Saturday, September 29, 2012

कहन की दृष्यकला


समाचारों की मूक भाषा है फोटो पत्रकारिता। कहें, कहन की दृष्य कला। इस कला में तकनीक ही महत्वपूर्ण नहीं है, छायाकार की छायांकन दीठ भी खास महत्व रखती है। कल्पनाषीलता के साथ घटना, दृष्य का वहां दर्षाव जो होता है। मुझे लगता है, दृष्य को पकड़ते बहुतेरी बार फोटो पत्रकार उस निःसंग को भी पकड़ता है जिसमें मौन भी बोलने लगता है और तब हजारों-हजार शब्दों में जो नहीं कह सकते, वह एक छायाचित्र कह देता है। 
पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र की  कला दीर्घा में फोटो जर्नलिस्ट सोसायटी की सामुहिक प्रदर्षनी ‘इमेजिन’ में प्रदर्शित छाया चित्रों  का आस्वाद करते यही सब अनुभूत हो रहा था। खास बात यह थी कि कलादीर्घा में छायाचित्र टंगे हुए नहीं थे, बल्कि ईजल पर रखे अपनी ओर जैसे आमंत्रित कर रहे थे। प्रदर्षन के साथ छायाचित्रों के कला सरोकारों पर जाते औचक यह भी लगा कि यह फोटो पत्रकार ही हैं जो क्षण के अपूर्व को पकड़ उसे सदा के लिये स्मरणीय बना देता है। समाचारों को पत्र-पत्रिका में पढ़ना नहीं, देखना संभव आखिर फोटो पत्रकार ही तो कराता है।
बहरहाल, ‘इमेजिन’ के छायाचित्र आंखों में बसने वाले थे। कल्पना और संवेदना की गहरी दीठ लिये। मसलन वहां प्रदर्शित रावण हत्था बजाते एक वृद्ध ग्रामीण की तस्वीर। छायाकार राजदीप का यह पोट्र्रेट पूरी दीर्घा में जैसे आपसे संवाद करता है। तस्वीर में बुजुर्ग की आंखे, उसकी भंगिमा, चेहरे की झुर्रियां और संगीत सृजन में निहित उसकी संवेदना की रागात्कता-सभी कुछ इस कदर भावपूर्ण है कि इस देखे हुए को गहरे से जिया जा सकता है। कहना गलत नहीं होगा कि छायाकार या चित्रकार जब कभी किसी पोट्र्रेट पर कार्य करता है तो उसमें वह चेहरे की एनाटोमी के साथ व्यक्ति के अन्र्तनिहित चरित्र को भी अपनी तई प्रस्फुटित करता है। सृजन का सर्वाधिक सुअवसर वहीं छिपा जो होता है! रोंदा का बालजाक का बनाया पोट्र्रेट, हुकुषाह का बनाया महात्मा गाँधी  का रेखांकन, एप्सराईन का बनाया बर्नाड शाॅ का चित्र और षिल्पकार-चित्रकार रामकिंकर बैज के बनाए बहुतेरे पोट्र्रेट ऐसे ही तो हैं जिनमें चेहरे के बहाने व्यक्ति के चरित्र का सांगोपांग चितराम है। वहां देखे हुए को आसानी से पढ़ा जा सकता है।
फोटो पत्रकार भी तो यही करता है, वह बहुतेरी बार किसी व्यक्ति विषेष के चेहरे की भंगिमाओं के बहाने उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को हमारे समक्ष उद्घाटित कर देता है। इसीलिये शब्दों की बजाय तस्वीर आंकने का उसका कर्म वहां अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। छायाचित्र प्रदर्षनी में एक छायाचित्र है जिसमें पुरूषोतम दिवाकर ने हिरणों के षिकार के दौरान पकड़े गये सिने अभिनेता सलमान के तनाव भरे चेहरे को अपनी छाया दृष्टि दी है। स्थिति-परिस्थिति के साथ कैसे मानवीय संवेदनाओं के सरोकार बदलते हैं, इसे इसमें गहरे से व्यंजित किया गया है। ऐसा ही एक छायाचित्र पदम सैनी का है, जिसमें शेर की शांत मुद्रा के समक्ष चील की ललकार के तेवराना अंदाज है। कोई एक क्षण होता है, जब इस तरह के दृष्य से हम रू-ब-रू होते हैं और उस क्षण के महत्व को छायाकार की संवेदन कला से ऐसे ही समझा जा सकता है। रामजी व्यास के एक छायाचित्र में महिला बच्चे के साथ हिरण के बच्चे को भी अपने स्तन से दूध पिलाती दिखाई दे रही है तो  समुद्र, नाव और मछुआरों के जीवन से सरोकार कराता लीला दिवाकर का चित्र भी आंखों में बसता है। छायाचित्र और भी हैं, जिनमें दीपक शर्मा, दिनेष गुप्ता, सलीम शेरी, राकेष ने हिंसा, प्रदर्षन के दौरान पानी की छोड़ी बोछार का क्षणांस, ग्रामीण जीवन के चितराम, ग्लेमर से जुडे जीवनानुभव, सूर्यग्रहण, आदिवासी नृत्य, वन एवं वन्यजीव और रोजमर्रा की घटनाओं के साथ एब्स्ट्रेक्ट में कोई अनूठा, अद्भुत पल अपनी अंतर्मन संवेदना से संजोया गया है। 
छायांकन बीते हुए को याद कराने की अद्भुत कला है। ऐसी जिसमें जो कुछ दिख रहा है, वही नहीं बल्कि उससे परे के अदृष्य को भी हम देख सकते हैं। पढ़ सकते हैं। आखिर ऐसे ही तो नहीं कहा गया है, एक छायाचित्र हजारों-हजार शब्दों से भी कहीं अधिक मुखर होता है!

Sunday, September 23, 2012

छायाचित्रों का समय प्रवाह


फोटोग्राफी अतीत से अपनापा कराती कला हैं। क्षण जो बीत गया है, उससे प्रभावी संवाद आखिर छायाचित्र ही तो कराते हैं। कहूं, अतीत वहां विगत नहीं बल्कि समय के प्रवाह के रूप में हमारे समक्ष उद्घाटित होता है। बहुतेरी बार यूं भी लगता है कि छायाचित्र भिन्न भिन्न कालखंडो की रूप-गोठ है। माने समय के कोलाज। ऐसा कोलाज जहां स्मृतियां स्पन्दित होती है, पुराने दृष्य जीवित होते हैं। 
बहरहाल, कुछ दिन पहले एम.एन.आई.टी. स्थापना दिवस पर बहुत सारे आयोजन हुए। उनमें एक बीते दिनों की स्मृतियों को हरा करने वाली छायाचित्र प्रदर्षनी भी थी।
 छायाचित्र कला में रमते, उसी में अपना आपा तलाषने वाले छाया चित्रकार महेष स्वामी ने आग्रह कर प्रदर्षनी अवलोकन की नूंत दी तब मन में कुछ पूर्वाग्रह थे। इस बात को लेकर कि वहां नया क्या होगा! वही इन्स्टीट्यूट स्थापना और बाद के कुछ आयोजनो के फोटो ही तो होंगें। परन्तु जब छायाचित्रांे का आस्वाद किया तो प्रदर्षित छायाचित्रों की समय संवेदन दृष्टि ने सोच की नयी दीठ भी दी। लगा, छायाचित्र स्मृतियों के साथ अपने भीतर की भूलभुल्लैयों में भटकने का लूंठा-अलूंठा लेखा है। वहां दूसरों का अतीत आपको अपने अतीत में झांकने का अवसर भी देता है। भले छायाचित्रों में चीजें, स्थान और घटनाएं स्थिर हों परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं को वे चलायमान करती है। एम.एन.आई.टी स्थापना, बाद के आयोजनों और वहां पढ़ने वालों की गतिविधियों से जुड़े बहुतेरे चित्रों में औचक एक उस चित्र पर नजर ठहर जाती है जिसमें दूर तक विराने के बीच बिखरी पड़ी इंटे पड़ी है। उजाड़ में निर्माण की आहट सुनाती। ऐसे ही एक में मदनमोहन मालवीय दिखाई दे रहे हैं, जिनकी स्मृति मंे इस संस्थान की स्थापना का आगाज हुआ है तो कुछ में किसी एक बैच का समूह चित्र और उसमें झांकते चेहरों का उजास दिख रहा है। संस्थान की खेल, षिक्षण गतिविधियों के साथ समय प्रवाह में बैच मिलन के वह चित्र भी हैं जिनमें समय के धूंधलेपन को हटाता अचरज और बरसों बिछोह के बाद मिलन के सुख को संजोया गया है।
बीते कल के साथ आज के भी कुछ चित्र हैं-संगीत की सुरमयी सांझ के, पेड़ की छांव तले सुस्ताते छात्रों के और फोटोग्राफी क्लब से जुड़ी छायाचित्र कला के। सभी में छायाचित्र कला की सूक्ष्म संवेदात्मक दृष्टि है। इन्हें देखते यह अहसास भी बार-बार हुआ कि यह फोटोग्राफी ही है जो माध्यम, चीजों, तथ्यों, घटनाओं और प्राकृतिक आभाष को दिखाते इन सबकी अनुभूतियों से भी हमें सराबोर करती है। यह भी कि कैमरानुमी यंत्र समय का अपने तई सृजन की दीठ से पुनराविष्कार करता है तो प्रकृति, घटनाएं, तथ्य और चीजें एक खास ढंग में रूपान्तरित होकर हमारे समक्ष उद्घाटित होती है। हमारे अवचेतन मन को झिंझोडती है और दिख रहे दृष्य के साथ देखने वाले की स्मृतियों का वातायन भी खोल देती है। महेष स्वामी छायाकला की गहरी संवेदन दीठ लिये रचनाकार हैं। छायाचित्र प्रदर्षनी अवलोकन करते ही पता चला कि यह उनकी ही परिकल्पना थी कि एमएनआईटी गोल्डन जुबली समारोह में पृथक से एक फोटो प्रदर्षनी भी हो। उनकी सूझ ही कहूंगा कि प्रदर्षित छायाचित्रों में अतीत से जुड़ी यादों के श्वेत-ष्याम चित्रों का भी डिजिटिलाईजेषन कर उन्हें इस खूबसूरती से फ्रेमिंग कर प्रस्तुत किया गया था कि समय संवेदना से जुड़ विगत वर्तमान में जीवन्त हो गया था।
निर्मल वर्मा का लिखा याद आ रहा है, ‘स्मृति की यह विषेषता ही है कि वह अपने पीछे कोई पदचिन्ह नहीं छोड़ जाती-वह स्वयं पद चिन्ह बन जाती है, परम्परा का मतलब इन पदचिन्हों पर चलकर उस वर्तमान को परिभाषित करना है जहां मनुष्य आज जीवित है।’ उनके कहे में यह मिलाने की धृष्टता कर देता हूं कि छायाचित्र स्मृति के वह पद चिन्ह हैं जो समय प्रवाह को रेखांकित करते हमारी स्मृतियों को अलंकृत कर उसे वर्तमान से जोड़ते हैं। आप क्या कहेंगे!


"डेली न्यूज़" में प्रति सप्ताह शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" दिनांक 21.9.2012

Saturday, September 15, 2012

मांड में संस्कृति का उजास


मधुर और श्रृंगारिक राग है मांड। आरोह-अवरोह में वक्र सम्पूर्ण राग। समय का कहीं कोई बंधन नहीं। जब चाहे, तब गायें। संगीत की विष्णु नारायण भातखंडे की परम्परा की मानें तो मांड राग बिलावल थाट में आता है परन्तु सुनते हैं तो मांड का लोक संगीत मिश्र राग में ध्वनित होता लगेगा। स्व. अल्लाह जिलाई बाई का ‘पधारो म्हारे देस...’ तो का पर्याय ही हो गया है। उनके स्वर माधुर्य में न जाने कितनी बार इसे सुना और हर बार सुनने का सर्वथा नया आनंद मिला। 
मांड को यहां याद करने की वजह है, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में संगीत नाटक अकादेमी द्वारा आयोजित मांड समारोह। इसमें मांड गायकी पर व्याख्यान भी हुए और कलाकारों ने मांड के भिन्न रूप भी प्रस्तुत किये। मांड सुनने का हाल यह था कि लगातार तीन दिन प्रेक्षागृह श्रोताओं से खचाखच भरा रहा। माने लोक संगीत की जड़ें अभी भी हरी है। आखिर यह लोक संगीत ही है जो सहज मानवीय संवेदना से जोड़ता हमें अपने आपे से रू-ब-रू कराता है। और मांड तो राजस्थान के लोक का आलोक है। 
लोकगीत की स्वर लहरियों में निषाद का प्रयोग भी मांड में गजब का होता है। अल्लाह जिलाई बाई, गवरी देवी, मांगी बाई की निषाद प्रयोग की मांड सुनते गले का उनका कंपन मन में गहरे से बस जाता है। जवाहर कला केन्द्र में ‘महला री खिड़की खोलो..., ‘जला रे...’छप्पड़ पुराणा पड़ग्या, तिड़कन लाग्या बांस...’ मांड सुनते मन में यह खयाल भी बार-बार आ रहा था कि यही वह लोक संगीत है जिसमें बिछोह, श्रृंगार, सौन्दर्य के भाव गहरे से सजते हैं। सुनने के बाद भी गान से हम उबर ही कहां पाते हैं!
बहरहाल, यह मांड ही है जिसमें राजस्थान के विभिन्न अंचल अपनी संस्कृति में ध्वनित होते है। माने बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, सीकर, उदयपुर, जोधपुर की मांड गायकी में स्थान-विषेष के लोगों के रीत-रिवाज और संस्कृति के साथ ही वहां की बोली की झलक भी अलग से ध्यान खींचती है। मांड के माधुर्य में रमते ही कभी राजा-महाराजाओं ने रियासतों में गुणीजन खानों की स्थापना कर वहां बाकायदा मांड के प्रषिक्षण की भी पहल की। बीकानेर और जोधपुर के गुणीजनखानों से ही अल्लाहजिलाई बाई और गवरी देवी सरीखी स्वर कोकिलाएं हमें मिली। मारवाड़-मेवाड़ की मांड गायकी का अपना अंदाज है। अरसा पहले उदयपुर की ख्यात मांड गायिका मांगीबाई से जयपुर में ही लम्बा संवाद हुआ था तब उन्हें सुना भी था। याद पड़ता है, अस्सी पार मांगीबाई ने ‘बायरियो’ सुनाया था। उनके कंठ माधुर्य में मेवाड़ी संस्कृति का उजास भी जैसे दिखाई दे रहा था। अल्लाहजिलाई बाई ‘पधारो म्हारे देस...’गाती तो पावणों की मेजबानी की राजस्थानी संस्कृति के दृष्य चितराम भी अनायास आंखों के सामने घुमने लगते हैं। ‘सुपनो,’ ‘हेलो, ‘जल्ला’, ’ओळ्यू’, ‘कलाली’, ‘कुरंजा’ गीतों को सुनेंगे तो राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगेगी। यही तो है लोक का वह माधुर्य जिसमें सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है। 
यूं शब्द व्याख्या करेंगे तो मांड का सामान्य अर्थ होगा-मांडना, अंकित करना। मांड सुनते हैं तो गान के सुर मन में कहीं गहरे से अंकित ही तो होते हैं। आखिर ऐसे ही तो अंकित नहीं है मन में लोक गायिका धीरा सेन की वह मधुर गायकी। याद पड़ता है, वह काॅलेज के दिन हुआ करते थे। तब आकाषवाणी बीकानेर में अस्थायी उद्घोषक का कार्य भी करता था। राजस्थानी लोकगीतों का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुंजे गांव गुवाड़’ प्रस्तुत करते हर सप्ताह उसकी शुरूआत धीरा सेन के ‘काळो जी काळो, कईं करो सहेल्या ए...’ से ही करता। इस लोकगीत में ‘उभण तो उजास बरण्यो, गांया रा गुवाड़ चाल्या, पंछिड़ा महाराज चाल्या..’ बोल सुन सब कुछ भूल जाता। आंखों के सामने गांव के गोबर लीपे घरों की ओर लौटती धूल उड़ाती गायों के दृष्य और एक अजीब सा अपनापा तैर जाता। बनावटी रहित परिवेष का अपनापा।... असल संगीत यही तो है। अपने आपे से साक्षात् आखिर इस सगीत के उजास से ही तो हो सकता है! 


Friday, September 7, 2012

दृष्य यथार्थ में अंतर्मन संवेदना के बिम्ब


कलाकारों से बिछोह का यह दुखद काल है। कुछेक वर्षों के अंतराल में ही कृपालसिंह शेखावत, द्वारकाप्रसाद शर्मा, ज्योतिस्वरूप, डॉ. प्रेमचन्द गोस्वामी, सुमहेन्द्र और कुछ दिन पहले पी.एन. चोयल जैसे कला स्तम्भ हमें छोड़कर चले गये। मुझे लगता है, इनके साथ ही राजस्थान की कला के जैसे एक युग का अवसान हो गया है। पी.एन. चोयल राजस्थान के ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपने दौर में चित्रकला में नवीनता का सूत्रपात किया। यह नवीनता कैनवस पर फॉर्म को लेकर ही नहीं थी बल्कि इतिहास, संस्कृति और सभ्यता के नए सृजन संदर्भ लिये थी। कभी अपने चित्रों को उन्होंने ‘फोटो रियलिज्म’ की संज्ञा दी थी। शायद इसलिये कि अपने उकेरे चित्रों में वह दृष्य यथार्थ के साथ अंतर्मन संवेदनाओं के गहरे बिम्ब रखते थे। खैर, यह उनके कार्य के आरंभ के दिनों की बात है। बाद के उनके काम को देखंे तो यह सहसा ही यह अहसास होता है कि चोयल के चित्र संरचना और रूपाकारों में देष की कला धारा से सर्वथा पृथक अपनी मौलिक पहचान लिये थे। उनके चित्रों में वाष और टेम्परा की एप्रोच भले रही हो परन्तु जड़त्व से मुक्त उन्होंने अपने तई चित्रों की नई शैली ही एक प्रकार से विकसित की। यह शैली ऐसी थी जिसमें रेखीय न्यूवता में धुमिल होते रंगो में स्मृतियों, भीतर की सोच और अनुभवों का अनूठ ताना-बाना कैनवस को समृद्ध करता था।
पी.एन. चोयल की कलाकृतियां देखता हूं तो औचक यह विचार भी जेहन में कौंधता है कि रूप-अरूप, अंतरंग-बहिरंग से परे वह जो बनाते थे उसमें देखे हुए यथार्थ के साथ कहन का वह मुहावरा था जिसमें चित्र धुंआ-धुंआ होते परिवेष में देखने वाले की सोच में रच-बस जाता। भैंसो की उनकी चित्र श्रृंखला को ही लें। भैंसों की शरीर संरचना के साथ उनकी गति, मस्ती और विचरण की आवारगी के कोलाज मन में इस कदर बस जाते है ंकि एक बार नहीं, बार-बार उन्हें देखने का मन करता है। भैसों के चित्र ही क्यों, आकृतिमूलक उनके तमाम जो दूसरे चित्र हैं उनमें अनुभव और स्मृतियों का अपनापा गहरे से ध्वनित होता है। इसीलिये कि वहां दृष्य यथार्थ की बजाय सौन्दर्य की कला दीठ सर्जक बनी है। उनके चित्रों में स्वयं उनकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट के साथ ही समय से उपजे तनावों को भी स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। कभी उन्होंने अपनी एक कलाकृति में नारी देह से निकलती आग की लपटों को नियंत्रित करते घोड़े को रूपाकार दिया तो ऐसे ही ‘घुंघट’ श्रृंखला के अपने चित्रों में नारी की भोग्या स्थिति के जरिए स्त्री के देह के दर्शन को जैसे उभारा है। पौराणिक प्रसंगों के उनके चित्रों में, चाहे वह कृष्ण एवं अर्जुन संवाद हो या फिर रावण वध हो-इनके पार्श्व में नारी की दयनीय स्थिति भी अलग से उभारी दिखाई देती है।  
बहरहाल, पी.एन. चोयल ने नारी संवेदनाओं को ही अपने कैनवस पर सांगोपांग ढंग से नहीं उभारा है बल्कि उनके कैनवस में उभरी इतिहास प्रसिद्ध इमारतें भी अलग से आकृष्ट करती है। याद पड़ता है अर्सा पहले उनकी ‘परसेप्शन ऑफ चित्तौड़’ श्रृंखला चित्रों को देखते हुए मन उनमें जैसे रम सा गया था। धुंध के आवरण से धीरे-धीरे स्पष्ट होती चित्तौड़ के किले, वहां के महलों की आकृतियांे के भग्नावशेष के यथार्थ चित्रण के बावजूद उनमें कला के लोक का आलोक ऐसा है, कि मन उन आकृतियों पर ही भटकने लगता है। यह उनकी कला का वह सौन्दर्य ही तो है जो जिर्ण-शीर्ण और खंडहर होती आकृतियो में भी जैसे जान डालता है। चाक्षुस यथार्थ की उनकी कलाकृतियां में एन्द्रिक बोध होता है। रेखांकन इतना सधा हुआ कि उकेरी आकृतियां और उनका अहसास मस्तिष्क पर छा जाता है। सादगी भरे रंगों के अंतर्गत काले, भूरे, मटमैले रंगों के साथ ही उन्होंने चटख रंगों का जैसा प्रयोग किया है, उससे उनकी संवेदनाएं पूरी तरह से दर्शक के सामने उभरकर सामने आती है। यह जब लिख रहा हूं, रंगो को ब्रश से कैनवस पर लगाने की बजाय बहाकर लगाने की उनकी तकनीक से सृजित उनके बहुतेरे चित्र ही जेहन में कौंध रहे हैं।