्भ में विषेष दृष्टि है। कलाओं का तमाम हेतु यह विषिष्ट दृष्टि ही तो आखिर है। कभी ब्रांकुषी ने कहा था, ‘भारतीय कला संयम से निकलती है। वहां धारा का आवेग और तटों का सयंम है।’ सच भी यही है। कठिन होने के बावजूद यह प्रक्रिया हमारी कलाआंे में साध्य होती है। नाट्य को ही लीजिये। विषालता का वहां कोई छोर नहीं है। नाट्य के तीनों ही उपादानों वस्तु, पात्र और रस में नव उन्मेष की अनंत संभावनाएं हैं। हम नाटक देखते हैं तो आनंद, रूप रस और विराट का अवर्णनीय अनुभव ही तो होता है। कालिदास ने इसीलिए कहा भी कि भिन्न रूचि वाले लोगों के लिये नाट्य अनूठा समराधन है। माने जरूरी नहीं है कि आपमें नाट्य कौषल हो, जरूरी नहीं है कि आपमें नाट्यानुराग है, जरूरी नहीं है कि नाटक की आपको पूरी समझ हो फिर भी नाट्य का रस आप प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये कि वहां उदात्तता है। देष, काल और अन्विति पर वहां बल जो नहीं है। यह जब लिख रहा हूं भरत मुनि की याद औचक ही जहन में कौंध रही है। नाट्य शास्त्र की बात हो और उनका स्मरण न हो यह हो भी कैसे सकता है! भरतमुनि रचित नाट्य शास्त्र एक व्यक्ति का नहीं, पीढ़ियों के संचित अनुभव, चिंतन और ज्ञान को समाहित किये हुए है। इसमंे नाट्य की उत्पति की मिथक कथा में सृष्टा स्वंय ब्रह्मा कहते हैं, ‘नाट्यवेद में कहीं धर्म है, कहीं अर्थ है, कहीं क्रिडा, कहीं शाति अथवा श्रम, कहीं हंसी, कहीं युद्ध, कहीं काम और कहीं वध का अनुकरण है।...न कोई ऐसा ज्ञान है, न षिल्प है, न विद्या है, न कोई ऐसी कला है, न योग है और न ही कोई कार्य ही है, जो इस नाट्य में न प्रदर्षित किया जाता हो।’ सोचिए! रंगकर्म से समाज को संस्कारित करने की ऐस अपेक्षा क्या कहीं और किसी कला में मिल सकती है!

मुझे लगता है, यह नाट्य शास्त्र के रचियता भरतमुनि की उदात्त दीठ ही है जिसमें नाट्यकर्म मनोरंजन मात्र नहीं होकर संस्कार की एक अनूठी कला के रूप मंे हमारे समक्ष है।

बहरहाल, भरतमुनि के नाट्यषास्त्र की आलोचनात्मक विवेचना तो बहुत से स्तरों पर हुई है परन्तु कला समीक्षक और रंगकर्म से गहरे से जुड़े मित्र गौतम चटर्जी ने नाट्यषास्त्र के देषकाल की खोज कर इधर अनुठा शोध कार्य किया है। बनारस से पिछले दिनों जब वह जयपुर आये तो निवास पर भी आये। रंगकर्म भी खुब बतियाये भी। कहने लगे, भरतमुनि का ईसा पूर्व 463 में काषी मंे जन्म हुआ और वहीं उन्होंने नाट्यषास्त्र की रचना की थी। संगीत विमर्ष की तर्ज पर गौतम चटर्जी इधर अभिनय शास्त्र की भी रचना कर रहे हैं। नाट्य शास्त्र को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कैसे इस्तेमाल किया जाये, इसे ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने इससे 36 अभिनय सूत्र निकाले हैं। संगीत में जिस प्रकार स्वरलिपियां है, उसी तरह अभिनय के लिये भी वह भाव लिपियों के सर्जन का कार्य कर रहे हैं। विज्ञान और भाव प्रवणता के साथ गायन, नृत्य को जोड़ते वह अभिनय शास्त्र का जो नया आयाम बना रहे हैं, उसमें स्वयं उनके अनुभवों का विराट भव है। वहां अभिनय की बारीकियों के साथ ही परम्परा और आधुनिकता का सांगोपांग मेल भी है। अभिनय शास्त्र के अंतर्गत भाव लिपियों के आविष्कार का उनका यह कार्य रंग विचार को नया आलोक तो देगा ही, रंगकर्म की बुनियादी उलझनों के सुलझाव का भी मार्ग प्रषस्त करेगा। मुझे लगता है, रंग परम्परा का एक अनिवार्य संदर्भ भी इससे हमे मिल सकेगा। आप क्या कहेंगे!


Friday, July 8, 2011

सिनेमा की कला दीठ


तमाम कलाओं का हेतु संवेदना है। चित्रकला, काव्य, नृत्य, नाट्य और संगीत के साथ ही सिनेमा को आपस में जोड़ने का कार्य संवेदना ही करती है। मणी कौल ने तमाम अपनी फिल्मांे मंे यही किया है। कैमरे के जरिये दृष्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का वह जो अनंत आकाष रचते रहे हैं, उनमें तमाम भारतीय कलाओं का सम्मिलन देखा जा सकता है। सिनेमा में स्थापत्य, संगीत, चित्रकला और भावों की बारीकियों में जाते उन्होंने चाक्षुष सौन्दर्य का सर्वथा नया मुहावरा हमारे समक्ष रखा है।

बहरहाल, पहले पहल बिज्जी की लोककथा आधारित कहानी ‘दुविधा’ के जरिये उनके सिनेमाई नजरिये से रू-ब-रू हुआ तो दृष्यों की गति की उनकी दीठ को लेकर बेहद खीझ भी हुई थी। संयोग देखिये! इसी फिल्म को जब दुबारा देखा तो लगा, चाक्षुष के अंतर्गत कहन की तमाम संभावनाओं को मणी कौल जिस षिद्दत से संयोजित करते हैं, वैसा पहले कभी अनुभूत ही नहीं किया। मसलन मौन दृष्य में अचानक ध्वनि उभरती है और तमाम खालीपन को भर देती है तो कहीं षिल्प, स्थापत्य में समय के अवकाष को पकड दिक्-काल के भेद को समाप्त किया जा रहा है। दूर तक भूखंड...दृष्य अनंतता। कैमरा बस मूव कर रहा है, औचक किसी पात्र की भंगिमा कहानी को आगे बढ़ा देती है। दृष्य कहन की यह बारिकी ही उनके सिनेमा संवेदना का मूल रही है।

‘दुविधा’ को ही लीजिए। दृष्य संवेदनाओं का अनंत आकाष वहां है। पात्र हैं और मौन में भी वह अपनी भूमिका निभा रहे है। कुछेक देर के लिए होंठ खुलते हैं फिर कैमरा किसी दृष्य पर केन्द्रित हो जाता है। दृष्यों, भंगिमाओं के जरिये संवेदनाओं को उभारता कैमरा कहानी को आगे बढ़ाता है...खाली दीवारें, उनकी छाया, पूते हुए रंग, पेड़ और उसकी परछाई में ही आप राजस्थान को, यहां की बनियावृत्ति को और राजा-महाराजाओं की संस्कृति को अनायास गहरे से अनुभूत कर लेते हैं। बिज्जी की ‘दुविधा’ पर अमोल पालेकर ने बाद में शाहरूख खान को लेकर ‘पहेली’ भी बनायी। ताम-झाम के बावजूद ‘पहेली’ नाटकीयता की अति में अंतर्मन संवेदनाओं को कहीं से जगाती नहीं लगती जबकि मणी कौल की ‘दुविधा’ में स्त्री की पीड़ा, उसके सौन्दर्य की भयावह परिणति और अर्थ लोलुपता की मार्मिक अभिव्यंजना मंे तिरोहित होते मूल्यों को दर्षक गहरे से अनुभूत कर लेता है। सांकेतिक दृष्य और बिम्ब का ऐसा रचाव ही मणी कौल की फिल्मों की विषेषता रही है। ठुमरी गायिका सिद्धेष्वरी देवी पर बनायी डाक्यूमेंट्री ‘सिद्धेष्वरी’ में उन्होंने श्रृव्य का गजब दृष्य रूपान्तरण किया तो  मोहन राकेष के नाटक ‘असाढ का एक दिन’ पर इसी शीर्षक से बनायी उनकी फिल्म में भी दृष्य संयोजन की प्रयोगधर्मिता का जो ताना-बाना है, उसे कभी बिसराया नहीं जा सकता।

चाक्षुष संदर्भों की भरमार में दृष्यों को संयोजित करते कौल कहन की तमाम संभावनाओं को कैमरे के जरिए इस खूबसूरती से संप्रेषित करते रहे हैं कि देखने के बाद भी आप उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाते हैं। ‘इडियट’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘ध्रुपद’, ‘नौकर की कमीज’, ‘ए मंकीज रेनकोट’ जैसी फिल्मों में उनका कैमरा गैर संवेगात्मक दृष्यों में मूव करता तमाम दूसरी कलाओं के अव्यक्त से भी साक्षात् कराता है। यह जताते कि तमाम कलाओ की आवाजाही के रूप विधान के बावजूद सिनेमा अद्वितीय विधा है।

बहरहाल, मोबाईल पर  पीयूष दईया ने जब मणी कौल के नहीं रहने की सूचना दी तो मन उनकी देखी फिल्मों में जाने के साथ ही हिन्दी सिनेमा के सामाजिक प्रभावों के अध्येता और जर्मन विद्वान डॉ. लोठार लुत्से के कहे उस कथन पर भी औचक चला गया जिसमें कभी उन्होंने हिन्दी सिनेमा को पांचवे वेद की संज्ञा दी थी। उनके कहे से गुरेज न करें तो क्या मणी कौल का जाना पंचम वेद के एक प्रमुख आधार स्तम्भ का जाना ही नहीं है!

Friday, July 1, 2011

न्यू मीडिया पर केन्द्रित ‘कैनवास’

कला के इस दौर में बहुत से स्तरों पर विचार और प्रतिक्रियाएं गहन आत्मान्वेषण से मुखरित होती कैनवस के बंधन से मुक्त है। रंग, रेखाओं के साथ डिजीटल इमेजेज और ध्वनियांे के कोलाज में दृष्यों को सर्वथा नये ढंग से रूपायित करने की कला की यह नयी दीठ न्यू मीडिया है। पिछले कोई एक दषक में कला क्षेत्र मंे न्यू मीडिया की दखल से बराबर यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या कैनवस कल इतिहास बन जाएगा? क्या तकनीक भविष्य में कला कही जायेगी? और यह भी कि क्या तकनीक में रचनात्मकता की अनंत संभावनाएं पारम्परिक हमारी कलाओं को रूढ़ बना देगी? न्यू मीडिया से संबंधित इन तमाम सवालों का जवाब सद्य प्रकाषित हिन्दी की स्वतंत्र कला पत्रिका ‘कैनवास’ में ढूंढा जा सकता है।

बहरहाल, अव्वल तो हिन्दी में कला पत्रिकाएं हैं ही नहीं और जो हैं वे परम्परागत प्रकाषन की परिधि से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाती है। ललित कला अकादमी की ‘समकालीन कला’ और स्वतंत्र रूप मंे प्रकाषित द्विभाषी ‘कलादीर्घा’ जैसी पत्रिकाओं को छोड़ दें तो हिन्दी में कला में स्तरीय ढंूढे से भी नहीं मिले। कला समीक्षक मित्र विनयकुमार के संपादन में प्रकाषित ‘कैनवास’ पत्रिका कुछ दिन पहले जब हस्तगत हुई तो एक साथ दो सुखद आष्चर्य हुए। पहला तो यही कि हिन्दी मंे भी अंग्रेजी सरीखी, बल्कि उससे कहीं बेहतर किसी पत्रिका का आगाज हुआ है और दूसरा यह कि ‘न्यू मीडिया’ से संबंधित तमाम उभर रहे द्वन्द, चुनौतियों और रचनात्मकता पर सांगोपांग विमर्ष लिए आलेख इसमें प्रकाषित किए गए हैं। मसलन प्रयाग शुक्ल ने न्यू मीडिया के अंतर्गत उभर रही कला के आकर्षण को रेखांकित करते उसकी रचनात्मक सामग्री को अपने तई व्याख्यायित किया है तो अनिरूद्ध चारी डिजीटल की प्रकृति, भ्रम और यथार्थ पर लिखते न्यू मीडिया को सामग्री और माध्यम दोनों का प्रतिनिधित्व बताते हैं। तान्या अब्राहम ने अपने आलेख में न्यू मीडिया को किसी बड़े और व्यापक सिद्धान्त और समझ को लोगों तक फैलाये जाने के लिए महत्वपूर्ण बताया है। वह जब यह लिखती है तो सहज ही यह समझा जासकमता है कि कला में तकनीक संप्रेषण का माध्यम तो हो सकती है परन्तु तकनीक को कला नहीं कहा जा सकता। डॉ. अवधेष मिश्र ने समकालीन कला के कल के अंतर्गत न्यू मीडिया की विसंगतियों को उभारा है तो समयानुकूल विषयों की रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसे अपनाने पर जोर भी दिया है।

पूर्वोत्तर भारत में न्यू मीडिया पर पत्रिका में ढ़ेर सारी सामग्री है। मेघाली गोस्वामी न्यू मीडिया की परिधि में पूर्वोत्तर भारत को समेटते वहां की उग्रवाद की समस्या की प्रतिक्रिया में कला और उसके सरोकारों पर चिंतन करती न्यू मीडिया के अस्थायित्व की समस्या को भी गहरे से उठाती है। प्रणामिता बोरगोहेन, मनोज कुलकर्णी, संध्या बोर्डवेकर, वंदना सिंह द्वारा प्रस्तुत सामग्री भी मौजूं है।

हां, न्यू मीडिया की तमाम चर्चाओं के बीच भी विनयकुमार हेब्बार के जन्मषती वर्ष पर ज्योतिष जोषी का आलेख देना नहीं भुले है और देषभर मंे आयोजित कला गतिविधियों की जानकारियां देने की पहल भी ‘कैनवास’ के जरिये की है। प्रोफाइल के अंतर्गत समीत दास, कनु पटेल, शैलेन्द्र कुमार, कमल पंड्या, प्रतीक भट्टाचार्य, सुषांत मंडल, प्रतुल दास का कहन पत्रिका का रोचक पक्ष है। हां, पत्रिका की आधी सामग्री अनुदित है। संपादक चाहकर भी हिन्दी में कला की वांछित सामग्री जुटा नहीं पाये होंगे, इसीलिए शायद ‘कैनवास’ को अगले अंक से द्विभाषी किये जाने की घोषणा की गयी है। ष्

जो भी हो, इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि स्तरीय कला पत्रिका के अभाव की ‘कैनवास’ षिद्दत से पूर्ति करती है। किसी एक विषय को लेकर उस पर गहन चिंतन, मंथन की यह पहल कला पत्रिका प्रकाषन के सुखद भविष्य का संकेत ही क्या नहीं है!