Friday, May 28, 2010

कला, कलाकार और बाज़ार


हाल में हुसैन की एक कलाकृति भारतीय दामों मे करोड़ों  में बिकी है। कला बाजार में मंदी के बावजूद उनकी इस कलाकृति के इतने दामों को लेकर कलाजगत में खासी चर्चा रही। दरअसल ख्यात-विख्यात कलाकारों की कलाकृतियां लाखों-करोड़ों में बिकने का यह ऐसा दौर है जिसमें कला की बजाय कलाकार की खाति बिकने लगी है। कलादीर्घाएं इसी आधार पर कलाकृतियांे का मूल्यांकन करने लगी है कि यदि किसी बड़े कलाकार ने कलाकृति बनायी है तो वह बहुत अच्छी ही होगी...स्वाभाविक ही है उसके दाम भी बाजार में अच्छे निर्धारित होंगे। यानी कलाकार प्रमुख हो गया है, कला पीछे चली गयी है। बड़े-बड़े होटल, घराने, संस्थान भी उन्हीं कलाकृतियों को अपने यहां लगाना चाहते हैं, जो किसी विशिष्ट कलाकार ने बनायी हो, भले वह कलाकृति कैसी भी हो।

कला का यह भारतीय दृष्टिकोण कभी नहीं रहा है। हमारे यह आरंभ से ही कला महत्वपूर्ण रही है, उसे बनाने वाला नहीं। अजन्ता, एलोरा के गुफा चित्र हों या फिर विभिन्न शैलियो के अन्य लोकप्रिय चित्र, उनको बनाने वाला कौन है, कोई नहीं जानता परन्तु अनमोल कला धरोहर के रूप में इन्हें सभी जानते हैं। वैसे भी हर युग की कला में अपने समय की अनुगूंज होती है। युग के तमाम विश्वासों से, तमाम उत्सवों, संघर्षों, जीवन की तमाम आपदाओं-विपदाओं से अनेक प्रकार के संचारियों से, अनेक प्रकार के रचे मिथकों से वह जुड़ी होती है। इसी से फिर कला में नूतनता का आर्विभाव होता है परन्तु इधर जो कलाकृतियों करोड़ों, अरबों में बिकती है, उन्हें देखकर यह कहा नहीं जा सकता कि वे किस युग का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। बाजार केवल इसलिए उनका बड़ा दाम निर्धारित करता है कि उनको बनाने वाला अपने आपको चर्चित करने में माहिर हैं। आर्ट गैलरियां निंरतर खुल रही है, परन्तु वे मूलतः दुकानें हैं। कला व्यवसाय निरंतर बढ़ रहा है परन्तु अच्छी कला के बावजूद अपनी मार्केटिंग नहीं कर सकने वाले कलाकार अभी भी हासिए पर हैं। जब कभी किसी बड़े कलाकार की कलाकृति के करोड़ों में बिकने की सूचना आती हैं, वे भी आस संजोते हैं। सरकारी कला दीर्घाओं में अपने पैसे व्यय कर प्रदर्शनियों का आयोजन करते हैं, कलाकृतियों की फ्रेमिंग करवाते हैं और फिर इन्तजार करते हैं कि उनकी कलाकृति के भी लाख नहीं तो कुछ हजार तो मिल ही जाएंगे परन्तु वे बाजार की कलाकारी नहीं जानते। वहां कलाकृति मंे निहित कला बारीकियां नहीं बल्कि ब्राण्ड जो बिकता है। जितना बड़ा ब्राण्ड उतना अधिक दाम। निःसंदेह कलाकृतियां लाखों-करोड़ों मे बिकने लगी है परन्तु उनकी ही जो अपने आपको बेचना जानते हैं। आम कलाकार तो आज भी वहीं खड़ा है।...आपको नहीं लगता?
डॉ.राजेश कुमार व्यास का प्रति शुक्रवार को "डेली न्यूज़" में प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" दिनांक 28-5-2010

Friday, May 21, 2010

दृश्य यथार्थ का नया मुहावरा बनाते चित्र

अमित कल्ला ने सम-सामयिक कला में इधर अपनी सर्वथा नयी पहचान बनायी है। अभिनव अंतर्दृष्टि और तकनीक की सुस्पष्टता के साथ ही सौम्य, संवेदी और अबाध रेखाओं के उसके चित्रों में परिकल्पित रंग संयोजन भी अलग से ध्यान खींचता है। लगभग सभी चित्रांे में हरे, नीले, काले, पीले, लाल आदि सभी रंग हल्के, ऐंद्रिक और नियंत्रित हैं। शास्त्रीय परिवेश में आधुनिकता को परोटते अमित अपने चित्रों के प्रतीक और बिम्बों के जरिए जैसे खुद के सर्जक मन की आकांक्षाओं की तीव्रता का उद्गार करते है।

कुछ साल पहले जयपुर में ही अमित के घर पर बने स्टूडियों में कवि, आलोचक नंदकिशोर आचार्य एवं प्रयाग शुक्ल के साथ जाना हुआ था। उसकी कलाकृतियों में अंतर्निहित शक्ति, एंेद्रिकता और वस्तुपरकता ने पहले पहल तभी प्रभावित किया था। बाद में तो कला प्रदर्शनियों और अन्य संदर्भों में निरंतर उसकी कलाकृतियों से साक्षात्कार हेाता रहा है। हर बार उसके चित्रों की तात्विकता और निजता ने आकर्षित किया है। अमित के चित्रो में स्वर लहरियों का उभरता अमूर्तन भी बेहद आकर्षक है। आरोह-अवरोहण के ऐसे ही उसके एक चित्र में काले, पीले, नीले और लाल रंग से उभरते रंगीय थक्कों में आकाश और पृथ्वी की ऊर्जा के प्रतीक के रूप में उभरते ग्रह, नक्षत्र, तारे, चांद और भिन्न आकृतियो के फूलों में सर्वथा नया अर्थोन्मेष हैं। यहां सफेद पिरामिड में उभरते बिन्दु कैनवस की अनंत ऊर्जा के  जैसे संवाहक बने हैं। उनका यह चित्र ऐसा है जिसमें प्रकृति और जीवन का संगीत है। रंगों के प्रवाह में जीवन को गहरे अर्थों में व्याख्यायित करते ऐसे ही उसके दूसरे चित्रों में मोरपंख, प्रवाल भित्तियां, शंख, सीपी और आदिवासी कला की मांडनाकृतियां सरीखे बिम्ब और प्रतीक दृश्य यथार्थ का नया मुहावरा बनाते हैं।

अमित ने कभी एनर्जी चित्र श्रृंखला बनायी थी। इसमें आकृतियों की जकड़न है परन्तु तकनीकी की जटिलता नही है। गहरे नीले रंग की एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होती आकृतियों की ज्यामितीय संरचना में मौलिकता में अनूठी कल्पनाशीलता है। ऐसे उसके चित्रों की जटिल संरचनाओं में भी रेखाएं सौम्य, संवेदी और अबाध रूप में प्रवाहपूर्ण है। व्यक्तिगत मुझे लगता है, अमूर्तन में स्पष्टता लिए उसके चित्रों में अनूठी गीतात्मकता है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक २१-५-2010

Friday, May 14, 2010

अमूर्तोन्मुख आकृतियां का कला दस्तावेज

कला रूप और अंतर्वस्तु का सम्मिश्रण है। कोई कलाकृति जब हमें अपने रूप सौन्दर्य से आकृष्ट करती है तो सहज ही मन में अवर्णनीय उल्लास, उमंग की अनुभूति होती है।...कलादीर्घाओं में प्रदर्शित कुछ कलाकृतियां अन्तर्मन में बस जाती है परन्तु समय के अन्तराल के बाद कला और उससे संबंधित कलाकार हमसे दूर होते चले जाते हैं। इस दूरी को कम करने की दृष्टि से ही ललित कला अकादमियां द्वारा महत्वपूर्ण कलाकारों पर मोनोग्राफ प्रकाशित करने की परम्परा रही है। इधर इस प्रवृति में लगभग सभी स्तरों पर शिथिलता सी आ गयी है।

राज्य ललित कला अकादमी, उत्तरप्रदेश ने पिछले दिनों जब देश के चर्चित कलाकार, कला आलोचक अवधेश मिश्र लिखित मो. सलीम का मोनोग्राफ प्रेषित किया तो औचक ही अकामियों द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ परम्परा पर फिर से जैसे ध्यान गया।

समकालीन कला के देश के महत्वपूर्ण सैरां (दृश्य) चित्रकार मो. सलीम का मोनोग्राफ देखता हूं। नजर मोनोग्राफ मंे प्रकाशित उनके बनाए प्रकृति लैण्डस्केपों पर जाती है। रंगों का सुगठित संयोजन। रेखाओं की बारीकियां। पहाड़, पहाड़ी जीवन को आत्मसात करती अमूर्तोन्मुख आकृतियां। प्रकृति दृश्यावलियों के अंतर्गत बिम्बों में उन्होंने रंगों का अनूठा लोक रचा है। ऐसा, जिसमें खुद उनकी स्मृतियां जैसे झांक रही है। अवधेश ने उनके जिन चित्रों का चयन मोनोग्राफ में किया हैं, वे उनकी सात दशकों की कला यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव लगते हैं। नीले, हरे, लाल, पीले रंगों की अप्रत्याशित, स्तब्धकारी छटाएं सलीम के इन चित्रों में हर ओर, हर छोर है। जल रंगों में उनके लैण्डस्केप अवधेश मिश्र के शब्दों में अनुभवातीत रागात्मकता लिए पहाड़ी जीवन को वृहद, भव्य और सर्वथा नया अर्थ देते हैं।

मो. सलीम के रेखाचित्रों, उनके तैल, जल एवं एक्रेलिक रंगों की कलाकृतियों और समग्र कलाकर्म पर अवधेश मिश्र ने बेहद संजिदगी से लेखन किया है। वह सलीम के कलाकर्म की गहराईयों में गए हैं। रंगों की उनकी तानों और संयोजन की संवेदना को मोनोग्राफ में एक तरह से जीते अवधेश ने हिन्दी में जो लिखा है, उसका उसी गंभीरता से मोनोग्राफ में डॉ. लीना मिश्र ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। सरकारी प्रकाशनों की लीक से अलग बहुरंगी इस मोनोग्राफ का सधा हुआ ले आउट भी अलग से आकर्षित करता है। ऐसे दौर में जब कला अकादमियां में प्रकाशन की प्रवृतियां धीरे-धीरे समाप्त सी होती जा रही है, क्या यह सुखद नहीं है कि कोई अकादमी कलाकार के जीवन को उसके रचनाकर्म से यूं उजागर करे!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक १४-५-१०

Friday, May 7, 2010

तपःपूत जीवन का सांगीतिक आस्वाद

संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र आदि समस्त कलाओं के बारे में जब भी मन में विचार आता है, मुझे लगता है सभी एक दूसरे मिली हुई है। एक दूसरे के बिना उनका काम नहीं चल सकता। कलाओं के आपसी रिश्तों को निश्चित किसी प्रकार की व्याख्या भले ही नहीं दी जा सकती हो परन्तु संगीत, नृत्य, अभिनय और चित्रों में परस्पर अनूठा सहकार होता है। कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों पर इस प्रकार से जब भी विचार होता है, रवीन्द्रनाथ टैगोर का व्यक्तित्व जेहन में कौंधने लगता है। मुझे लगता है, कला और संगीत के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात करते रवीन्द्रनाथ ने जो किया वह कोई और नहीं कर सकता।

बहरहाल, रवीन्द्र ने कविताएं लिखी, नाटक और उपन्यास लिखे, हजारों हजार गानों की रचना की, चित्र बनाए और अपने तपःपूत जीवन के अनुभवों को निरंतर सांगीतिक आस्वाद दिया। किशोरी चटर्जी से सीखे गीतों को उन्होंने अपने मधुर कंठ से साधा और सबसे बड़ी बात यह कि कीर्तन, सारिगान, बाउल में तो उन्होंने जो किया, वह कला जगत कभी भुला नहीं पाएगा।

रवीन्द्र कहते थे, ‘मैं गान के सब्दों को सुर पर प्रतिष्ठित करना चाहता हूं।...मैं शब्द की अभिव्यंजना के लिए सुर संयोजित करना चाहता हूं।...संगीतवेत्ताओं से मेरा निवेदन है कि किस-किस सुर के किस प्रकार विन्यास से कौन-कौन से भाव प्रकट होते हैं और उनकी अभिव्यक्ति क्यों होती है-उसके विज्ञान का अनुसंधान करे।’ रवीन्द्र जब यह कहते हैं तो अनायास ही ध्यान उनके बनाए गीतों और उन चित्रों पर जाता है जिनमें सहज सांगीतिक आस्वाद है। बहुत बाद में उन्हांेने चित्र बनाने प्रारंभ किए थे परन्तु उन्होंने चित्रों की अपनी संवेदना में जीवन और प्रकृति के जो रूपाकार बनाए वे मन को उल्लसित करते प्रकृति और जीवन के रिष्तों को ही जैसें बंया करते हैं। उनके चित्रों की नारी आकृतियों में प्रकृति का अनूठा लोक है। रंगों का उत्सव है। कोमल रेखाएं और उनका गतिषील प्रवाह उनके चित्रों की बड़ी विषेषता है। मन के भीतर की उमंग, उल्लास और उमंग को प्रकृति से जोड़ते उन्होंने जो नारी आकृतिया बनायी वे देखने वाले से जैसे संवाद करती है।

अपने चित्रों के बारे में वे कहते भी थे, ‘मैं अपनी धुन के अनुसार ही चित्र बनाता हूं। बस हाथ में रंग या कागज हो और मन में उमंग, फिर क्या कहने हैं। मन तूलिका और रंगो से खेलने लगता है और इसी तरह मेरे चित्र बनते हैं।’ सच ही तो कहते हैं रवीन्द्र। पूर्व निश्चित कुछ सोच कर उन्होंने कभी चित्रों का निर्माण नहीं किया। अक्सर लकीरें गोदते हुए ही वे बहुत कुछ महत्वपूर्ण बना देते। ऐसा ही उनके संगीत के साथ था। वे संगीत सुनते, उसे गुनते और ऐसे ही बहुत सी संगीत रचनाओं का उनसे अनायास ही जन्म हो गया।...और यह भी क्या महत्वपूर्ण नहीं है कि किसी संगीतकार के नाम पर कहीं पर भी संगीत नहीे मिलता जबकि रवीन्द्र ऐसे हैं जिनके नाम पर रवीन्द्र संगीत का गान होता है। उनके भीतर के कलाकार का इससे बड़ा परिचय और क्या हो सकता है!

‘डेली न्यूज में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश  कुमार व्यास का कॉलम ‘कला तट’ दिनांक 7.5.2010

Saturday, May 1, 2010

रंग संवेदना में उभरती अर्थ छवियां




कैनवस पर रंगों का जैसे मेला लगा हुआ है। हरा, नीला, लाल, काला, पीला और इन सबसे निकले दूसरे भी बहुतेरे रंग। उत्सवधर्मिता जताते। हर ओर, हर छोर। रंगों का सांगीतिक आस्वाद।... सब कुछ तरतीब से और थोड़ा साब बेतरतीब भी।... यह बेतरतीब क्यों? दीपक शिंदे कहते हैं, ‘यह कैनवस की सहजता है। आसमान में नजर दौड़ाएं, वहां भी कहीं कोई स्पेस अलग दिखायी देगा ही।...मेरे कैनवस का सच भी यही है। यह जो बेतरीब उभरा है, उसे चाहकर भी मैं तरतीब से नहीं कर सकता।...मुझे नहीं लगता यहां, ब्रश से कुछ किया जा सकता है।’

बहरहाल, समकालीन कला परिदृश्य में दीपक शिंदे ने इधर शेर, बंदर और दूसरे बहुतेरे पशु-पक्षियों की आकृतियों और उनके व्यवहारों को कैनवस पर सर्वथा अलग अंदाज में रूपायित किया है। उनके इधर बनाए काम को देखने व्योम आर्ट गैलरी में लगे अखिल भारतीय कला शिविर में पहंुचता हूं। वह कैनवस पर मनोयोग से लगे हुए हैं। कैनवस पर हरे, नीले, सफेद और काले रंगों के मेल से जो आकृति उभरी है, वह बाघ की है, इस आकृति के साथ ही उड़ती हुई एक चिड़िया भी अनायास ध्यान खींचती है। दृष्टियों की बहुलता में पृष्ठभूमि में बिखरे रंग भी जैसे बहुत कुछ कह रहे हैं। पेड़-पौधे, जंगल की नीरवता, वहां का एकांत और प्रकृति की सुरम्यता-अमूर्तन में यहा बहुत कुछ है। उनके अमूर्तन मंे विशिष्ट अर्थ छवियां हैं। ये ऐसी हैं जिनमंे रंग अपने होने को सार्थक करते जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं। मुझे लगता है, अन्तर्मन अनुभूतियों को वे रंगों से जताते खुद भी उनमंे खो से जाते हैं। चटख होने के बावजूद उनके बरते रंगों में गजब का संतुलन है। लगता है, रंगों के साथ उभरती पशु-पक्षी आकृतियों मंे आकारों के तुमुल के बाद वह उनकी सादगी पर गए हैं।

शिंदे पहले से यह तय नहीं करते कि कैनवस पर क्या कुछ बनाया जाना है। जो कुछ घटित होता है वह कैनवस पर ही होता है। ऐसे मे ऐन्द्रिकता को रूपायित करते शिंदे उस अव्याख्यायित सौन्दर्य का भी सर्जन करते हैं जिसमें माध्यम से अधिक आशय की अर्थवत्ता होती है। गहन आशयों से उत्प्रेरित रंग मूर्त और अमूर्तन में जैसे यहां जीवन को नया अर्थ देते हैं। बौद्धिक रचनात्मकता में दीपक कैनवस पर नये नये रंग प्रभावों को आजमाते हैं, उनकी प्रभावशीलता में जाते हैं। ऐसा जब वह करते हैं तो रंग उत्सवधर्मिता के संवाहक बनते देखने वालों को सुकून प्रदान करने लगते हैं। और सबसे बड़ी बात यह भी है कि अमूर्तन में रंग संवेदना का सर्वथा नया मुहावरा गढ़ती उनकी कला में आधुनिकता है परन्तु उससे पैदा विभम्र नहीं है। मुझे लगता है, यही उनके चित्रों की वह विशेषता है जो उन्हे ओरों से जुदा करती है।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 30 अप्रैल 2010