Friday, March 26, 2010
माध्यम का हूबहू रूपान्तरण
बहरहाल, किसी कलाकृति के लिए छायाचित्र सहयोगी बने तो इसे स्वीकारा जा सकता है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि कला का रूप एक हो जाए। ऐसा यदि होता है तो फिर कला की अपनी निजता कैसे रहेगी। दूसरी कला से आप विषय ले सकते हैं, फॉर्म का कुछ हिस्सा इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु पूरा का पूरा उसे ही आप यदि अपनाते हैं तो फिर वह कला कहां रहेगी!
पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र की सुरेख कला दीर्घा में जयगढ़, नाहरगढ़, गढ़ गणेष, जन्तर-मन्तर, आमेर दुर्ग आदि की खेतान्ची की पेंटिग देखते हुए लगा कैनवस पर छायाचित्रों को रूपान्तरित कर दिया गया है। उनके तेलचित्रों में कला की मौलिक अभिव्यंजना की बजाय छायाचित्रकारी का ही आस्वाद हर ओर हर छोर नजर आ रहा था। किलों के भीतर के गलियारों के छाया-प्रकाष प्रभाव, उग आयी घास और ऐसे ही बहुतेरे दूसरे दृष्य ऐसे हैं जिनहें अनुभूति चाह कर भी संचित नहीं कर सकती। खेतान्ची ने इन्हें अपनी पेंटिंग में संचित किया है। जाहिर सी बात है, कैमरे का इस्तेमाल उन्होंने अपनी इन पेंटिंग मे अनुकरण की हद तक किया है। सवाल यह है कि क्या इन्हंे फिर कलाकृतियां कहा जाएगा? कलाकार पर दूसरी कला का प्रभाव हो सकता है। अमृता शेरगिल, गुलाम मोहम्मद शेख, विकास भट्टाचार्य, गीव पटेल, भूपेन खक्खर, शांतनु भट्टाचार्य आदि की कलाकृतियों में फोटोग्राफी का प्रभाव जरूर दिखायी देता है परन्तु उन्हें छायाचित्रों का अनुकरण नहीं कहा जा सकता। बहुतेरी बार अचेतन भी ऐसा होता है परन्तु खेतान्ची ने तो पेंटिंग को ही छायाचित्र बना दिया है। हूबहू आप यदि दूसरे माध्यम को अपने माध्यम में रूपान्तरित करते हैं तो फिर इसमें नया क्या हुआ?
बहरहाल, ऐसे दौर में जब कैमरानुमी सक्षम यंत्र बेहद विकसित हो गया है और नंगी आंख से न देख सकने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्य को भी वह चित्र में परिवर्तित कर देता है, क्या पेंटिग का प्रयोजन भी यही होना चाहिए! पॉल देलारोष फिर से याद आ रहे है, ‘क्या चित्रकला मर गयी है?’
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" २६-३-२०१०
Friday, March 19, 2010
कलाओं का अन्तर्सम्बन्ध
बहरहाल, यह जब लिख रहा हूं, जतिनदास का एक चित्र जेहन में कौंध रहा है। नृत्य की भाव भंगिमाओं में यह चित्र ऐसा है जिसमें कला की सम्पूर्णता को अनुभूत किया जा सकता है। इसमें चित्रात्मकता तो है ही, सांगीतिक आस्वाद है, नाट्य का भ्व है, कविता का छन्द है और कला की तमाम अनुभूतियों भी यहां सघन महसूस की जा सकती है। कहा जा सकता है कि सभी कलाएं एक दूसरे से मिली हुई है। एक दूसरे के बिना उनका काम नहीं चल सकता। संवाद और सहकार के जरिए कलाओं के परस्पर संबंधों को और अधिक सघन किया जा सकता है। अब जबकि बाजारवाद ने लगभग सभी कलाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और हर कला अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लगी है, क्या यह जरूरी नहीं है कि कलाओं के अन्तर्सम्बधों पर विचार करते हम उन्हें एक दूसरे के नजदीक लाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो क्या अपनी श्रेष्ठता की होड़ में एक कला का दूसरी कला से संवादहीनता और सहकारहीनता से उनके मूल अस्तित्व से संघर्ष की चुनौती ही क्या हम पैदा नहीं कर रहे?
‘‘डेली न्यूज’’ में प्रति शुक्रवार को प्रकशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ ‘‘कला तट’’ दिनांक 19।3।2010
Tuesday, March 16, 2010
सच करो रेत के सपने
मौन में
संजोए हैं मैंने
रेत के सपने
पाल ली है मछलियां
मरूथल की मृगमरिचिका में
तुम-
सांस बन जीवन दो
मेरी मछलियों को
सच करो
रेत के सपनों को
मझदार भी किनारा बने
मेरी सोच का
खोलो, खोलो
तुम्हारे होने के सच का
अनावृत घेरा।
Friday, March 12, 2010
स्मृतियों के दृष्यालेख
सैयद हैदर रज़ा के चित्र स्मृतियों के दृष्यालेख हैं। ऐसे जिन्हें आप देखकर सुकून पा सकते हैं, पढ़ सकते हैं और हां, यदि घूंट घूंट आस्वाद लंेगे तो अर्से तक आप उन्हें भुला भी नहीं पाएंगे। वे आपकी स्मृतियों को झंकृत करते रहेंगे। रजा दअरसल चित्रों से देखने वाले का रागात्मक संबंध स्थापित कराते हैं। बेषक, चित्रों में उभरी स्मृतियां उनकी वैयक्तिक हैं, उनके अपने संदर्भ है परन्तु वे देखने वाले की अंतर्मन भाव सत्ताओं को गहरे से छूती है। ड्राइंग के अंतर्गत रेखाओं का उनका सहज लयात्मक संतुलन और कोमलता हर देखने वाले को आत्मीयता का बोध कराती है। उनके चित्रों में जिस प्रकार की सफाई, रंग स्पर्ष से झलकने वाली कोमलता नजर आती है, वह अमूर्तन में इधर न के बराबर दिखायी देती है। यह रजा की कला के गंभीर आत्मसयंम की ही परिणति है, जिसमें वे कैनवस पर अनुभूति और संवेदनाओं के अपने आत्मकथ्य की खोज बाहर की ओर नहीं करके भीतर की ओर करते हैं, देखने वालों को करवाते हैं।बहरहाल, रज़ा के चित्रों पर पहले भी लिखा है, परन्तु इस बार जब जवाहर कला केन्द्र में लगे उनके चित्रों की प्रदर्षनी देखी तो लगा वे इस उम्र भी में भी निंरतर कला की बढ़त की ओर ही उन्मुख है। रंगों का तो वे अद्भुत लोक रचते हैं। रंग उनके चित्रांे का माहौल बनाते हैं। भावों के उद्वेग में रंग एक निर्मम तटस्थता भी प्रदान करते हैं। आंतरिक तन्मयता और आग्रहषीलता से रजा अपनी ऐन्द्रिकता को कैनवस पर रूपायित करते जैसे दृष्यों को लेख बंचवाते हैं। प्रकृति और जीवन के रहस्यों को कैनवस की भाषा में परोटते उनके चित्र अभिप्राय बहुत अधिक चर्चित भले नहीं हो परन्तु बौद्धिक आडम्बर उनमें नहीं है। मसलन पंचभुत तत्व का उनका चित्र ही लें या फिर बिन्दू के उनके चित्र या फिर उनके रेखांकन-सभी में ज्यामितिक आकारों के उभरते बिम्ब और प्रतीक अदम्य ऊर्जा लिए हैं। उनके चित्रों की बड़ी विषेषता यह भी है कि वे पावन शंांति का अहसास कराते हैं। ऐसे दौर में जब रंग और रेखाएं कैनवस में कला की सघनता की बजाय बाजार की संभावनाओं की दस्तक देती हों, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि रजा के चित्र कला के सच से हमंे रू-ब-रू कराते आषय की अर्थवत्ता की तलाष कराते हैं। उनके बरते रंग मन में उत्सवधर्मिता का जैसे आगाज करते हैं। कोलकाता की आकार-प्रकार आर्ट गैलरी के जरिए प्रदर्षित उनके चित्र हाल ही बनाए हैं और वे सभी ‘लिरिकल’ हैं, हॉं, कुछ में जबरदस्त दोहराव भी है परन्तु समग्रता में उनके चित्रों के रंग और रूपाकार एक अतीन्द्रिय सत्ता के संवाहक बनते, सूक्ष्म बौद्धिक संवेदनाओं का सांगीतिक आस्वाद लगभग सभी स्तरों पर कराते हैं।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक १२-३-१०
Friday, March 5, 2010
संस्कृति के अंतर्द्वन्द की पुनर्रचना
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक ५-३-१०