Monday, September 12, 2016

उत्सवधर्मिता का आकाश


कलाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य को पुनर्नवा करती है। और हां, वैयक्तिक मुझे लगता है, देखने और सुनने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएं ही हैं। जवाहर कला केन्द्र की कलादीर्घाओं में अक्सर जाना होता है। कुछ समय पहले चतुर्दिक कला दीर्घा में ‘कला चर्चा’ समूह के 26 कलाकारों की कलाकृतियों का आस्वाद सर्वथा नया अनुभव देने वाला था। भिन्न कला माध्यमों में कलाकारों ने जो सिरजा था, उसमें ठौड़-ठौड़ उत्सवधर्मिता को जैसे गहरे से जिया गया था। रंग-रेखाओं में कलाकारों ने प्रकृति को गुना और बुना था। और हां, कैनवस के साथ दूसरे माध्यमों  में भी जीवनानुभूतियों की व्यंजना कलाकरों ने इस प्रदर्षनी में की थी। एक खास बात यह भी नजर आई कि बहुत सी कलाकृतियों में लोक का आलोक था। माने स्थान-विषेष की लोक संस्कृति से जुड़े सरोकारों को भी कलाकारों ने अपने तई इस प्रदर्षनी में अंवेरा था। 
आमतौर पर समूह प्रदर्षनियांे में विषय विविधता के साथ रंग छटाओं की अनुभूतियां मन को रंजित करती बहुत कुछ नया देती है पर प्रायः सोचकर भी कलाकृतियों या कलाकारों पर चाहकर भी लिख नहीं पाता हूं। शायद इसलिए कि किसी कलाकार की कुछेक कलाकृतियों से उसके सृजन को समग्रता में नहीं कूंता जा सकता। पर ‘कला चर्चा’ के कलाकारों के उकेरे चित्रों को देखते बार-बार मन करता रहा कुछ लिखूं...पर चाह की राह कहां! याद आया, कभी सुप्रसिद्ध साहित्यकार विद्यानिवास मिश्रजी को अपना कविता संग्रह ‘झरने लगते हैं शब्द’ भेंट किया था। कुछ समय बाद उनका पत्र आया था जिसमें उन्होंने कुछेक कविताओं पर अपनी राय दी थी पर फिर यह भी लिखा था, ‘कविता घूंट घूंट आस्वाद का विषय है सो कर रहा हूं।’ ‘कला चर्चा’ समूह की कला प्रदर्षनी का आस्वाद करते हुए और बाद में भी कलाकृतियों पर विचारते विद्यानिवासजी के लिखे शब्द ही ज़हन में गूंजते रहे। कलाकृतियां भी घूंट घूंट आस्वाद के लिए ही होती है। ‘कला चर्चा’ के कलाकारों की कलाकृतियों में बरता रंग, परिवेष और रेखाओं की लय अभी भी मन में बसी है। बहुत सी में परिपक्वता की राह भी दिखाई दे रही थी पर महत्वपूर्ण यह भी था कि फूल-पत्तियों, आकृतिमूलकता में सृजन की राह पर आगे बढ़ते कलाकारों में सृजन में नया मुहावरा बनाने की उत्सवधर्मिता हूंस को गहरे से अनुभूत किया। माने तमाम नए कलाकारों ने जो कुछ सिरजा उसमें जीवन से जुड़े सृजन पलों के प्रति आभार झलक रहा था, रंग और रेखाएं जैसे इसकी गवाही दे रही थी।
छायांकन सौजन्य : ललित भारतीय 
बहरहाल, ‘कला चर्चा’ के अंतर्गत कलाकारों ने कैनवस पर भी बहुत कुछ सिरजा था पर कैनवस से परे भी कला का मोहक संसार वहां झिलमिला रहा था। अदिति अग्रवाल ने पक्षियों के छोड़े पंखों पर कल्पनाओं का ताना-बाना बुनते रंग रेखाओं का नया आकाष रचा था तो अजीत कुमार के छायांकन में दृष्य में निहित संवेदनाओं की घट-घट सौरम थी। ममता रोकना के चित्रो में लोक संस्कृति से जुड़ा जीवनानुराग खासतौर से दाय आया तो संजय कांति सेठ के मोबाईल छायाचित्रों में उभरी दृष्यानुभूतियां अभी भी मन मे ंबसी है। तमाम कलाकारों की कला साधना पर जाऊंगा तो न जाने कितने और पन्ने भर जाएंगे, इसलिए इतना ही कि समूह कला प्रदर्षनियो में वैविध्यता के साथ रंग-रेखाओं के राग का सर्वथा नया उजास कलाकारों ने अपने तई रचा था। मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् भी अपनी तरह की साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है, नृत्य की भंगिमाओं को जिया है-तत्काल कुछ भाव मन में आते हैं-उसके प्रति। कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करंेगे तो कुछ और सौन्दर्य भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा? ‘कला चर्चा’ की कलाकृतियों के बारे में भी कुछ ऐसा ही भव मन में निर्मित हो रहा है। एक और खास बात इस प्रदर्षनी के चित्रो ंकी साझा की जानी चाहिए कि इसमें संगीत, नृत्य और नाट्य से जुड़ी संवेदनाओं का भी ठौड़-ठौड़ वास था। शायद यही वह कारण था कि चित्रों का आस्वाद करते उत्सवधर्मिता की हमारी संस्कृति के बारे में भी मन बारम्बार जा रहा था।
प्रदर्षनी स्थल पर ही एक रोज वडोदरा के वरिष्ठ कलाकार अजीत वर्मा की सैंड कास्टिंग देखते लगा, वह मिट्टी-कंक्रीट में देखने का सर्वथा नया अनुभव-भव निर्मित करते हैं। उनकी षिल्प दीठ का आस्वाद करते मन रह-रह कर रामकिंकर बैज की कलाकृतियों को भी याद करता रहा। सैंड को दृष्य की अनंत संभावनाओं में रूपान्तरित करते अजीत वर्मा जी जैसे कला के उस आकाष में ले जाते है जहां जीवन को देखने का नजरिया औचक बदल जाता है। ऐसे ही नवल सिंह चैहान के रेखाचित्रों के आस्वाद के वह क्षण भी सुखद थे जिनमें गत्यात्मक प्रवाह की उनकी रेखाओं में परिवेष के साथ उकेरे पोट्रेट्स में चेहरे के भावों को गहरे से जिया गया था। डाॅ. वीरबाला भावसर के सैंड आर्ट डेमो के साथ ही हरिषंकर भालोटिया की कैलिग्राफी का आस्वाद भी तो अब तक कहां भूला हूं।
ऐसे दौर में जब कलाओं पर संवाद गौण प्रायः हो रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि ‘कला चर्चा’ समूह ने कलाओ में विमर्ष की राह खोली है। संयोजक द्वय डाॅ. ममता रोकना और ताराचंद शर्मा स्वयं कलाकार हैं, सो उनके आग्रह पर समूह के कलाकारों से अनौपचारिक संवाद जब हुआ तो यह जानकर सुखद लगा कि समूह के देषभर के कलाकारो ंमें नया कुछ रचने की ही नहीं बल्कि कलाओं से जुड़ी अनुभूतियों पर जानने की भी अखूट ललक है। संवाद में कलकारों से कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा षिल्प के साथ ही कलाओं के अंतःसंबंधों पर अपनी अनुभूतियों को साझा करते, कलाकारों द्वारा जिरजे कला आकाष पर जाते यह भी लगा यह कलाएं ही है तो मन को रंजित करती हमें अंदर से संपन्न करती है। ‘कला चर्चा’ कलाकृतियों में नया कुछ रचने की दीठ से ही नहीं कलाओं मंे संवादधर्मिता को भी इसी तरह भविष्य में आगे बढ़ाएगी, इस उम्मीद के साथ...स्वस्तिकामना।