Sunday, August 11, 2019

इतिहास लेखन में सभ्यताओं और संस्कृति के अध्ययन की प्रस्तावना



सभ्यताओं के अध्ययन को हमारे यहां ऐतिहासिक ज्ञान के संदर्भ में देखने का प्रयास कम ही किया गया है। यही कारण है कि सभ्यताओं के इतिहास लेखन का कार्य भी इधर नहीं के बराबर ही हुआ है। इस दृष्टि से प्रो. दयाकृष्ण की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सभ्यताएं और संस्कृतियां-भावी इतिहास लेखन की प्रस्तावना’ महत्वपूर्ण कृति है। पुस्तक में प्रचलित इतिहास लेखन के बरक्स सभ्यताओं और संस्कृतियाॅं के आलोक में मानव इतिहास को सर्वथा नवीन या कहें सांस्कृतिक दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है। 
ख्यातनाम दार्शनिक, चिंतक प्रो. दयाकृष्ण ने अपने लिखे में सभ्यता, संस्कृति और इतिहास लेखन के बने बनाए ढर्रे को लेकर बहुतेरे प्रश्न उठाए हैं और इन प्रश्नों के विमर्श में ही इतिहास लेखन की नयी या कहें अब तक छूटी हुई प्रस्तावना भी जैसे स्थापित की हैं। पुस्तक में वह शिल्प, शास्त्र, पुरूषार्थ की त्रयी में संस्कार को भी जोड़ने पर जोर देते हैं और ऐसा करते प्राकृतिक के सांस्कृतिक में रूपान्तरण की अर्थपूर्ण व्याख्या भी करते हैं। यही नहीं, दृश्यकला की वृतियों संगीत, नृत्य, साहित्य के प्रयोजन को भी सभ्यताओं के इतिहास से जोड़ते वह सभ्यताओं और संस्कृति को मानवीय विकास के संदर्भ में अन्वेषण करना भी प्रस्तावित करते हैं। 
यह महत्वपूर्ण है कि प्रो. दयाकृष्ण ने अपने चिंतन में संस्कृति को उन चीजों से जोड़े जाने पर भी जोर दिया है जिन्हें संस्कृति अपने तई निरन्तर संरक्षित करती है और आगामी पीढ़ियों में हस्तान्तरित करने का प्रयास करती है। वह लिखते हैं, ‘वैयक्तिक स्मृति अतीत में घटित का निरंतर संपादन करती है तथा अप्रासंगिक को भुला देती है उसी प्रकार संस्कृति भी अपने अतीत की स्मृतियों को संपादित करती है।’
प्रो. दयाकृष्ण का लिखा इतिहास, सभ्यताओं और संस्कृति से जुड़ी जीवनानुभूतियों की चली आ रही परम्पराओं का अर्थान्वेषण है। उनका चिंतन पश्चिम के चिंतन की अपेक्षा शुद्ध भारतीय है और इसमें सभ्यताओं के अध्ययन को समकालीन विश्व की अर्थव्यवस्था अथवा राजनीति के अध्ययन की अपेक्षा कहीं अधिक बड़े स्तर का उद्यम बताते इस पर गहराई से कार्य किए जाने पर जोर दिया गया है। यह सच है, सभ्यताएं मानवीय सर्जनात्मकता की सर्वाधिक स्थायी वृतियां हैं और इसीलिए उन्हें रूचि अथवा सरोकार के किसी एक क्षेत्र से संबंधित किसी मानवीय रचना से अलग तथा भिन्न पद्धतियों से समझे जाने की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में प्रो. दयाकृष्ण की यह कृति गहन चिन्तन लिए इतिहास लेखन की नयी प्रस्तावना भर ही नहीं है बल्कि संस्कृति और जीवन मूल्यों की सूक्ष्म अंतर्धवनियांे में दर्षन के लोक का आलोक हैं। ख्यात चिंतक नंदकिशोार आचार्य ने प्रो. दयाकृष्ण की लिखी अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी इतना प्रभावी किया है कि पढ़ते मूल स्वर कहीं विलोपित नहीं होता है।
-अमर उजाला, 11 अगस्त 2019