Friday, July 26, 2013

घूमर रमवा नै जावा दै...


लोक जीवन के ताने-बाने में ही गूंथी हुई है तमाम हमारी लोक कलाएं। संस्कृति के बीज बिखेरती। लोकगीत, नृत्य किसी एक जनपद का नहीं है, थोड़े बदलाव के साथ उसके सरोकार हर ओर मिलेंगे। घूमर ऐसा ही लोकनृत्य है। मूलतः राजस्थान का पर अब प्रांतीय सीमाओं से परे विष्वभर का। हाल ही एक अन्र्तराष्ट्रीय ट्रैवल पोर्टल ने दुनियाभर के जिन दस श्रेष्ठतम नृत्यों को परखा है, उसमें ‘घूमर’ को चैथा स्थान मिला है। राजस्थान की कला और संस्कृति का विष्व बिगसाव यही तो है!
बहरहाल, घूमर लोक संस्कारों से सिंचित नृत्य है। लोक से जुड़े समाज के सनातन मूल्यों को अंवेरता। घूमर माने घूमना। गोल वृत्ताकार में घूमते हुए किया जाने वाला लोक नृत्य। समूह की सर्जना। रूप विन्यास, भाव सौन्दर्य और पद कर संचालन, थिरकन की विविधता का अद्भुत नृत्य। प्रांजल मनोभावों की सुमधुर परिणति। एक ही स्थान पर घूमने की भ्रमर गति भी घूमर में है तो आगे-पीछे, दांए-बाएं नृत्य का सांगोपांग विस्तार भी है। पाष्र्व ध्वनियां की बजाय समूह पदचाप, स्वयं नृत्यांगनाओं का गान और गर्दन एवं नेत्रों का लयबद्ध संचालन। गाते हुए बोलों में नृत्यांगनाएं जैसे रम जाती हैं। गति में इसीलिए वहां भावानुरूप मंद और तेज प्रभाव स्वयमेव होता है। गीत और नृत्य में कोई भेद नहीं। नृत्य होगा तो घूमर गीत होगा और घूमर गीत होगा तो नृत्य होगा ही। कहें, अकेले घूमर या उसके गीत का कोई महत्व नहीं। 
घूमर का एक नृत्य गीत है जिसमें अविवाहित कन्या अपनी मां से कहती है मुझे फलां जगह, फला जाति मे मत ब्याहना। इसके साथ ही वह कारण भी बताती है। फिर कहती है चाहो तो वहां दे देना। इस कहन में वह लोगों और वहां के भौगोलिक परिवेष की तमाम विषेषताओं को उघाड़ती चली जाती है। गुण-दोषों के साथ। ऐसे ही ‘करियो’ में ढोला-मरवण में उस ऊंट की कहानी है जो ढोला को मरवण के पास ले गया था। घूमरें और भी हैं, उन पर जाएंगे तो न जाने कितने पन्ने भर जाएं पर कथ्य की नृत्य परिणति में जिस सौन्दर्य की सर्जना घूमर में होती है, वह किसी और में कहां! मुझे लगता है, नारी सौन्दर्य के शास्त्रगत आख्यानों का साकार है घूमर। कमर की लचक के साथ नाचने को सुजला। तीव्रतम गति का घेरदार घुमाव तो घूंघट के सौन्दर्य भावों का दर्षाव भी। नृत्य में घाघरे के दोनों कोनों को पकड़ पालनी मुद्रा जब नृत्यांगना अपनाती है तो लगता है मयूरी मगन हो नाच रही है। एक बार चारों ओर घूमने से घाघरा वृत्ताकार मे फैल जाता है। एक स्थान पर रहते हुए अंग प्रत्यंगों का तब जो संचालन नृत्य में दिखाई देता है, उसे चाह कर भी शब्द कहां बंया कर सकते है! घुमना तीव्रगति में भी और मंद गति में भी। कभी होले-होले मुंह से निकलते बोलों में पैरों की थिरकनभर। पग कर संचालन में एक ताल स्वयं पैदा होती है। माने ताल नृत्य में ही है, बाहर नहीं। अर्थगर्भित सौन्दर्य भावों की गमक। धीरे-धीरे घूमर तेज होती है और तब औचक लगता है, आंखे किसी शास्त्रीय नृत्य का आस्वाद कर रही है। सच! घूमर है ही लोक की शास्त्रीय अभिव्यंजना।  प्रकृति की गति से संगति। नृत्य नहीं साधना। नख-षिख अवयवों का मेल। 
याद पड़ता है, बचपन में स्टेडियम में विद्यालयी छात्राओं का घूमर देखने जाते थे। बीकानेर भर के तमाम विद्यालयों की छात्राओं का उसमें प्रतिनिधित्व होता। पूरा स्टेडियम घूमर के रंग से रंग जाता। तन-मन में तब अद्भुत सौन्दर्य छटा वास करती। धीरे-धीरे संस्कृति का यह चास बास भी लोप होता चला गया। घूमर अवसर-विषेष की औपचारिकता भर रह गया। हां, वीणा समूह के के.सी. मालू ने ‘घूमर’ को अपने तई फिर से जीवंत किया। लोक की सहज धुनों से बगैर किसी छेड़छाड़ करते। भले व्यावसायिक उद्देष्य से ही सही, ‘घूमर’ के सौन्दर्य को उन्होंने अपने डिटिलाईजेषन तकनीक से विष्वजनीन तो किया ही है!

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़"  में प्रति  सप्ताह  प्रकाशित होने 
वाला स्तम्भ "कला तट" (दिनांक 26 जुलाई 2013) 
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/1397426


Friday, July 19, 2013

संस्कृति, संस्कार और कलाएं


नाट्यशास्त्र यानी तौर्यत्रिक ग्रंथ। नाट्य के साथ गायन, वादन और नृत्य का मेल। भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र और विष्णुधर्मोत्तर पुराण के परिप्रेक्ष्य में कलाओ के अन्र्तसंबंधों पर बहुत से स्तरों पर निरंतर चर्चा होती रही है। आखिर मनोरंजन का बड़ा आधार हमारी यह कलाएं ही तो हैं। मनोरंजन माने मन को रंजित करना। मन का रंगना।  बड़ी बात यह है कि मनोरंजन के कला पक्ष को उससे जुड़े सांस्कृतिक संदर्भों से कैसा देखा जाए? भाषा के स्तर पर विचारें तो संस्कृत इसका बड़ा आधार हो सकती है। इसलिए कि मनोरंजन की जो विधाएं समाज में पुष्पित और पल्लवित हुई हैं, उनके पीछे कलाओं का ही मजबूत आधार रहा है। 
कहानी कहना भी तो एक कला है। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ को ही लें। ‘पंचतंत्र’ में कहानियां है पर कहन की कला का सौन्दर्य भी है। कुशल पारंगत गुरू मूढ शिष्यों को भी विवेकवान बना सकता है, यही इन कथाओं का आधार है। मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथा के जरिए नीति के महत्वपूर्ण संदेश इसमें दिए गए हैं। साहित्य के साथ मनोरंजन से जुड़ी कलाओं ने ही हमारी संस्कृति को बहुत से स्तरो ंपर समृद्ध किया है।  मसलन आज की पहेलियों को ही लें। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की प्रहेलिकाएं बतायी थी। कहते हैं उसी से बाद में खुसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ी। संगीत की बात करें ंतो धु्रवपद में ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ जैसे निर्थक शब्द भी कुछ इसी तरह से आए। कहते हैं अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुवपद की भारतीय परम्परा बहुत भायी पर इसमें संस्कृत के श्लोकों को देख वह घबराए। खुसरो अरबी विद्वान थे। उन्होंने धु्रवपद में निर्थक शब्द ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ गढ़ कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही बाद में तराने हुए। 
मुझे लगता है, संस्कृित का अभिजात दक्षिण भारत के कलात्मक रूप में ही तो परिणत हुआ है। संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि दक्षिण की समृद्ध कलाएं संस्कृत से ही शास्त्रीय हुई। आधुनिक मनोरंजन विधाओं का बहुत से स्तरों पर संस्कृतिकरण बाद में इन कलाओं ने ही किया। परन्तु बड़ी विडम्बना यह भी है कि आज के दौर में मनोरंजन का अर्थ पूरी तरह से हास्य से लिया जाने लगा है। सोचिए! हंसना ही क्या मनोरंजन है? हास्य मनोरंजन के एक पक्ष की स्थूल अभिव्यक्ति जरूर है पर यह पूरी तरह से मनोरंजन तो नहीं ही है। टीवी चैनल इधर यही कर रहे हैं। हंसाने के नाम पर दर्शकों को वहां निरंतर भोंडापन परोसा जा रहा है! माने वक्ट काटना है। कैसे भी कटे परन्तु वक्ट काटना क्या मनोरंजन है? वक्ट काटने के अर्थ में ही यदि मनोरंजन लें तो उसका परिणाम मन में उपजे क्षोभ, विषाद से अतिरिक्त कुछ न होगा। वक्ट कटे पर भौंडेपन से उपजे हास्य से नहीं, इस तरह से कि वक्ट से व्यक्ति ऊपर उठ जाए। मनोरंजन हो पर मन को रंजित करता। स्वस्थ मनोरंजन। कलाएं यही करती है। मन उनसे रंजित ही नहीं होता, सृजन के लिए निरंतर प्रेरित भी होता है। 
नाट्य, नृत्य, संगीत के ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ है। इन संदर्भों में जीवनानुभूतियां है। संस्कार हैं और है हमारी संपन्न संस्कृति का आधार। सोचिए! सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आखिर कोई समाज कैसे आगे बढ़ सकता है! कालिदास ने रंगमंच को ‘चाक्षुस यज्ञ’ की संज्ञा दी थी। जयपुर में कुछ समय पहले के.एन. पणिक्कर के निर्देशित नाटकों का महत्ती समारोह हुआ। तभी उनके निर्देशन में कालिदास रचित ‘मालविकाग्निमित्र’ का आस्वाद किया था। ‘मालविकाग्निमित्र’ में नृत्य रस का जो बखान है, उसके संदर्भों से मुक्त होकर कलाओ की हमारी समृद्ध संस्कृति की चर्चा क्या की जा सकती है! 

Friday, July 12, 2013

रेखाओं में नदी संस्कृति का इतिहास


दृष्य अभिव्यक्ति का प्रभावी रूप है रेखांकन। बहुतेरी बार रेखाएं जो आकार ग्रहण करती है उनमें भले ही सब कुछ स्पष्ट नहीं होता फिर भी वहां दृष्य की अनंतता में सौन्दर्य छवियों को अनुभूत किया जा सकता है। माने कोई एक दृष्य नहीं उससे जुड़ा तमाम परिवेष वहां उद्घाटित होता है। मुझे लगता है, थोड़े में बहुत कुछ कहने का प्रभावी कला माध्यम है रेखांकन। स्मृतियों को दृष्य में रूपान्तरित करती रेखाएं कला में अनंत की खोज ही तो है। 
बहरहाल, अमृतलाल वेगड़ नर्मदा पद यात्राओं के शब्द सर्जक ही नहीं है बल्कि  रेखाओं के अद्भुत सौन्दर्य सृष्टा भी हैं। अभी बहुत समय नहीं हुआ, भोपाल में एक आयोजन पर जब उन्होंने नर्मदात्रयी की अपनी पुस्तकें भेंट की तो उनके रेखांकनों पर भी गहन संवाद हुआ। बाद में जब रेखाओं में उकेरे उनके पदयात्रा सौन्दर्य चितराम पर गया तो लगा,  नर्मदा और उसके तट पर बसे लोगों के सार्थक और जीवंत चित्रण उन्होंने रेखाओं से किए हैं। प्रकृति, व्यक्ति और क्षणों के दृश्यों में वह रेखाओं का सांगीतिक आस्वाद कराते हैं। उनके रेखांकनों की बड़ी विषेषता यह है कि वहां जनजीवन के बाह्य रूप की अपेक्षा उससे जुड़ी संवेदना के साथ जीवन से जुड़े सत्यों का अन्वेषण है। माने अपने रेखांकनों में उन्होंने नदी और उसके तट पर बसे लोगों का सांस्कृतिक इतिहास लिखा है। रेखाओं में संस्कृति का इतिहास आसान नहीं है। वही लिख सकता है जिसे संस्कृति के सूक्ष्म पहलुओं को अंवेरना आता हो। वेगड़जी इसे बखूबी करते हैं। संस्कृति, लोक संस्कृति और जीवन से जुड़े उसके संस्कारों की वह गहरी सूझ रखते हैं। इसीलिए तो अपनी नर्मदा पद यात्राओं में प्रकृति, व्यक्ति और वस्तुओं का सत्यान्वेषण कला की अपनी दीठ से उन्होंने किया है। मसलन यात्रा की एक स्मृति में छोटी पहाड़ी के एक दृष्य में रमते वह उसे पेपरवेट की संज्ञा देते हैं। उनका दृष्य वर्णन देखें, ‘...सारा दिन उस पहाड़ी पर रहे। उसका लघु आकार उसे एक विषेष जीवन्तता प्रदान करता था। यह पहाड़ी पेपरवेट जैसी लग रही थी। आस-पास के खेत कहीं उड़ न जाए, इसलिए उन पर रखा पहाड़ी पेपरवेट!’ 
दृष्य से साक्षात् और फिर उसकी यह अभिव्यंजना कला में डूबा कोई ऋषि ही कर सकता है। वेगड़जी इस दृष्टि के कलाऋषि हैं। उनका चित्रकार मन प्रकृति में रंगों की तलाष करता एक स्थान पर लिखता है, ‘...हरे रंग का तो समुद्र है चारों ओर। हरे रंग के कितने अखाड़े हैं! खेतों का हरा अलग। धान का खेत हरे रंग का जूना अखाड़ा है। रमतीला का पीला तो मुझमें अजीब सी उत्तेजना भर देता। उनके पीले खेतों से चलता तो लगता मैं वान गाॅग के खेत में ही जा रहा हूं।’ 
प्रकृति और जीवन के शब्द कहन की उनकी यह दृष्य लय ही उनके रेखांकनों समृद्ध करती रही है। नदी के साथ उससे जुड़े तमाम परिवेष को रेखाओं में सूक्ष्म दीठ देने वाले वह अद्वितीय कलाकार हैं। इसीलिए तो नर्मदा में कपड़े धोते, नर्मदा में स्नान करते, नर्मदा के पानी से सूर्य को अर्ग देती स्त्रियों के साथ ही वहां के पक्षी, वहां की धरा का सौन्दर्य उनकी अल्प उकेरी रेखाओं में भी पूर्णता के साथ अभिव्यंजित हुआ है। पदयात्रा से सृजित एक रेखाचित्र में मंडला से अमरकंटक के किसी दृष्य का रेखांकन है। चंद रेखाओं में उकेरी गयी पहाडि़यां। बल खाती नदी।...और उसका बहाव। रेखांकन नहीं रेखाओं की यह रूप गोठ है। माने कोलाज। 
  नदी और तट पर बसे लोगों की सभ्यता ऐसे ही उनके हर रेखांकन में बसी है। व्यक्ति रेखांकनों में वह संस्कृति का अनहद नाद करते है। यह ऐसे हैं जिन्हें देखते लगता है, आदिवासी समाज और उससे जुड़े संदर्भों की अनंत यात्रा पर हम निकल पड़े हैं। कुछ चित्र है जिनमें नदी में नहाने के बाद अपनी धोती सूखोती आदिवासी स्त्री, सर पर बोझा रखे चलती स्त्रियां, ताप सेकते-बतियाते, घर के आंगन में मांडणे लिपती औरतें हैं।... कहूं, नर्मदा पद परिक्रमा के उनके रेखांकन स्वयं में एक स्वायत्त कला रूप है। 


Friday, July 5, 2013

सौन्दर्य की शिल्प सर्जना

कलाएं जीवन की उत्सवधर्मिता का नाद हैं। कहें, यह कलाएं ही हैं जो मानव मन की एकरसता को तोड़ उसमें आनन्द रस उपजाती है। आखिर हमारा यह जीवन कलाओं के उजास से ही तो स्पन्दित है।  शिल्पकला में शिल्पी  सौन्दर्य को अपने तई गढ़ता ही तो है। रूपाकारों की उसकी गढ़न यथार्थ का अंकन भर ही नहीं होती बल्कि उसमें परिवेश से जुड़ी सोच, संवेदना को भी गुना और बुना जाता है। इसीलिए तो मूर्ति में निहित विषय ही महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि उसके गढ़न तत्वों की सौन्दर्य सर्जना का आस्वाद भी मन को बहुतेरी बार स्पन्दित करता है। 
बहरहाल, रूपाकार में ही क्यों  शिल्प में निहित गढ़न तो अमूर्त में  भी स्मृतियों में अनन्त काल तक बसती ही है। यह जब लिख रहा हूं, देश के प्रख्यात कलाकार अनिलकुमार के उकेरे  शिल्प स्मृतियों को जैसे झंकृत रहे हैं। कुछ दिन पहले भोपाल में जनजातीय संग्रहालय के उद्घाटन अवसर पर उनके मूर्तिशिल्पसे साक्षात् हुआ था। लगा, यह वह मूर्ति शिल्प नहीं है जिसका पहले कभी आस्वाद किया था।  शिल्प का यह नया आकाश हैं। ऐसा जिसमें वस्तुओं से अधिक उसका अर्थ हममें बसता है। सोचता हूं, सौन्दर्य का अर्थ आस्वाद ही तो लिए है अनिलकुमार का तमाम  शिल्पकर्म। 
अनिलकुमार ने भोपाल के जनजातीय संग्रहालय की स्थापना में महत्ती योगदान दिया है। वहां प्रदर्शित  शिल्प के बहुत से स्तरों पर वह संवाहक रहे हैं परन्तु स्वयं उनका  शिल्प भी तो अद्भुत है। कहें, स्टोन-स्टील में वह मूर्ति शिल्प देखने की हमारी एकरसता को तोड़ते हैं। देश  के वह चुनिंदा ऐसे कला शिल्पी  हैं जिन्होंने अपने अद्भुत रूपाकारों के कलाकर्म में सौन्दर्य के मर्म को गहरे से छुआ है। उनका  शिल्प संसार हमें  निर्माण के अपूर्व  में ले जाता है। ऐसे संसार में जिसमें मार्बल, ग्रेनाईट, जैसलमेर सैण्ड स्टोन के साथ स्टेनलेस स्टील में देश -काल-परिवेश  अभिव्यंजित हुआ है। मूर्ति शिल्प की प्रचलित परम्पराओं से इतर रोजमर्रा के जीवन में बरती जाने वाली वस्तुओं से प्रेरणा ले उसमें वह कलात्मकता का नया इतिहास रचते हैं। धवल मार्बल का उनका एक शिल्प आंखों में बस रहा है। मार्बल की विषिष्ट गढ़न। इसमें स्टेनलेस स्टील की रोपी हुई कीलें। कहीं भी इसे रखेंगे-छाया के अद्भुत लोक से साक्षात् होगा। ऐसे ही हरे ग्रेनाईट में सर्जित कल्पनाओं के आकाश  में नारियल के टूकड़ों सरीखा पात्र। इस रूपाकृति में स्टील के आभुषण। देखते हुए मन करता है-रूप को सदा के लिए आंखों में बसा लें। जैसलमेर के सैण्ड स्टोन की एक रूपाकृति की उनकी गढ़न में प्रयुक्त स्टील की गोलियां और उनमें प्रतिबिम्बित दृष्य। अद्भुत सौन्दर्य! और ऐसे ही हरे ग्रेनाईट, सैण्ड स्टोन की मूसली सरीखी आकृति में रखा वृत्ताकार स्टील का पारदर्शीपन । अनीष कपूर के स्काई क्लाउड की भी औचक ही यहां याद आती है। ऐसे ही एक और ग्रेनाईट-स्टील शिल्प में चांद सरीखी आकृति का रचाव सौन्दर्य के अपूर्व संसार में ले जाता है। 
मुझे लगता है, आकारों के सरलीकरण में अनिल रेखाओं की लय अवेंरते  हैं। प्रदर्शित रूप से अधिक उसका आशय वहां महत्वपूर्ण है। कहें वह अर्थगर्भित शिल्प के सर्जक हैं। पत्थर और स्टील के संयोग से वह जो गढ़ते हैं उनमें गजब का छाया प्रवाह है। माने उनके शिल्प को कहीं रखेंगे तो उसका सौन्दर्य उसके पड़ रहे छाया-प्रभाव में भी औचक महसूस होगा। रेखाचित्रों की मानिंद उनमें गतिमय दिशाओं  का अंकन जो है! लहराती, एक दूसरे में विलीन होती रेखाएं। उनके शिल्प में स्थापत्य है  नाट्य भंगिमाएं हैं और है सांगीतिक लय। सोचता हूं, सभ्यता का हमारा इतिहास पाषाण  रचित शिल्प से ही तो जुड़ा है!  इस दीठ से अनिलकुमार गढ़न का सौन्दर्य इतिहास ही तो लिख रहे हैं। आयताकार, चैकोर में वह खंड-खंड सौन्दर्य की सर्जना करते हैं!