Friday, April 23, 2010

परम्परा में आधुनिकता का ताना-बाना

सामान्य अनुभवों को समय के तात्कालिक संदर्भों में कलाकार जब रूपान्तरित करता है तो स्वाभाविक ही है कि दर्शक में एक तटस्थ एवं निस्संग अभिरूचि उत्प्रेरित होती है। ऐसे में बहुतेरी बार होता यह भी है कि कलाकृति में अभिव्यक्त वस्तुएं कला की दीठ से अद्वितीय रूप ग्रहण करती आनंदानुभूति कराने लगती है। इस आनंदानुभूति में कलाकृति तब वैचारिक स्तर पर विमर्श की नयी राहें भी खोलने लगती है।
अभी बहुत समय नहीं हुआ, गौरीशंकर सोनी की कलाकृतियों का आस्वाद करते लगा, वह चित्रो मे आधुनिक और पारम्परिकता के बीच के संघर्ष का ताना-बाना अपनी कलाकृतियों में कुछ इस गहराई से बुनता है कि चित्र देखने वाले के विचारों में भी उथल-पुथल मचा देेते हैं। हल्की रस्सी के साथ दो अलग हुई परतों की आकृतियों की खींचतान के उसके चित्रो में उभरा द्वन्द और बीच में गोले अनायास ही देखने वाले को कुछ सोचने को मजबूर करते हैं और कैनवस पर बरते उसके रंगों के पार्ष्व में उभरती आकृतियां जैस चित्रकला की भारतीय परमपरा से साक्षात् कराती है।
चित्रो में विषय को जीते गौरीषंकर की आकृतियों मे पंरतों का टूटना, रंगो का गहरे से हल्के होते जाना और पार्ष्व में नियत आकार नहीं होकर अजन्ता, एलोरा के गुफा चित्रों सरीखी उभरती आकृतियों में वह जैसे आधुनिकता और परम्परा का सांगोपांग मेल कराता है। उसके लगभग सभी चित्रों की संरचना में आकृतियां गोल घेरे से कभी बाहर निकली तो कभी उसमें लटकी तो कभी उसमें घूसने का प्रयास करती दिखायी देती है। गोल घेरा चित्रों के केन्द्र में रहता है, बहुत कुछ कहता मानों चित्र के विषय को पूरी तरह से व्यक्त करता मनुष्य के अंतर्द्धन्द को भी बंया करता है।...और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इधर जो चित्र श्रृंखला गौरीषंकर ने बनायी है उसकी पृष्ठभूमि में अंजता के पाषाण सौन्दर्य को गोल घेरे के पार्ष्व में दिया गया है। गोल घेरों से निकलती उसकी आकृतियां यांत्रिक जटिलता और मानव मन की दुरूहता को व्यक्त करती कुछ नहीं कहते हुए भी जैसे बहुत कुछ कहती है। चित्रों में बरते गए उसके रंग विषय को जताने के साथ ही उसके रचनाकार के द्वन्द को भी पूरी तरह से उभारते हैं। कैनवस पर गौरीषंकर बहुत सी परतों का अहसास कराता है। एक दूसरे से अलग होती परत में टूटन है तो जुड़ाव का प्रयास भी है। ऐसे ही रंगों के प्रयोग में खिंचाव और मिलनोत्सुकता को महसूस किया जा सकता है। उसके चित्रों में गति है, विषय का बेहतरीन निरूपण है और हां, रंगो की गहरी समझ का अहसास भी है।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकशित  डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ ‘कला तट’, दिनांक 23 अप्रैल 2010

Saturday, April 17, 2010

नाटक जारी आहे!


नाट्यकला को दृश्य काव्य कहा गया है। दरअसल इसमें यथार्थ की नकल नहीं बल्कि विशेष उद्देश्य से की गयी उसकी पुनःसृष्टि होती है। अनगिनत नाटकों की दर्शकीय दीठ में सदा ही यह महसूस किया है कि नाटक में जीवन का सतही यथार्थ ही प्रतिबिम्बित नहीं होता बल्कि उसमें गहरे नैतिक और सौंदर्यमूलक विवेक से मुनष्य के कार्यों और भावों की, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं की कलात्मक कल्पनाशील अनुकृति भी कलाकार करता है। जब तक फिल्मों का दौर प्रारंभ नहीं हुआ था, तब तक नाटक केवल रंगमंच पर ही खेले जाते थे परन्तु अब उन्हें दूरदर्शन, रेडियो, और सिनेमाघारों में भी देखा, सुना जाने लगा है।

बहरहाल, रंगकर्म के कलाकारों की कला को इसी से व्यापक दर्शक मिल गए हैं। रंगकर्म को जीते ईश्वरदत्त माथुर के बारें में जब भी विचारता हूं, मुझे लगता है अभिनय को जीवन दर्शन बनाते उसमें अपने आप को तलाशने की कोशिश उन्होंने की है। मिले तो कहने लगे, ‘नाटक ग्लेमर नहीं, चकाचौंध नहीं, बल्कि साधना है।’ वह जब यह कहते हैं तो अनायास ध्यान उनके इस कला कर्म पर जा रहा है। इब्राहिम अल्काजी, एम. वासुदेव, एच.पी.सक्सेना, रवी झांकल के साथ पारसी रंगमंच की नाट्य परम्परा से लेकर अधुनातन नाटकों को खेलते उन्होंने अभिनय को सदा ही जैसे जिया है। श्याम बेनेगल निर्मित बेहद लोकप्रिय धारावाहिक ‘यात्रा’ में इंजन ड्राइवर के रूप में उन्हें दर्शक आज भी भूले नहीं है तो ‘भारत एक खोज’ में गाए राजस्थान के इतिहास के जरिए उन्होंने जैसे राजस्थान की कला का देशभर में प्रतिनिधित्व किया। ‘पोलमपोल रो खयाल’, ‘पांचवा सवाल, ‘जसमा ओढ़न’, आजादी की नीदं’, ‘भूमिका’ जैसे बहुतेरे नाटकों के साथ ही दूरदर्शन की शुरूआत के दौर में आए ‘दायरे’, ‘भोर’ धारावाहिक और कल्याणी जैसे शिक्षाप्रद कार्यक्रमों में निभाये अपने किरदारों को जैसे उन्होंने अब अपनी पहचान में शुमार कर लिया है। कहते हैं, ‘उन दिनों की बात ही कुछ ओर थी। हम रंगकर्म को जीते थे और रंगकर्म हमें।...’

बहरहाल, उनके साथ दूरदर्शन निर्मित ‘हरित राजस्थान’ की एंकरिंग करते उन्हें निकट से जाना, समझा और तभी पहली बार लगा अभिनय करते वे कला की बारीकियों में खुद को जैसे भूल से जाते हैं। उनके भीतर का कवि, गायक और लेखक भी जैसे तब जाग पड़ता है। शायद इसीलिए कहा गया है, कलाकार जब अपनी कला प्रदर्शित करता है तो भीतर के उसके समस्त रचनात्मक बोध जीवित हो उठते हैं।...और नाटक जारी आहे!

डॉ. राजेश कुमार व्यास का ‘डेली न्यूज’ में प्रकाशित  कॉलम ‘कला तट’ दिनांक 16-4-2010

Tuesday, April 13, 2010

अपने होने से

अपने को पहचानना
अंतर से
अंतरतम तक
अपने से लड़ना है,
ठीक वैसे ही
जैसे आईने में
अपने ही अक्स को देखकर
फड़़फड़ाती है चिड़िया
फड़़फड़ाते ही फड़़फड़ाते
करती है प्रहार,
तब तक
जब तक कि
लहूलुहान
न हो जाए चोंच।
शायद
वैसा ही कुछ
होता है हमारे साथ
कि अपने को
पहचान कर भी
लड़ते हैं हम
अपने होने से।
हाँ,
अपना होना भी
एक संघर्ष है
अंतर से
अंतरतम का,
अतीत से
वर्तमान का।

Monday, April 12, 2010

पर्व के बहाने प्रकृति से जुड़ाव

पर्व के बहाने प्रकृति से जुड़ना कोई हमारी भारतीय परम्परा से सीखे। घुमने की लालसा के लिए नहीं। पर्यटन की प्रवृति के कारण नहीं। मेले के उत्सव में भाग लेने के लिए नहीं बल्कि संस्कृति की परम्परा के पुण्य स्नान के लिए कुम्भ एकत्र करता है समुदाय को एक स्थान पर। कुम्भ पर नदी तट पर एकत्र हो सभी स्नान करते हैं। भगवे वस्त्र पहनें साधु, अमीर, गरीब, स्त्री-पुरूष सभीजन एक हो जाते हैं।

प्रकृति पल प्रतिपल अपना रंग बदलती है। या यूं कहूं कि अपना परिष्कार करती है। हमारी धर्म की परम्पराओं के मूल में भी प्रकृति का यही सूक्ष्म रूप छुपा हुआ है। प्रकृति के साथ व्यक्ति अपने आपको साधे। वह परम्पराओं को ढोए नहीं, उनसे अपने आपको जोड़ता हुआ निरतर अपना परिष्करण करे। कुंभ में स्नान का महात्म्य नदी में नहाना भर नहीं है। नदी के पानी से शरीर को स्वच्छ करना भर नहीं है। शारीरिक शुचिता के साथ मानसिक शुचिता को प्राप्त करना भी हैं। मन को उदार बनाते उसकी शुद्धि करना है। पाप धुलने का अभिप्राय है, आप धुलें।

स्नान करने पर पुण्य मिलता है। धर्म यही कहता है परन्तु उसका मर्म धरित्रि की प्रार्थना से जुड़ा है। प्रार्थना सिर्फ अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी। पुण्य को संजोना है, इस जन्म के लिए नहीं अगले जन्म के लिए भी। यानी अनवरत चलना है यह क्रम। जाने-अनजाने हम जो कुछ गलतियां करते हैं, जो कुछ अनर्थ करते हैं, जो कुछ नहीं करने वाला करते हैं, उनका प्रायष्चित कराता है नदी का स्नान। लोग भोर से पहले ही आकर गंगा और दूसरी नदियों के तट पर एकत्र होने लगते हैं।

कुम्भ में स्नान की मेरी अपनी यादें हैं। हरिद्वार में अलसूबह ही गंगा तट पर परिवारजन एकत्र हो गया। दादी ने सभी को जगाया। कुम्भ स्नान के लिए शायद रात भर वह सोई भी नहीं थी।...सभी को साथ ले नदी तट पर ले आयी थी। अर्सा पहले की बात है यह। मन में उसकी धूंधली याद भर है। भीड़ का रेला लगा था परन्तु फिर भी जैसे हर व्यक्ति अकेला था। इस अकेलेपन में भाव था, अपने आपको शुद्ध करने का। मनसा, वाचा और कर्मणा से। तभी पहली बार लगा था, समूह में उंच-नीच के भाव तिरोहित हो जाते हैं। पहली बार भीड़ में होते हुए भी भीड़ से अलग अकेलेपन का भाव भी तभी लगा था। नदी पर स्नान की परम्परा में सम्मिलित होने की उस याद में पित्तरों के साथ आने वाली पीढ़ी के कल्याण का हरजस भी दादी के मुंह से निकल रहा था। नदी तट पर कमर तक डूबे अभ्यर्थना में उठे हाथ हर ओर हर छोर।

कुम्भ में आपको भीतर और बाहर से शुद्ध करने की मंषा ही दूर दराज से लोगों को एक स्थान पर खींच ले आती है। सूर्य को अर्ध्य देते हाथ। डूबकी लगाकर अपने आपको शुद्ध करने के साथ भविष्य के सद्कर्मों के लिए अपने आपको संकल्पबद्ध करते जन। किसी भी धर्म का यही सबसे बड़ा मर्म है। हम अपने आपका मूल्यांकन करें। अपना आत्मविष्लेषण करें। कुंभ इसी का प्रतीक है।

एक ही घाट पर जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव से परे वहां हर व्यक्ति इंसान होता है। सबके लिए उसके भाव सम होते हैं। जाति का वहां कोई बंधन नहीं है। गरीब और अमीर की कोई खाई नहीं है। वय का कोई बंधन नहीं है। सभी एक डूबकी भर लगाने को आतुर। हैं। मन में उठने वाले ईर्ष्या, द्वेष के भाव नदी तट आ जैसे तिरोहित हो जाते हैं। मनुष्य केवल और केवल मनुष्य रह जाता है। स्नान से पहले ही धुलने लगता है मन का मेल। डूबकी लगी नहीं कि उदादत्ता के भाव अपने आप ही जगने लगते हैं।

मुझे लगता है, सांस्कृतिक अस्मिता की अर्थ बहुल ध्वनियां यदि सुननी हो तो एक बार कुम्भ पर्व पर जरूर सम्मिलित होना चाहिए। उत्सवधर्मिता के इस पर्व में मन में उमंग और उत्साह का नया प्रवाह होता है।

नदियों में स्नान की परम्परा शायद इसलिए है कि नदी के प्रवाह से हम सीख ले। कहते हैं जल यदि बहता नहीं है, एक ही जगह रूक जाता है तो संधाड़ं मारने लगता है। ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मंत्र भी तो यही है, ’चरेवैति, चरैवेति....’ अर्थात् चलते रहो। चलते रहो। नदी की तरह। नदियां का प्रवाह जीवन का पर्याय है। शून्य से आती अनंत में समाती नदी। वे बहती हैं तो अपने साथ बहुत कुछ बहा कर ले जाती है। धूल, कंकर, मिट्टी, बड़े पेड़ों के तने और तमाम गंदगी। मुझे लगता है पुण्य सरिताओं के प्रवाह को देखें नहीं उसे सुनें और फिर गुनें। प्रवाह में कितने वेग, संवेग झेलती है नदी। उतार-चढ़ाव में पत्थरों की बाधाओं को पार करती नदियां बहती है। न थकते। कभी मंद तो कभी तेज। नदी का प्रवाह गति में आगे बढ़ता रहता है। जीवन में भी तो यही है। जीवन प्रवाह क्या नदी के समान नहीं है? कितने उतार-चढ़ाव आते हैं। आषाएं-निराषाएं उत्पन्न होती रहती है। संकट आते हैं। दुःख से उत्पन्न होती है पीड़ परन्तु हम कईं बार अपने प्रवाह को रोक देते हैं। दुःखों से घबरा जाते हैं। नदी नहीं घबराती। उसका प्रवाह कम नहीं होता। नदी की शक्ति है उसकी गति। हम गति को कम कर देते हैं। गति को समाप्त कर देते हैं। सोचिए! यदि जीवन में गति ही नहीं रहे तो क्या सब कुछ थम नहीं जाएगा। गति जीवन की सहजता है। गति का अर्थ है चलते रहना। सांस भी तो चलती है। यदि उसका चलना रूक जाए तो!

...तो बहती नदी के प्रवाह को सुनें। उसमें भीगें। कुम्भ से बड़ा और बहाना इसका और हो भी क्या सकता है! कुम्भ स्नान कर जब लौटें तो अनुभूत करें, आप जो पहले थे, अब वह नहीं रहे। कवि घाघ कहता है,

‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति वदेव रूपं रमणीयाताः’

अर्थात् क्षण-क्षण में जो वस्तु को अपूर्व सुन्दरता अथवा नवीनता प्रापत होती है, वही रमणीयता का सच्चा स्वरूप है। इसीलिए हर पल, हर क्षण सुंदर है। उसे हाथ से न जान दें। कुम्भ में स्नान का हर क्षण, हर पल रमणीयता प्रदान करता है।

कुम्भ पर विचार करते ही रैदास का किस्सा स्मरण हो आया है, प्रयाग में कुम्भ का मेला भरा था। संत रैदास भी वहां पहुंचे। षिष्यों और उनके भक्तों ने उनका स्वागत किया, आदर-सत्कार किया। प्रयाग के पंडित चिढ़ गए। तय यह हुआ कि दोनों ओर के प्रतिनिधि हाथ में शालिग्राम लेकर गंगा में बहाएंगे। जो सच्चा होगा उसके शालिग्राम तैरते रहेंगे। रैदास की शालिग्राम मूर्ति तैरने लगी। रैदास ने तभी कहा था, ‘मूरती मांहि बसे परमेष्वर तो पानी मांहि तिरै रे।’

कुम्भ यानी घड़ा। जिसमें जल भरा जाता है। कुम्भ के बारे में विचारता हूं तो बहुत से बिम्ब मन में तैरने लगते हैं। एक कुम्भ वह जो अमृत से भरा है। क्षीरसागर के मंथन से निकला। वह जिन जिन स्थानों पर छलका और भूतल पर रखा गया और जिस जिस ग्रह के कालबिन्दु पर रखा गया, उन-उन स्थानों पर उस ग्रहयोग के कालबिन्दु पर प्रति बारह वर्ष के बाद कुम्भ पर्व मनाया जाता है। एक कुम्भ वह है जिस प्रक्रिया में सांस भरकर रोकी जाती है। यह शरीर भी तो कुम्भ ही है। कबीरदासजी तभी तो कहते हैं-

यह तन कच्चा कुभ है, लियां फिरै या साथि।

ढक्का लगा फुटि गया, कछु न आया हाथि।।

अर्थात् यह जो शरीर है वह कच्चा कुभ है, मिट्टी का बना जिसे लिये तूं यूं ही फिर रहा है। धक्का लगते ही यह फूट जाएगा फिर कुछ भी हाथ नहीं लगना है। भावार्थ यह कि भौतिक चीजें यहीं रह जानी है। मिट्टी का बना यह शरीर मिट्टी में ही मिल जाना है।

...तो कुम्भ जीवन चक्र का प्रतीक है। एक फेरे से मुक्ति के बाद दूसरा चक्र प्रारंभ हो जाता है। अमृत का अर्थ है न मरा होने का भाव। शरीर के मरने को एक स्नान के रूप में देखने का भाव। इसीलिए कुम्भ में स्नान किया जाता है। स्नान के बाद व्यक्ति वह नहीं रहता जो पहले था, वह नवीन हो जाता है। कुम्भ का स्नान तन और मन दोनों की ही शुद्धि का पर्व है। आस्तिक ही नहीं नास्तिक भी निस्पृह भाव से नदियों में स्नान करते हैं। स्नान करते अपने आपको नवीन करते हैं। पुराने भाव तिरोहित हो जाते हैं। नूतनता का संचार हो जाता है।

‘नवो नवो भवति जायमानः‘

लोक के अनहद नाद का यही मूल स्त्रोत है। नयेपन में ही तो व्यक्ति की असल यात्रा प्रारंभ होती है। भीतर की यात्रा। अकेलेपन की यात्रा। खुद को खोजने की यात्रा। कुंभ स्नान के बाद जब यह यात्रा करके व्यक्ति बाहर आता है तो वह पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाता है। पंडित विद्यानिवास मिश्र कहते हैं, ‘कुम्भ पर्व एक निमंत्रण है अपने गांव-घर, अपने जाति, कुल, अपने धन-वैभव को भूलकर एकदम अंकिचन बनकर जुड़ो, एक दूसरे से और जब जीवन की पवित्र धारा से रागी-वैरागी, सब एकत्र हों, काल के उस बिन्दु को पहचानो, देष की उस बिन्दु को पहचानो जहां अमृत का कुम्भ है। वह एक समय हरिद्वार में, दूसरे समय प्रयाग में है, तीसरे समय महाकाल की नगरी उज्जयिनी में है, चौथे समय गोदावरी के उद्गमस्थल नासिक में है। कोटी-कोटी आस्थाएं जुड़ती है जीवन के इस मूर्त्त प्रवाह से पत्थरो ंके हदृय से निकली हुई रसधार से कोटि-कोटि सांसे एक महाष्वास बनती हैं, सांसो का मेला होता है तब एक पर्व बनता है। पर्व का अर्थ है वह सन्धि जो भरे हुए रस की रक्षा करती है, गन्ने की दो पारों के बीच ही तो गन्ने की मिभस है। समष्टि जीवन का माधुर्य संचय ही पर्व है।’

कुम्भ का शास्त्रीय पक्ष ज्योतिष शास्त्र से जुड़ा है। कुंभ शब्द की व्युत्पत्ति है, कुं भूमिं, कु कुत्सितं उम्भति पूरयति इति कुम्भः। अर्थात् दिन का वह भाग जब क्षितिज पर राषि चक्र का उदय होता है। अलग-अलग स्थानों पर कुंभ का अलग अलग योग होता है।

पद्मिनी नायके मेषे कुम्भं राषिगतो गुरूः।

गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भ नाम ददोत्तमम्।।

सूर्य जब वृष राषि पर हों तथा वृहस्पति कुंभ राषि पर जाएं तब हरिद्वार में कुम्भ होता है और यह स्थिति बारह वर्षों में एक बार आती है।

कं जलं उम्भति पूरयति अवर्षणादि दुर्भिक्षेम्यो दूरयति इति कुम्भः।।

यानी बारह वर्षों में घटित वह ग्रह योग जो दुर्भिक्ष तथा अवर्षण को दूर करके सबको समृद्धि प्रदान करता है, वह कुम्भ है। इसीलिए हरिद्वार से ही कुम्भ की परम्परा की शुरूआत मानी गयी है। कुम्भ लोक पर्व है। प्रकृति से जुड़ने का पर्व। कुम्भ पर एकत्र जन समुदाय भीतर से खाली होता है। हरेक वहां मनुष्यता के भाव से ही खींचा चला आता है। कुम्भ महात्माओं के मिलन का पर्व है। बल्कि यूं कहें कि जब पृथ्वी पर लोकहित के लिए एक स्थान पर महात्मा एकत्र होते हैं तो वह कुम्भ योग होता है। कुम्भ स्नान के अंतर्गत एकत्र होने वाला जन समुदाय जो भाव लेकर वहां उपस्थित होता है, वह महात्मा का भाव ही तो होता है। इसीलिए शायद कहा गया है-

कुं पृथ्वीं उम्भतेऽनुगृह्यते उत्तमोत्तम महात्म संगमैः

तदीय हितोपदेषै यस्मिन् स कुम्भः।।

अर्थात् जब पृथ्वी पर अनेक महात्मा एकत्रित होकर लोकहितकारी उपदेषों का प्रवचन करें, वह कुम्भ योग है। लोक के बिना जीवन-सत्व का उद्घाटन कैसे हो! लोक में ही उत्सवधर्मिता और जीवन धर्म का उद्भव होता है। लोक तत्व का जब स्पन्दन होता है तो संस्कृति और दूसरी कलाएं मुखरित होते देखी जा सकती है। महाभारत के उद्योग पर्व में भी तो वेद व्यास कहते हैं

‘प्रत्यक्षदर्षी लोकानाम् सर्वदर्षी भवेष्वरः’

अर्थात् जो लोकदर्षन में शामिल होकर खुद उसे अपने अन्तरमन से देखता है, वही मनुष्य सच्चे रूप में लोक को समझ सकता है। भारतीय संस्कृति विष्ववरणीय इसीलिए है कि उसमें लोक जीवन का साधकीय रूप है। लोक उत्सवधर्मिता की अपनी परम्परा के अंतर्गत निरंतर अपने आपको साधता है। निरंतर साधने के लिए तन और मन दोनों की ही शुद्धि जरूरी है।

...और कुम्भ की पौराणिक कथाएं! सहज ही मन में कथाओं की गूंज होती है। सागर मंथन से निकले अमृत कुम्भ की कथा जेहन में सबसे पहले कौंधती है। अमृत की खोज में देवता और असुर दोनों ही साथ मिलकर जुट गए हैं। अमृत कलष जैसे ही हाथ में आया, दोनांे में ही उसे पाने का युद्ध छिड़ गया। लड़ाई चलती रही। चलती ही रही। कहते हैं, जिन स्थानों पर यह लड़ाई चली वहां कालान्तर में पर्व मनाया जाने लगा। इन स्थानों पर स्नान को मोक्षकारक माना जाने लगा।

एक और भी कथा है ‘मत्स्य पुराण’ की। अमृत कलष लेकर गरूण उड़ रहे हैं। उड़ान के दौरान अमृत कलष की बूंदे जहां जहां छलकी और जहां बूदें गिरीं, वहां कुम्भ पर्व विश्रुत हुआ।

आख्यान और भी है।...गरूण नागमाता कद्रू से अपनी माता को दासत्व से मुक्ति दिलाने के लिए ‘अमृत कलष’ हठात् छीनकर ले आए हैं। नागलोक में वासुति द्वारा रक्षित अमृत कलष के यूं गरूण के छीनकर ले जाने पर नागांे को बहुत क्रोध आता है। नाग उनका पीछा करता हैं। ‘अमृत कलष’ प्राप्ति के लिए नाग गरूण पर चार बार प्रहार करते हैं। चारों बार ‘अमृत कलष’ पृथ्वी पर रखकर गरूण को युद्ध करना पड़ा। कहते हैं, पृथ्वी पर जहा, जहां अमृत कलष रखा गया, वे ही स्थान ‘कुम्भ स्थली’ से जाने गए।

विष्णुद्वारे तीर्थराजेऽअवन्त्यां गोदावरी तटे।

सुधाविन्दु विनिक्षेपात् कुम्भ पर्वेति विश्रुतः।।

हरिद्वार का कुम्भ प्रथम कुम्भ है। प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में क्रमषः कुम्भ घटित होता है। कुम्भ अभावों को दूर करता है। जीवन में नवीनता का संचार करता है। यह जब घटित होता है तो मंगल होता है। पृथ्वी में समृद्धि व्याप्त होती है। हर ओर, हर छोर अनिष्टकारी प्रवृतियों का शमन होता है। मंगल कामनाओं के स्वर धरित्रि पर गूंज उठते हैं। अपने लिए नहीं बल्कि पूरे संसार के लिए मंगलकामना के स्वर-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कष्चित् दुःख भाग्भवेत्।।

Sunday, April 11, 2010

सब्दों की नीरवता के बीच...

नन्द किशोर आचार्य के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह "उड़ना संभव करता आकाश" उनके सर्वथा नये कवि रूप से साक्षात्कार कराता है। इस रूप में कि इस संग्रह की उनकी लगभग सभी कविताएं समय, समाज और परिवेष के अंतर्गत शब्दों की नीरवता के बीच के स्पेस को सर्वथा नये अर्थों में व्याख्यायित करती है। वे संग्रह में जिज्ञासाओं को खड़ा करते हैं, उनसे संवाद करते हैं और चुपके से शब्दों के बीच की नीरवता में उनका समाधान भी कर देते हैं। ऐसा करते हुए भाषा की उनकी लाक्षणिकता और कलात्मक अनुशासन पर औचक ही ध्यान जाता है, ‘नहीं होती है शब्दों में-/बीच की नीरवता में/होती है कविता/नीरवता!यह क्या है/षब्द ने सोचा/जानना चाहिए इस को/चुपके से उतर गया/उसमें...’
"उड़ना संभव करता आकाश" की बड़ी विषेषता यह भी है कि इस संग्रह की कविताओं में आचार्य ने व्यक्ति की आस्थाओं, मन में उपजे संदेहों और एंकात की संपूर्णता को भी सर्वथा नये अर्थ दिए हैं। इस नये अर्थ में जो ध्वनित होता है, उसे जरा देखें, ‘‘मेरा एकान्त/हो आया/दुनिया तुम्हारी जैसे/कभी एकान्त को अपने/मेरी दुनिया में/ढ़लने दो..’ और ‘‘निंदियायी झील के जल में/सोते हुए अपने को/देखता रहूं/तुम्हारे सपनों के जल में/कभी पत्ता कोई झर जाय/नीरव...।’
नंदकिशोर आचार्य के पास भाषा की अद्भुत कारीगरी है परन्तु यह ऐसी है जिसमें षिल्प या शैली के चमत्कार का आग्रह नहीं है। बात कहने का उनका अपना मौलिक अंदाज है, इस अंदाज में शब्दों के अपव्यय से उन्हें परहेज है। शायद यही कारण है कि कविता के उनके शब्द अगले शब्दार्थ को खुद ही खोलते नजर आते हैं। देखें, जरा छोटी सी बानगी ‘केवल अपने रंग में रहना/कम बेरंग होना है/यह उस हरे से पूछो/जिसका खो गया है लाल/या लाल से जानों/जिसका हरा गया है हरा।’
"उड़ना संभव करता आकाश" की कविताओं में आचार्य ने अपने एकांतिक क्षणों को कविता में गहरे जीते जीवनानुभवों और अन्तर्मन संवेदनाओं के आकाष से भी पाठकों का बेहद खूबसूरती से साक्षात्कार कराया है। यहां उनकी बहुत सी आत्मपरक कविताएं भी है जो उनका निजीवृत बनाती, पाठकों की संवेदनाओं को भी गहरे से दस्तक देती है। अपनी पूर्ववर्ती कविताओं की भांति ईष्वर के सबंध में उपजे भावों को उन्होंने यहां नये अर्थों में व्याख्यायित किया है। वे ईष्वर के होने और न होने के बीच के स्पेस को भरते विमर्ष की जैसे नयी राहें खोलते हैं, ‘‘जीवन से पहले है/ईष्वर/जीवन के बाद/मृत्यु है/दोनों ही निर्थक होते जो/दोनों के बीच/या जीवन/लेता हुआ सांसे/तुम्हारे वायुमंडल में।’
बिम्ब और प्रतीकों से उभरते अर्थों में दरअसल आचार्य कविता का नया रूपक बनाते हैं। मुझे लगता है, काव्य भाषा के साथ काव्यवस्तु में जो कुछ अव्यक्त और सामान्यतया अननुमार्गणीय है, उसे अभिव्यक्त और अभिव्यंजित करती संग्रह की उनकी कविताएं दरअसल कविता की कलात्मक खोज भी है। इस खोज में परम्पराबोध तो है परन्तु जड़त्व को तोड़ने का प्रयास भी हर ओर, हर छोर है। मसलन ‘लय रच जाना उस का’ कविता को ही लें, ‘हर उड़ना/सम्भव करता आकाष/लय होता हुई उस मेंः/उड़ने का आनंद है/पाखी/लय रच जाना उस का/मुक्ति मेरी हो जाना है।’
"उड़ना संभव करता आकाश" संग्रह पढ़ते बार-बार यह अहसास भी होता है कि यहां वे अपनी पूर्व कविताओं को ही नहीं बल्कि अपने समकाल को भी जैसे नये सिरे से पुनर्संस्कारित करते हैं।
"राजस्थान पत्रिका" के रविवारीय, दिनांक 4 अप्रैल 2010 को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास की समीक्षा

Friday, April 2, 2010

कला में अर्थ अभिव्यंजना


किसी भी कला के लिए रूपाकार को स्वतंत्र और जगत का सत्व मान लेना ही पर्याप्त नहीं है। छायाचित्रकारी की ही बात करें। यथार्थ में अन्तर्निहित जो है, उसकी जो संवेदना है, उसके भीतर के सच का जो अर्थ है, उसे यदि कैमरा व्याख्यायित करता है, तो वह उसकी कला परिणति हो जाती है। ऐसा करते छायाचित्रकार स्थूल तत्वों, जो कुछ घटित हो रहा है, तेज-मंद हो रहे प्रकाश, विविध रंगों, नादों और आकार और अर्थ के संयोग को ही तो निरूपित कर रहा होता है।

मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान की क्रिएटिव आर्ट सोसायटी के फोटोग्राफी क्लब के अंतर्गत निर्णायक के रूप में जब सम्मिलित हुआ तो अभियांत्रिकी विद्यार्थियों की देशभर से आयी छायाचित्र प्रविष्टियों को देखकर मन में यही सब कौंध रहा था। यह तय करना बेहद मुश्किल हो रहा था कि कौनसी प्रविष्टियों का चयन किया जाए। विद्यार्थियों ने दिखाई देने वाले दृश्यों से अप्रासंगिक वस्तुओं और विषयों को बाहर निकालकर अर्थपूर्ण ही नहीं बनाया था बल्कि अपने तई सौन्दर्य की भी जैसे नई सृष्टि की थी। डाल पर लटकी चींटी, नृत्यांगना का नुपूर पहना पांव, सूरज की ढ़लती किरणों में उछलता युवामन, पानी के भीतर तैर रहे तिनकों की सर्वथा नयी अर्थ अभिव्यंजना और ऐसे ही बहुतेरे दूसरे छायाचित्रों में आकृति की तीक्ष्णता, कुछ के तीव्र और तटस्थ भाव औचक अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।

अभियांत्रिकी शिक्षण संस्थानों में फोटोग्राफी क्लब तो बने हैं परन्तु वहां आयोजन की उदासीनता विद्यार्थियों में अर्न्तनिहित कला को पंख नहीं लगने देती। छायाकार मित्र महेश स्वामी अभियांत्रिकी विद्यार्थियों में उनकी कला के लिए जो जोश भर रहे हैं, उससे छायाचित्रकला की भविष्य की उम्मीदें जगती है। बच्चा बन वे जिस तरह से हमारे साथ अपनी नहीं विद्यार्थियों की छायाचित्रकला की बारीकियों का बखान कर रहे थे, वह भी सर्वथा नयी अनुभूति थी।

बहरहाल, अभियांत्रिकी छात्रों की फोटोग्राफी देखते यह अहसास भी हो रहा था कि छायाचित्रकार भी किसी दार्शनिक से कम नहीं होता। कैमरे का वह यांत्रिक उपयोग ही नहीं करता बल्कि ऐसा करते वह उसमें अपनी रचना, सृजन और चिंतन को भी जोड़ता है। अच्छा जो दिख रहा है, उसे कैमरे में कैद कर लेना ही कला नहीं है। सूक्ष्म और ऐन्द्रजालिक चित्ताकर्षण को मन के भीतर की संवेदना से जोड़ते जब अपने तई व्याख्यायित किया जाता है तो उसे नयी कला की अर्थ अभिव्यंजना मिलती है। छायाचित्रकारी ही क्यों, सभी कलाओं का सच भी क्या यही नहीं है!
डॉ. राजेश कुमार व्यास का "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" दिनांक २ अप्रैल २०१०