Friday, June 27, 2014

प्रकृति बिम्बों का स्मृति राग


प्रेम सिंह चारण की कलाकृति 
कला देखे या सीखे की नकल भर नहीं होती। कलाकार जो कुछ देखता है, अनुभूत करता है उसे कला में अपने तई मौलिक दीठ से अंवेरता है। इसीलिए कहें, कला पुनर्सजन है। रूपान्तरण। कैनवस पर स्वानुभूति को रूपायित करते कलाकार दृश्य को अदृश्य, अदृश्य को दृश्य में रूपान्तरित ही तो करता है! इसीलिए कहें, कला स्व का विस्तार है। कला का सच है, ‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः।’ माने क्षण क्षण में जो नूतन जान पड़े, वही रमणीय है। कोई कलाकृति आप देखते हैं। मन करता है, फिर से देखें। कोई एक दृश्य उसका औचक याद आता है। यही नूतनता है। कलाकृति की श्रेष्ठता का पैमाना भी। 
अभी बहुत दिन नहीं हुए, कैलिफोर्निया में विश्व के 13 प्रकृति चित्र चितेरों की कला प्रदर्शनी का आयोजन हुआ। भारतीय चितेरों में वहां जयपुर के प्रेमसिंह चारण के चित्र भी थे। उसके चित्र देखे पहले भी हैं परन्तु इस बार जब फिर से देखा तो उनमें व्याप्त नूतनता ने मन को गहरे से मथा भी। लगा अंतर्जगत अमूर्त में प्रकृति से वह गहरे से अपनापा कराता है।  स्मृतियों का अनूठा लोक जो वहां लहराता है! तमाम उसके चित्रों के केन्द्र का रंग नीला है। नीला आकाश, समुद्र और निलेपन में बसा धरती का हरापन। रेखाओं के गत्यात्मक प्रवाह में वह स्थानों की भौगोलिकता को प्रकृति से जुड़े बिम्बों में अनूठी सौन्दर्य लय देता है। कलाकृतियों में रंग है तो वह पोते हुए नहीं उड़ेले हुए से। 

प्रेम सिंह चारण की कलाकृति 
स्मृतियों के भव में कहीं शहर है तो कहीं छवियों के अपनापे में रंग-रेखाओं की सांगीतिक लय। तमाम उसके चित्रों में वृहद विषयों को प्राकृतिक संरचनाआंे में रूपान्तरित करते थोड़े में जैसे बहुत कुछ ध्वनित किया गया है। यही उसके चित्रों सौन्दर्य की सीर है। क्षण-क्षण में रमणीय प्रतीत होती। मुझे लगता है, रेत के समन्दर का यह वासी समुद्र जल की लहरों के हेत से गहरे से जुड़ा है। इसीलिए तो आसमान की परछाई से नीली हुई लहरों का हेत उसके लगभग सभी चित्रो में ठौड़-ठौड़ बसा है। आकृतियां चित्रो में है तो स्मृतियों का राग सुनाती हुई। एक चित्र में लड़की की मुखाकृति का आभास है पर वहां चिडि़या, उड़ान और रंगो की सौरम में संवेदन मन भी जैसे ध्वनित हो रहा है। पाॅल गौगाॅं याद आते है, ‘मैं आंखे बंद  कर लेता हूं ताकि देख सकूं।’ 
बहरहाल प्रेमसिंह के चित्र रंगाच्छादन की नई दीठ लिए है। बहते हुए रंगों में वह अतीत को इनमें बुनते हैं। धवल, धूसर में समृद्ध उसका कैनवस यादों को इस फुटरापे में उकेरता है कि मन करता है, उसके चित्रों में बसे। उनमें रमें। यह लिख रहा हूं और उसका कैनवस मन को मथने लगा है। सागर की लहरों मानिंद बहते आ रहे पानी के दृश्य बिम्ब। पेड़, पहाड़, घर, सीढि़यां, उगी हुई घास और दृश्य विभाजन की कंटीली बाड़। प्रकृति बिम्बों की यह भाषा बंचाता प्रेमसिंह का कैनवस स्मृतियों का राग ही तो है!

Friday, June 20, 2014

शिव का नृत्यधाम कैलाश-मानसरोवर


यह समय कैलाश-मानसरोवर यात्रा का है। सृष्टि विधान रूप में संगीत और नृत्य के आदिदेव भगवान शिव का नृत्य स्थल। कहते हैं, पहली बार शिव का महानृत्य कैलाश पर्वत पर ही हुआ। और तब से जगत रक्षा के लिए हर सांझ इस पर्वत पर ही होता है शिव का नृत्य। 

कम प्रकाश में नृत्य की कल्पना नहीं की जा सकती फिर भी शिव ने नृत्य के लिए अंधेरे की ओर गमन करती संध्या को ही चुना। पर अंधेरा प्रकाशित किससे होता है? शिव से ही तो! कल्पना करता हूं, कैलास पर रत्नजडि़त सिंहासन पर जगज्जननी उमा विराज रही है। वाग्देवी की वीणा झंकृत हो उठी है। और लो, इंद्र ने मुरली भी बजा दी। विष्णु मृदंग और ब्रह्मा करतल से दे रहे हैं ताल। भगवती रमा गा रही है। चन्द्रमा धारण किए डमरू बजाते शिव का नृत्य प्रारंभ हो गया। चहुं ओर भ्रमण करते तारों के साथ घूमने लगा आकाश।  यही तो है, शिव का तेजोमय कला रूप! तो बताईए, उनके नृत्य में और प्रकाश की क्या दरकार! यूं शिव रोद्र रूप है पर सांध्यनृत्य सौम्य और मनोरम। शिव ताण्डव स्त्रोत में रावण की व्यंजना है, ‘धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान शंकर की जय हो!’ सोचता हूं, नृत्यनाट्य के मूल स्तम्भ ही तो हैं भगवान शिव। नटराज प्रतिमाओं का बाहुल्य दक्षिण में है। शायद इसीलिए नटराज की परिकल्पना वहां से मानी जाती है। पर शिव नृत्य के इस रूप का प्रथम स्थल तो कैलाश ही है। 

कन्हैयालाल वर्मा की कलाकृति 
यह विडम्बना नहीं तो और क्या है? जिस नटराज रूप का उद्गम कैलाश से है, वह हमारे देश में नहीं परदेश में है। यह सही है, राजनीतिक दृष्टि से तिब्बत कभी चीन का हिस्सा नहीं रहा। परम्पराओं और संस्कृति में तिब्बत भारत से जुड़ा रहा है। नई दिल्ली में 1947 में एफ्रो-एशियाई सम्मेलन में तिब्बत स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर ही आया था। नेहरूजी की भयंकर भूल की परिणति अभी तक देश भोग रहा है। लोहियाजी तो कहते भी रहे, ‘तिब्बत आजाद रहता तो हम अपने कैलाश-मानसरोवर इलाके को, जो कभी हिंदुस्तान का राजकीय हिस्सा था, उसे तिब्बत की रखवाली में रख सकते थे।’ चीन ने दुनिया की छत तिब्बत को तो हड़पा ही, हमारी आस्था पर भी प्रहार करते 1962 में कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर रोक भी लगा दी। पर 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने यात्रा खोलने के लिए पहल की। यात्रा तो खुल गई पर संकटो से सदा ही घिरी भी रही। उम्मीद कर सकते हैं, नई सरकार भगवान शिव के सांध्य नृत्य स्थल कैलाश-मानसरोवर की यात्रा बाधाएं दूर कर इसे हर आम और खास के लिए सुगम करेगी। आखिर हमारी आस्था और संस्कृति की जड़ें कैलाश-मानसरोवर में ही तो है। यह यात्रा नहीं अर्न्‍तयात्रा है। शास्वत। अनवरत! 

Tuesday, June 17, 2014

कविताएं







मोक्ष पर्व

पहाड से बिछुड़
रो रहा जल,
अजस्त्र स्त्रोतों से
बहाती नीर
नदी मिल रही
सागर में।
समुद्र ही तो है
बहते पानी के
बंधन का-
मोक्ष पर्व!

ममेतर
तुम थे,
तो था
मैं,
और-
मेरा यह ममेतर!

भोर की नींद

उंघता सन्नाटा
बुन रहा-
उनके होने की ठौड़।
चुपचाप
बर्तन में उड़ेलकर दूध
चला गया दूधिया
कराते हुए
उनके न होने का अहसास।
पिता होते तो
रोबदार आवाज
करती नींद में खलल।
भले सामने कुछ नहीं कह पाते
पर
मन में पलता जल्दी उठा देने का रोश।
अब जबकि-
नहीं है पिता
लापता है,

भोर की वह नींद।

Friday, June 13, 2014

कला मर्मज्ञ केशव मलिक का यह बिछोह


डेली न्यूज़ , 13 जून 2014  
कलाएं मन को रंजित करती है। पर कलाकृति के विश्लेषण का आधार मन का रंजित होना ही नहीं है। विश्लेषण में यह देखना भी होता है कि उसके यथार्थ के निहितार्थ क्या हैं? यह भी कि प्रामाणिकता के साथ उसके समय संदर्भ क्या है और यह भी कि कलाकार के आत्मगत तरीके के सौन्दर्य प्रतिमान वहां किस तरह के हैं। कहें, यह कला समीक्षक ही है जो दिख रहे के परे के संसार को भी अपनी दीठ देता है। अपने तई कलाकृति में रमता है-बसता है और फिर उसकी वस्तुपरकता में अपने को व्यंजित करता है। शायद इसीलिए समीक्षा को रचना के समानान्तर और बहुत से स्तरों पर तो रचना से भी बड़ा माना गया है। पर मुझे लगता है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में कलाकृतियों के मूल्यांकन का रिवाज सही ढंग से अभी हमारे यहां बना ही नहीं है। समीक्षा के विश्लेषण मानदंड पश्चिम प्रेरित जो हैं! 

केशव मलिक ( 1924 -2014 )
भारतीय दीठ से कला समीक्षा के नए मानदंड स्थापित करने वालों में से एक कला मर्मज्ञ केशव मलिक बुधवार को काल कवलित हो गए। दिल्ली से लेखक मित्रों ने दूरभाष पर यह जानकारी दी। लगा, कोई अपना चला गया। आखिर हूं तो उनकी बिरादरी का ही!  गुरूवार को अखबार टटोले। सोचा, जिसने सदा ही दूसरों पर लिखा, कुछ उन पर भी लिखा मिलेगा पर निराशा ही हुई। हिन्दी अखबारों में उनके नहीं होने का समाचार ही नहीं था। समय का यही सच है। यहां हाजिर की हांती है। आप जब तक परिदृश्य में है, तभी तक खैर-खबर की कुछ गुंजाईश है!

केशव मलिक कलाकार की आत्मवृद्धि के जबरदस्त हिमायती थे। कलाकार कैसे कलाकृति में अपने को संबोधित करता है, इसके लिए कौनसे मानदंड अपनाता है और भीतर का उसका सौन्दर्यबोध क्या है? इनको अंवेरते हुए ही उन्होंने सदा कला समीक्षाएं लिखी। बाजार की अंधी प्रतिस्पद्र्धा को लेकर जब-तब वह अपने लिखे में मुखर भी रहे। याद पड़ता है, कभी बीकानेर के किले और हवेलियों में चित्रित कलाकृतियों पर उन्होंने सधा हुआ लिखा था। और, यह उनके लिखे की विशेषता ही थी कि उसमें कला का सौन्दर्यशास्त्रीय पक्ष ही नहीं बल्कि काल विशेष के जीवन यथार्थ पहलुओं का भी सांगोपांग विवेचन मिलेगा।

बहरहाल, कवि, कला समीक्षक केशव मलिक 5 नवम्बर 1924 को पंजाब के मियानी गांव में (अब पाकिस्तान) जन्में। कला विदूषी कपिला वात्स्यायन उनकी बहन है। उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री और ललित कला अकादेमी ने अकादमी का आजीवन फैलो मनोनीत किया था। संगीता गुप्ता ने उन पर एक फिल्म ‘केशव मलिक: द ट्रूथ आॅफ आर्ट’ भी बनायी। पर कलाकारों पर हजारों पन्ने लिखने वाली उस सख्शियत की कूंत यह है कि कलाकारों ने उनके जाने पर कोई नोटिस ही नहीं लिया। कवि नंद चतुर्वेदी का लिखा याद आ रहा है, ‘यह समय मामूली नहीं।’ 

Friday, June 6, 2014

अनुभूतियों का सौन्दर्यान्वेषण


अंजनी रेड्डी की कलाकृति 
चित्रकला मन की भाषा है। संवेदनाओं से रचा आकाश! अनुभूतियों के गान में वहां स्मृतियां झिलमिलाती है। राजा वर्मा ने पौराणिक, ऐतिहासिक चरित्रों को कभी मन की आंख से अनुभूत किया था। शिव, पार्वती, राम, कृष्ण और दूसरे देवी-देवताओं को जैसा उन्होंने दिखलाया, वही बाद में हमारा सच बन गया। उनसे इतर यदि कहीं कुछ बनता है तो मन विश्वास नहीं करता। तो क्या यह मानें, रवि वर्मा ने देवी-देवताओं को साक्षात् देखा था!
बहरहाल, कलाकार सर्जक है। वह छवियों का संसार ही तो रचता है। यह जब लिख रहा हूं, देश की ख्यातनाम कलाकार अंजनी रेड्डी के चित्र ज़हन में कौंध रहे हैं। नारी संसार का जिस संवेदना से उन्होंने अंकन किया है, वह इधर दुर्लभ प्रायः है। स्मृतियों का भव रचते वह कैनवस पर नारी जीवन को सांगोपांग रूप मंे व्यंजित करती है। वहां स्वप्न है, यथार्थ है, प्रकृति है और है सौन्दर्यनुभूतियों की अनुठी लय। गहरे हरे, काले, पीले, नीले, लाल रंगो में रेखाओं की लय में वह रंगो का छंद रचती है। एक चित्र है जिसमें महिलाएं चैसर खेल रही है, और एक है जिसमें  लड़की तन्मय होकर हारमोनियम बजा रही है। ऐसे ही कुछ और चित्र नहीं, चित्र कोलाज हैं। सौन्दर्य से जुड़ी संवेदना को इनमें वह रंग रेखाओं में जैसे चलायमान करती है। जीवंत! दिन-प्रतिदिन के जीवन के यह एक तरह से दृश्यालेख हैं। कहीं कोई औरत एकान्त में अपने में खोई है तो कहीं कोई सोई हुई भी स्वपन्न में जैसे जीवन को बुन रही है। पर मूल बात है, उनकी दृश्य लय। तमाम नारी पात्रों के चेहरे ऐसे हैं, जैसे हमारे आस-पास से ही चेहरे लिए हुए हैं। ऐसे जिनमें अपनापे की मिठास है। 
रेखाओं में कोमलता के साथ ही गत्यात्मकता का प्रवाह है। रंग जैसे रेखाओं में गहरे से घुले हुए स्मृतियों का राग रच रहे हैं। इसीलिए अंजनीजी के तमाम चित्र भाव भंगिमाओ और दृश्य रूपों का एक तरह से सौन्दर्यान्वेषण है। खास बात यह कि वहां भारतीय लघु चित्रकला है, लोक और आदिवासी कला की छोंक है तो राजस्थानी परिवेश का अपनापा भी है। राजा रवि वर्मा की मानिंद आकृतियों का सुगठित संयोजन वहां है। रूपकों के जरिए वह दृश्य से जुड़ा तमाम परिवेश उद्घाटित करती है। माने कोई चित्र है तो वहां जो कुछ दिख रहा है, वही नहीं बल्कि उसमें निहित पर भी मन जाता है। इसीलिए कहें, चित्र नहीं रंग और रेखाओं में वहां कहानियां, वृतान्त सुने और बांचे जा सकते है। बस ठहरकर देखने भर की देर है। स्मृतियों और अनुभूतियांे की राग का आलाप सुनाई देने लगेगा। कुछ देर और ठहरेंगे तो रंग रेखाओं की लय हममें बसने लगेगी। कहें, अंजनीजी के चित्र रंग और रेखाओं में नारी जीवन का मधुर गान है।