Monday, January 2, 2017

बचेगा वही जो रचेगा

भोर का उजास मन को गढ़ता है, कुछ रचने के लिए। पक्षियों की चहचहाट से मन उल्लसित होता बहुतेरी बार आकाष बन जाता है।...और धीरे-धीरे फैलता उजास प्रेरित करता है-नया कुछ करने के लिए। इसीलिए कहूं प्रकृति को सुनें और मन ही  मन गुनें। लगेगा आपके भीतर कोई गा रहा है। यह जो गान है, वही तो अनाहत नाद है। अंर्तध्वनि का प्रतीक! यह बजाया नहीं जाता फिर भी परमानंद के रूप में बज पड़ता है। अनाहद नाद का मूल स्त्रोत हमारी अनुभूति ही तो है। प्रकृति को महसूस करने की हमारी दृष्टि। भावात्मक होने से अव्यक्त यानी अविगत है यह। इसीलिए यह अव्यक्त है। कहा भी तो गया है, ‘अविगत गति कछु कहति न आवै।...’
जनसत्ता, २ जनवरी 2017 
संगीत के इतिहास लेखक सांबमूर्ति कहते हैं, ‘अनाहत नाद से ही निनादित है यह विष्व।’ सच ही तो कहते हैं सांब! बारिश जब होती है तो मोर बोलते हैं। कोयल गाती है। चिड़ियाएं चहचहाती हैं। प्रकृति तब बहुतेरी बार मौन में भी संगीत का आस्वाद कराती है। साहित्य, संगीत, नृत्य की कलाएं प्रकृति के इन गुणों से ही तो पल्लवित-पुष्पित होती है।
कोई कह रहा था, एकांत नहीं सुहाता। अकेलापन काटने को दौड़ता है। इसका अर्थ उसने एकांत को जाना ही नहीं। एकांत माने एक-आप। अपने से संवाद। पर विचारेें, कभी अपने से संवाद का एकांत होता है! नही ंना? इस तकनीक आक्रांत समय में तो हम अपने से दूर और दूर हुए जा रहे हैं।...और इसी से सर्जना से भी हो रहे हैं विलग। साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकलाओं का जन्म आपके भीतर के एकांत से होता है। एकांत प्रकृति से प्रेरणा ग्रहण करता है। इसीलिए कभी यह भी जरूरी है कि आप अपने आप से भी मिलें। 
हमारे यहां कलाएं शरण्य ही नहीं हैं, आश्रय भी हैं। अपने आपको अभिव्यक्त करने का माध्यम। इनमें तैरा जा सकता है। सच्ची कला आपको वहां ले जाती है जहां आप पहले कभी न गए हों।...भले कईं बार वह जानी-पहचानी जगह पर भी ले जाती है परन्तु तब उस स्थान को अप्रत्याशित ढंग से देखने के लिए वह आपको विचलित भी करती है। 
लो वह जो पुराना था, बीत रहा है। नया साल प्रारंभ हो गया है। अनवरत चलती है समय की घड़ी। काल चक्र के पहियों पर किसका जोर! समय घड़ी के सूईयों पर नजर डालते हैं तो पाते हैं बीते ने बहुत कुछ दिया है तो हमसे बहुत कुछ लिया भी है। इस नये वर्ष में संकल्प लें कि भीतर के मौन को स्वर देंगे। विचारेंगे, जो आज है वह कल नहीं होगा। तब क्या यह जो आज है वह क्या हमारी परम्परा नहीं बन जाएगा! मन इस परम्परा में ही है। चित्रकारों की चित्रकृतियों की परम्परा में, नृत्य की, नाट्य की, संगीत की हमारी परम्परा में। हम जितना उन परम्पराओं में जाते हैं, उतना ही पुनर्नवा होते हैं। अंदर का हमारा जो रीता है, वह भरता है। यह परम्परा ही है जो अतीत को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य से जोड़ती है। सामाजिक जीवन को इसी से तो निरंतरता मिलती है। 
रोज नया सूर्य उगता है। एमिली डिकिन्सन की बेहद खूबसूरत सी एक कविता है, ‘दिस इज माई लेटर टू दी वल्र्ड..’। वह कहती हैं मैं कविता नहीं कर रही। यह तो बहुत जरूरी, निहायत जरूरी चिट्ठी है मेरी-दुनिया के नाम...जिसे लिखे बिना मैं रह नहीं सकती-भले दुनिया उसे समझे न समझे, भले दुनिया को उसे पढ़ने की फुरसत हो, न हो।’ एमिली कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह रही है। कह क्या रही है, हममें जैसे प्रवेश कर रही है। यही तो संप्रेषण की उसकी कला है। सच्ची कला कल्पना और अनुभूति का ही तो संयोजन है। एक तरह से कल्पना प्रवण भावुकता के दौर में आए एक संवेदनशील मस्तिष्क की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति। 
इस मूल्यमूढ़ समय में नए माध्यमों में हमारी अपनी पहचान और भीतर की खोज का उन्मेष जगाती हैं कलाएं। इसलिए कि वे समयातीत हैं। यह कलाएं ही हैं जिनके सरोकार उत्तरोतर विराट् और व्यापक होने की सामथ्र्य रखते हैं। परम्परा के पोषण और परस्परता में वे निरंतर फलती है, सांमजस्य भाव पैदा करते। विग्रह के लिए वहां कोई अवकाष नहीं है। आत्म को व्यक्त करने का माध्यम हैं कलाएं। 
आईए, बीते वक्त की तमाम कड़वाहटों को भुलाते, अच्छाईयों को याद करते साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्र कृतियों की कलाओं मे रमें। उन्हें अपने भीतर की सर्जना से रचें। हर दिन नया आसमान छूएं। अपना नया आकाश बनाएं।...बचेगा वही जो रचेगा। यह आकाश ही तो है जिसमें कुछ नहीं रहता और सब भरा रहता है।